पीयूष मिश्रा. नाटे कद का एक आदमी, जो गाने बैठता है, तो पड़ोसी मुल्क पहुंचा देता है. एक्टिंग करता है, तो सब गुलाल जैसा लाल कर देता है. लिखने बैठता है, तो हमें भगत सिंह और सुखदेव के सामने ले जाकर खड़ा कर देता है. पीयूष ने काफी वक्त पहले एक प्ले लिखा था, जिसे राजकमल प्रकाशन ने छापा है. नाम है 'गगन दमामा बाज्यो'. ये उन नौजवानों की कहानी है, जिन्होंने देश की आजादी के लिए अपनी जवानी, जिंदगी, तालीम... सब छोड़ दी. इसमें भगत सिंह और सुखदेव की कहानी है. इसका एक हिस्सा हम आपके लिए लाए हैं. नोश फरमाइए.
इस वजह से महात्मा गांधी से नाराज थे भगत सिंह और सुखदेव
आपको पता है कि भगत सिंह महात्मा गांधी पर कितना गुस्सा थे.

शार्प फेड-इन [दो स्पॉट हैं आमने-सामने] सुखदेव: ये लाहौर नेशनल कॉलेज है. 1921 के जलते हुए हिन्दुस्तान में यहां क्या करने आया है? भगत: जी वही... जो आप करने आए हैं! पढ़ाई. सुखदेव: बहुत ज़ुबान चलती है. मैं सीनियर हूं तेरा! रैगिंग देगा? भगत: (स्थिर स्वर में) हुक्म कीजिए... सुखदेव: मंगल पांडे के बाप का नाम बतला... भगत: (मुस्कुराता है) जी पता नहीं... सुखदेव: माननीय महामना मदन मोहन मालवीय जी का पूरा नाम बतला... भगत: (फिर मुस्कराता है) वो भी पता नहीं... सुखदेव: हिंदुस्तान के स्वाधीनता संग्राम के सबसे घटिया आदमी का नाम बतला... भगत: (एक पल रुकता है, फिर...) जनरल ओ डायर... सुखदेव: (उसे घूरता है) हिन्दुस्तान के स्वाधीनता संग्राम के सबसे महान आदमी का नाम बतला. भगत: (कुछ बोलने को होता है, फिर चुप हो जाता है.) अभी तक आया नहीं... सुखदेव: तू कुछ बोलने वाला था... भगत: मैं महात्मा गांधी बोलने वाला था... [सुखदेव उसे घूरता रहता है. फिर मुस्कराता है.] तू आदमी पसंद आया. खूब घुटेगी. (हाथ बढ़ाता है) मेरा नाम सुखदेव है. सुखदेव थापर... भगत: (मुस्कुराकर हाथ मिलाता है) मेरा नाम भगत सिंह है. भगत सिंह सन्धू! शार्प फेड-आउट शार्प फेड-इन [लाहौर नेशनल कालेज... कैंटीन जमाना 1922 का छात्र! तनाव... बेचैनी. मुट्ठियां भींचे दो-तीन छात्र घूम रहे हैं. बाकी लोग बैठे हैं.] भगत: ये बात कब की है? यशपाल: कल शाम की... भगत: कितने लोग थे...? भगवती भाई: वो तो अकेला ही था. दूसरी तरफ चार-पांच थे. भगत: चोट काफी आई...? जयगोपाल: (सर हिलाते हुए) हां, लगी तो है... भगवती भाई: मैंने आज सुबह डाक्टर के पास चलने के लिए कहा... तो बिफर गया... कि सरकारी अस्पताल नहीं जाऊंगा... और प्राइवेट में जाने के पैसे नहीं हैं. इसलिए ऐसे ही चलने दो. भगत: उल्लू का पट्ठा है. उस नॉन-कोऑपरेशन मूवमेंट को बंद हुए आज एक साल होने को आ रहा है. अब सरकारी अस्पताल जाने में क्या दिक्कत है? साले अंधे होकर लड़ाई लड़ोगे...? और तुम सब लोग