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जब एक भारतीय जनरल ने तिब्बत पर चढ़ाई कर दी!

लद्दाख, तिब्बत और बाल्टिस्तान को जीतने वाला जनरल

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जनरल जोरावर सिंह कहलुरिया को पूर्व का नेपोलियन कहा जाता है (तस्वीर: wikimedia commons/twitter@JournalistJmu)

उम्र के लिहाज से पचास के पार पहुंच चुका एक शख़्स तिब्बत में कैलाश परबत के मुहाने पर उतरता है. शिव की नगरी में पहुंच कर उस शख़्स ने सर झुकाया और मानसरोवर झील में डुबकी लगाई. हालांकि ये शख़्स उन बाक़ी लोगों जैसा नहीं था जो आज तक मानसरोवर तक आए थे. इस शख़्स ने अभी अभी तिब्बत की दुर्गम पहाड़ियों को जीत कर उसे उत्तर भारत के एक विशाल साम्राज्य का हिस्सा बना डाला था. (General Zorawar Singh Kahluria)

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ये कहानी है जनरल ज़ोरावर सिंह कहलुरिया की. वो शख़्स जिसे पूर्व का नेपोलियन नाम दिया गया. वो शख़्स जिसने भारत की सीमाओं के चीन की सरहदों तक विस्तार करने का लक्ष्य चुना और इसमें वो लगभग सफल भी हो गया था. चाहे तिब्बत और शिनजियांग प्रोविंस से लगता भारत का बॉर्डर लगता हो या फिर अफ़ग़ानिस्तान का वाखन गलियारा, या फिर हो पाकिस्तान का खैबर पख्तूनवा इलाका. ये सब जनरल जोरावर सिंह की ही विरासत है. (Napoleon of India)

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Zorawar Singh Kahluria
ज़ोरावर सिंह कहलूरिया का जन्म कहलूर नाम के एक गांव में हुआ था, जिसे अब हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर के नाम से जाना जाता है (तस्वीर- Wikimedia commons)

Zorawar Singh की कहानी 

ज़ोरावर सिंह की ज़िंदगी का शुरुआती हिस्सा सिर्फ़ लोक कथाओं से पता चलता है. माना जाता है कि उनकी पैदाइश 1784 में हुई थी. हिमाचल में कांगड़ा जिले के पास एक गांव है, अंसारा. अंसारा कहलूर नाम की एक रियासत का हिस्सा हुआ करता था. इसी के चलते ज़ोरावर, ज़ोरावर सिंह कहलुरिया के नाम से जाने गए. 18वीं सदी में ये इलाक़ा कई छोटी-छोटी रियासतों में बंटा हुआ था. जिनके शासक 'पहाड़ी राजा' के नाम से जाने जाते थे. कहानी कहती है कि परिवार में जमीन के चक्कर में हुई लड़ाई के चलते ज़ोरावर ने गांव छोड़ दिया. और वो रोजगार की खोज में हरिद्वार चले गए.

हरिद्वार में उनकी मुलाकात राणा जसवंत सिंह से हुई. जसवंत सिंह जम्मू कश्मीर में एक इलाके के जमींदार थे. 21 वीं सदी में ये इलाक़ा किश्तवाड़ जिले के नाम से जाना जाता है. ज़ोरावर सिंह राणा जसवंत सिंह के साथ किश्तवाड़ चले गए. यहां उन्होंने योद्धा की ट्रेनिंग ली. तलवार और तीर कमान चलाना सीखा. ये सभी विद्याएं जल्द ही उनके बहुत काम आने वाली थी. साल 1800 आते-आते महाराजा रणजीत सिंह(Maharaja Ranjit Singh) ने सिखों की अलग-अलग मिस्लों को एक कर सिख साम्राज्य की स्थापना कर ली थी. उन्हें योद्धाओं की ज़रूरत थी. और ऐसे ही एक योद्धा थे, ज़ोरावर सिंह. ज़ोरावर सिंह ने पहले रणजीत सिंह की सेना में नौकरी की. और बाद में वो कांगड़ा के राजा संसार चंद की मातहत में चले गए.

साल 1817 में ज़ोरावर सिंह की ज़िंदगी में एक बड़ा बदलाव आया. उस साल उन्हें जम्मू के डोगरा सरदार, मियां किशोर सिंह जामवाल की सेवा में जाने का मौका मिला. जम्मू सिख साम्राज्य के अंदर आता था. साल 1808 में महाराजा रणजीत सिंह ने जम्मू पर जीत हासिल कर उसे अपना वसाल स्टेट बना लिया था. और वहां की सत्ता किशोर सिंह को सौंप दी थी. किशोर सिंह के बेटे का नाम गुलाब सिंह(Maharaja Gulab Singh) था. गुलाब सिंह की नज़र ज़ोरावर सिंह पर पड़ी. उन्होंने ज़ोरावर को भीमगढ़ नाम के एक किले का गार्ड बना दिया. इस किले में एक रोज़ एक घटना हुई.

