बड़ा हैपनिंग वेन्यू है. जेएनयू. फिर से चर्चा में है. अबकी एक चर्चा के चलते. और चर्चा है थोड़ी इंटेलेक्चुअल टाइप्स. जिसे हम समझे कितना ये तो नहीं पता, लेकिन, जैसा निदा फ़ाज़ली कहते हैं-
कभी-कभी यूं भी हम ने अपने जी को बहलाया है
जिन बातों को ख़ुद नहीं समझे, औरों को समझाया है
'डु बोइज़ या ड्यू ब्वॉ?' JNU में पद्मभूषण पाई लेखिका ने उच्चारण ठीक किया तो विवाद क्यों हो गया?
21 मई को जेएनयू के SAA ऑडिटोरियम में कोलंबिया यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर गायत्री चक्रवर्ती स्पिवाक का एक लैक्चर था. विषय था, “डब्ल्यू. ई. बी. डु. बोइज़ और लोकतंत्र पर उनका विज़न”. इसी लैक्चर के दौरान, सवाल-जवाब हुआ. फिर शुरू हुआ बवाल.
दी इंसिडेंट-
21 मई को जेएनयू के SAA ऑडिटोरियम में कोलंबिया यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर गायत्री चक्रवर्ती स्पिवाक का एक लैक्चर था. विषय था, “डब्ल्यू. ई. बी. डु. बोइज़ और लोकतंत्र पर उनका विज़न”. इसी लैक्चर के दौरान, सवाल-जवाब का सिलसिला हुआ. अंशुल कुमार नाम के एक व्यक्ति खड़े हुए. उन्होंने जैसे ही अपना नाम बताया, गायत्री ने पूछा - आप क्या करते हैं?
अंशुल ने जवाब दिया, “मैं सेंटर फॉर ब्राह्मण स्टडीज का फाउन्डिंग प्रोफेसर हूं.”
गायत्री ने स्पष्टता के लिए पूछा, “ब्राह्मण स्टडीज?”
अंशुल ने पलटकर, हां कहा.
गायत्री पलटकर बोलीं, “वेरी गुड”.
फिर शुरू हुआ सवाल और बवाल.
अंशुल बोले, “डु ब्वॉ एलीट अपर-क्लास बन गए थे और आप इसके बाद भी…” सवाल पूरा होता, उसके बीच में ही गायत्री टोकते हुए बोलीं, “डु बोइज़. क्या आप प्लीज़ उनका सही नाम सीख सकते हैं. आप ब्राह्मण स्टडीज की बात करते हैं. और आपको ब्राह्मण नाम भी बोलना नहीं आता. अगर आप उस व्यक्ति के बारे में बात करने जा रहे हैं, जो पिछली सदी के शायद सबसे महान समाजविज्ञानी और इतिहासकार थे, और ये एक एलीट यूनिवर्सिटी के रूप में जानी जाती है. इसलिए आप थोड़ा वक्त लें और ये सीखें कि डु ब्वॉ होता है या डु बोइज़.”
इसके बाद अंशुल ने कहा, “अगर ये तुच्छ बातें हो गई हों, तो क्या मैं सवाल पूछ लूं?”
जैसे ही वो सवाल की तरफ वापस बढ़े और उन्होंने फिर से डु ब्वॉ कहा, गायत्री ने फिर से टोक दिया. इसके बाद मंच पर बैठे किसी व्यक्ति के अनाउंसमेंट पर वे दूसरे सवाल की ओर मुड़ गए.
ये तो हो गया इंसिडेंट. सपाट. लेकिन इसका सब-टेक्स्ट क्या है? जानेंगे. पहले घटना में आए किरदार और तथ्यों को समझ लें.
