The Lallantop

क्या है इलेक्टोरल बॉन्ड मुद्दा? और CJI चंद्रचूड़ ने मोदी सरकार से इसपर कौनसे सवाल पूछ लिए?

इलेक्टोरल बॉन्ड के मुद्दे पर BJP समेत ज्यादातर राजनीतिक पार्टियां चुप क्यों हैं?

post-main-image
इलेक्टोरल बॉन्ड के तहत किस पार्टी को किसने कितना चन्दा दिया, इसका पता नहीं लगाया जा सकता है.

जो पार्टियां आपसे तमाम मौकों पर वोट मांगती हैं, और वोट मांगने के लिए तमाम पोस्टर, होर्डिंग छपवाती हैं. चुनावी रैली आयोजित करती हैं. इस सबमें बहुत सारा पैसा लगता है. पार्टियों का पैसा. ये पैसा पार्टियों को चंदे से मिलता है. चन्दा देने के कई तरीके हैं. सबसे आम तरीका है कि कंपनियां या धन्नासेठ चेक काटकर चुनावी खाते में जमा करवा देते हैं. चन्दा ओके. लेकिन एक और तरीका है. काफी अपारदर्शी. वो तरीका है चुनावी बॉन्ड का. इलेक्टोरल बॉन्ड का. ये बॉन्ड ऐसी शै है कि किसी पार्टी को किसने चन्दा दिया, इसका पता नहीं लगाया जा सकता है. केंद्र की मोदी सरकार तो भी इस मुद्दे को लेकर चुप ही रहती है. अलबत्ता सरकार कोर्ट में कह देती है कि नागरिकों को ये जानने की जरूरत नहीं कि उनकी पार्टी को किसने कितना पैसा इस बॉन्ड के माध्यम से दिया. सरकार तो सरकार, उन पर सवाल उठाने वाली विपक्षी पार्टियां भी चुप्पी साध चुकी हैं. बस एकाध ही हैं, जो इस बहस में बात कर रही हैं. और ये बहस हो रही है सुप्रीम कोर्ट में.

इलेक्टोरल बॉन्ड पर सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक जजों की बेंच 31 अक्टूबर 2023 से सुनवाई कर रही है. कौन-कौन है बेंच में?
भारत के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़
जस्टिस संजीव खन्ना
जस्टिस बीआर गवई
जस्टिस जेबी पारदीवाला
और जस्टिस मनोज मिश्रा

ये बहस 1 नवंबर को भी जारी रही. याचिकाकरने वालों ने बहुत कुछ कहा, सरकार ने भी बहुत कुछ कहा और ये सब सुन-गुनकर जजों ने भी अपनी राय रखी. इस पूरी बहस पर बात करेंगे. लेकिन उसके पहले इलेक्टोरल बॉन्ड को समझना होगा, और उसकी पूरी बहस को समझना होगा. तभी कोर्टरूम की डिबेट किसी तरह से समझ में आएगी.

राजनैतिक पार्टियों को चंदा देने का ये साधन यानी इलेक्टोरल बॉन्ड जनवरी 2018 में आया. किसी भी उपक्रम की तरह पार्टियों को चलाने के लिए भी पैसों की ज़रूरत होती है. कार्यालय के काम, अपनी नीतियों का प्रचार और नेताओं द्वारा जनसंपर्क तभी हो सकता है, जब कोई इसके लिए पैसा दे. चूंकि भारत एक चुनावी लोकतंत्र है, इसीलिए भारत का कानून आपको ये हक देता है कि आप एक राजनैतिक दल बनाएं, उसका पंजीयन कराएं और इसके लिए चंदा इकट्ठा करें. खुलकर चंदा लेने में न कोई नैतिक समस्या है, और न ही कोई कानूनी रुकावट.

दिक्कत वहां आती है, जब हमें ये नहीं मालूम होता कि चंदा किसने दिया और कितना दिया. क्योंकि तब ये मालूम करने का कोई तरीका नहीं रह जाता कि मोटे चंदे के एवज़ में राजनैतिक दलों ने किसी व्यक्ति या संस्था को फायदा तो नहीं पहुंचाया. यहां प्रश्न कानूनी बारीकियों से ज़्यादा लोकतांत्रिक मूल्यों का है.