भीमगढ़ क़िले के क़िलेदार ने ज़ोरावर सिंह को एक संदेश देकर गुलाब सिंह के पास भेजा. ज़ोरावर ने संदेश तो सुनाया ही लेकिन साथ ही क़िलेदार की पोल भी खोल दी. ज़ोरावर ने बताया कि किले के प्रशासन में फालतू पैसा बर्बाद किया जाता है. इसके बाद उन्होंने गुलाब सिंह को किले का खर्चा चलाने के दूसरे उपाय सुझाए. इस बात से गुलाब सिंह इतने खुश हुए कि ज़ोरावर को किले का कमांडर नियुक्त कर दिया गया. और जल्द ही वो तमाम किलों में राशन आपूर्ति का काम देखने लगे.

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जोरावर सिंह कहलूरिया जम्मू के डोगरा राजपूत शासक गुलाब सिंह के एक सैन्य जनरल थे (तस्वीर- Wikimedia commons)

साल 1819 में ज़ोरावर सिंह के कंधे पर और बड़ी ज़िम्मेदारी आई. हुआ यूं कि उस साल सिख फ़ौज ने अफगान फौज को भगाकर कश्मीर को अपने कब्जे में ले लिया. इसके कुछ साल बाद महाराजा रणजीत सिंह ने जम्मू और कश्मीर का एक बड़ा इलाक़ा गुलाब सिंह के सुपुर्द कर दिया गया. गुलाब सिंह राजा बन गए. और उन्होंने अपने सबसे ख़ास, ज़ोरावर सिंह को किश्तवाड़ सहित कई जागीरों का गवर्नर बना दिया. ज़ोरावर को बाक़ायदा वज़ीर की उपाधि दी गई और वो डोगरा रियासत में राजा के बाद सबसे ताकतवर शख़्स बन गए. यहां से ज़ोरावर सिंह की जिंदगी का वो दौर शुरू होता है, जब वो डोगरा फ़ौज की कमान संभालते हैं. और सीमा विस्तार के लिए एक के बाद एक अभियान की शुरुआत करते हैं.

Ladakh को सिख साम्राज्य में मिलाया 

ज़ोरावर सिंह को अपनी पहली बड़ी जीत मिली लद्दाख में. इस वक्त तक लद्दाख में बौद्धों का शासन था. यहां के राजा को ग्यालपो कहा जाता था. और वो तिब्बत को टैक्स चुकाया करते थे. लद्दाख काफी अहमियत रखता था. क्योंकि तिब्बत से अफगानिस्तान तक जाने वाला व्यापार मार्ग लद्दाख से होकर जाता था. यहां मिलने वाले ऊनी शॉल की दुनिया भर में काफी मांग थी. कश्मीर के राजा गुलाब सिंह लम्बे वक्त से लद्दाख को डोगरा शासन के अधीन लाना चाहते थे. ये मौक़ा उन्हें मिला साल 1834 में. उस साल लद्दाख के एक स्थानीय गवर्नर ने ग्यालपो से बग़ावत कर दी. उसने गुलाब सिंह से मदद मांगी. गुलाब सिंह के लिए ये लद्दाख में पैर जमाने का अच्छा मौका था. इसलिए उन्होंने ज़ोरावर सिंह की लीडरशिप में डोगरा फ़ौज लद्दाख के लिए रवाना कर दी.

पांच हज़ार की फ़ौज लेकर ज़ोरावर सिंह भोट-खोल दर्रा पार करते हुए पुरिग तक पहुंचे. पुरिग यानी कारगिल. यहां हुई एक लम्बी लड़ाई के बाद डोगरा फ़ौज ने जीत हासिल की. युद्ध के बाद हुई एक संधि के तहत ग्यालपो ने राजा गुलाब सिंह की अधीनता स्वीकार कर ली. और इस तरह लद्दाख डोगरा शासन और सिख साम्राज्य के अधीन आ गया. हालांकि ज़ोरावर जब लद्दाख में जीत का झंडा लहरा रहे थे.ठीक उसी समय कश्मीर में उनके खिलाफ एक षड्यंत्र की शुरुआत हो रही थी.