कहां थे...? यशपाल: प्रोग्राम तो हमारा भी था जाने का. तुझे सुबह से ढूंढ़ रहे थे. तू मिला नहीं. लेकिन फिर शाम को ही लालाजी ने मीटिंग बुला ली. परसों बड़े चौक पर वायसराय का पुतला जलाया जा रहा है. जुलूस भी निकलेगा. इस वजह से हम लोग नहीं जा पाए. रात को मालूम पड़ा कि वहां झगड़ा हो गया. तू कहां चला गया था...? भगत: बेबेजी की तबियत खराब थी. एकदम जाना पड़ गया. वापसी की सवारी नहीं मिली, इसलिए सुबह आया. लेकिन तुम लोग मालूम तो कर लेते कि कहां के थे. कई साल से बाद में ही निपट लेते. मार्कंड त्रिवेदी: (दबे स्वर में) वो तो मालूम पड़ गया है. ऑफीसर्स-लेन के साहबों के लौंडे हैं. लेकिन अब तो चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते. भगत: क्यों...? मार्कंड: उन्होंने FIR लिखवा दी है... उलटे उसके खिलाफ. अब कुछ किया, तो झगड़ा बढ़ेगा. सुखदेव: अब जितना बढ़ चुका है, उससे आगे क्या बढ़ेगा... और बढ़ेगा तो निपट लेंगे, लेकिन मुईन है कहां...? आपसे मिला था क्या भगवती भाई...? भगवती भाई: मिला था, लेकिन एकदम ही गायब हो गया. अब तो बस... (एकाएक मुईन की एंट्री. सारे उसे देखकर उठते हैं? वो अन्दर आता है! उसके सर पर पट्टी बंधी है. लड़के उसे कुर्सी पर बिठाते हैं. उसके लिए पानी लाया जाता है. वो झटके से गिलास अपने सामने से हटा देता है.) भगत: (उसके पास जाता है. गंभीर स्वर में) मैं तुझसे ज़्यादा कुछ नहीं पूछूंगा. एक लाइन में जवाब दे. उन लोगों के नाम...? (वो वैसे ही एक तरफ देखते बैठा रहता है? भगत उसका कॉलर पकड़कर झटके से उसे उठाता है.) नाम...? मुईन: (फंसे गले से) जिम क्रेन...! स्टीफन क्रेन...! और बाकी दो को मैं जानता नहीं. भगत: (उसे ध्यान से देखते हुए) ये ऑफीसर्स-लेन के डेविड क्रेन के लौंडे तो नहीं...? मुईन: (मुश्किल से) हां. भगत: (उसे छोड़ता हुआ) ठीक! सुख. थाने में FIR में बाकियों के भी नाम तो दर्ज होंगे ही. तीन लोग ही काफी हैं उनके लिए. हॉकी स्टिक्स ले लेना. बाकी हाथ-पैर. ये साले रात को क्लब से लौटते हैं दारू-वारू पीकर. पीपल मीनार के पास बजा देना. सुखदेव: (सिर हिलाकर) ठीक. भगत: और देखना इनकी गाड़ी का एक कांच सलामत न बचे. उस पर बहुत नाज़ है इन्हें. सुखदेव: समझ गया. मार्कंड: लेकिन पूरी बात तो सुन ले यार! हो सकता है गलती इसी की रही हो... मुईन: (एकदम झटके से पागलों समान उठता है) मेरी गलती? मेरी गलती...? मैंने खैरू को बचाया वो मेरी गलती थी...? मैंने उसकी बीवी और बहन को बचाया... वो भी मेरी गलती थी...? साले यहां बैठकर बकवास कर रहा है... वहां चौड़े में आने में तेरी दम निकल रही थी...? मार्कंड: अरे तो मुझ पर क्यों चढ़ रहा है यार...? हर बात को दिमाग से सोचा जाएगा न... उनका रंग सफेद है तो गलती हमेशा उनकी होगी...? सुखदेव: (गरम होकर) हां, उन्हीं की होगी. मार्कंड: अब यूं हम कुछ भी कह सकते हैं भगवती भाई! भगवती भाई: ये हम नहीं कह रहे. ये वक्त कह रहा है. मुईन! क्या बात हुई थी? मुईन: (जैसे उबल-उबलकर आने को है) यशपाल ने बोला था. 