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मदन लाल खुराना: जब दिल्ली के CM को एक डायरी में लिखे नाम के चलते इस्तीफा देना पड़ा

जब राष्ट्रपति ने दंगों के बीच सीएम मदन से मदद मांगी.

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2 दिसंबर 1993 को मदन लाल खुराना ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी. (फोटो: इंडिया टुडे आकाईव)
ल्यालपुर से दिल्ली का लाल
मदनलाल खुराना. रिफ्यूजी. पुरखे ल्यालपुर (अब फैसलाबाद) के. परिवार दिल्ली बसा. कीर्ति नगर. मदन ने इकॉनमिक्स में मास्टर्स के लिए इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया. यहीं पर वह संघ के छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में सक्रिय हुए. छात्रसंघ महामंत्री रहे. फिर विद्यार्थी परिषद और जनसंघ के पदाधिकारी बने.
रोजी रोटी के लिए खुराना ने संघ संचालित बाल भारती स्कूल में पढ़ाया. कुछ बरस बाद एक ईवनिंग कॉलेज में लेक्चरर हुए.
इस दौरान मदन लाल, केदार नाथ साहनी और विजय कुमार मल्होत्रा, इस तिकड़ी ने पंजाबियों के बीच जनसंघ को खूब मजबूत किया. 1967 में मदन लाल को इस मजबूती का पहला फल मिला. उन्होंने पहाड़गंज वॉर्ड के चुनाव में कांग्रेस के टिकट पर लड़े ओमप्रकाश माकन को हराया. कांग्रेस सांसद, पूर्व राष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा के दामाद और आतंकवादियों की गोलियों के शिकार हुए ललित माकन इन्हीं ओमप्रकाश के पुत्र थे.
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चुनावी रोड शो करते हुए मदन लाल खुराना (फोटो: इंडिया टुडे आकाईव)

दिलचस्प तथ्य ये है कि महानगर पालिका के पहले चुनाव में माकन को हराने वाले खुराना ने पहले विधानसभा चुनाव में माकन की बेटी अंजलि रॉय को हराया. अंजलि उन दिनों दूरदर्शन की प्रेजेंटर थीं और कांग्रेस ने उन्हें 1993 के विधानसभा चुनाव में मदनलाल के खिलाफ उतारा था.
मगर खुराना की कहानी पार्षद से सीधे सीएम बनने भर की नहीं है. बीच में एक हार, दो जीत और एक दंगा है, जिसके चलते राष्ट्रपति ने उनसे मदद मांगी.
मदनलाल, मुझे तुम्हारी मदद चाहिए
1983 का साल कांग्रेस के लिए बुरा था. पार्टी आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में बुरी तरह धराशायी हुई थी. फिर आए दिल्ली में म्यूनिसिपैलिटी इलेक्शन. नई नवेली भाजपा ने नारा दिया.

'कांग्रेस दक्षिण हारी है, अब दिल्ली की बारी है'

इंदिरा सरकार ने राजधानी में पूरा जोर लगाया और जीत हासिल की. बीजेपी मुख्य विपक्षी पार्टी बनी और मदनलाल सदन में नेता प्रतिपक्ष. अगले बरस इंदिरा गांधी की हत्या हो गई. इसके बाद राजधानी में बड़े पैमाने पर सिख विरोधी दंगे शुरू हो गए. उन दिनों देश के राष्ट्रपति थे ज्ञानी जैल सिंह. उन्होंने खुराना को फोन किया और अपने एक सिख रिश्तेदार की सुरक्षा के लिए मदद मांगी. कांग्रेसी नेता रहा व्यक्ति, देश का पहला नागरिक, मुश्किल में भाजपाई से मदद मांग रहा था. ये मदनलाल खुराना के पॉलिटिकल करियर के साथ आखिर तक रहा. उनके दरवाजे सब दलों के लोगों के लिए खुले रहे. इस घटना के बारे में मदन लाल खुराना के बेटे हरीश खुराना बताते हैं कि पिता जी खुद अपनी गाड़ी से गए और ज्ञानी जी के संबंधित उस परिवार को सुरक्षित जगह पहुंचाया.
दंगों के कुछ महीनों बाद चुनाव हुए. पार्षद मदनलाल अब लोकसभा लड़ रहे थे. दिल्ली सदर सीट से. मगर ये आडवाणी जी के शब्दों में कहें तो लोकसभा नहीं, शोकसभा का चुनाव था. कांग्रेस के टाइटलर ने खुराना को लगभग 66 हजार वोटों से हरा दिया.
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लालकृष्ण आडवाणी के साथ मदन लाल खुराना (फोटो: इंडिया टुडे आकाईव)

