यह लेख डेली ओ से लिया गया है जिसे हर्षल सोनकर ने लिखा है. दी लल्लनटॉप के लिए हिंदी में यहां प्रस्तुत कर रही हैं शिप्रा किरण.
छोटी जाति से होना क्या होता है, मुझसे पूछिए
'ढोकले का स्वाद नहीं जानने वाले 'छोटी जाति' के लोग बराबर बैठकर चाय नहीं पी सकते.'
जब भी कोई मुझसे ये कहता है कि अब हमारे समाज में जाति के नाम पर किसी तरह का भेद-भाव नहीं किया जाता, या जातिवाद जैसी चीज ख़त्म हो चुकी है, तब मैं ये समझ नहीं पाता कि मैं ऐसे लोगों से क्या कहूं? मुझे अफ़सोस होता है ऐसी बातें सुनकर. ये वो लोग हैं जो हमारे समाज की सच्चाई से बिलकुल वाकिफ़ नहीं. इन्हें नहीं पता कि इनके आसपास क्या हो रहा है. हकीकत क्या है.
इसी बारे में मैं अपने कुछ अनुभव शेयर करना चाहता हूं. ये तब की बात है जब मैं टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज (TISS), मुम्बई में पढ़ता था. वहां फील्ड पर जाना सिलेबस में शामिल होता है. तो 2014 में मुझे भेजा गया मुज़फ्फरनगर. वहां दंगे हुए थे, और मुझे पुनर्वास का काम देखना था. साथ में सांप्रदायिक तनाव से सम्बंधित कुछ अध्ययन करने थे.
उसी दौरान मैं स्कूल के कुछ बच्चों के साथ काम कर रहा था. एक दिन मैंने देखा कि मिड-डे मील यानी दोपहर के वक्त स्कूल में मिलने वाले सरकारी मध्याह्न भोजन के ही समय कुछ मुसलमान बच्चे घर लौट रहे थे. मुझे आश्चर्य हुआ कि जब स्कूल में दोपहर का खाना दिया जाता है तो ये बच्चे इस समय घर क्यों जा रहे हैं? मैंने बच्चों से बात करने की कोशिश की पर किसी बच्चे ने कुछ नहीं बताया.
ये सुनकर मैं दहल गया. क्योंकि मैं इसी जाति का हूं. और मैं हफ़्तों से इन्हीं लोगों के लिए काम कर रहा था. मैं बहुत गुस्से में था. मैंने उस कैम्प के एक बुज़ुर्ग से इस बारे में बात की. मैंने कहा कि आप लोग अपने बच्चों को ऐसी चीजें क्यों सिखाते हैं? उसका जवाब था- 'कभी चिड़िया और कौवे का मेल हो सकता है? जब खुद हिन्दू उनको अपने पास नहीं रखते तो हम तो मुसलमान हैं, हम कैसे उनके हाथ का खाएं?'
मुझे ये देखकर आश्चर्य हुआ कि मुसलमानों के भीतर फैले जातिवाद को जानबूझकर अनदेखा करने वाला वो बुज़ुर्ग हिन्दुओं के भीतर फैले जातिगत भेदभाव को अपना ही नहीं रहा था, उसे और मजबूत भी कर रहा था. आगे मुझे ये भी पता चला कि एक महिला को स्कूल की नौकरी से इसलिए निकाल दिया गया था क्योंकि वो चमार समुदाय से थी और कोई भी उसके हाथ का खाने को तैयार नहीं था.
2015 में जब मैंने अपने करियर की शुरुआत की, इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रीसर्च (ICMR) के एक प्रोजेक्ट के तहत मुझे गुजरात भेजा गया. वहां मुझे कुछ इंटरव्यू लेने थे. एक इंटरव्यू के सिलसिले में जब मैं एक परिवार से मिला तो उन्होंने सबसे पहले मेरी जाति पूछी. मुझे उनसे झूठ बोलना पड़ा. मैंने उन्हें बताया कि मैं महाराष्ट्र में 'ऊंची' समझी जाने वाली मराठा जाति से हूं. इसके बाद ही उन्होंने मुझे अपने घर के अंदर आने दिया.
ऐसे ही दो और अनुभव हुए. ICMR वाले प्रोजेक्ट के दौरान मैं अक्सर एक दुकान पर चाय पिया करता था. दुकान के मालिक से मेरी अच्छी दोस्ती हो गई थी. एक दिन बातचीत के दौरान उसने मेरी जाति पूछ ही ली. मैं सच बताने से डरता था. उसे भी मैंने वही झूठ बोला. जब उसे पता चला कि मैं किसी 'नीची' जाति का नहीं, तब वो खुलकर बोला-
''हमारे तरफ़ अगर लोअर कास्ट आईएएस ऑफ़िसर भी आता है तो वो हमारे साथ बैठने की कोशिश नहीं करता. वो हमेशा नीचे बैठता है. हम उसे अपने साथ अपनी बराबरी में नहीं बैठने देते.''
इसी तरह एक दिन मैं ढोकला खाने एक दुकान में गया था. उस दुकानदार से भी मेरी ठीक-ठाक जान-पहचान थी. मैंने उससे ढोकला की रेसिपी पूछी. उसने कहा-
''सर, आप जैसे लोग ढोकले का टेस्ट समझ सकते हैं. नीची जातियों के लोगों को तो पता भी नहीं कि ढोकले का टेस्ट क्या होता है.''
उसे मेरी जाति के बारे में कुछ भी पता नहीं था. बस उसे मेरे बारे में इतना पता था कि मैं सरकारी नौकरी करता हूं और उसे विश्वास था कि कोई नीची जाति का आदमी अच्छी सरकारी नौकरी नहीं कर सकता. इसलिए उसने खुल कर अपनी बात कह दी थी मुझसे.
जाति के नाम पर किए जाने वाले भेदभाव में अब भी कोई ख़ास कमी नहीं आई है. जातिवाद को जड़ से खत्म करने के लिए अभी बहुत संघर्ष करना बाक़ी है. एससी/एसटी एक्ट का शिथिल किया जाना इसी बात की निशानी है कि जाति ज़िंदा है.
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