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उमा भारती-गोविंदाचार्य प्रसंग और वाजपेयी की नाराजगी की पूरी कहानी

वाजपेयी ने कहा था, मैं आशीर्वाद देने लायक नहीं हूं. आज जन्मदिन है वाजपेयी का

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विजय त्रिवेदी की किताब ‘हार नहीं मानूंगा- एक अटल जीवन गाथा’. पूर्व पीएम और बीजेपी लीडर अटल बिहारी वाजपेयी के जिंदादिल किस्सों से भरी है ये किताब. इसे छापा है हार्पर कॉलिन्स ने. हम आपको इसी किताब से कुछ किस्से पढ़वा रहे हैं. आज पढ़िए वो किस्सा, जब गोविंदाचार्य के साथ पहली बार अटल की सीधी तकरार हुई. वजह आगे पढ़िए…


राम मंदिर आंदोलन को लेकर संघ परिवार को लगने लगा कि अब लालकृष्ण आडवाणी ही पार्टी का चेहरा हो सकते हैं. वे ही सबसे लोकप्रिय नेता हैं. कुछ लोग मानते हैं कि आडवाणी और वाजपेयी के बीच संबंधों में थोड़ी-सी कसक या तनातनी की वजह यह घटना रही और वाजपेयी-गोविंदाचार्य के बीच अविश्‍‍वास और नाराज़गी के बीज भी तभी पड़े. उस वक्त मुरली मनोहर जोशी बीजेपी के अध्यक्ष थे.
गोविन्दाचार्य के मुताबिक, तब आडवाणी चाहते थे कि वाजपेयी विपक्ष के नेता बनें, वरना वे सिर्फ़ सांसद रह जाएंगे. जबकि विपक्ष के नेता पद की अपनी एक अहमियत होती है, जो वाजपेयी की शख्सियत के अनुरूप थी, लेकिन संघ परिवार का दबाव था कि आडवाणी लोकसभा में नेता विपक्ष बनें.
आडवाणी ने गोविन्दाचार्य को दिल्ली में झण्डेवालान में संघ कार्यालय यह संदेश लेकर भेजा कि वाजपेयी को ही विपक्ष का नेता बनाया जाना चाहिए. वह ख़ुद पार्टी संभाल लेंगे, संसद की ज़िम्मेदारी वाजपेयी के पास रहे. रज्जू भैया ने गोविन्दाचार्य को झिड़क दिया और कहा कि फ़ैसला हो गया है, अब इस पर दोबारा से सलाह-मशविरे की ज़रूरत नहीं है. यह सुनकर आडवाणी ने अपना माथा ठोंक लिया और कहा कि इन लोगों को समझ क्यों नहीं आ रहा. पार्टी के कुछ लोग मानते हैं कि तब से वाजपेयी के मन में यह ग्रन्थि जड़ पकड़ गयी कि इस सब के लिए गोविन्दाचार्य ज़िम्मेदार हैं क्योंकि वे ही आडवाणी के सबसे करीबी थे और उन्होंने ही रज्जू भैया से मुलाक़ात की थी.
अटल बिहारी वाजपेयी पर विजय त्रिवेदी की किताब: हार नहीं मानूंगा - एक अटल गाथा
अटल बिहारी वाजपेयी पर विजय त्रिवेदी की किताब: हार नहीं मानूंगा - एक अटल जीवन गाथा

गोविन्दाचार्य का कहना है, “मेरी भूमिका तो सिर्फ़ सन्देशवाहक की थी और वह भी मैं यह सन्देश लेकर गया था कि आडवाणी वाजपेयी के पक्ष में हैं.” बीजेपी के एक वरिष्ठ नेता ने बताया कि वाजपेयी-आडवाणी रिश्‍‍तों में भले ही कोई खटास नहीं आयी हो लेकिन मुरली मनोहर जोशी और आडवाणी के रिश्‍‍तों में कड़ुवाहट बढ़ रही थी. जोशी ने अध्यक्ष बनते ही राज्यों में से आडवाणी के पसन्दीदा माने जाने वाले नेताओं को हटा कर अपनी पसंद के लोगों को ज़िम्मेदारियां देनी शुरू कर दीं. उस वक्त सबसे ताक़तवर माने जाने वाले पार्टी महासचिव गोविन्दाचार्य को उन्होंने लगभग तड़ीपार कर दिया और तमिलनाडु की ज़िम्मेदारी देते हुए चेन्नई में ही रहने के फरमान जारी कर दिए.
