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Exclusive: दाऊद के साथ संजय दत्त के बाबूजी की तस्वीर

मुंबई अंडरवर्ल्ड की वे तस्वीरें और कहानियां जो आपको गूगल पर भी नहीं मिलेंगी.

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मुंबई जब अंडरवर्ल्ड का अड्डा था, तब सबसे बड़े पावर सेंटर थे- यहां के माफिया डॉन. क्या नेता, क्या फिल्मी स्टार, सबसे उनके रिश्ते थे. बाकायदे गुटबाजी थी. इसकी कुछ तस्वीरें भी मौजूद हैं. लेकिन तस्वीरें दो तरह की होती हैं. एक जो गूगल के खजाने में होती हैं और दूसरी जो नहीं होतीं. आज हम जो तस्वीर दिखा रहे हैं वो आपको गूगल पर भी नहीं मिलेगी.
पहली बार 'द लल्लनटॉप' के ज़रिये ये तस्वीर सामने आई. कॉपी राइट है विवेक अग्रवाल का.


तस्वीर 1

दुबई के एक मुशायरे में दाऊद इब्राहिम के साथ एक्टर सुनील दत्त. बाद में वह कांग्रेस में शामिल हो गए. मनमोहन सिंह सरकार में खेल और युवा मामलों के मंत्री रहे.  उनके बेटे बॉलीवुड एक्टर संजय दत्त को आर्म्स एक्ट के तहत दोषी पाया गया था. 
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कॉपीराइट: विवेक अग्रवाल



विवेक मुंबई में क्राइम रिपोर्टर रहे. उन्होंने मुंबई अंडरवर्ल्ड पर किताब लिखी है, ‘मुम्भाई.’ ये और इसके जैसी कई तस्वीर उसी किताब में छपी हैं. किताब वाणी प्रकाशन से है और 6 मार्च 2016 को रिलीज हुई थी. इसे आप यहां क्लिक करके
ऑनलाइन बुक भी कर सकते हैं.
इसके अलावा भी कई तस्वीरें हैं जो पहले सामने आ चुकी हैं, पर आसानी से उपलब्ध नहीं हैं.


तस्वीर 2

अनीस इब्राहिम के साथ एक्टर गुलशन ग्रोवर.
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कॉपीराइट: विवेक अग्रवाल



तस्वीर 3

दाऊद, छोटा राजन, अनीस इब्राहिम, छोटा शकील, सपा नेता अबू आसिम आजमी (सबसे बाएं). अबू आजमी के बेटे फरहान ने बॉलीवुड एक्ट्रेस आयशा टाकिया से शादी की है.
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तस्वीर 4

कभी मुंबई के सबसे बड़े डॉन रहे हाजी मस्तान की बीवी, सोना.

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तस्वीर 5

छोटा राजन, अनिल परब और नूरा कास्कर.
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तस्वीर 6

छोटा शकील. तस्वीर मुंबई पुलिस रिकॉर्ड से.
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तस्वीर 7

छोटा राजन और सुजाता की शादी में दाऊद और माहजबीन.
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तस्वीर 8

दाऊद के पाकिस्तानी पासपोर्ट की तस्वीर. पुलिस रिकॉर्ड के मुताबिक.
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तस्वीर 9

हाजी मस्तान के साथ दिलीप कुमार और सायरा बानो.
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तस्वीर 10

माफिया मान्या सुरवे, माया, दाऊद और जुबैर.
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इसी किताब में विवेक ने टाडा कोर्ट पर एक चैप्टर लिखा है. इसी टाडा ऐक्ट के तहत एक्टर संजय दत्त को 1993 में गिरफ्तार किया गया था. इस मामले में संजय फरवरी 2016 में अपनी सजा पूरी करके जेल से बाहर आए. विवेक ने अपनी किताब में संजय दत्त की गिरफ्तारी की कहानी भी बताई है.
पढ़िए किताब के अंश:

टाडा : सत्य और कथ्य

'टाडा' एक ऐसा कानून जो आतंक का पर्याय था. उनके लिए यह आतंक का पर्याय था जो खुद आतंक फैलाते थे. टाडा के तहत जो कार्रवाई मुंबई माफिया के खिलाफ हुई, वह कितनी कारगर रही, इस बारे में किसी को संदेह नहीं. उन दिनों सभी गिरोहों के सदस्य पुलिस से अगर किसी कारण डरते थे तो उनकी गोलियों से नहीं, बल्कि टाडा से. टाडा ने कैसे माफिया के आतंक को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की और कैसे वह खुद आतंक बन कर सामने आया... एक बहस.
कानून का ककहरा
बमकांड छानबीन में लगा वह थका-हारा पुलिस अधिकारी उस शाम शांति भुवन होटल में मेरे सामने बैठा जूस की चुस्कियां लेते हुए कह रहा था -
'आपको पता है, संजय दत्त को टाडा में गिरफ्तार करने वाले हैं?' 'क्या कह रहे हैं आप?'
मेरा हड़बड़ाना जायज था. संजय का नाम बमकांड के सिलसिले में खूब उछल रहा था लेकिन सभी का मत था कि उसके खिलाफ टाडा के तहत कार्रवाई नहीं होगी. ऐसे में इस अधिकारी का यह कहना चौंकाने के लिए बहुत काफी था. वह इतमिनान से बोला -
'लगता तो यही है.' 'लगने का मतलब क्या हुआ?' 'आज जैसी चर्चा थी, उसके आधार पर कह रहा हूं.' 'चर्चा का क्या चक्कर है?' 'याने पोलिटिकल...' 'राजनीति का बमकांड से क्या लेना-देना?' 'टाडा से तो है...' 'कैसे?' 'टाडा के खिलाफ कांग्रेसी और समाजवादी न जाने कबसे दंगा मचाए हैं. उनको इस कानून को रद्द करवाना है. उनकी तो दुकान खत्म हुई जा रही है.' 'तो मेरे भाई, उसका संजय दत्त से क्या लेना-देना?' 'अगर संजय दत्त को टाडा में गिरफ्तार करते हैं तो बड़ा धमाल होगा. वह एक सितारा है, उसके पिता न केवल फिल्मी हस्ती हैं बल्कि कांग्रेस के सांसद हैं, संजय की गिरफ्तारी से बड़ी बहस चल पड़ेगी...' 'इस बहस से क्या होगा?' 'यह कि संजय टाडा कानून खत्म करवाने का सबसे बढ़िया उपकरण बनेगा.' 'यार अपने गले यह बात आसानी से उतर नहीं रही है.' 'मेरे भी नहीं उतरती... लेकिन जो संकेत मिले, उनको मैं दुहरा रहा हूं.' 'परंतु मुझे एक बात बताएं.' 'हां...' 'क्या संजय दत्त ने ऐसा जुर्म नहीं किया है जिसके लिए वह टाडा में गिरफ्तार हो?' 'किया है, एक अधिसूचित क्षेत्र में एक प्रतिबंधित हथियार अवैध रूप से हासिल किया. टाडा में प्रतिबंधित हथियार अधसूचित क्षेत्र में रखना अवैध है. ऐसे व्यक्ति के खिलाफ टाडा लगाया जा सकता है और...' 'तो फिर यहां राजनीति कहां घुस गई?' 'मामला शरद पवार विरुद्ध सुनील दत्त भी तो है.' 'तो क्या पवार-दत्त की लड़ाई में संजय यूं ही पिस जाएगा?' 'राजनीति इसी का नाम है मेरे दोस्त...' 'भली बला है भाई यह राजनीति भी...' 'देख लेना, कुछ दिनों में खासा बवंडर उठेगा. हम-तुम कुछ नहीं कर पाएंगे. जो होगा, हम सभी मूक दर्शक होंगे.'