गायत्री चक्रवर्ती स्पिवाक कौन हैं?कोलंबिया यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं. 2013 में उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था. उन्होंने फ्रांस के विचारक देरिदा के काम का अनुवाद किया है. इसके अलावा महाश्वेता देवी की किताबों के अनुवाद और उन पर काम करने के लिए उनकी बड़ी ख्याति है. “Can The Subaltern Speak?” उनका काफी प्रसिद्ध निबंध है. गायत्री स्पिवाक अपने इस महा-इंटेलेक्चुअल, महा-इन्फ़्ल्यूऐंशल लेख में, (जितना मुझे समझ में आया) पोस्ट कॉलोनियल सबॉल्टर्न की बात करती हैं. यानी गुलामी हटने के बाद का सर्वहारा वर्ग.
Can The Subaltern Speak? (क्या सर्वहारा बोल सकते हैं?)
सवाल ये नहीं है कि क्या दबे-कुचले लोग बोल सकते हैं या नहीं? सवाल ये है कि क्या उन्हें बोलने दिया जाता है, क्या उनके पास वो मंच है? और क्या उन्हें सुना जाएगा?
सबॉल्टर्न टर्म, इटली के थिंकर एंटोनियो ग्रैमसी का दिया हुआ है. इसमें आते हैं अश्वेत, कामगार, महिलाएं, कॉलोनाइज़्ड लोग.
इस टर्म का प्रयोग गायत्री तीसरी दुनिया (अभावग्रस्त मुल्कों) में रहने वालों के लिए करती हैं. वो डिवाइडेड हैं. लिंग, जाति, धर्म, रेस के चलते. जहां पर सबॉल्टर्न आवाज़ दब के रहती है और इसी के चलते (सती प्रथा का उदाहरण देते हुए गायत्री कहती हैं) फर्स्ट वर्ल्ड के लोगों को दुष्प्रचार करने का मौक़ा मिलता है कि ‘श्वेत पुरुषों ने गेहुएं पुरुषों से गेहुईं महिलाओं को बचाया.’ इससे तीसरी दुनिया के लोगों को दबाना आसान होता है. और ‘ऑप्रेशन नैतिकता’ का झूठा आलंबन भी ले लेती है. गायत्री अपने इस लेख में और अन्यथा भी पोस्ट-कोलोनियल सोसायटी में महिलाओं की चुप्पी पर भी बात करती हैं. इस बात का भी विरोध करती हैं कि सबॉल्टर्न की आवाज़ सुनी जाए. इसके लिए उन्हें फर्स्ट वर्ल्ड की भाषा का प्रयोग करना पड़ेगा. वो कहती हैं कि नेटिव भाषा ही क्रांति की भाषा है. वही सुनी जानी चाहिए.
डु बोइज़एक अफ़्रीकन-अमेरिकी इतिहासकार और समाज विज्ञानी. पूरा नाम, विलियम एडवर्ड बर्गेट डु बोइज़. 23 फ़रवरी, 1868 को जन्मे. हार्वर्ड यूनिवर्सिटी से पीएचडी पाने वाले पहले अश्वेत. और हॉर्वर्ड यूनिवर्सिटी के एक ऐसे स्टूडेंट, जिन्हें कैंपस में शाम 6 बजे बाद रहना अलाउड नहीं था. अश्वेत होने के चलते. 1899 में लिखी अपने जीवन की पहली पुस्तक, ‘द फिलेडेल्फ़िया नीग्रो’. एक केस स्टडी. अमेरिका में रहने वाली अश्वेत कम्यूनिटी पर पहली. हालांकि, इसमें डु बोइज़ ने अश्वेत कम्यूनिटी को दोषमुक्त नहीं किया, लेकिन कम्यूनिटी की बुरी हालत के लिए सबसे बड़ा दोषी रेसिज़्म को ठहराया.
1903 में पुस्तक लिखी, ‘द सोल्स ऑफ़ ब्लैक फोक'. जिसके बारे में UCLA में अफ़्रीकन अमेरिकन लिटरेचर के प्रफेसर कहते हैं, “ये कमाल का काम था. इसमें कविताएं थीं. ऑटोबायोग्राफ़िकल स्केचेज़ थे. ऐतिहासिक आर्टिकल थे. संस्मरण थे. अश्वेतों के अनुभवों की विविधता का व्यापक निरूपण था.”