इसी दौरान 1992 में एक और विस्फोट हुआ. पार्टी में गोविन्दाचार्य और एक महिला नेता के रिश्‍‍तों को लेकर खुलासा. उस पर भी काफ़ी हंगामा चल रहा था. इस बीच गुजरात में बीजेपी की केन्द्रीय कार्यसमिति की बैठक हुई. बैठक में हिस्सा लेने के लिए गोविन्दाचार्य भी पहुंचे थे.
मंच पर जोशी का अध्यक्षीय भाषण ख़त्म हुआ कि पार्टी के महाराष्ट्र से वरिष्ठ नेता राम नाईक खड़े हुए, माइक संभाला और कहा, “अध्यक्ष जी, हमारे एक महामन्त्री और एक महिला नेत्री के सम्बन्धों को लेकर चर्चा चल रही है, सही स्थिति क्या है, स्पष्ट होनी चाहिए.” तभी आडवाणी खड़े हुए और उन्होंने राम नाईक से माइक लेते हुए कहा कि गोविन्दाचार्य मद्रास में रहेंगे, तमिलनाडु की जिम्मेदारी देखेंगे, इसलिए अब इस पर कोई बात नहीं होगी. तो आडवाणी को टोकते हुए वाजपेयी बोले, “नहीं आडवाणी जी, केवल स्थानान्तरण से काम नहीं चलेगा. संगठन के नाम और छवि पर असर पड़ता है और यहां कुछ लोग किसी को ऊंचा करने, तो किसी को नीचा करने में लगे हैं.” गोविन्दाचार्य ने बीच में ही हाथ उठाते हुए कहा कि मुझे भी इस बारे में कुछ कहना है.
राम नाइक के साथ उमा भारती
राम नाइक के साथ उमा भारती
आडवाणी ने नाराज़ होते हुए कहा कि कुछ नहीं कहना है, आप बैठिए, बैठ जाइए. बैठते-बैठते गोविन्दाचार्य बोले, “जो वाजपेयी ने कहा है, वो ग़लत है.” बैठक में माहौल एकदम गरमा गया. अध्यक्ष जोशी ने आधे घण्टे के ब्रेक का ऐलान कर दिया.
देवराज आप्टे ने गोविन्दाचार्य को कहा कि अभी बाहर मत जाना, पूरा मीडिया है, झपट पड़ेंगे. कई साल बाद गोविन्दाचार्य ने स्पष्ट किया कि वे उमा भारती से प्रेम करते थे और उनसे शादी करना चाहते थे, लेकिन न तो उमा राजी हुईं और न ही संघ के पदाधिकारियों ने इसकी इजाज़त दी. गोविन्दाचार्य ने इस सिलसिले में बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी और संघ के नेता भाऊराव देवरस से बात की थी.
आडवाणी का मानना था कि इससे दोनों नेताओं के सार्वजनिक जीवन पर असर पड़ेगा. इसके बाद 17 नवम्बर 1992 को उमा भारती ने संन्यास ले लिया और तब गोविन्दाचार्य ने उमा भारती के पैर छूकर उन्हें अपना गुरु मान लिया. और 1997 में मुखौटा विवाद हो गया. पार्टी के सबसे ताक़तवर संगठन महासचिव माने जाने वाले नेता गोविन्दाचार्य को विदा होना पड़ा. आमतौर पर विदेशी राजदूत और नेता बड़ी राजनीतिक पार्टियों के आला नेताओं से मिलते रहते हैं. राजदूतों को राजनीतिक पार्टियों की राय, उनकी ताक़त और सम्भावनाओं, पार्टियों के एजेंडा, विदेश नीति वगैरह पर अपने मुल्क को रिपोर्ट भेजनी होती है. ऐसी ही एक मुलाक़ात हुई 16 सितम्बर 1997 को.