इसीलिए इलेक्टोरल बॉन्ड पर बात करना इतना ज़रूरी है. साल 2017 में मोदी सरकार इलेक्टोरल बॉन्ड की व्यवस्था लेकर आई. और जनवरी, 2018 में इसे अधिसूचित कर दिया गया. तब सरकार ने इसे पॉलिटिकल फंडिंग की दिशा में सुधार बताया और दावा किया कि इससे भ्रष्टाचार से लड़ाई में मदद मिलेगी. लेकिन ये दोनों दावे बेहद विवादित रहे हैं. विवाद की शुरुआत, कानून पास करने के वक्त से ही हो गई थी. बॉन्ड्स लाना एक नीतिगत निर्णय था. न कि सरकारी खज़ाने से जुड़ा. फिर भी सरकार ने इसे मनी बिल बनाकर सिर्फ लोकसभा से पास करवा दिया. ताकी राज्यसभा में इसे पास करवाने की ज़रूरत न रहे. खैर, अब वो बहस अतीत में छूट गई है. हम समझते हैं कि बॉन्डस क्या हैं और कैसे काम करते हैं.

इलेक्टोरल बॉन्ड किसी गिफ्ट वाउचर जैसे होते हैं. सरकार हर साल चार बार दस दस दिनों के लिए इन्हें जारी करती है.
जनवरी,
अप्रैल,
जुलाई
और अक्टूबर.

चंदा देने के इच्छुक अलग अलग मूल्यों के बॉन्ड ले सकते हैं.  
एक हजार,
दस हजार,
दस लाख
या एक करोड़ रुपया.

राजनैतिक पार्टियों को 2 हज़ार रुपए से अधिक चंदा देने का इच्छुक कोई भी व्यक्ति या कॉरपोरेट हाउस भारतीय स्टेट बैंक की तय शाखाओं से ये बॉन्ड खरीद सकते हैं. मोदी सरकार ने 2022 में एक बात ज़रूर साफ की थी. राज्यसभा में बताया था कि विदेशी कंपनियों से कोई चंदा बॉन्ड्स के ज़रिए नहीं आया, क्योंकि इसका प्रावधान नहीं है. लेकिन क्रमशः सुनवाइयों में हमने ये देखा कि विदेशी चंदे वाला सवाल अभी सेटल नहीं हुआ है. ऐसा क्यों है, आप आगे जानेंगे.

बॉन्ड खरीदने के बाद का काम आसान है. 15 दिनों के भीतर अपनी पसंद वाली पार्टी को बॉन्ड दे दीजिए और वो इन बॉन्ड्स को भुनाकर पैसा अपने खाते में जमा करा लेंगी. बॉन्ड भुना रही पार्टी को ये नहीं बताना होता कि उनके पास ये बॉन्ड आया कहां से. दूसरी तरफ भारतीय स्टेट बैंक को भी ये बताने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता, कि उसके यहां से किसने, कितने बॉन्ड खरीदे.

ठीक इसी बिन्दु से विवाद का जन्म होता है. दिसंबर 2020 में एक खबर आई. महाराष्ट्र के एक सामाजिक कार्यकर्ता विहार धुर्वे ने इलेक्टोरल बॉन्ड योजना के तहत चंदा देने वालों को लेकर स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (SBI) से सूचना मांगी थी. विहार का कहना था कि SBI को जवाबदेही और पारदर्शिता के लिए ये बताना चाहिए कि पार्टियों को चंदा देने के लिए बॉन्ड खरीद कौन रहा है? इस अपील को खारिज करते हुए 21 दिसंबर 2020 को जारी एक आदेश में सूचना आयुक्त सुरेश चंद्रा ने कहा कि डोनर्स के निजता के अधिकार का उल्लंघन करना लोकहित में नहीं है.

SBI की तरफ से दिए गए तर्कों को बरकरार रखते हुए CIC यानी केन्द्रीय सूचना आयोग ने अपने आदेश कहा कि जानकारी देना RTI ऐक्ट के सेक्शन 8 (1) (e)(j) का उल्लंघन होगा, जो अथॉरिटी को छूट देता है कि वो तब तक जानकारी ना दे, जब तक उसे विश्वास ना हो जाए कि ये जानकारी व्यापक लोकहित से जुड़ी है. मोटा-माटी इसी तर्क पर सरकार आज भी टिकी हुई है. वो जानने के हक को लेकर रीज़नेबल रेस्ट्रिक्शन की बात कर रही है.

