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इंसानों की सबसे बड़ी समस्या खाकर जानवरों का भला करेंगी ये सुपर मक्खियां

जेनेटिक इंजीनियरिंग से जुड़ी एक और खबर है. मक्खियों को ज्यादा कचरा खाने के लिए तैयार किया जा रहा है. ताकि ये कचरे को लुब्रिकेंट (Lubricant), बॉयोफ्यूल (Biofuel) और जानवरों का खाना बनाने का केमिकल मुहैया करवा पाएं.

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गालों के डिंपल से लेकर खून की कोशिकाओं के आकार की जानकारी हमारे DNA में होती है. (AI से बनी सांकेत तस्वीर))

होमो सेपियंस यानी इंसान शुरुआती दिनों में शिकार करते थे. यहां-वहां से खाना जमा करके खाते थे. मरे हुए जानवरों की हड्डियां तोड़कर, बोन मैरो (Bone marrow) से पेट भरते थे. कुल-मिलाकर कुदरत के रहम-ओ-करम पर जिंदा रहते थे. फिर कुछ 11 हजार साल पहले इंसानों ने पौधे उगाना शुरू किया. खेती कर खाने का जुगाड़ निकाला. अब इंसान कुदरत से खेलने लगा था.

हम इस खेल में एक कदम आगे भी बढ़े. फरवरी, 2024 में साइंटिफिक अमेरिकन में खबर आई कि इंसानों ने एक पौधे को जेनेटिकली इंजीनियर (Genetically engineer) किया है (जेनेटिक इंजीनियरिंग पर आगे बात करेंगे). इसके बाद ये पौधे अंधेरे में चमकने लगे. अब इसी जेनेटिक इंजीनियरिंग से जुड़ी एक और खबर है. इसमें मक्खियों को ज्यादा कचरा खाने के लिए तैयार किया जा रहा है. ताकि ये कचरे को लुब्रिकेंट (Lubricant), बॉयोफ्यूल (Biofuel) और जानवरों का खाना बनाने का केमिकल मुहैया करवा पाएं. माने आम तो आम गुठलियों… 

ये सब कैसे और क्यों किया जा रहा है, समझते हैं.

जितना दिखता है उससे बड़ी समस्या है ये कचरा!

वर्ल्ड बैंक के मुताबिक, कम आय वाले देशों में करीब 93 पर्सेंट कचरा खुले में फेंका जाता है. वहीं ज्यादा आय वाले देशों में ये आंकड़ा महज 2 पर्सेंट है. आज दुनियाभर में कचरे से निपटना एक बड़ी समस्या है. इसका 44 पर्सेंट कचरा बचे खाने जैसी चीजों से फैलता है. इसे ऑर्गेनिक वेस्ट (Organic waste) भी कहते हैं. इसमें 2 पर्सेंट कागज और 5 पर्सेंट लकड़ी वगैरह से पैदा हुआ कचरा भी शामिल है. माने दुनिया का आधा कचरा ऑर्गेनिक वेस्ट के तौर पर पैदा होता है. ये खतरनाक भी है. इस कचरे से बैक्टीरिया वगैरह मीथेन गैस बनाते हैं. यह कार्बन डाई-ऑक्साइड के मुकाबले, 28 गुना ज्यादा खतरनाक ग्रीन हाउस गैस है. माने इससे धरती के तापमान और मौसम वगैरह पर भी असर पड़ता है.

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कचरे को इन तरीकों से ठिकाने लगाया जाता है (Data: World Bank)

वहीं, इस कचरे को निपटाने की बात करें, तो तस्वीर ठीक नजर नहीं आती. निपटारे के मामले में 33 पर्सेंट कचरा खुले में फेंक दिया जाता है. सिर्फ 5.5 पर्सेंट खाद बनाने के लिए इस्तेमाल हो पाता है.