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ब्रिटिश हाई कमीशन से दो लोगों ने संगठन महासचिव गोविन्दाचार्य से मुलाक़ात की और राम मन्दिर जैसे विवादास्पद मुद्दों सहित विदेशी निवेश, विदेश नीति आदि मुद्दों पर लंबी बातचीत की. यह भी पूछा गया कि पार्टी का अगला अध्यक्ष कौन हो सकता है. गोविन्दाचार्य ने दस सम्भावित नाम लिए. उसमें वाजपेयी का नाम नहीं था. प्रतिनिधि मण्डल ने सवाल किया, “वाजपेयी का नाम क्यों नहीं है इस लिस्ट में?”
गोविन्दाचार्य ने जवाब दिया, “वाजपेयी हमारे पीएम पद के उम्मीदवार हैं और सबसे ज़्यादा के साथ-साथ सबमें लोकप्रिय हैं.” बैठक ख़त्म हो गई. करीब तीन हफ़्ते बाद 6 अक्टूबर 1997 को एक साथ ग्यारह हिन्दी और अंग्रेजी अख़बारों में संघ विचारक रहे भानु प्रताप शुक्ल का सिण्डिकेट लेख छपा. शीर्षक था, ‘वाजपेयी मुखौटा हैं—गोविन्दाचार्य.’
लेख में गोविन्दाचार्य और ब्रिटिश हाई कमिश्नर की मुलाक़ात का हवाला दिया गया था कि उस बातचीत में गोविन्दाचार्य ने वाजपेयी को ‘मुखौटा’ कहा था. सवाल खड़ा हुआ कि उस पार्टी के अनुशासन का क्या होगा, जिसमें वाजपेयी जैसे नेतृत्व पर इस तरह का हमला किया गया हो. आडवाणी ने गोविन्दाचार्य को फ़ोन पर पूछा. गोविन्दाचार्य ने कहा कि ऐसी कोई बात नहीं हुई थी. आडवाणी ने आदेश दिया कि फिर तुरन्त इसका खण्डन भेजिए. खण्डन भेज दिया गया. दिन में चार बजे ब्रिटिश हाई कमीशन से फ़ोन आया कि इस तरह की कोई बातचीत नहीं हुई थी तो ये कैसे छपा. गोविन्दाचार्य ने उनसे कहा कि तो आप इसका खण्डन भेज दीजिए. हाई कमीशन ने 6 बजे खण्डन भेज दिया और अगले दिन ज़्यादातर अख़बारों में दोनों खण्डन छप गए.
‘हिन्दुस्तान’ के सम्पादक रहे आलोक मेहता ने बताया कि पार्टी के किसी वरिष्ठ नेता ने गोविन्दाचार्य की डायरी के कुछ पन्ने फोटोकॉपी कर लिए और वे पन्ने आलोक मेहता को दे दिए. आलोक मेहता ने अपने अख़बार में डायरी के वे पन्ने छापे, जिससे हंगामा हुआ. गोविन्दाचार्य को जानकारी थी कि किसने वो पन्ने उनकी डायरी से फोटोकॉपी किये हैं क्योंकि वो नोटिंग्स उन्होंने रेलयात्रा के दौरान गाड़ी में की थी और यह गोविन्दाचार्य जानते थे कि उस सफ़र में उनके साथ कौन-कौन था. अगले दिन ज़्यादातर अख़बारों ने वो भी छाप दिए.