फिलहाल स्थिति यही है कि इलेक्टोरल बॉन्ड RTI के दायरे से बाहर हैं. और जैसा कि दर्शक जानते ही हैं, राजनैतिक दल भी RTI के तहत नहीं आते. यानी ये पूरी व्यवस्था किसी गुप्तदान की तरह हो जाती है.

इस स्कीम पर RBI और केंद्रीय चुनाव आयोग दोनों ने ही अपनी आपत्ति दर्ज की है. पहले RBI की बात  - RBI के तत्कालीन गवर्नर उर्जित पटेल ने वित्त मंत्रालय को चिट्ठी लिखी थी. इसमें उन्होंने कहा था कि इससे मनी लॉन्ड्रिंग को बढ़ावा मिल सकता है और बैंकनोट पर भरोसा कम होगा.  फिर 27 मार्च, 2019 को केंद्रीय चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा दाखिल किया था और इलेक्टोरल बॉन्ड को भारत के चुनावों के लिए खतरनाक माना था. आयोग ने हलफनामे में कहा था -

"इलेक्टोरेल बॉन्ड स्कीम से राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे की पारदर्शिता पर ‘गंभीर असर’ पड़ेगा. राजनीतिक दल बगैर किसी जांच के विदेशी चंदा भी लेंगे. और चंदा देने वाली विदेशी कंपनियां भारत की नीतियों को प्रभावित कर सकती हैं. इसके अलावा कौन इलेक्टोरल बॉन्ड खरीद रहा है, ये पता नहीं चल रहा है.''

यही पर्दादारी ही एक मुद्दा नहीं है. टैक्स का भी मुद्दा है. इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदने वाली कंपनियां या लोग इसकी खरीद पर लगने वाले इनकम टैक्स के रिफंड की हकदार होती हैं. फिर राजनैतिक पार्टी भी इसी बॉन्ड को भुनाने पर इनकम टैक्स रिफंड ले लेती हैं. इसको ऐसे समझिए कि कोई आपको चोरी से पैसा दे, उसपर उसे टैक्स बचे और आप भी इस आमद पर भी टैक्स रिफंड ले लें. यहां "आप" से मतलब राजनैतिक दलों से है.

अब सवाल उठता है कि इतनी अपारदर्शी व्यवस्था का लाभ किसे-किसे मिल रहा है? क्योंकि आपको ये नहीं पता चल पाएगा कि चंदा कौन दे रहा है. लेकिन किसको मिल रहा है, ये पता चल जाएगा. इंडियन एक्सप्रेस की दामिनी नाथ ने एक रिपोर्ट की है. ये आपको बताती है कि इलेक्टोरल बॉन्ड से पार्टियों को कितना पैसा मिला -

2017 से 2022 के बीच भारतीय स्टेट बैंक ने 9 हज़ार 208 करोड़ 23 लाख रुपये के बॉन्ड बेचे. इनमें से
1. भारतीय जनता पार्टी को 5 हज़ार 271 करोड़ 97 लाख मिले. माने कुल पैसे का 57 फीसद.
2. कांग्रेस को 952 करोड़ 29 लाख मिले. माने कुल पैसे का 10 फीसदी से कुछ ज़्यादा.
3. तृणमूल कांग्रेस को 767 करोड़ 88 लाख मिले. कुल पैसे का सवा 8 फीसद.
4. इसके बाद बीजू जनता दल है. इन्हें मिले 622 करोड़
5. पांचवे नंबर पर तमिलनाडु में सत्ताधारी DMK. इन्हें मिले 431 करोड़
इन पांच पार्टियों के बाद नंबर आता है राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी NCP, आम आदमी पार्टी AAP और जनता दल यूनाइटेड JDU. इन तीनों पार्टियों को मिली रकम 100 करोड़ से कम है. आम आदमी पार्टी के मामले में एक स्पष्टीकरण भी है. आम आदमी पार्टी ने जो 48 करोड़ डिक्लेयर किए हैं, वो इलेक्टोरल बॉन्ड और ट्रस्ट दोनों से हुई आवक है. अब इसमें से कितनी राशि बॉन्ड्स के ज़रिये है, वो साफ नहीं है.