1989 के लोकसभा चुनाव तक बीजेपी राममंदिर के ज्वार पर थी और कांग्रेस बोफोर्स के भाटे पर. मदनलाल खुराना ने इस दफा सदर की जगह साउथ दिल्ली की सीट चुनी. उन्होंने कांग्रेस के सुभाष चोपड़ा को एक लाख से ज्यादा वोटों से हराया. चोपड़ा ने ही 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनाव के समय कांग्रेस की कमान संभाली.
अब बीजेपी ने दिल्ली को राज्य बनाने का आंदोलन तेज कर दिया. दिल्ली की म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन 1989 से भंग चल रही थी. चुनाव टल रहे थे. खुराना कभी डीटीसी किराये में वृद्धि तो कभी दूध के महंगे होने पर आंदोलन कर रहे थे. तब तक बीजेपी ने उन्हें प्रदेश अध्यक्ष भी बना दिया. 1991 के लोकसभा चुनाव आए तो खुराना को चुनाव जीतने में दिक्कत नहीं हुई. इस बार साउथ दिल्ली से उन्होंने रोमेश भंडारी को 50 हजार से ज्यादा वोटों से हराया. साउथ दिल्ली से दो बार चुनाव जीतने वाले खुराना पहले व्यक्ति बने. मगर उनकी किस्मत तो संविधान के 69वें संशोधन के बाद इतिहास में परमानेंट इंक से दर्ज होनी थी.
संसद भवन से पुलिस कमिश्नर बंगले तक
साल 1956 में भारत में राज्यों का पुनर्गठन हुआ. दिल्ली जो अब तक सी कैटिगरी का स्टेट था, उसे यूनियन टैरिटरी बना दिया गया. इसके चलते चार साल पुरानी विधानसभा खत्म हो गई. इसके अगले बरस स्थानीय कार्यों के लिए महानगर पालिका बना दी गई. दशकों बाद दिल्ली में विधानसभा फिर सृजित की गई. संविधान के 69वें संशोधन के जरिए. 1991 में गवर्नमेंट ऑफ नेशनल कैपिटल टेरिटरी ऑफ दिल्ली एक्ट अमल में आया. इसी के तहत 1993 के आखिर में दिल्ली में चुनाव हुए. बीजेपी मदनलाल खुराना के नेतृत्व में लड़ी और उसने कांग्रेस की धज्जियां उड़ा दीं. खुराना ने बाहरी दिल्ली और यमुना पार के इलाकों पर खूब फोकस किया. कई राजनीतिक पंडितों ने कहा कि खुराना ने जनता दल का भी मुस्लिम बहुल इलाकों में अच्छा इस्तेमाल किया कांग्रेस की गणित बिगाड़ने के लिए.
फाइनल टैली में बीजेपी को 70 सदस्यों वाली विधानसभा में 49 सीटें मिलीं. कांग्रेस 14 पर निपटी. जनता दल की चार समेत अन्य के खाते में कुल 7 सीटें गईं.
2 दिसंबर, 1993 को एक रिफ्यूजी मुख्यमंत्री के पद की शपथ ले रहा था. ये ऐतिहासिक था. मगर इस कहानी में तीन बरस के अंदर ही ट्विस्ट आना था.
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चुनाव जीतने के बाद मदन लाल खुराना (फोटो: इंडिया टुडे आकाईव)