1935 में लिखी इनकी पुस्तक ‘ब्लैक रीकंस्ट्रक्शन इन अमेरिका’ इनका सबसे महान कार्य कही जाती है. ये इनकी बायोग्राफ़िकल पुस्तकों की ट्रिलजी में से एक थी. इनकी बायोग्राफ़ी के बारे में एक और विशेषज्ञ बताती हैं, “अपनी तीन बायोग्राफ़ी में उन्होंने इस बात की अनुभूति सबको दे दी कि अश्वेत होना कैसा होता होगा.”
1961 आते-आते डु बोइज़ ने कम्युनिस्ट पार्टी जॉइन कर ली और घाना चले गए. घाना में ही 27 अगस्त, 1963 में इनकी मृत्यु हो गई. आज भी ये कितने प्रासंगिक और इन्फ़्ल्यूएंशल हैं, ये इसी से पता चलता है कि किसी भी बहाने से हो, इस कंटेम्पररी न्यूज़ आर्टिकल में इन्होंने जगह पाई है.
आफ्टरमाथ -
अंशुल कुमार ने लेक्चर वाले इस वीडियो में से अपनी बातचीत का चंक अपने X अकाउंट से पोस्ट किया है. हालांकि, वीडियो के साथ जो लिखा लगा है, उसमें भाषाई मर्यादा का कतई ध्यान नहीं रखा गया है, इसलिए अधिकतम तटस्थ व्यक्ति भी कुछ मार्क्स अंशुल की भाषा के चलते तो ज़रूर काटेगा.
ख़ैर, पर्याप्त गाली गलौच के बाद अंशुल अपनी पोस्ट के अंत में लिखते हैं: Can The Subaltern Speak (क्या दबे-कुचले लोग बोल सकते हैं?) ऑफ कोर्स आप इस व्यंग्य को समझ गए होंगे.
अंशुल की गलती भाषाई हो सकती. कम से कम एक बार. ट्विटर पर. सॉरी एक्स पर. लेकिन क्या वो पूरे मामले में अन्यथा भी कहीं ग़लत साबित होते हैं? क्या गायत्री भी कहीं पर ग़लत साबित होती हैं? क्या हम-आप सही पार्टी हैं भी डिसाइड करने वाले? और हैं भी तो क्या करना चाहिए?
दी स्वॉडल नाम का इंस्टाग्राम हैंडल इस पूरे मैटर को बिना किसी का पक्ष लिए अच्छे से पॉइंटर में एक्सप्लेन करता है. जिसे आप नीचे एम्बेडेड लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं.
सार ये कि -
21 मई को JNU में गायत्री को इन्वाइट किया गया था. ये इन्विटेशन विलियम एडवर्ड बर्गेट डु बोइज़ के सिविल राइट्स और डेमोक्रेसी से जुड़े विचारों पर बातचीत करने के लिए था. ‘प्लेटफॉर्म X’ पर इस सेशन का एक वीडियो वायरल हो रहा है. जिसमें गायत्री ऑडियंस के एक व्यक्ति को ‘डु बोइज़’ नाम को सही से प्रोनाउंस न कर पाने पर टोक रही हैं. कई लोगों ने इसपर कहा, “ग्रामर या प्रननसिएशन पर किसी को पब्लिक के सामने टोकना (सही करना) डॉमिनेन्स का एक (अनुचित) तरीका है. जिसमें भाषा को एक टूल की तरह उपयोग किया जाता है. ज्ञान को नियंत्रित करने में ब्राह्मण सबसे आगे रहे हैं. और इसके चलते भाषा एक जातिगत श्रेष्ठता का औज़ार बन जाती है.”
वहीं दूसरी ओर, डु बोइज़ एक अश्वेत विद्वान थे, जिन्होंने राजनीतिक कारणों से अपने नाम के उच्चारण के एक विशिष्ट तरीके पर जोर दिया.