हमारे सामने रखे इडली-सांभर अब तक ठंडे हो चुके थे, जूस के गिलासों के बाहरी हिस्से पर पानी की बूंदें जमा थीं, मानों उन गिलासों को भी पसीना आ गया. अब उनकी ओर ध्यान गया तो इडली खाकर जूस पिया और बिल अदा कर बाहर आए. दोनों ने दुआ-सलाम की और अपने-अपने दफ्तरों की ओर चल दिए. उस अधिकारी की बात को चंद दिन न बीते होंगे कि वही हुआ जिसकी जानकारी मिली थी.
कटघरे में कानून
स्थान- आर्थर रोड जेल विशेष टाडा अदालत परिसर मुंबई. तारीख- 1994 का एक दिन. समय- दोपहर. कानून- आतंकवादी और विध्वंसक गतिविधि (रोकथाम) कानून (टाडा) 1987. जेल- ठाणे सेंट्रल जेल, जिला ठाणे. नाम- संजय दत्त. व्यवसाय- अभिनय. आरोप- अवैध विदेशी हथियार रखना. बमकांड साजिशकर्ताओं को सहयोग प्रदान करना इत्यादि.
स्थान- दिल्ली. तारीख- 5 नवंबर 1986. समय- शाम. कानून- आतंकवादी और विध्वंसक गतिविधि (रोकथाम) कानून (टाडा) 1987. जेल- तिहाड जेल, दिल्ली. नाम- शहीद सिद्दीकी. व्यवसाय- संपादक, उर्दू साप्ताहिक नई दुनिया. आरोप- लंदन निवासी खालिस्तानी विचारक-जंगजू जगजीत सिंह चौहान का साक्षात्कार अखबार में छापना कि खालिस्तान एक दिन सच्चाई बन जाएगा.
उन दिनों संजय दत्त जमानत के लिए कानूनी लड़ाई लड़ रहा था, मामला सुप्रीम कोर्ट में था और हालात बेहद जटिल, सवाल था कि उसे जमानत मिलेगी या नहीं? संजय दत्त को एक बार जमानत मिली, वह काम करता रहा, देश छोड़ कर नहीं गया, फिर गिरफ्तार हुआ.
उधर मामला सिद्दीकी का लें तो पता चलता है कि सिर्फ एक इंटरव्यू छापने के कारण उन्हें पुलिस ने 'टाडा' में बंद कर दिया. 18 दिनों तक लंबी और गंभीर बहस, खोज, नुक्ताचीनी, जांच-पड़ताल तथा माथाफोड़ी के बाद सिद्दीकी को जमानत मिली. श्री सिद्दीकी काम करते रहे, प्रधानमंत्री कार्यालय के अधिकृत बुलावों पर 15 विदेश यात्राएं कर आए, फिर भी टाडा आरोपी, लेकिन जमानत पर बाहर.
मुंबई ही नहीं पूरे महाराष्ट्र में टाडा दुरुपयोग की बातें जोर-शोर से उठाने की कोशिशें हुर्इं लेकिन बगैर राजनीतिक सहयोग के दब गर्इं. हर राजनैतिक दल का सिर्फ मुस्लिम प्रतिनिधि टाडा के खिलाफ बोलता रहा कि यह 'काला कानून' मुस्लिमों का दमन करता है. आरोप लगा कि बाबरी मस्जिद ढहने से नाराज और दिसंबर 92-जनवरी 93 के दंगों में शिकस्त से आहत मुस्लिमों को मनाने-मरहम लगाने के लिए कांग्रेस ने भी टाडा की मुखलाफत की थी. तत्कालीन मुख्यमंत्री महाराष्ट्र शरद पवार पहले ही टाडा के खिलाफ बोल चुके थे. केंद्रीय