कश्मीर के गवर्नर, मियां सिंह की गुलाब सिंह के साथ रंजिश थी. ज़ोरावर से जीत से खार खाकर उन्होंने लद्दाख में डोगरा शासन के खिलाफ विद्रोह भड़काना शुरू कर दिया. इसका नतीजा था कि अगले पांच साल में कारगिल से लेकर लेह तक, गुलाब सिंह के ख़िलाफ़ बग़ावत शुरू हो गई. किलों पर कब्जा कर डोगरा फौज को मार डाला गया. इस बात से गुस्सा होकर ज़ोरावर सिंह ने 3 हज़ार डोगरा सैनिकों को इकट्ठा किया. और लद्दाख पर एक बार फिर हमला कर दिया. इस बार उन्होंने लद्दाख को वसाल स्टेट भी नहीं रहने दिया. उसे पूरी तरह जम्मू कश्मीर में विलय कराकर वहां के राजा को एक छोटे से गाँव का जागीरदार बनाकर वहां भेज दिया.

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19 वीं सदी में लद्दाख का नक्शा (तस्वीर: wikimedia commons)

Ladakh पर जीत 

लद्दाख जीतने के कारण ज़ोरावर सिंह का पूरे सिख साम्राज्य में नाम हो चुका था. हालांकि वो यहीं न रुके. 1840 में उन्होंने काराकोरम के पार बाल्टिस्तान का रुख किया. यहां भी शाही परिवार में हुई बग़ावत ने ज़ोरावर सिंह को मौका दिया. बाल्टिस्तान के राजा अहमद शाह ने अपने एक बेटे को वारिस घोषित किया. इस चक्कर में उनका दूसरा बेटा नाराज़ हो गया. इस बेटे का नाम मोहम्मद शाह था. उन्होंने अपने पिता के ख़िलाफ़ बग़ावत करते हुए ज़ोरावर सिंह से मदद मांगी. मोहम्मद शाह की रक्षा के बहाने ज़ोरावर सिंह आठ हज़ार डोगरा फ़ौज को लेकर बाल्टिस्तान में दाखिल हो गए. बाल्टिस्तान में लड़ाई मुश्किल थी. निधान सिंह नाम के एक कमांडर पांच हज़ार की फ़ौज लेकर सबसे पहले आगे बड़े लेकिन उनकी फ़ौज बर्फ़ और ठंड के बीच फंस गई. अहमद शाह की फौज ने उन्हें घेरकर मार डाला. कई ऐसे भी थे, जो ठंड के कारण मारे गए.

उधर ज़ोरावर सिंह अपनी टुकड़ी के साथ एक महीने तक नदी के मुहाने पर फंसे हुए थे. ठंड से हाल खराब था. ऐसे में मेहता बस्ती राम नाम के एक डोगरा अफसर ने नदी के पार जाने का रास्ता खोजा. ये बस्ती राम आगे जाकर कश्मीर की कहानियों में काफी फेमस हुए. कहते हैं मेहता बस्ती राम की वजह से ही ज़ोरावर सिंह बाल्टिस्तान तक पहुंच पाए थे. ज़ोरावर सिंह ने खुश होकर उन्हें 500 रुपए और सोने के कंगन का एक जोड़ा, बतौर तोहफा दिया. आगे जाकर बस्ती राम लेह के गवर्नर भी बनाए गए.

बहरहाल आगे कहानी यूं है कि नदी पार कर ज़ोरावर अपनी सेना सहित स्कर्दु के किले तक पहुंचे. जहां अहमद शाह ने अपना ठिकाना बनाया हुआ था. कई दिनों तक किले की घेराबंदी की गई. लेकिन फिर जब ठंड से फ़ौज परेशान होने लगी. ज़ोरावर ने किले के पीछे बनी दीवार चढ़ने का आदेश दिया. रातों रात दीवार पार कर सैनिक किले के ऊपर पहुंचे और वहां से फायरिंग कर राजा अहमद शाह को सरेंडर करने पर मजबूर कर दिया. इस तरह बाल्टिस्तान भी डोगरा राजाओं के शासन के अधीन आ गया. ज़ोरावर ने मोहम्मद शाह को बाल्टिस्तान की गद्दी पर बिठाया. बदले में मोहम्मद शाह ने वादा किया कि वो हर साल 7 हज़ार रुपए की चौथ जमा करेंगे.