बात शायद ख़त्म होने ही वाली थी कि फिर 10 अक्टूबर को ‘टाइम्स ऑफ इण्डिया’ ने वही ख़बर छाप दी. वाजपेयी उसी दिन विदेश यात्रा से लौटे थे. उन्होंने संघ प्रमुख के. सी. सुदर्शन को फ़ोन किया और नाराज़गी जताई तो सुदर्शन ने गोविन्दाचार्य को फ़ोन करके बताया कि वाजपेयी कह रहे हैं कि आपकी बातचीत का टेप है, रिकॉर्डिंग है. गोविन्दाचार्य बोले, “तब तो और भी अच्छा, सारी बात साफ़ हो जायेगी कि मैंने नहीं कहा.” फिर वो टेप नहीं मिला. दरअसल टेप था ही नहीं. लेकिन वाजपेयी की गोविन्दाचार्य को लेकर नाराज़गी बढ़ती गयी. 'राजनीति से हटने की बात तो बहुत करते हैं, लेकिन हटता कोई नहीं' गोविन्दाचार्य फिर मद्रास यानी चेन्नई चले गये. इसके बाद वे अध्ययन अवकाश पर जाना चाहते थे. तब तक बंगारू लक्ष्मण अध्यक्ष हो गये थे. बात 2000 की है . 30 जुलाई 2000 को संघ के वरिष्ठ नेता मदन दास देवी ने बंगारू लक्ष्मण को फ़ोन किया कि वाजपेयी ने कहा है कि गोविन्दाचार्य को फिर से संघ में वापस ले लीजिए. इसके आधे घण्टे बाद दिल्ली के संघ कार्यालय में बीजेपी के आला नेता कुशाभाऊ ठाकरे, बंगारू लक्ष्मण और प्यारे लाल संघ नेता मदनदास देवी से मिले. देवी ने कहा कि वाजपेयी कह रहे हैं कि उनकी बात नहीं मानी गयी तो वे प्रधानमंत्री पद से इस्तीफ़ा दे देंगे. जब ये जानकारी गोविन्दाचार्य को दी गयी, तो उन्होंने कहा, “मैं काफ़ी समय से अध्ययन अवकाश के लिए आग्रह कर रहा हूं, तो वह आप मुझे दे दीजिए, इससे दोनों की बात रह जाएगी. वाजपेयी बड़े नेता हैं, हमारा पक्ष भी सुन लीजिए, मैं वैसे भी राजनीति में नहीं रहना चाहता.”
ऐसी ही किसी घटना पर वाजपेयी ने कहा, “राजनीति से हटने की बात तो बहुत करते हैं, लेकिन हटता कोई नहीं.”
पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने बताया कि ब्रिटिश हाई कमिश्नर से बातचीत में वाजपेयी को मुखौटा कहने के बाद भी बात थोड़ी नरम पड़ गयी थी, लेकिन एक घटना और हो गई, जिससे वाजपेयी काफ़ी नाराज़ हो गये और उन्होंने उसे मुद्दा बना लिया. 2000 में ही मुंबई में स्वदेशी जागरण मंच का अधिवेशन चल रहा था. उसमें वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय ने गोविन्दाचार्य की मौजूदगी में वाजपेयी के लिए कहा कि इनसे ज़्यादा निकम्मा प्रधानमन्त्री मैंने नहीं देखा. कई लोगों ने वाजपेयी के कान भरे कि ऐसा बयान गोविन्दाचार्य के इशारे पर या उनकी सहमति से ही दिया गया होगा.
रूठे हुए वाजपेयी और नाराज़ हो गए. इसके साथ ही आडवाणी, वेंकैया नायडू, प्रमोद महाजन और सुषमा स्वराज गोविन्दाचार्य को पार्टी में किनारे करना चाहते थे, क्योंकि उस वक्त गोविन्दाचार्य की कार्यकर्ताओं में लोकप्रियता बहुत थी और पार्टी में बड़ा दबदबा था. आर्थिक विषयों पर गोविन्दाचार्य और आडवाणी में सहमति नहीं बनती थी, जबकि संघ को वे बड़े प्रिय थे. गोविन्दाचार्य तब तक पार्टी के संगठन मन्त्री थे, और ज़्यादातर नेताओं को लगता था कि वे जल्दी अध्यक्ष बन जाएंगे, तो उनके मित्रों के बजाय राजनीतिक दुश्‍‍मनों की तादाद तेज़ी से बढ़ रही थी. बंगारू लक्ष्मण के बाद जनाकृष्ण मूर्ति अध्यक्ष बने और उसके बाद वेंकैया नायडू.