आंतरिक सुरक्षा मंत्री राजेश पायलट (अब स्वर्गीय) ने मुंबई में 'खिलाफत दिन' के जुलूस की अगुवाई के पहले ऐलान किया कि टाडा का दुरुपयोग सिद्ध हो जाए तो यह रद्द होगा. इससे टाडा पर व्यापक बहस छिड़ गई. इधर सुरक्षा जांच और खुफिया एजंसियां इस अचूक अस्त्र को खोना नहीं चाहतीं थीं, उधर मानवाधिकार संगठन, वकील और मुस्लिम नेता इसे जड़-मूल से खत्म करने पर आमादा थे. दोनों पक्ष अपनी जगह सही थे. अब किसकी बात मानें? प्रश्न यही था.
4 अगस्त 1994 को केंद्रीय मंत्रियों, सांसदों और वकीलों की एक संयुक्त बैठक में श्री पवार ने ऐलानिया कहा कि हमारी कानून व्यवस्था में 'टाडा' सबसे खतरनाक हिस्सा है. इसके दुरुपयोग की शिकायतें सुन एक जांच आयोग बैठाया गया, जिसने पाया कि टाडा में 50 फीसदी मामले फर्जी बनाए गए. यह भी कि टाडा के तहत गिरफ्तार हुए लोगों में मुस्लिम समुदाय का प्रतिशत सर्वाधिक था. जब महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री ऐसे बयान दे तो कोई आश्चर्य नहीं कि बाकी भी अधिक हाय-तौबा मचाएं. टाडा राजनीति में वाद-विवाद का विषय बन गया. श्री पवार की जान उन दिनों जितनी सांसत में थी, पहले कभी न थी. पहले खैरनार ने उनकी खबर ली, फिर तिनईकर ने तड़का दिया, फिर अंतुले ने आरोप लगाए, फिर उल्हास जोशी उछल कर मैदान में आ गए, फिर रामदास नायक की हत्या का मामला आ गया. विरोधी कहते हैं कि 'टाडा' में 'गिरफ्तारी पुनर्विचार की संभावना' का शोशा श्री पवार के दिमाग में इसलिए आया क्योंकि वे 'अपने लोगों' को बचाना चाहते थे.
महाराष्ट्र में टाडा दुरुपयोग पर श्री पवार के खिलाफ पूर्व मुख्यमंत्री अब्दुल रहमान अंतुले ने ही आरोप नहीं लगाए, उनके निकट प्रतिद्वंद्वी अर्जुन सिंह और शंकरराव चव्हाण के अलावा तत्कालीन रेल मंत्री सीके जाफर शरीफ और तत्कालीन आंतरिक सुरक्षा मंत्री राजेश पायलट भी सख्त मुखालफत में थे. श्री पायलट ने ठीक श्री पवार के गढ़ में आकर चोट की ओर 'टाडा दुरुपयोग' का दावा (आरोप) ठोंक कर चले गए.
उधर मुंबई पुलिस भारी परेशानी में थी. बमकांड के तमाम आरोपियों को पकड़ने, उनके खिलाफ आरोप-पत्र बनाने इत्यादि में दिन-रात एक करने के बाद भी 'शाबाशी' या 'धन्यवाद' का एक बोल न मिला, ऊपर से सीबीआई को अदालत में मामला चलाने का ईनाम दे दिया. आहत पुलिस पर अल्पसंख्यकों पर अत्याचार और टाडा दुरुपयोग के आरोप लगे. पुलिस अधिकारी कहते हैं कि बमकांड पूर्णतः आतंकी गतिविधि है. वे मानते हैं कि बमकांड के बाद कुछ लोगों को जल्दबाजी में टाडा लगाया. कुछ बमकांड आरोपियों को टाडा से छूट मिली, जो बाद में सही साबित हुई.