सीएम बनते ही मदनलाल खुराना को समझ आ गया कि दिल्ली का मुख्यमंत्री किस कदर केंद्र पर आश्रित है. मामला सिर्फ पुलिस के अधिकार तक सीमित नहीं था. उधर कैबिनेट में भी साहिब सिंह वर्मा सरीखे सहयोगी खुराना के लिए चुनौती बने हुए थे. इन सबके बीच खुराना ने एक ऐतिहासिक काम अपने पहले ही बजट में किया. मार्च, 1994 के इस बजट में दिल्ली मेट्रो की DPR (डिटेल्ड प्रॉजेक्ट रिपोर्ट) के लिए पैसा आवंटित किया. आजकल जो दिल्ली के LG हैं- अनिल बैजल, वो उस वक्त खुराना के प्रिंसिपल सेक्रेटरी होते थे. मेट्रो मैन ई श्रीधरन को भी खुराना के जमाने में ही दिल्ली मेट्रो रेल कॉरपोरेशन (DMRC) का डायरेक्टर चुना गया था. पीने के पानी के संकट को दूर करने के लिए यमुना विवाद पर हरियाणा के अपने जनता पार्टी के दोस्त और कांग्रेसी मुख्यमंत्री भजनलाल के साथ बैठ समाधान पाना हो या गंगा का पानी पाइप लाइन के जरिए लाना, खुराना काम में लगे थे.
उन दिनों खुराना के बारे में पत्रकारों के बीच एक मजाक चलता था. आज सीएम किस चीज पर प्रेस कॉन्फ्रेंस करेंगे. दरअसल मुख्यमंत्री रोज ही किसी ऐलान, किसी आरोप या किसी और बात के चलते मुखातिब होते थे.
मगर एक प्रेस कॉन्फ्रेंस ने बुनियाद हिला दी. ये पीसी की थी उन दिनों जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रह्मण्यम स्वामी ने. 29 जून, 1993 को. स्वामी ने कहा,
"मैं ये साबित कर दूंगा कि एक दलाल और हवाला कारोबारी सुरेंद्र जैन ने 1991 में लालकृष्ण आडवाणी को दो करोड़ रुपए दिए. जैन उस जाल से जुड़ा था, जो विदेशी धन को यहां ग़ैरक़ानूनी तरीक़े से रुपये में बदलकर कश्मीर के अलगाववादी संगठन JKLF की मदद करता था."
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सुब्रह्मण्यम स्वामी (फोटो: इंडिया टुडे आकाईव)

स्वामी के बयान पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया. मगर CBI के मालख़ाने में धूल खा रही डायरी नए सिरे से हुक्मरानों को नजर आ गई. इस डायरी में कई कांग्रेसी, भाजपाई और दूसरे नेताओं के नाम के पहले अक्षर और उनके सामने दी गई रकम कथित रूप से दर्ज थी. नरसिम्हा राव सरकार डायरी पर कार्यकाल के बिलकुल आखिर तक कुंडली मारे बैठी रही. लेकिन लोकसभा चुनाव से चार-पांच महीने पहले नाम बाहर आने लगे और सीबीआई चार्जशीट की तैयारी करने लगी. जनवरी, 1996 में ऐसा होते ही आडवाणी ने फौरन बीजेपी का अध्यक्ष पद छोड़ा और बेदाग साबित होने तक चुनाव न लड़ने का ऐलान किया. इसीलिए 1996 के लोकसभा चुनाव में अटल बिहारी अपनी पुरानी लखनऊ सीट के अलावा आडवाणी की गांधी नगर सीट से चुनाव लड़े थे.
इस डायरी में मदन लाल खुराना का भी नाम था. आरोप था कि उन्होंने 1988 में तीन लाख रुपये लिए थे. खुराना पर मुख्यमंत्री का पद छोड़ने का दबाव बढ़ने लगा. आडवाणी खेमा और संघ लगातार संदेश और संकेत दे रहे थे. खुराना इन्हें ग्रहण नहीं कर रहे थे. उन्हें अपने पुराने दोस्त और राव के खास भजनलाल का भरोसा मिला था. कि निश्चिंत रहें. आपके खिलाफ चार्जशीट नहीं होगी.
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चुनावी रैली में मदन लाल खुराना (फोटो: इंडिया टुडे आकाईव)

