लोकसभा चुनाव को कुछ ही वक्त बचा है. चुनाव कराता है इलेक्शन कमीशन. जिसमें तीन कमिश्नर पद होते हैं. अरुण गोयल इस्तीफ़ा दे चुके हैं. इससे लगभग तीन पहले चुनाव आयुक्त अनूप पांडे रिटायर हुए थे. यानी इलेक्शन कमीशन में अब सिर्फ एक कमिश्नर राजीव कुमार बचे हैं. खबर ये भी है कि जल्द ही नए कमिश्नर चुने जाने के लिए प्रधानमंत्री बैठक करेंगे.
लेकिन यहीं बात पॉलिटिकल हो जाती है. सारी उठापटक के बीच सुप्रीम कोर्ट में दायर एक याचिका सबसे ज्यादा फोकस में है. जिसकी मांग है- नए चुनाव आयुक्त का चयन सरकार द्वारा बनाये कानून से नहीं बल्कि सुप्रीम कोर्ट की संविधानिक बेंच के फैसले की हिसाब से किया जाना चाहिए.
चुनाव आयोग की ताकत कैसे तय होती है? सरकार और सुप्रीम कोर्ट में क्या हो रहा है ?
हमारे देश के सविधान निर्माता जब सविधान सभा में इस डेमोक्रेसी को जमीन पर उतारने के लिए सविधान बना रहे थे. तब उनके सामने एक बड़ा सवाल था. क्या? एक ऐसा मैकेनिज्म बनाना. जिसके जरिए इस चुनाव की प्रक्रिया को सहज, सफल और पारदर्शी बनाया जा सके.
तो समझते हैं?
इलेक्शन कमीशन क्या करता है?
इलेक्शन कमिश्नर का चुनाव कैसे होता है?
इस मामले में संविधान और कानून क्या कहता है?
और क्या है ताज़ा मामला?
इलेक्शन कमीशन
डेमोक्रेसी, लोकतंत्र! इसकी परिभाषा क्या है? अंग्रेजी में एक वाक्यांश है, “गवर्नमेंट ऑफ द पीपल, बाई द पीपल फॉर द पीपल”. यानी लोकतांत्रिक सरकार, जनता की सरकार है, जनता द्वारा चुनी हुई सरकार है और जनता के लिए बनी सरकार है. हमारे देश के सविधान निर्माता जब सविधान सभा में इस डेमोक्रेसी को जमीन पर उतारने के लिए सविधान बना रहे थे. तब उनके सामने एक बड़ा सवाल था. क्या? एक ऐसा मैकेनिज्म बनाना. जिसके जरिए इस चुनाव की प्रक्रिया को सहज, सफल और पारदर्शी बनाया जा सके. इसके लिए संविधान में पूरा एक अलग हिस्सा बनाया गया. पार्ट 15. और आर्टिकल 324 के तहत जन्म हुआ चुनाव आयोग का. इस आर्टिकल 324 ने चुनाव आयोग के लिए एक खाका खींचा.
-चुनाव आयोग की जिम्मेदारियां
-इसकी स्वतंत्रता
-इलेक्शन कमिश्नर की नियुक्ति
इन तीनों को समझतें हैं. फिर आयेंगे सुप्रीम कोर्ट के 2023 के निर्णय और इसके बाद आए संसद के कानून पर
चुनाव आयोग के काम
1 . चुनाव को शादी मान लें तो चुनाव आयोग का रोल पिता का है. सारी जिम्मेदारी उठाना. सब काम सही से वक्त पर हो तय करना. इसी तरह चुनाव आयोग भारत में होने वाले चुनावों की सारी जिम्मेदारी उठाता है. वोटिंग से लेकर काउंटिग तक. मसलन,
लोक सभा
राज्य सभा
विधान सभा
विधान परिषद्
राष्टपति का चुनाव
और उप राष्ट्रपति का चुनाव
ये सभी चुनाव करवाना चुनाव आयोग की जिम्मेदारी है. लेकिन क्या भारत में होने वाले सारे चुनाव चुनाव आयोग ही कराता है?. जवाब है नहीं. जैसे शादी में, खाना ठीक बन रहा है, बरात आगे बढ़ रही है. - ये काम भाई फूफा आदि हाथ बंटाते हैं. उसी तरह देश में कुछ चुनाव ऐसे भी हैं, जिनकी जिमेदारी केंद्रीय चुनाव आयोग की नहीं होती. मसलन, देश में होने वाले निकाय चुनाव जैसे पंचायत, प्रधानी , पार्षद, मेयर वगैरह वगैरह. इन सभी चुनावों की ज़िम्मेदारी स्टेट इलेक्शन कमीशन की होती है.