'ठीक से रह, नहीं तो टाडा में डाल दूंगा'

पुलिस अधिकारी आज भी यही मानते हैं कि कई दशकों पुरानी भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) और अपराध प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) के जरिए अपराधों की रोकथाम असंभव है. इसी वजह से पुलिस टाडा का इस्तेमाल गिरोहबाजों के खिलाफ करती थी. यह सच है कि मुंबई में टाडा का इस्तेमाल गिरोहबाजों के खिलाफ सर्वाधिक संख्या में हुआ. लेकिन सच यह भी है कि मुंबई का एक अदना-सा हवलदार भी किसी पान-सब्जी वाले को 'हफ्तावसूली' के लिए घुड़कता था तो यही कहता था- 'ठीक से रह, नहीं तो टाडा में डाल दूंगा.'
बमकांड के फौरन बाद मुंबई पुलिस ने जिस हड़बड़ी में गिरफ्तारियां कीं, उसे देखकर लगा कि ठाणे, रायगढ़ और मुंबई में अपराधी ही नहीं, उनके लिए छोटे-मोटे काम करने वाले भी जेलों में दिखेंगे. अति उत्साह की हद तब हो गई, जब मुंबई पुलिस के एक दस्ते ने 40 से अधिक जुलाहों को धर दबोचा. आरोप था - विध्वंसक रॉकेट रखने का. ये रॉकेट भी दो-चार नहीं, सैकड़ों की संख्या में जब्त हुए. सात दिनों बाद पता चला कि जब्त सामग्री रॉकेट या उनके खोल न होकर बुनाई के काम आने वाले 'स्पिंडल कोन' थे. गिरफ्तारी के दौरान जुलाहों पर कथित 'रॉकेट' की प्राप्ति स्रोत जानने के लिए बेतहाशा जुल्म हुए. पुलिस को भरोसा ही न था कि ये स्पिंडल कोन हैं. अप्रमाणित आंकड़ों के मुताबिक सिर्फ बमकांड के दौरान टाडा के नाम पर अवैध गिरफ्तारियों की संख्या 3,000 तक गई थी. इनमें से मात्र 175 के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल हुए.
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) ने टाडा को 'काले से भी अधिक काला' कानून की संज्ञा दी तो तमाम मानवाधिकार संगठन इसके खिलाफ खड़े हो गए. 90 के दशक में नागरिक स्वतंत्रता आंदोलन के तहत 'टाडा' खास मुद्दा बना. एनएचआरसी इसके खिलाफ कदम उठाने लगा. स्व. केंद्रीय गृहमंत्री शंकरराव चव्हाण ने संसद में स्वीकार किया कि टाडा का दुरुपयोग हो रहा है. उन्होंने तमाम राज्यों के मुख्यमंत्रियों को एक पत्र लिख कर टाडा का दुरुपयोग रोकने के लिए कहा.
एनएचआरसी अध्यक्ष और सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस रंगनाथ मिश्रा नए परिवर्तनों के साथ आए टाडा की पुर्नसमीक्षा में लगे थे. वे बताते हैं, 'परिवर्तनों के बावजूद टाडा की भयावहता में कोई कमी नहीं आई. इसे रोकने के लिए एनएचआरसी ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की.' एनएचआरसी महासचिव और वरिष्ठ संवैधानिक वकील आरवी पिल्लई ने कहा कि इस पर चर्चा होनी चाहिए. वे कहते हैं, 'टाडा के खिलाफ याचिका अपनी मिसाल आप है क्योंकि टाडा का दुरुपयोग राज्यों में सीमाएं लांघ गया. पुलिस को जुल्म का एक नया अस्त्र मिल गया महसूस होता है.' वे बताते हैं कि आयोग ने पहले भी मुख्यमंत्रियों को दुरुपयोग के बारे में चेतावनी दी, राज्य सचिवों को समय-समय पर लिखा, केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधिकारियों से कई बैठकें कीं, जिसमें मुद्दा था कि राज्यों में टाडा के तहत क्यों, कैसे और कितने मामले दर्ज हुए? इनका विश्लेषण भी किया... लेकिन नतीजा? वही... सिफर.