आंकड़ों से साफ है कि ऑर्गेनिक वेस्ट दुनिया में एक बड़ी समस्या है. इसी समस्या के समाधान की तरफ ऑस्ट्रेलिया के साइंटिस्ट्स बढ़ते नजर आ रहे हैं.

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दुनिया में कहां से कितने फीसद कचरा आता है (Data: World Bank)
ये मक्खियां कचरे को निपटा कर काम की चीजें बनाएंगी!

24 जुलाई 2024 को रिसर्च जर्नल नेचर में एक शोध छपा. इसमें मक्खियों को कचरा निपटाने के काम में लगाने के लिए, खास तरीके से तैयार करने की बात कही जा रही है. रिसर्च के मुताबिक, मक्खियां या कहें इनके लारवा ऑर्गेनिक कचरे को खाकर उसे निपटाते तो हैं ही, ये कचरा खाकर इंसानों के काम की चीजें भी बना सकते हैं.

द गार्जियन की खबर के मुताबिक, इस रिसर्च से जुड़े सिडनी की मैक्वारी यूनिवर्सिटी के डॉ. केट टेप्पर बताते हैं,

“हम पर्यावरण त्रासदी की तरफ बढ़ रहे हैं. मैदानों में जमा किया गया कचरा मीथेन गैस बनाता है. हमें इसे खत्म करना होगा. कचरा निपटाने के काम में कीड़े पहली कतार के योद्धा बनेंगे. बचे खाने से ही हर साल करीब 100 करोड़ टन कचरा निकलता है.”

दरअसल, ये मक्खियां एमाइलेज, लाइपेज जैसे तमाम एंजाइम बना सकते हैं. इनका इस्तेमाल जानवरों का खाना बनाने में होता है. ताकि जानवरों को खाना पचाने में आसानी हो.

ये मक्खियां हैं - ब्लैक सोल्जर फ्लाई (Black soldier flies). इन्हें ही जेनेटिकली इंजीनियर करके, ऐसे तैयार किया जा रहा है कि ये ज्यादा से ज्यादा कचरे को निपटा कर तरह-तरह के केमिकल भी बनाएं. इन्हीं केमिकल में एक बॉयोफ्यूल (Biofuel) भी है. माने जैविक तरीके से बनाया गया ईंधन. इसमें जीव-जंतुओं से प्राप्त चीजों से बॉयोडीजल वगैरह बनाया जाता है. और ईंधन की तरह इस्तेमाल किया जाता है. ये मक्खियां इस काम में भी मदद कर सकती हैं. 

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अगर मक्खी बोल सकती तो
पर ये सब किया कैसे जाता है?

इसे साइंस की जटिल भाषा में बॉयो-मैनुफैक्चरिंग (Biomanufacturing) कहा जाता है. यानी जैविक तरीके से केमिकल बनाना. दवाओं, खेती और खाने-पीने की चीजें बनाने में इसका इस्तेमाल लंबे समय से किया जाता रहा है. लेकिन आमतौर पर बैक्टीरिया, फंगस जैसी एक कोशिका वाले जीवों को ही इस काम में लिया जाता है. डायबिटीज के मरीजों के इस्तेमाल की इंसुनिल भी इसी तरीके से बनाई जाती है.

वहीं एथेनॉल, ब्यूटेनॉल, अमीनो एसिड से लेकर एंटीबॉयोटिक और खाने में इस्तेमाल किए जाने वाले रंग वगैरह भी इस तरीके से बनाए जा सकते हैं. अब समझते हैं कि ये जेनेटिक इंजीनियरिंग का क्या टंटा है. जिससे पेड़ों को चमकाया जा सकता है. मक्खियों से ज्यादा कचरा साफ करवाया जा सकता है. और खाने में पोषण बढ़ाया जा सकता है. 

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अंधेरे में चमकता पौधा (Dante fenolio)

क्या है जेनेटिक इंजीनियरिंग?

जेनेटिक इंजीनियरिंग को समझने के लिए पहले हमें DNA को समझना होगा. फर्ज कीजिए, आपके पास एक माइक्रोस्कोप है, जिससे आप किसी भी चीज को बड़ा करके देख सकते हैं.