आप पूछेंगे ये इलेक्टोरल ट्रस्ट क्या होता है. सीन ये है कि भारत में कंपनीज़ एक्ट के तहत पंजीकृत कंपनी यदि किसी और कंपनी या व्यक्ति से डोनेशन ले, और इस डोनेशन को किसी राजनैतिक दल को देना चाहे, तो ये पैसा इलेक्टोरल ट्रस्ट के तहत दिया जाता है.

इन पार्टियों से इतर cpi, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, बसपा और मेघालय में सत्तारुढ़ नेशनल पीपल्स पार्टी ने चुनाव आयोग को बताया है कि इन्हें बॉन्ड्स से पैसा नहीं मिला.

चंदे की बात हो गई. अब चलते हैं सुप्रीम कोर्ट. बॉन्ड के केस में इतनी दुश्वारियाँ देखते हुए दो गैर सरकारी संगठन सामने आए. इनके नाम  - कॉमन कॉज़ और असोसिएशन फॉर डेमोक्रैटिक रिफॉर्म्स ADR.  इन दोनों संगठनों ने साल 2017 में इलेक्टोरल बॉन्ड को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी. ADR ने 2017 में ही याचिका लगा दी थी. एक याचिका मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी ने भी लगाई थी. इसपर सुनवाई करते हुए 2019 में सर्वोच्च न्यायालय ने एक अंतरिम आदेश दिया. इसमें राजनैतिक दलों से कहा गया कि वो बॉन्ड्स की जानकारी चुनाव आयोग को दें.
इसके बाद ADR दूसरी बार अदालत गया, ये कहते हुए कि बॉन्ड खरीदने वालों की जानकारी प्राप्त करने का कोई तरीका नहीं है.

मार्च 2021 में ADR ने एक और याचिका लगाई. कहा कि जब तक मामला अदालत में है, तब तक इलेक्टोरल बॉन्ड बेचने पर रोक लगाई जाए. लेकिन ये याचिका न्यायालय ने रद्द कर दी.

5 अप्रैल 2022 को वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने सर्वोच्च न्यायालय में एक दूसरे मामले में दलीलें देते हुए इलेक्टोरल बॉन्ड्स के मामले का ज़िक्र किया. तत्कालीन CJI एनवी रमन्ना की बेंच ने कहा कि न्यायालय के संज्ञान में मामला है. कोरोना काल के चलते न्यायालय सुनवाई नहीं कर पाया. लेकिन अब इसपर सुनवाई होगी. इसके बाद इलेक्टोरल बॉन्ड पर सुनवाई की राह एक बार फिर खुली. अलग-अलग तारीखें बीतीं. फिर मामला सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ की टेबल पर है, जिसका हमने थोड़ी देर पहले जिक्र किया.

सुनवाई 31 अक्टूबर से शुरू हुई, लेकिन इस मामले में केंद्र सरकार ने 30 अक्टूबर को ही एक बम फोड़ दिया. केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट को एक हलफनामा दिया. इसकी सेंट्रल लाइन यही थी कि इलेक्टरल बॉन्ड की  जानकारी प्राप्त करने का हक, जो भारत के नागरिकों को मिला है, वो रीज़नेबल रेस्ट्रिक्शन के तहत आता है. माने ज़रूरत पड़ने पर सूचना देने से इनकार भी किया जा सकता है.

31 अक्टूबर से सुनवाई शुरू. बहस पर आएं तो आपको सबसे पहले एक बात बता दें.  न्यायालय की पूरी कार्यवाही के ब्योरे देना संभव नहीं होता. संक्षेपण किया जाता है. वकीलों की दलीलों और बेंच की टिप्पणियों का क्रम कई बार बना नहीं रह पाता. बावजूद इसके, हमने उपलब्ध जानकारियों को समेटने की कोशिश की है. दर्शक जानते ही हैं कि कार्यवाही की भाषा अंग्रेजी होती है. इसीलिए हमने अनुवाद पेश किया है. न्यायालय की कार्यवाही की सटीक जानकारी के लिए न्यायालय से जारी आधिकारिक आदेश को ही देखा जाए. चलिए कोर्ट में वापिस चलते है.