एक महीना बीत गया. फरवरी का आखिरी सप्ताह आया. खुराना उस दिन संसद में थे. बीजेपी की दो दिन की राष्ट्रीय कार्यकारिणी बैठक में हिस्सा लेने के लिए. ये बैठक संसद की एनेक्सी में हो रही थी. तभी उन्हें फौरन 28 अकबर रोड जाने को कहा गया. ये दिल्ली के पुलिस कमिश्नर और बाद में कांग्रेसी नेता बने निखिल कुमार का घर था. यहां मौजूद थे पीके दवे. दिल्ली के लेफ्टिनेंट गवर्नर. खुराना को दवे को अपना इस्तीफा सौंपने को कहा गया. वजह, सीबीआई का कोर्ट में बयान, जिसमें एजेंसी ने कहा कि हम जल्द मदनलाल खुराना के खिलाफ जैन हवाला मामले में चार्जशीट पेश करने जा रहे हैं.
इस मुश्किल में भी एक तबका था पार्टी का जो खुराना का सपोर्ट कर रहा था. इसे लीड कर रहे थे मुरली मनोहर जोशी. उन्होंने कहा कि इस्तीफा देकर हम नरसिम्हा राव के जाल में फंस चुके हैं. मगर जोशी के पहले ही आडवाणी और बिहार विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष यशवंत सिन्हा अपने अपने पदों से इस्तीफा दे चुके थे.
ऐसे में 22 फरवरी को आडवाणी की सलाह पर, जिसे 10 बरस बाद खुराना अपनी सबसे बड़ी भूल बताने वाले थे, खुराना ने इस्तीफा दे दिया. उनकी जगह उनकी पसंद के हर्षवर्धन के बजाय विधायक दल के बहुमत के आधार पर धुर विरोधी साहिब सिंह वर्मा सीएम बन गए.
कोर्ट ने मुक्त किया, कुशाभाऊ ने नहीं
1997 के आखिर तक एक-एक कर जैन हवाला मामले के केस कोर्ट में औंधे मुंह गिरने लगे. खुराना भी बरी हो गए. उन्हें लगा कि एक बार फिर दिल्ली के सीएम का ताज सिर सजेगा. खुराना खेमे के विधायकों ने साहिब सिंह और संगठन पर दबाव बढ़ाना शुरू कर दिया. मगर लालकृष्ण आडवाणी इसके लिए राजी नहीं हुए. फिर आ गए मार्च, 1998 में लोकसभा चुनाव. खुराना को दिल्ली सदर से चुनाव लड़ने को कहा गया. वह जीते तो अटल कैबिनेट में मिनिस्टर बनाए गए. लेकिन नज़र अब भी दिल्ली पर थी. राज्य में चुनाव से लगभग 50 दिन पहले आखिर साहिब सिंह वर्मा का इस्तीफा हुआ. मगर उन्होंने जाने से पहले शर्त रख दी, खुराना नहीं आने चाहिए. ऐसे में सुषमा स्वराज कंप्रोमाइज कैंडिडेट हो गईं. बीजेपी फिर भी औंधे मुंह गिरी. 49 से 15 सीटों पर. और कांग्रेस ने शीला दीक्षित के नेतृत्व में सरकार बनाई.
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शीला दीक्षित के साथ मदन लाल खुराना. (फोटो: इंडिया टुडे आकाईव)

दो महीने बाद अटल सरकार से भी खुराना की विदाई हो गई. पिछली बार कोर्ट ने कुर्सी छुड़वाई थी. इस बार कुशाभाऊ ने. इसकी शुरुआत हुई एक भाषण और दो चिट्ठियों से.
भाषण हुआ 1999 की शुरुआत में बेंगलुरु में बीजेपी की कार्यकारिणी बैठक में. यहां खुराना ने बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद जैसे संगठनों पर अटल सरकार की राह में रोड़े अड़ाने का इल्जाम लगाया. संघ अपने अनुषांगिक संगठनों की सार्वजनिक आलोचना पर भड़क गया. संघ के सेकंड इन कमांड के सी सुदर्शन ने प्रधानमंत्री अटल बिहारी और बीजेपी अध्यक्ष कुशाभाऊ ठाकरे को साफ कर दिया. मदनलाल को जाना होगा. कुशाभाऊ ने मंत्री जी से कह दिया, खुद इस्तीफा दे दें, मंत्रिमंडल और पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी से. बर्खास्त होंगे तो ज्यादा किरकिरी होगी.
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अटल बिहारी बाजपाई और लालकृष्ण आडवाणी के के साथ मदन लाल खुराना. (फोटो: इंडिया टुडे आकाईव)