हालांकि चुनाव आयोग चूंकि पिता सामान है. जिसके पास सिर्फ शादी ही नहीं, शादी के पहले और बाद में भी कई काम होते हैं. मसलन मेहमानों को विदा करना, कौन आएगा, किसे बुलाना है ये लिस्ट तय करना. उसी तरह चुनाव आयोग के सर चुनावके अलावा भी की जिम्मेदारियां होती हैं. इनमें पहली है -
2. डीलिमिटेशन
चुनाव करवाने की सबसे पहली जरूरी शर्त है है- निर्वाचन क्षेत्र तय होना. बिना लोक सभा, विधान सभा का क्षेत्र तय किए पार्टियां टिकट नहीं दे सकती. इसलिए चुनाव आयोग देश में विधान सभा और लोक सभा क्षेत्रों की सीमा तय करता है.
3.चुनाव आयोग का दूसरा काम है - नए लोगों को वोटर लिस्ट में शामिल करना और राज्य, डिस्ट्रिक्ट के निर्वाचन क्षेत्र के लिए वोटर लिस्ट बनाना
4.तीसरी ज़िम्मेदारी- चुनाव आयोग के ऊपर हर पॉलिटिकल पार्टी का रजिस्ट्रेशन करवाने की जिम्मेदारी भी होती है. सपा को साइकिल का सिम्बल मिलेगा, बसपा को हाथी का - ये भी चुनाव आयोग ही तय करता है.
इसके अलावा चुनाव खत्म होने के बाद भी चुनाव आयोग के कुछ महत्वपूर्ण काम होते हैं. आपको याद होगा. हाल ही में शिवसेना में टूट हुई. पार्टी का एक धड़ा उद्धव ठाकरे के साथ था दूसरा एकनाथ शिंदे के साथ. दोनों का कहना था. कि उनका घुट असली शिव सेना है. लेकिन इसका निर्णय कौन करेगा कि कौन असली है? भारतीय लोकतंत्र में ये ताकत चुनाव आयोग को दी गयी है.
अगर किसी पॉलिटिकल पार्टी में टूट हो जाये. वो दो धड़ों में बंट जाये. तब चुनाव आयोग ही फैसला करता है कि किस गुट या धड़े को पार्टी का असली चुनाव सिम्बल दिया जायेगा. और उनके क्या नाम होंगे. चुनाव आयोग चाहे तो असली चुनाव सिम्बल को जब्त कर सकता है और दोनों धड़ों को कोई दूसरे चुनाव चिन्ह दे सकता है.
ये सब चुनाव आयोग की जिम्मेदारी थीं. अब आपको चुनाव आयोग की कुछ पावर्स भी बताते हैं.
संसद का एक कानून है. रिप्रजेंटेशन ऑफ़ पीपल एक्ट 1951. जिसके अनुसार किसी प्रतिनिधि, मसलन सांसद या विधायक को कुछ बेसिक शर्तें पूरी करना जरूरी हैं. जैसे विधानसभा के लिए कम से कम 25 साल उम्र होनी चाहिए. सांसद बनने के लिए 30. निर्वाचित व्यक्ति के पास लाभ का पद नहीं होना चाहिए.