31 अक्टूबर. सबसे पहले ADR की तरफ से पेश हुए वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने अपने तर्क रखे. उन्होंने कहा कि वो चुनावों से पहले इस मामले में फैसले का आग्रह कर रहे हैं. उन्होंने ये दलील भी दी कि सरकार ने फॉरेन कॉन्ट्रीब्यूशन रेग्युलेशन एक्ट FCRA में उन बदलावों का भी विरोध करते हैं, जिसके तहत विदेशी चंदे की रहा खुली. क्योंकि इस बदलाव से पहले राजनैतिक दलों, कैंडीडेट्स और नौकरशाहों को विदेशी चंदा लेने पर मनाही थी. मौजूदा स्थिति ये है कि विदेशी कंपनी की भारत में सब्सीडियरी चंदा दे सकती है. जबकि पहले ऐसा नहीं हो सकता था.

भूषण ने ये भी कहा कि पूर्व में चंदा लेने वाले दलों को रिकॉर्ड रखना पड़ता था, क्योंकि IT एक्ट में प्रावधान था. लेकिन ये बॉन्ड्स पर लागू नहीं होता. मौजूदा समय में चन्दा देने वालों की जानकारी सरकार के अलावा और किसी के पास नहीं है. उन्होंने कहा-

"कल को कोई भी राजनीति पार्टी ये कह सकती है कि हमने सुबह अपना ऑफिस खोला. देखा वहां पर 100 करोड़ के बॉन्ड पड़े हुए थे. हमने उन्हें खाते में जमा कर दिया, लेकिन हमें ये नहीं पता कि उसे दिया किसने था."

भूषण की अगली दलील ये थी कि एक सांसद प्रचार के लिए 70 लाख के करीब खर्च कर सकता है. अगर एक पार्टी सभी सीटों पर उम्मीदवार उतारे, तो वो 500 करोड़ से कम खर्च कर सकती है. लेकिन अकेले एक पार्टी को इतना पैसा मिला है, जो इस सीमा के 10 गुना से ज़्यादा है. भूषण के आरोप थे कि बॉन्ड लोकतंत्र खत्म कर रहा है.

ध्यान दीजिए कि ये विषय थोड़ा गूढ है. इतना सरल नहीं है. इसमें कई सारे लेयर हैं. आप इस बात को cji चंद्रचूड़ के रिमार्क से समझिए-

"लोग ये मानकर चल रहे हैं कि अगर आप बॉन्ड के जरिए चन्दा देने वाले का नाम ज़ाहिर कर देते हैं, तो बाकी दूसरी पार्टियों को भी पता चल जाएगा कि अमुक व्यक्ति ने अमुक पार्टी को चन्दा दिया है. मान लीजिए कि कोई डोनर किसी राज्य में अपना काम-धंधा फैलाए हुए है. और उसने खासकर उस पार्टी को डोनेट नहीं किया, जो सत्ता में है और उस डोनर का नाम सभी पार्टियों को पता चल जाता है तो विरोधी पार्टियां बातें करेंगी."

इसके बाद प्रशांत भूषण ने चुनाव आयोग और आरबीआई की उन आपत्तियों के बारे में कोर्ट को बताया, जिसकी जानकारी अभी कुछ देर पहले हमने आपको दी थी.  प्रशांत भूषण ने ये भी कहा कि अगर मतदाताओं को प्रत्याशियों की संपत्ति और देनदारी की जानकारी प्राप्त करने का अधिकार है, तो उन्हें ये भी जानने का आधिकार है कि प्रत्याशियों की पार्टियों को पैसा कौन दे रहा है. भूषण ने अपने हिस्से का तर्क दिया. कहा -

"अगर मुझे पता चलता है कि किसी पार्टी को कोई ऐसी कंपनी बॉन्ड के जरिए पैसा दे रही है, जिसे उस पार्टी ने फायदा पहुंचाया है. तो हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि वो पार्टी भ्रष्ट है."

उन्होंने ये भी कहा कि बॉन्ड के जरिए चंदे का बड़ा हिस्सा रूलिंग पार्टी को जाता है. इसके बाद प्रशांत भूषण ने भाजपा का नाम लिया. कहा -

"खुद को मिले चंदे का खुलासा भाजपा ने किया है. वो बाकी सभी राष्ट्रीय पार्टियों को मिले चंदे को मिला दें तो भी भाजपा को मिला चन्दा उसका तीन गुना है."

इसके बाद प्रशांत भूषण वेदांता का जिक्र अपनी जिरह में लेकर आए. उन्होंने बिजनेस स्टैन्डर्ड की खबर का  जिक्र किया और कहा कि वेदांता खुद गाढ़े में है और कर्ज में डूबी हुई है. लेकिन उसने बीते 5 सालों में वेदांता ने 457 करोड़ रुपये बॉन्ड से चंदे के रूप में दिए हैं. प्रशांत भूषण ने अपनी जिरह खत्म की तो CJI चंद्रचूड़ ने एक और रिमार्क दिया.