Tibet पर चढ़ाई 

लद्दाख और बाल्टिस्तान के बाद ज़ोरावर की नजर तिब्बत पर पड़ी. महाराजा गुलाब सिंह अपने राज्य की सीमाओं को पूर्व की तरफ फैलाना चाहते थे. उन्होंने तिब्बत पर चढ़ाई का विचार महाराजा रणजीत सिंह के आगे रखा था. लेकिन रणजीत सिंह तैयार नहीं हुए. 1839 में महाराजा रणजीत सिंह की मौत के बाद शेर सिंह महाराजा बने. उन्होंने गुलाब सिंह को तिब्बत पर आक्रमण की आज्ञा दे दी. मई 1841 में ज़ोरावर सिंह 5 हज़ार की सेना लेकर तिब्बत में दाखिल हुए. ज़ोरावर सिंह ने एक के बाद एक पश्चिमी तिब्बत के इलाक़ों पर कब्जा किया. आखिर में वो ताकलाकोट पहुंचे. ताकलाकोट मानसरोवर झील से लगभग 90 किलोमीटर दूर पड़ता है. ताकलाकोट में एक किला था, जिसे जीतकर ज़ोरावर सिंह ने पूरे पश्चिमी तिब्बत पर कब्जा कर लिया. ताकालकोट में ही एक और घटना हुई.

ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की तिब्बत में खासी दिलचस्पी थी. इसलिए वो ज़ोरावर सिंह के कैंपेन पर नज़र बनाए हुए थे. सितम्बर 1841 में अंग्रेजों को पता चला कि ताकलाकोट में नेपाल के महाराजा के भेजे कुछ दूत ज़ोरावर सिंह से मिलने पहुंचे. ये खबर सुनकर अंग्रेजों के कान खड़े हो गए. कुछ ही दशक पहले अंग्रेजों ने नेपाल से कुमाऊं(आज का उत्तराखंड) का इलाका जीता था. उन्हें डर था कि कहीं सिख और नेपाली आपस में गठजोड़ ना बिठा लें. इसलिए अंग्रेजों ने अपना एक अफ़सर राजा शेर सिंह के दरबार में भेजा और उनसे मांग की कि डोगरा फ़ौज को तुरंत वापस बुला लिया जाए. शेर सिंह तैयार भी हो गए. उन्होंने ज़ोरावर को वापसी का बुलावा भेजा. ज़ोरावर की वापसी में एक दिक्कत थी. सर्दियों के महीने शुरू हो चुके थे. और भयंकर बर्फबारी ने सारे दर्रों को सील कर दिया था. ज़ोरावर सिंह ने कुछ दिन इंतज़ार करने की ठानी. लेकिन इसी बीच तिब्बत की एक फ़ौज ने ज़ोरावर के ठिकाने पर हमला कर दिया.

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ज़ोरावर सिंह कहलूरिया ने पश्चिम में बाल्टिस्तान और पूर्व में तिब्बत तक जाकर लड़ाईयां लड़ीं और उन्हें जीता भी. उन्होंने डोगरा सेना में रहते हुए विदेशी सरजमीं पर चढ़ाई की और उन इलाकों को जम्मू राज में मिलाया (तस्वीर- Wikimedia commons)

ज़ोरावर सिंह की फ़ौज दुश्मन के साथ साथ ठंड से भी लड़ रही थी. उनके कई सैनिकों को फ्रॉस्ट बाइट ने पकड़ लिया था और कइयों के हाथ पाँव की उँगलियाँ बेकार हो गई थी. इसके बावजूद ज़ोरावर सिंह ने युद्ध किया. 12 दिसंबर 1841 की तारीख. ज़ोरावर अपनी आखिरी लड़ाई लड़ रहे थे कि तभी एक गोली आकर उनके दाएं कंधे पर लगी. ज़ोरावर ने लड़ना जारी रखा. मिग्मार नाम के एक तिब्बती कमांडर ने उन्हें देखा और पहचान लिया. वो पहले भी ज़ोरावर से लड़ चुका था. उसने ज़ोरावर को देखते ही एक भाला उनकी ओर फेंका. भाला सीधा ज़ोरावर के निशाने पर लगा. और वो वहीं गिर गए.

ज़ोरावर सिंह की मृत्यु हो गई. हालांकि दस्तावेज बताते है. ज़ोरावर सिंह का पराक्रम देखकर दुश्मन ने भी उनको पूरा सम्मान दिया. तिब्बतियों ने ताकलाकोट में उनकी समाधि बनाई और उनके नाम पर एक स्मारक भी बनवाया. अपनी किताब, Kailash: Jewel of the Snows, में राजिंदर अरोड़ा, कैलाश यात्रा का ब्यौरा देते हुए लिखते हैं,

“ज़ोरावर सिंह की समाधि आज भी उसी जगह है, जहां उनकी मौत हुई थी. और 21 वीं सदी में चीन के सैनिक तक उनका नाम जानते हैं.”

भारत में ज़ोरावर सिंह के नाम पर एक लाइट टैंक बनाने की योजना पर काम चल रहा है, जिसे drodo और L&T मिलकर बना रहे हैं. इस टैंक के 2023 के अंत तक ट्रायल की योजना है. एक बार बन जाने के बाद इन टैक्स लद्दाख में चीन से सटी सीमा पर तैनात की जाने की योजना है.

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