बीजेपी और संघ में वरिष्ठ रहे नेता का मानना था कि वेंकैया नायडू को गोविन्दाचार्य आंखों में किरकिरी जैसे लगते थे. उन्होंने तय किया कि गोविन्दाचार्य को किनारे लगाया जाए. उस वक्त तक गोविन्दाचार्य बीजेपी की नेशनल एक्जीक्यूटिव के सिर्फ़ सदस्य रह गये थे. वेंकैया ने अध्यक्ष बनने के बाद जब अपनी लिस्ट बनायी और अन्तिम स्वीकृति के लिए वाजपेयी के पास लेकर गए, तो पूछा कि गोविन्दाचार्य का नाम रखें या रहने दें?
वाजपेयी ने कहा, “तुम देख लो.” फिर वे आडवाणी के पास गए और कहा कि वाजपेयी ने गोविन्दाचार्य का नाम बाहर रखने के लिए कहा है, तो आडवाणी ने सोचा कि मैं क्यों झगड़े में पड़ूं. उन्होंने कहा कि ठीक है. उस वक्त संघ के वरिष्ठ नेता मदनदास देवी बीजेपी के प्रभारी थे, उन्होंने वेंकैया से पूछा कि लिस्ट में गोविन्दाचार्य का नाम क्यों नहीं है? जवाब मिला कि वाजपेयी और आडवाणी दोनों ने उनका नाम हटा दिया है. जब देवी ने वाजपेयी और आडवाणी से बात की, तो सारी बात समझ आ गयी. इसके बाद देवी ने कहा कि एक संशोधन की सूचना देकर गोविन्दाचार्य का नाम लिस्ट में डाल दिया जाये, तो वेंकैया ने तर्क दिया कि इससे आडवाणी और वाजपेयी के बीच टकराव की ख़बर ज़ोर पकड़ेगी और आख़िरकार गोविन्दाचार्य बाहर हो गए. जब वाजपेयी को कहा गया मुखौटा दिल्ली की लुटियन्स जोन में एक पांच सितारा होटल में वाजपेयी के साथ रहे कंचन दासगुप्त से बात हो रही थी. कंचन बताते हैं कि संघ के मुखपत्र ‘पाञ्चजन्य’ में काफ़ी दिनों से वाजपेयी के ख़िलाफ़ लेख और ख़बरें छप रही थीं. वे उसे नज़रअन्दाज़ कर रहे थे. फिर गोविन्दाचार्य के हवाले से भानुप्रताप शुक्ल का लेख छप गया, जिसमें वाजपेयी को ‘मुखौटा’ कहा गया था. इसके बाद भी जब उनके ख़िलाफ़ दुष्प्रचार का सिलसिला चलता रहा तो एक दिन वाजपेयी ने आडवाणी को कहा कि ये लोग आपको बदनाम कर रहे हैं क्योंकि कुछ लोग मानते हैं कि आपकी पसन्द के लोग यह सब करवा रहे हैं, तो बदनामी आपकी हो रही है.
फोटो क्रेडिट: reuters
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आडवाणी ने तुरन्त फ़ोन उठाकर बात की, ख़बरें और लेख छपने बन्द हो गये, लेकिन वाजपेयी की गोविन्दाचार्य से नाराज़गी कम नहीं हुई. वाजपेयी आमतौर पर संगठन के कामकाज और पदाधिकारियों की नियुक्ति में दखल नहीं देते थे. किसी का नाम जोड़ना हो, तो बता देते थे. उस वक्त कुशाभाऊ ठाकरे अध्यक्ष थे. बीजेपी के नए पदाधिकारियों के नाम तय होने थे. वाजपेयी ने कुशाभाऊ को कहा कि सूची जारी करने से पहले मुझे दिखा देना, कुशाभाऊ के लिए इतना इशारा काफ़ी था. कुशाभाऊ सूची जारी करने से पहले वाजपेयी से मिलने गए. वाजपेयी लॉन में टहल रहे थे. कुशाभाऊ पीछे-पीछे चलते हुए बोले, “सुन तो लीजिए आप, उन्हें उपाध्यक्ष बना देते हैं, सिर्फ़ नाम रहेगा, कोई ज़िम्मेदारी या अहमियत ख़ास नहीं होगी.”