अगर कोई सांसद इनमें से किसी नियम को तोड़ता है तो चुनाव आयोग के सुझाव पर राष्ट्रपति उसकी सदस्यता खत्म कर सकते है. इसी तरह विधायाक की सदस्यता गवर्नर को सुझाव देकर ख़त्म की जा सकती है. ये चुनाव आयोग की शक्ति और जिम्मेदारी का एक मोटामोटी लेखाजोखा हुआ. अब आपको बताते हैं कि चुनाव आयोग का गठन कैसे होता है. इसके मेंबर कैसे चुने जाते हैं/नियुक्त होते हैं. इनकी क्वालिफिकेशन क्या है?
चुनाव आयोग का स्ट्रक्चर
संविधान का कहना है. चुनाव आयोग में एक मुख्य चुनाव आयुक्त होंगे. और अगर देश के राष्ट्रपति को ऐसा लगता है कि मुख्य चुनाव आयुक्त को कुछ और साथियों की जरूरत है तब वो अपनी मर्जी के हिसाब से और चुनाव आयुक्त नियुक्त कर सकते हैं. ऐसा होने पर मुख्य चुनाव आयुक्त चुनाव आयोग के चेयरमैन बन जाएंगे.
देश में 1950 से 1989 तक सिर्फ मुख्य चुनाव आयुक्त ही हुआ करते थे. यानी चुनाव आयोग में सिर्फ एक ही मेंबर थे. इस स्थिति में चेंज हुआ 1989 में. उस साल देश में वोटिंग की उम्र 21 से घटाकर 18 कर दी गई. इससे चुनाव आयोग का काम बढ़ गया. क्योंकि चुनाव आयोग को अचानक कई सारे नए लोगों को वोटर लिस्ट में जोड़ना था. लिहाजा जिम्मेदारी बांटने के लिए तब देश के राष्ट्रपति रामास्वामी वेंकटरमन ने 2 और चुनाव आयुक्तों को नियुक्त किया.
1990 में 2 चुनाव आयुक्तों को हटा दिया गया. यानी फिर से चुनाव आयोग 1 व्यक्ति का कमीशन बन गया. इसके बाद 1993 में राष्ट्रपति ने फिर से 2 चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की. तबसे आज तक देश में एक मुख्य चुनाव आयुक्त और 2 चुनाव आयुक्तों का पद बरकरार है. हालांकि, मुख्य चुनाव आयुक्त चुनाव आयोग के चेयरमैन होते हैं, लेकिन चुनाव आयोग में फैसला बहुमत से होता है. यानी दो लोग जिस बात पर सहमत होंगे, वो मानी जाएगी.
मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति से जुड़ी आपको एक रोचक बात बताते हैं.
भारत के संविधान ने चुनाव आयोग के मेंबर्स किसी भी तरह की योग्यता निर्धारित नहीं की है. यानी मुख्य चुनाव आयुक्त या चुनाव आयुक्त बनाने के लिए किसी तरह की डिग्री, या कोई परीक्षा पास करने की जरूरत नहीं है. इसके साथ ही संविधान ने चुनाव आयोग के मेंबर्स का कार्यकाल कितना होगा, उनके नौकरी की शर्तें क्या होंगीं इन सब पर कानून बनाने की ज़िम्मेदारी संसद को सौंपी है. ये बात हम सब मानते हैं कि अब यहां एक बात ये कि निष्पक्ष चुनाव के लिए चुनाव आयोग का किसी प्रेशर से स्वंत्रत होना जरूरी है. तो चलिए जानते हैं संविधान में क्या प्रावधान बनाए हैं. जिससे चुनाव आयुक्त प्रेशर से मुक्त रहे.