'जगमग' पर फिल्म चलेंगे. शाम वाला शो. टिकट ले लेना. मैंने टिकट ले लिए. मैं वहां खड़ा हुआ इन सबका इंतज़ार कर रहा था कि अंदर से शोर सुनाई दिया. अंदर भागा, तो मालूम हुआ कि वो चारों खैरू को ज़मीन पर पटककर लातों-घूसों से मार रहे थे. उसकी बहन और बीवी पास में खड़ी थीं. और उसकी बीवी की गोद में उनका छोटा-सा बच्चा ज़ोर-ज़ोर से रो रहा था. भगत: ये खैरू... वो तांगे वाला...? मुईन: हां, वही. और मारते हुए इंग्लिश में बहुत ही गंदी बकवास किए जा रहे थे कि साले हमसे कोऑपरेट नहीं करोगे...? तो नॉन-कोऑपरेशन मूवमेंट चलाओगे काले कुत्तों...? वापस लेना पड़ा न तुम्हारे उस बाप गांधी को...? हमारे कंधे से कंधा भिड़ाकर चलने की कोशिश करोगे...? और उसके बाद... (हांफता है?) भगत: उसके बाद...? मुईन: (भरी आंखों से) उसके बाद उस साले लंबू ने खैरू पर अपना कुत्ता छोड़ दिया. उसने उसका पूरा हाथ झंझोड़ दिया. वो चीख-चीखकर बिलबिला रहा था. फिर जब उनमें से एक उसकी बहन की तरफ बिच कहता हुआ बढ़ा, तो मैं रुक नहीं पाया. मैं उसके सामने आ गया. खैरू ने नेशनल कॉलेज के छात्रों को कितनी ही बार लिफ्ट दी है तांगे में. इस पर वो उसे छोड़कर मुझ पर टूट पड़े. मुझे लिटाकर नाक पर ठोकरें मारीं. मैं अकेला पड़ गया. इनमें से कोई भी वहां नहीं पहुंचा था. फिर पुलिस आई और उलटे मेरे खिलाफ FIR दर्ज की गई. फिर अब्बा आए. तब कहीं जाकर मुझे छोड़ा. सुखदेव: बात क्या हुई थी...? मुईन: खैरू गलती से अंधेरे में 'ए' क्लास में घुस गया था. उसका घुटना टकरा गया होगा इनसे. बस टूट पड़े. [एक सन्नाटा] सुखदेव: अब बोल भई. ICS की औलाद. गलती किसकी थी...? मार्कंड: (हिचकिचाता हुआ) हां... अब... इसके हिसाब से तो गलती उन्हीं की लग रही है... सुखदेव: आजकल गलतियों का हिसाब-किताब बहुत देखने लग गया है तू... (मुईन से) चल हो गया बे. ये पानी पी. (उसकी गर्दन पकड़ता है) अब जो होना होगा, वो हो जाएगा! मुंह बिसूरने की ज़रूरत नहीं है. (एक धौल जमाता है. भगत चुपचाप जाकर खिड़की से बाहर देखने लग गया है. माहौल हल्का होता है. मुईन के चेहरे पर भी मुस्कराहट आती है?) सुखदेव: (ऊंची आवाज़ में) अबे, लेकिन ये फिल्म की तो बात रह ही गई. बोलो आज चलते हो...? (सारे चिल्लाते हैं... 