"अगर कोई कंपनी डोनेट कर रही है तो उसके तमाम शेयरहोल्डर्स को भी पता नहीं चल सकता है कि आपने किसे डोनेट किया है. जब कंपनी का नेट रिज़ल्ट आएगा, तो आप बस इतना कहेंगे कि हमने 250 करोड़ डोनेशन की तरह दिए हैं."

इसके बाद याचिकाकर्ताओं की ओर से सबमिशन देने आए वकील कपिल सिबल. उन्होंने कहा कि बॉन्ड की स्कीम में इस बात की तस्दीक कहीं से भी नहीं होती है कि ये चन्दा चुनावी प्रक्रिया में इस्तेमाल किया जाएगा. इसका बस इतना मकसद है कि राजनीतिक पार्टी को कितना अमीर बना दिया जाए. CJI चंद्रचूड़ ने एक और बयान दिया-

“ऐसा भी नहीं है कि आपको खर्च की जानकारी देनी हो”

इस बात पर कपिल सिबल ने सहमति जताई. कहा कि इस पैसे का आप कुछ भी कर सकते हैं. ऑफिस बना सकते हैं. देश भर के ऑफिस में इंटरनेट और वाईफाई लगवा सकते हैं. आप दिन में 20 बार अपना चेहरा दिखा सकते हैं.

कपिल सिबल ने कहा कि बॉन्ड स्कीम अपराधियों को सजा से बचाती है. इसके बाद वकील शादान फरासत और निजाम पाशा ने भी याचिककर्ताओं की ओर से जिरह की. दिन की बहस खत्म होने के पहले CJI चंद्रचूड़ ने कहा - ये पॉलिसी का मुद्दा है. दिन बीता. कैलेंडर में तारीख लगी 1 नवंबर की. बेंच और वकील कोर्टरूम में फिर से जमा हुए.

याचिकाकर्ताओं की ओर से वकील विजय हँसारिया ने दलील शुरू की.  उनके सबमिशन का केंद्र था कंपनियों द्वारा दिया जा रहा चन्दा. उन्होंने कहा कि कंपनियों के चंदे पर साल 1968 पर बैन लगाया गया था. लेकिन एक संशोधन करके साल 1985 में इस बैन को हटा दिया गया. फिर साल 2013 में एक नया प्रोविज़न आया कि सभी कंपनियां अपनी साला लाभ-हानि की रिपोर्ट में राजनीतिक पार्टी को दिए चंदे की जानकारी देंगी. फिर आए सीनियर वकील संजय हेगड़े. संजय हेगड़े ने हँसल मेहता की बनाई ott सीरीज स्कैम का जिक्र किया. उन्होंने कहा -

"आपको एलेक्टोरल बॉन्ड दिखाए गए. मेरे दिमाग में एक व्यक्ति की इमेज आई  - राम जेठमलानी. जिन्होंने पत्रकारों के सामने दिखाया था कि एक करोड़ रुपये को एक सूटकेस में कैसे फिट किया जा सकता है. मैंने अपने सहकर्मी से बात की, तो उन्होंने बताया कि उन्होंने एक सीरीज में ये देखा था. और आज अमाउंट चाहे 1 करोड़ हो या 10 करोड़. वो सबकुछ कागज के एक टुकड़े में फिट किया जा सकता है."

संजय हेगड़े के सबमिशन के साथ ही कोर्ट में याचिकाकर्ताओं का सबमिशन पूरा हुआ. अब सरकार की बारी थी. सरकार का पक्ष रखने आए सलिसिटर जनरल तुषार मेहता. और उन्होंने अपनी बात शुरू की काले धन की चर्चा से. कहा-

"भारत समेत दुनिया के कई देश काले धन की समस्या से जूझ रहे हैं. और ये जो एलेक्टोरल बॉन्ड की स्कीम है, इसका मकसद है कि साफ पैसा चुनावों में, बैंकिंग सिस्टम में और राजनीतिक पार्टियों के पास आए."