अब इन दो बातों से एक विमर्श खड़ा हुआ है: प्रोफेसर को ‘इस नाम’ के नस्लीय निहितार्थों का पूर्व ज्ञान था. (मतलब गायत्री जानती थीं कि डु बोइज़ चाहते थे कि उनका नाम एक विशिष्ट तरीके से उच्चारित हो.) तो क्या-
इस आधार पर किसी के उच्चारण को सार्वजनिक तौर पर सही करना उचित है?
या
क्या ये ‘जाने माने अकादमिक सेलिब्रिटी’ और एक ‘अनजान श्रोता’ के बीच असमान पावर-डायनेमिक्स को मजबूत करता है?
भाग दो-विषयांतरक्या नाम से, उसके उच्चारण से कुछ फ़र्क़ पड़ता है? क्या फ़र्क़ पड़ना चाहिए? तर्क दोनों तरफ़ के हैं. आप किस तरफ़ हैं?
‘नाम में क्या रखा है? वॉट्स देयर इन द नेम? - ऐसा शायद कर्ट कोबेन ने कभी गाया था.’ मैं कहूंगा.
आप मुझे करेक्ट करते हुए कहेंगे,‘शेक्सपियर! विलियम शेक्सपियर!! उन्होंने लिखा था.’
और मैं रीइटरेट करूँगा, ‘एग्जैक्टली, माय पॉइंट!’
इनफॉर्मेशन पैराडॉक्स -
जोक यहीं पर समाप्त हो जाएगा. लेकिन बात नहीं समाप्त होगी. क्योंकि जब तक मानव के वोकल कॉर्ड्स अल्बर्ट आइंस्टीन की थ्योरी ऑफ़ एवोल्यूशन (Now you know the joke) के चलते, ‘vestigial organs’, बोले तो, ‘अवशेषी अंग’ नहीं बन जाते, बातें तब तक समाप्त नहीं होंगी.
और मज़े की बात तो ये गुरु, कि बातों की बातें भी लंबे समय तक समाप्त नहीं होंगी. ऐसे थोड़े न बातें ख़त्म होती हैं. दो दर्पण आमने-सामने रख दो, तो अनंत प्रतिबिंब बनते हैं. धीरे-धीरे धुंधले होते हुए. बातों के भी बनेंगे. बातें, धीरे-धीरे धुंधली होंगी. उससे पहले उनके चंक निकलेंगे. फिर कहा जाएगा कि उन्हें तोड़-मरोड़ के प्रस्तुत किया गया है. ‘किड्स’ एडिटोरियल लिखेंगे. लिजेंड्स मीम बनायेंगे. और बचे हुए लोग, यानी धूमिल के तीसरे आदमी ‘संसद से सड़क तक’ बची बात को क्रांति बना देंगे.
यूं डेरीदा के डिस्ट्रक्शन से लेकर नेरुदा के ऑब्जरवेशन तक, जैसा होता आया है, यूनिवर्स की एंट्रॉपी एक बात से निकली नई-नई बातों से बढ़ती चली जाएगी. जब तक कि ट्विटर का कोई नया हैश टैग, पिछली बातों के कहकशां के वास्ते ब्लैक होल न बन जाए.
मगर… मगर… वही बातें फिर आएंगी, किसी पैरलल वर्ल्ड की तरह, इनफार्मेशन पैराडॉक्स के सोल्यूशन की तरह. करण-अर्जुन की तरह. पाश की घास की तरह.
अन्दाज़ ए गुफ़्तगू-
हालांकि, जैसा श्यामलाल हरलाल राय लिखकर गए हैं, हर किसी को नहीं मिलता यहां प्यार ज़िंदगी में, वैसे ही हर बात को उतना फुटेज भी नहीं मिलता. टाइमिंग से लेकर लोकेशन तक का फ़र्क़ पड़ता है. और सबसे ज़्यादा फ़र्क़ पड़ता है, डॉक्टर मिर्ज़ा ग़ालिब द्वारा प्रतिपादित एड होमिनेम फ़ॉलेसी का. मने, ‘डैम, कि बात क्या है, बात तो ये है कि बात कही किसने है?
यू सी, हरेक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है…
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