गृह मंत्रालय और पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) तथा द पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स (पीयूडीआर) जैसी मानवाधिकार संस्थाएं टाडा कैदियों के संदर्भ में अपने आंकड़े देती हैं. इन्हें सही माना जाए तो हालात भयावह दिखते हैं. पीयूसीआर का दावा है कि 1985 से टाडा खत्म होने तक 53 हजार से अधिक लोग पकड़े गए. इससे भी खतरनाक स्थिति यह थी कि जिन राज्यों में आतंकवाद न था, वहीं इस काले कानून के सर्वाधिक शिकार हुए. इसका श्रेष्ठतम उदाहरण गुजरात है, जहां 19,000 लोग टाडा में पकड़े गए. इनमें से मात्र 12 फीसदी के आरोप पत्र अदालतों में पहुंचे, सिर्फ 4 फीसदी की सुनवाई हुई और सालाना सजा की दर 1 फीसदी से भी कम रही.
सुप्रीम कोर्ट संविधान पीठ ने टाडा की वैधता पर प्रश्नचिन्ह लगाया, कुछ परिवर्तन जरूरी समझे. राजेश पायलट स्वीकार करते थे कि टाडा का दुरुपयोग हुआ है. वे मानते थे कि सजा की दर काफी कम है. 'आतंकवादियों को सजा देने के लिए पहले से मौजूद कानून पर्याप्त थे, नए कानून (टाडा) की तो जरूरत ही न थी.' उनका नजरिया था कि टाडा का दुरुपयोग न रोका गया तो उसे खत्म कर दिया जाए. यही नजरिया तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहराव का भी रहा. उनको जबर्दस्त राजनीतिक समर्थन मिला और अंततः टाडा खत्म हो गया.
तत्कालीन केंद्रीय गृह सचिव के. पद्मनाभैय्या कहते हैं कि देश भर में कुल 46,425 मामले दर्ज हुए. इसमें से 38,442 (82.2 फीसदी) व्यक्तियों को देश के उत्तर-पूर्वी राज्यों, आंध्रप्रदेश, असम, पंजाब, जम्मू-कश्मीर और तमिलनाडु में गिरफ्तार किया. वे टाडा को राजस्थान और गुजरात में लागू करने का कारण बताते हैं कि दोनों राज्य सीमा पर हैं, जहां गलत गतिविधियां काफी होती हैं. इसे रोकने के लिए टाडा लगाया. इन राज्यों की लंबी खुली असुरक्षित सीमा पर तस्करी खूब होती है. यहां से सोना, नशा, उपभोक्ता सामग्रियां और हथियार देश में चोर रास्तों से आते हैं. लेकिन महाराष्ट्र सीमांत प्रदेश नहीं, फिर यहां टाडा की जरूरत क्यों पड़ी? श्री पद्मनाभैय्या के मुताबिक यहां की तस्वीर अलग है. वे कहते हैं- 'मुंबई बमकांड ने देश की आत्मा को झकझोर दिया. यह सरकार को उखाड़ फेंकने की साजिश थी. यह कहना गलत होगा कि टाडा मुस्लिमों को दबाने के लिए बना. आरोप बिल्कुल निराधार हैं.' वे मानते हैं कि सीमांत प्रदेशों में टाडा के तहत मुस्लिम अधिक पकड़े गए. वे कारण बताते हैं, 'कुछ खास इलाकों में, कुछ खास समुदाय, कुछ खास अनैतिक अवैध व्यापार-व्यवसाय में लगे हैं. इसके कारण यह संख्या बड़ी दिखाई देती है.'
एक और चिंताजनक मुद्दा टाडा लागू करने के बारे में उठा था. इसकी जद में आतंकवादी ही नहीं पत्रकार, वकील, नेता, श्रमिक नेता, सरकारी अधिकारी, कानून व्यवस्था से संबंधित व्यक्ति भी आते रहे. किसी को भी यह कानून हथकड़ी लगाने में सक्षम था.