तुषार मेहता ने कहा कि ये स्कीम क्लीन मनी की दिशा में एक मात्र स्टेप नहीं है. ऐसे कई सारे स्टेप लिए गए हैं, जिसकी वजह से सिस्टम में बहुत सारी क्लीन मनी आज की तारीख में मौजूद है. फिर उन्होंने स्कीम के गोपनीयता वाले क्लॉज़ की बात की. तुषार मेहता ने कहा -

"अगर स्कीम से गोपनीयता चली जाती है तो स्कीम खत्म हो जाएगी. और मैं 2018 के वक्त में वापिस लौट जाएंगे. आप याचिकाकर्ताओं से पूछिए कि अगर देश 10 कदम पीछे चला गया, तो उन्हें क्या फायदा होगा?"

इसके बाद cji चंद्रचूड़ ने तुषार मेहता के सामने कुछ सवाल रखे. कहा -

"इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम के साथ दिक्कत है कि ये लोगों को चुनिंदा मसलों पर गोपनीयता देता है. अगर हम इस स्कीम को आज खारिज कर देते हैं तो इसका मतलब ये नहीं है कि सरकार को दूसरी ऐसी स्कीम बनाने से रोका जा रहा है, जिसमें सभी के पास बराबर का मौका हो."

cji ने कहा -

"चुनावी प्रक्रिया में और ज्यादा व्हाइट मनी लाने के प्रयास के साथ हमने एक गड्ढा पैदा कर दिया है, जहां से सूचना गायब है."

तुषार मेहता ने कहा कि कंपनी इसलिए चन्दा देती हैं ताकि पॉलिसी उनके फ़ेवर में आएं. और वो चैरिटी करती हुई न दिखें. अपने सबमिशन में तुषार मेहता ने इस बात को भी स्वीकार किया कि जो पार्टी सत्ता में होती है, उसे अमूमन ज्यादा पैसा मिलता है. उन्होंने ये भी कहा कि मान लीजिए मुझे चुनाव में चन्दा देना है. और मैं चेक के जरिए पैसा देता हूँ तो सभी पार्टियों को ये पता चल जाएगा कि मैंने पैसा दिया और किसको दिया. लेकिन अगर मैं इस जरिए पैसा नहीं देता हूँ तो लोगों को नहीं पता चलेगा कि मैंने किसे कितना पैसा दिया.

तुषार मेहता ने कहा कि मान लीजिए किसी राज्य में मेरी पार्टी है. और मुझे किसी ने पार्टी के चंदे के लिए 30 करोड़ दिए और मैंने पार्टी के फंड में 20 करोड़ ही जमा कराए. लेकिन अगर ये पैसा बॉन्ड के जरिए आएगा तो एक-एक रुपया पार्टी के फंड में जाएगा.

CJI ने बयान दिया -

"ये किसी एक या दो पार्टी की बात नहीं है, ये पूरे सिस्टम की बात है. ये सभी को प्रभावित कर रहा है."

बहस आगे बढ़ी. तुषार मेहता ने कानून और सुधारों का जिक्र किया. आगे चलकर बहस में CJI ने कहा-

“जब एक इलेक्टोराल बॉन्ड खरीदा जाता है. तो पैसा कहाँ से आया, इसके बारे में कोई जानकारी नहीं होती. डोनर का पता नहीं होता. और इसे खर्च कहाँ किया गया, ये नहीं पता होता है.”

CJI ने ये भी कहा कि सवाल है पारदर्शिता का. ये बात कतई जरूरी नहीं है कि बॉन्ड खरीदने वाला इंसान ही डोनर भी हो. बस उनका खाता दिखाएगा कि उन्होंने बॉन्ड खरीदा है, लेकिन उस बॉन्ड का डोनर कौन है, ये जिक्र नहीं मिलेगा.

तुषार मेहता ने जवाब दिया. लेकिन कुछ सेफगार्ड प्रैक्टिस भी हैं. मैं तभी बॉन्ड खरीद सकता हूँ अगर मैंने KYC कराया हुआ है. कंपनी की बात है तो कंपनी की बैलेंस शीट में दिखेगा कि फलां अमाउंट डोनेट किया गया है. पार्टियों के खाते दिखाएंगे कि पैसा मिला है.

बहस को रोका गया, जो अब फिर से रिज्यूम होगी 2 नवंबर को. हम भी नजर बनाए रखेंगे. आप भी नजर बनाए रखिए. ये देश के चुनावी सिस्टम की सबसे बड़ी बहस है.