इसे लेकर आप अपनी त्वचा का छोटा-सा हिस्सा देखते हैं. पहले तो हमें कुछ कोशिकाएं दिखाई देंगी. फिर एक कोशिका पर जूम करने पर, इसके अलग-अलग हिस्से दिखाई देंगे. जिनमें से एक हैं, क्रोमोजोम (Chromosome) या गुणसूत्र. जो जेनेटिक जानकारी का रिकॉर्ड रखते हैं. जैसे फोन में मेमोरी कार्ड होता है, वैसा ही कुछ. 

इसी का एक हिस्सा है, हमारा DNA. अब DNA में भी कुछ कोड जैसे होते हैं. जिन्हें A, T, G और C नाम दिया जाता है. इनको न्यूक्लिक एसिड कहा जाता है. समझ लीजिए DNA अगर घर है, तो ये इसकी ईंटें हैं.

इन न्यूक्लिक एसिड से DNA बनता है. हम जानते हैं, भले ईंटें सब घरों में एक जैसी इस्तेमाल हों, पर हर घर की बनावट, नक्शा अलग होता है. वैसे ही भले जीवों में ये न्यूक्लिक एसिड सेम हों, लेकिन ये जिस हिसाब से व्यवस्थित होते हैं. उससे सब का DNA कुछ अलग होता है. इसी में हर जीव के काम की बुनियादी और अलग जानकारी स्टोर होती है.

माने अगली पीढ़ी में जो जानकारी पहुंचती है, वो इन्हीं के जरिये जाती है. किसी को डिंपल होगा या नहीं, किसी के बालों के रंग से लेकर उनके खून में मौजूद लाल रक्त कोशिकाओं का आकार तक, इसी जानकारी के हिसाब से डिसाइड होता है.

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अब ये जेनेटिक जानकारी एक पैटर्न के तौर पर DNA में स्टोर रहती है. कि फलां के बाद फलां न्यूक्लिक एसिड आएगा, ATGC होगा या TAGC. ऐसे कोड में हमारे काम की चीज स्टोर रहती है.

इसी कोड में बदलाव करके, जेनेटिक इंजीनियरिंग की जाती है. जैसे हम किसी मशीन में करते हैं कि ये पुर्जा यहां लगा दिया और दूसरा वहां लगा दिया. ऐसे ही कुछ, लेकिन बस बहुत छोटी कोशिकाओं के लेवल पर. माने बाल की खाल निकालकर उससे भी छोटे आकार की चीज में ये बदलाव किए जाते हैं. 

इन छोटे बदलावों की बदौलत, जीवों में बड़े बदलाव भी आते हैं. मसलन, हमारे चमकने वाले पौधे को ही ले लीजिए. इसमें चमकने वाले मशरूम, जो कुदरत में पहले से पाए जाते हैं, उनका ही जीन या DNA का टुकड़ा सेट करके पौधे को चमकने वाला बना दिया गया. 

ऐसे ही मक्खी के मामले में भी खास काम करने की जानकारी, जेनेटिक इंजीनियरिंग की मदद से फिट कर दी गई. ताकि ये वो काम और बेहतर ढंग से कर सके.

लेकिन ये काम जितना आसान सुनने में लगता है, उतना है नहीं. नहीं तो पता चले, हम अपना सारा काम चींटियों से करवा रहे होते. और एक ऐसी सब्जी बना लिए होते, जो बेहद स्वादिष्ट भी हो और जिसमें सारे पोषक तत्व भी हों. फिलहाल ऐसा नहीं है. इस तकनीक के जरिये हम कुछ बदलाव कर सकते हैं. कुछ पर अभी काम चल रहा है. 

आप भी हमें बताइए, अगर आपको ऐसा कोई जेनेटिक बदलाव करना हो तो क्या शक्ति चाहेंगे?

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