राज्यसभा में जनता दल के सांसद मोहम्मद (मीम) अफजल ने टाडा मसले को उठाया. उनका दावा था कि मुस्लिम समुदाय पर टाडा की ज्यादती के आरोप साबित करने के लिए पर्याप्त दस्तावेज हैं. दंगों के नाम पर काफी मुस्लिम टाडा में धरे गए. वे आरोप लगाते हैं, 'मैंने रिपोर्ट की जांच की और पाया कि मुंबई बमकांड की छानबीन कर रहे विशेष कार्य बल (एसटीएफ) और पुलिस ने 5,000 से अधिक लोगों को टाडा के नाम पर परेशान किया. कुछ को सीबीआई ने भी हैरान किया जबकि गिरफ्तारी सिर्फ 189 व्यक्तियों की ही हुई. मुंबई के मध्यमवर्गीय मुस्लिम परिवारों में आज ऐसा कोई नहीं बचा है, जिससे पुलिस ने टाडा की दहशत दिखा कर कुछ लूटा न हो. टाडा में गिरफ्तारी का डर दिखा कर लूटने की दर 5 लाख से 3 करोड़ रुपए तक थी. यह सब मैं 'ऑन रिकॉर्ड' दे सकता हूं.' वे जब इतने विश्वास से दावा करते हैं तो कुछ सच्चाई जरूर होगी.
कुछ वर्ष पहले मारे गए पूर्व इंका सांसद रऊफ वलीउल्लाह ने दावा किया था कि बाबरी मस्जिद टूटने के पहले तक गिरफ्तार 1,200 टाडा आरोपियों में से 1,050 मुस्लिम थे. यह संख्या बाद में और बढ़ी. सूरत के दंगों ने टाडा गिरफ्तारी का रिकार्ड बनाया. उस समय 2,000 दंगाई इस कानून में गिरफ्तार हुए. पीयूडीआर की रपट के मुताबिक गुजरात में 1985 से 1990 के दौरान टाडा के तहत कुल 11,957 गिरफ्तारियां हुर्इं जबकि 2,167 मामले दर्ज हुए. कुल फरार आरोपियों, रद्द या वापस लिए मामले 25 फीसदी थे. 26 फीसदी मामलों की तफ्तीश जारी थी. 49 फीसदी मामलों को चुनौती दी गई. चुनौती दिए मामलों में 18 फीसदी सरकार ने वापस ले लिए. लंबित रहे 20 फीसदी, निर्णय हुआ 13 फीसदी का. निर्णय हुए मामलों में भी सजा हुई 81 व्यक्तियों को. टाडा कानून के प्रावधानों से अलग और टाडा के तहत 18 व्यक्तियों को. टाडा के तहत सजा पाने वाले व्यक्तियों का प्रतिशत कुल पकड़े लोगों का 8.15 है. स्पष्ट है कि टाडा का कितना दुरुपयोग हुआ.
सीबीआई का दावा है कि केंद्र में उन्होंने सिर्फ 46 मामले टाडा के तहत दर्ज किए, जिनके आरोप पत्र भी अदालत में पेश हो चुके हैं. सभी मामले आतंकवादी और तोड़फोड़ की घटनाओं के थे. इनमें रुबाइया सैय्यद अपहरण मामला है तो मुंबई बमकांड भी है. जनरल अरुण कुमार वैद्य, प्रधानमंत्री राजीव गांधी, श्री मुस्तफा, लास्सा कौल, मुशीर उल हक, मौलवी फारुख की हत्याओं के मामले भी हैं. इन उदारणों के कारण सीबीआई की बात में कुछ दम दिखता है. इससे उलट हालत गंभीर लगती है कि 1986 के बाद से देश भर में 67,251 गिरफ्तारियां हुर्इं. 44,388 मामले दर्ज हुए. गिरफ्तार लोगों में 53,481 जमानत पर रिहा हो गए. आरोप पत्र दाखिल हुए 17,086 मामलों में, 7,714 मामले लंबित थे, 7,990 का फैसला हुआ, 16,786 लोग रिहा हो गए, 626 को ही सजा मिली. टाडा आरोपियों को जमानत मिलने के मामले जरा आंकड़ों पर तौलें... 67,251 टाडा आरोपियों में 53,481 को जमानत मिली. जमानत देते समय जज को प्रथमदृष्टया विश्वास होना चाहिए कि आरोपी निर्दोष है. तो इतने लोगों को जमानत मिलना क्या दर्शाता है? कुल आरोपियों में सिर्फ 626 को सजा मिलने का मतलब है, बाकी ने कितनी पीड़ादायी लंबी जेल काटी थी.
यह जानना दिलचस्प रहेगा कि 1986 में 'टाडा' कानून बगैर किसी विरोध के संसद में पारित हुआ था. 1987 में पंजाब में राष्ट्रपति शासन लागू करने के बिल के साथ अवधि बढ़ाने के लिए टाडा कानून भी आया और पारित हुआ, 1989 में यह अवधि बढ़वाने को चंडीगढ़ डिस्टर्ब एरिया (अमेंडमेंट) बिल के साथ आया और पारित हुआ, 1993 में आईपीसी सुधार बिल के साथ ही टाडा फिर अवधि बढ़वाने आया, फिर पारित हो गया.