अटल ने मदनलाल से इस्तीफे की चिट्ठी लिखवा ली. ये कहकर कि तुम्हें मेरी वजह से शहीद किया जा रहा है. ढाई हफ्ते में खुराना ने ओडिशा में ईसाई मिशनरी की हत्या के बाद फिर चिट्ठी लिखी. छद्म हिंदुत्व पर सवाल उठाए और पश्चाताप की बात कही. प्रेस से बोले, पार्टी के निर्देश का इंतजार है. मगर ये चिट्ठी कुशाभाऊ से पहले प्रेस को पहुंच गई. अध्यक्ष ने फिर जवाब दिया. एक पंक्ति में. आपका इस्तीफा स्वीकार किया जाता है. खुराना को फिर इंतजार करना पड़ा. हालांकि अटल के दखल पर उन्हें 1999 के लोकसभा चुनाव में भी दिल्ली सदर से टिकट मिला. वो जीते भी. लेकिन मंत्री पद नहीं मिला. दिल्ली कोटे से नई दिल्ली सांसद जगमोहन मंत्री बन गए. मदनलाल चार बरस इंतजार करते रहे. जब दिल्ली चुनाव के लिए सुषमा स्वराज और विजय कुमार मल्होत्रा ने सदारत से इनकार कर दिया तो एक बार फिर 67 साल के खुराना को आगे किया गया.
हार के बाद आडवाणी से दोहरी अदावत
2003 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में मदनलाल खुराना के दावे को मजबूती देने के लिए चुनाव से लगभग एक बरस पहले वाजपेयी सरकार ने एक खास पद भी दिया. दिल्ली मेट्रो रेल कॉरपोरेशन के चेयरमैन का. बीजेपी का कहना था कि दिल्ली मेट्रो प्रोजेक्ट खुराना का ब्रेन चाइल्ड था और इस ट्रांसपोर्ट साधन की सफलता का श्रेय भी उन्हें ही मिलना चाहिए. हालांकि कांग्रेस ने चुनाव के वक्त आयोग में शिकायत की कि ये लाभ का पद है और चुनाव लड़ने से पहले उन्हें इस्तीफा देना चाहिए था.
मदनलाल ने अपनी पुरानी मोती नगर विधानसभा से पर्चा भरा. कांग्रेस ने उनके सामने दिल्ली यूनिवर्सिटी की अध्यक्ष रही अलका लांबा को उतारा. खुराना अपना चुनाव तो जीत गए, मगर बीजेपी अपनी टैली में पांच का इजाफा कर कुल 20 सीटें पाकर फिर से विपक्ष में बैठी. शीला दीक्षित के नेतृत्व में कांग्रेस ने 70 में 47 सीटें जीतीं. उमाशंकर दीक्षित की बहू फिर सीएम बनीं.
और खुराना. उन्हें अटल ने राजस्थान का गवर्नर बना भेज दिया. छह-आठ महीने में खुराना लौटे, मगर अब सब बदल चुका था. अटल पीएम नहीं थे. आडवाणी फिर संगठन संभाल रहे थे. दिल्ली में नए दावेदार उभर चुके थे. किस्से कई हैं. अटल-आडवाणी का खुराना के फेर में आखिरी झगड़ा. दो बार खुराना का पार्टी से निष्कासन और वापसी. कंधार के हीरो और जीरो का वाकया. उमा भारती की रैली. मगर उन पर फिर कभी बात करेंगे. जरूर करेंगे.
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मदन लाल खुराना के फुर्सत के पल (फोटो: इंडिया टुडे आकाईव)

ये कहानी मुख्यमंत्री मदनलाल खुराना की थी. अटल के खास सिपहसालार. जो अपने नेता की मौत के दो महीने बाद 82 की उमर में 2018 में गुजर गए.


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