वाजपेयी रुके, पलटे और फिर बोले, “कुशाभाऊ, आप समझते क्यों नहीं?” संघ को ये फ़ैसला अच्छा नहीं लगा था, क्योंकि गोविन्दाचार्य संघ के सबसे चहेते और ताक़तवर प्रचारकों में से एक थे. संघ ने मन बनाया कि संगठन में ही कुछ काम दे देंगे, लेकिन कोई बात बनी नहीं. गोविन्दाचार्य ने अध्ययनअवकाश मांगा, मिल गया . वरिष्ठ पत्रकार शेखर अय्यर बताते हैं, “1998 में बंगलौर में बीजेपी की नेशनल एक्जीक्यूटिव हो रही थी. इस वक्त संघ परिवार सरकार के बीमा बिल को लेकर ख़ासा नाराज़ था. तब संगठन महासचिव के तौर पर गोविन्दाचार्य का अलग ही रुतबा होता था. गोविन्दाचार्य पर आडवाणी का वरदहस्त था. कुशाभाऊ ठाकरे बीजेपी अध्यक्ष थे, लेकिन पार्टी में आडवाणी की ही चलती थी और इसको लेकर वाजपेयी के परिवार में भी चर्चा होती रहती थी. गाहे-बगाहे नाराज़गी दिखायी जाती थी, लेकिन वाजपेयी हमेशा हंस कर टाल देते थे.”
गोविन्दाचार्य हर शाम आडवाणी से मिलते थे और पत्रकारों के साथ भी उनकी रोज़ाना बैठकें होती थीं, जिसमें अक्सर वे कुछ-न-कुछ हल्की टिप्पणियां कर देते थे. वाजपेयी के घर पर उनकी बेटी नमिता और दामाद रंजन भट्टाचार्य को लगता था कि इस सब में आडवाणी की भूमिका है. वाजपेयी ने गोविन्दाचार्य को माफ़ नहीं किया. गोविन्दाचार्य तब बीजेपी दफ़्तर में रहते थे. उन्हें पार्टी दफ़्तर से कमरा खाली करने को कहा गया और उसके बाद एक कुशल वक्ता, नीति निर्धारक और रणनीतिकार गोविन्दाचार्य की पार्टी में वापसी नहीं हो पाई.” 'वाजपेयी आशीर्वाद देने लायक भी नहीं' शेखर अय्यर के मुताबिक तब गोविन्दाचार्य सरकार में साध्वी उमा भारती के कामकाज को लेकर भी दखल दिया करते थे. उमा भारती मानव संसाधन मंत्री मुरली मनोहर जोशी के मातहत के तौर पर राज्यमन्त्री थीं. गोविन्दाचार्य ने उमा भारती को लेकर ही राज्य मंत्रियों को काम नहीं दिए जाने का मुद्दा भी उठाया. जोशी और वाजपेयी के सम्बन्ध अच्छे थे. एक ओर जोशी और वाजपेयी जोड़ी थी, तो दूसरी तरफ़ आडवाणी, गोविन्दाचार्य जैसे नेता थे. प्रमोद महाजन भी तब आडवाणी के साथ होते थे. नरेन्द्र मोदी जोशी के साथ रहे.
फोटो क्रेडिट: reuters
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गोविन्दाचार्य 9 सितम्बर 2000 को अध्ययन अवकाश पर चले गये, जनवरी 2003 तक के लिए. इसके बाद वे राष्ट्रीय स्वाभिमान आन्दोलन और कुछ दूसरे काम में लग गए. फिर दिसम्बर 2003 में एक कार्यक्रम के दौरान वाजपेयी और गोविन्दाचार्य की मुलाक़ात हुई, तो गोविन्दाचार्य ने अपने कामकाज की जानकारी देते हुए कहा कि आप आशीर्वाद दे दीजिए.
वाजपेयी बोले, “मैं आशीर्वाद देने लायक नहीं हूं.” गोविन्दाचार्य ने कहा कि शुभकामनाएं दे दीजिए, वाजपेयी ने शुभकामनाएं दे दीं और चले गए. 2004 के चुनाव होने वाले थे, तब वाजपेयी ने गुरुमूर्ति और मदनदास देवी से बात की और गोविन्दाचार्य को वाराणसी से टिकट देने का सुझाव रखा लेकिन गोविन्दाचार्य ने चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया.


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