टाडा कानून ही लोगों ने कटघरे में खड़ा कर दिया. अंततः उसे सजा दी गई, सजा-ऐ-मौत. सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ का यह फैसला तो भले ही बाद में आया लेकिन राजनीतिक रोटियां सेंकने वालों ने तो पहले ही उसका जीवन निर्धारित कर दिया था. अंततः यह कानून भी खत्म हो गया क्योंकि एक समुदाय विशेष को प्रताड़ित करने का आरोप इस कानून पर लगा था.
जो हो, टाडा ने एक काम तो जरूर कर दिखाया था. और वह था माफिया गतिविधियों पर सख्ती और अंकुश. टाडा के डर से ही सही, काफी हद तक रंगरूट मिलने में भी गिरोहों को परेशानी होने लगी थी. गिरोहों को कामकाज चलाने में भारी परेशानियों का सामाने करना पड़ा, क्योंकि टाडा में जो एक बार बंद हुआ, उसे खुली हवा में सांस ले का मौका दो साल से पहले नसीब ही नहीं होता था.
टाडा दुरुपयोग का दावा निराधार: पवार
महाराष्ट्र के आंकड़े बेहद भ्रामक हैं. खासतौर से जो केंद्र और राज्य सरकार ने दिए. केंद्र के आंकड़ों के मुताबिक महाराष्ट्र में टाडा के तहत कुल 3,351 गिरफ्तारियां हुर्इं लेकिन राज्य सरकार के आंकड़ें, जो तत्कालीन मुख्यमंत्री शरद पवार ने दिए थे, सिर्फ 3,156 ही थे... यानी 195 कम. किसके आंकड़ों पर भरोसा करें?
श्री पवार कहते थे कि अब तक दाऊद के 399, नाईक के 103, गवली के 89 और अन्य गिरोहों के 539 अपराधी टाडा के तहत गिरफ्तार हुए यानी कुल 1,130 गिरफ्तारियां. दूसरी ओर उनके दिए आंकड़ों में 1990 से अगस्त 1994 तक कुल 550 गिरोहबाज गिरफ्तार हुए. इसका मतलब साफ है कि सरकार टाडा आंकड़ों के खिलवाड़ करती रही, केंद्र, मानवाधिकार संस्थाओं और जनता को अंधेरे में रखे रही. श्री पवार और मुंबई पुलिस आरोपों का खंडन करते रहे. पवार दावा करते रहे कि महाराष्ट्र ने टाडा खत्म करने के प्रस्तावों का तगड़ा विरोध किया. वे कहते थे कि टाडा में अल्पसंख्यकों पर कोई ज्यादती नहीं की गई. अधिक मुस्लिमों की टाडा में गिरफ्तारी का दावा बिल्कुल बेबुनियाद है.
श्री पवार कहते रहे कि गिरोहबाजों और आतंकवादी गतिविधियों से निपटने के लिए पुलिस को अधिक अधिकारों की जरूरत है, साथ ही जोड़ते रहे, 'यह जरूर है कि 'टाडा' का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए.' श्री पवार ने इस आरोप का खंडन किया कि महाराष्ट्र में टाडा के तहत हजारों गिरफ्तारियां की गर्इं. उनका दावा था कि पूरे महाराष्ट्र में गिरफ्तार 3,156 लोगों में से 2,225 (60 फीसदी) मुस्लिम थे. उन्होंने कहा कि दिसंबर 92 और जनवरी 93 के दंगों में जितनी गिरफ्तारी हुई, उनकी पुर्नसमीक्षा के लिए उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया, जो एक माह में रपट पेश करेगी. यह रपट अब कहां है? श्री पवार का कहना था कि टाडा दुरुपयोग के आरोप उनके खिलाफ राजनैतिक साजिश के चलते उछाले गए. पूर्व मुख्यमंत्री अब्दुल रहमान अंतुले के आरोपों पर श्री पवार चुप रहते थे लेकिन सधा हुआ जवाब भी देते थे. वे कहते थे, 'यह श्री अंतुले के इलाके की समस्या है, जिसे उन्होंने उठाया है.'


मुंबई में टाडा के वार्षिक आंकड़े

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