'हो जाए... हो जाए...?') मार्कंड: लेकिन ये फिल्म है कौन सी...? सुखदेव: फिकर मत कर. चैप्लिन या गार्बो की नहीं है. ये है तेरी 'राजा हरिश्चन्दर'. मार्कंड: बननी चाहिए यार. इंडियन माइथोलॉजी पर और बननी चाहिए. सुखदेव: हां बेटा. जो तुम्हारे देवता पिएं, तो कहलाएं आसव और हम पिएं, तो कहलाएं व्हिस्की (एक ठहाका! मार्कंड खिसियाई हंसी हंसता है.) भगवती भाई: (हंसते हुए) वो शिकायत कर देगा लाला जी से. सुखदेव: (व्यंग्य से) हां! लाला लाजपत राय! महान स्वतंत्रता सेनानी! ये मूवमेंट के बाद लाला जी कुछ बदल नहीं गए भगवती भाई...? भगवती भाई: (हंसते हुए) हां! बस कॉलेज के बोर्ड पर एक नोटिस लगने की देर है, '1922 के पवित्र भारतीय स्वाधीनता संग्राम में कभी मत भूलो कि तुम एक हिन्दू हो...' (और एक ठहाका पड़ता है?) सुखदेव: अरे ये येलो पैंफ्लेट पढ़ा है किसी ने? मार्कंड: येलो पैंफ्लेट... ये क्या है? भगवती भाई: कुछ नहीं यार! सान्याल बाबू ने पुराने बिखरे हुए क्रान्तिकारियों को इकट्ठा करके एक असोसिएशन बनाई है 'हिन्दुस्तान रिपब्लिक असोसिएशन'! जिसका टारगेट है आज़ाद भारत. उसका कॉन्स्टीट्यूशन जिस पर्चे पर छपा है, उसको कहा जा रहा है पीला पर्चा या येलो पैंफ्लेट. मार्कंड: वेरी गुड! यानी आज़ादी मिली नहीं और कॉन्स्टीट्यूशन पहले ही बन गया? सुखदेव: क्यों नहीं बन सकता? अगर शादी नहीं की, तो क्या घर में सेहरा भी छपाकर न रखें. [सारे हंसते हैं.] मार्कंड: यार! लेकिन मुझे तो इन ऑर्गनाइजेशंस में कोई इंटरेस्ट ही नहीं रह गया है. कभी होम रूल सोसाइटी तो कभी गदर पार्टी... और अब ये एच.आर.ए... इससे होना जाना क्या है? भगत: तो और किससे होना जाना है...? मार्कंड: यार भगत! तू मान न मान! ये कांग्रेस पिछले तीस सालों से टिकी तो हुई है... भगत: टिकी हुई है, क्योंकि वो सिर्फ टिके रहना चाहती है. मार्कंड: ऐसा नहीं है! वो काम भी करना चाहती है. सिर्फ इस नॉन-कोऑपरेशन वाली बात छोड़ दे... भगत: नॉन-कोऑपरेशन वाली ही बात करते हैं न! मार्कंड: अब वहां थोड़ी दिक्कत होगी सुखदेव: दिक्कत इसलिए होगी, क्योंकि तू भी उसका शिकार रहा है. क्योंकि इस कमरे में बैठे पच्चीस लोग भी उसके मारे रहे हैं. मार्कंड: अब कुछ पाने के लिए कुछ खोना तो पड़ता ही है यार. भगवती भाई: पाया क्या? क्या पाया? मार्कंड: ठीक! कुछ नहीं पाया, लेकिन उसमें भी जनता का ही दोष है. भगवती भाई: क्या दोष है? मार्कंड: भगवती भाई, उस मूवमेंट की कुछ शर्तें थीं, वो तोड़ी गईं. उस बंदे ने मूवमेंट वापस ले लिया. भगवती भाई: हां! चौरी-चौरा की पुलिस ने निहत्थी भीड़ पर गोली चलाई. पच्चीसियों लोग मारे गए. भीड़ ने थाने में आग लगा दी. पुलिस वाले जलकर मर गए. बदले में लोगों का दोष बतलाते हुए मूवमेंट वापस ले लिया गया. मार्कंड: तो थाने में आग लगाने की क्या ज़रूरत थी? सुखदेव: तो उसके दरवाज़े पे मत्था टेक के आगे बढ़ जाते? क्या कांग्रेसी साहित्य पढ़कर आया है मार्कंड त्रिवेदी...? मार्कंड: फिज़ूल इल्ज़ाम मत लगाओ. मैं भी उस मूवमेंट में कूदा था तुम लोगों के साथ. सुखदेव: हां, बाप ICS, बेटे के पास करने के लिए कुछ नहीं. तो सोचा एडवेंचर ही कर लें. मार्कंड: तहज़ीब से बात कर सुखदेव! अपनी-अपनी राय रखने का सबको हक है. मैं आज भी बोल रहा हूं कि इस गांधी नाम के बंदे में कुछ बात तो है... भगत: (खामोशी से) हां, बात तो है. मुल्क के 12-12, 13-13 साल के मासूम बच्चे जिस इंसान के लिए इस कच्ची उम्र में सड़कों पर आ सकते हैं, उसमें बात तो होगी ही. क्या जोश था सबमें... आंदोलन करेंगे. गांधी जी ने कहा है इन गोरों की पढ़ाई नहीं चाहिए. स्कूल छोड़ दो. बस्ते नालों में फेंककर बच्चे तैयार... कॉपी-पेंसिल-किताबों में आग लगाकर बच्चे तैयार. अपने छोटे-छोटे हाथों से पर्चे बांटे थे... तख्तियां उठाई थीं. फिर एक दिन अचानक ही सुबह-सुबह मालूम पड़ता है कि आंदोलन वापस ले लिया गया. बच्चे मुंह बाए ताक रहे हैं आसमान की तरफ. सरकारी स्कूलों का गेट उनके लिए बंद... सरकारी कॉलेजों में उनका दाखिला मुमकिन नहीं. कहां जाएं... क्या करें... किससे फरियाद करें. कोई सुनने वाला नहीं. कोई पूछने वाला नहीं. याद है तुझे वो दिन? मार्कंड: (अचकचाते हुए) हां-हां याद है. मगर मैं फिर भी इतना परेशान नहीं हुआ था... सुखदेव: परेशान नहीं हुआ था? साले कुत्तों समान बिलबिलाते हुए आया था 'अनारकली' के होटल पर कि अब क्या करूंगा... बाप जान से मार देगा... पढ़ाई कैसे जारी होगी... मार्कंड: तू तहज़ीब से बात कर सुखदेव... सुखदेव: चूलें ढीली हो गई थीं. इस कमरे के कम से कम 15 लड़के होंगे वहां उस दिन. गनीमत मना कि वक्त रहते लाला लाजपत राय ने ये नेशनल कॉलेज हम जैसों के लिए खुलवा दिया... वरना हाथ में कटोरा लेकर दर-दर की ठोकरें खा रहा होता... मार्कंड: (गरम होकर) अरे, दर-दर की ठोकरें खाए मेरी जूती. पचास को तो अपने घर में नौकरी दे सकता हूं. चाहिए किसी को...? सुखदेव: (बोतल तोड़कर उठता है) साले नौकरी देगा... हमको...? ICS की औलाद...? एडवेंचर के लिए क्रांति करते हो...? ऊपर से मज़ाक उड़ाते हो दूसरों की भावनाओं का...? चौरीचौरा के सिपाहियों का मरना तुझे याद है... उनका नहीं, जो उनकी गोली से मारे गए...? तीन साल पहले के जलियांवाला कांड को तू भूल गया? उन 1500 लोगों को तू इसलिए याद नहीं रखेगा, क्योंकि उनमें तेरा बाप, तेरा भाई या तेरी बहन नहीं थे...? मार्कंड: दिस इज़ टू मच भगवती भाई... भगत: (बड़बड़ाता है) नथिंग इज़ टू मच! नथिंग इज़ टू मच! लेकिन मैं आपसे एक ही बात पूछना चाहता हूं मि. गांधी कि इस मुल्क के बच्चों के लिए क्या रास्ता छोड़ा है आपने... (उसकी आंखों की कोर गीली हैं...)
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