चुनाव आयोग की स्वतंत्रता
आप बताइये. आपके हिसाब से अगर किसी को भी बिना दबाव के ईमानदारी की नौकरी करनी है तो आपको कैसी स्वतंत्रता चाहिए होगी? यही की अगर आप सही काम कर रहें हैं तो-
-आपकी नौकरी पर कोई खतरा ना हो
-आपकी सैलरी और बाकी मिलने वाली सुविधाएं कम न की जा सकें
-आपकी टीम को आपकी अनुमति के बिना हटाया न जा सके
बस यही सुविधाएं सविधान ने देश के मुख्य चुनाव आयुक्त को भी दी हैं.
देश के मुख्य चुनाव आयुक्त को आसानी से नहीं हटाया जा सकता है. मुख्य चुनाव आयुक्त को हटाने के लिए लोक सभा और राज्य सभा में एक प्रस्ताव पारित करना पड़ता है. इसे इम्पीचमेंट या महाभियोग कहते हैं. इसमें क्या होता है?
उस वक़्त सदन में जितने लोग मौजूद हैं, उनमे से दो तिहाई लोग इस प्रस्ताव के पक्ष में वोट करें. और इसके साथ ही ये दो तिहाई की संख्या लोक सभा में 272 और राज्य सभा में 123 के बराबर या उससे ज्यादा होनी चाहिए
और ये प्रस्ताव भी सिर्फ दो स्थितियों में लाया जा सकता है.
पहला - यदि मुख्य चुनाव आयुक्त ने कोई गलत काम किया है
दूसरा - वो उस पद को संभालने में असमर्थ हैं.
याने कुल मिलाकर कहें तो मुख्य चुनाव आयुक्त को पद से हटाना बहुत मुश्किल है. इसके अलावा भी चुनाव आयोग की स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए कई प्रावधान हैं, मसलन बिना मुख्य चुनाव आयुक्त की मंजूरी के राष्ट्रपति चुनाव आयोग के बाकी आयुक्तों को नहीं हटा सकते. संसद मुख्य चुनाव आयुक्त की सैलरी आदि मिलने वाली सुविधाओं को कम नहीं कर सकती , न ही छीन सकती है.
चुनाव आयुक्त नियुक्त कैसे होते हैं?
ऐसे समझिए कि साल 2023 तक मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों को सीधे राष्ट्रपति नियुक्त करते थे. लेकिन फिर 2023 में सुप्रीम कोर्ट के एक निर्णायक फैसले से नियुक्ति के तरीकों में कुछ बद्लाव हुए. चुनाव आयुक्त की नियुक्ति का मौजूदा तरीका क्या है, इसे समझने के लिए हमें पहले एक केस के बारे में जानना होगा. इस केस का नाम था -
अनूप बरनवाल केस
केस यूं था कि साल 2015 में अनूप बरनवाल ने एक PIL दाखिल की. जिसमें कहा गया कि चुनाव आयुक्त की नियुक्ति का तरीका असंवैधानिक है. इसमें मांग की गई थी कि चुनाव आयोग की स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए कॉलेजियम जैसा एक सिस्टम बनाया जाना चाहिए. इस केस में साल 2023 में सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया. आसान भाषा में कहें तो इस फैसले ने चुनाव आयोग को और स्वतंत्र बना दिया. कैसे? सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों की संविधानिक पीठ ने 5 जीरो से 3 मुख्य बिंदुओं पर फैसला दिया.
फैसले से पहले देश के मुख्य चुनाव आयुक्त और दोनों चुनाव आयुक्तों को चयन और नियुक्त करने की ज़िम्मेदारी राष्ट्रपति की होती थी. लेकिन सुप्रीम कोर्ट का कहना था- एक 3 मेंबर कमिटी बनाई जाये. जो चुनाव आयोग के मेंबर्स का चयन करेगी. और इसके सुझाये नाम पर राष्ट्रपति मोहर लगाएंगे. कमिटी के तीन सदस्य कौन होगें-
प्रधान मंत्री
भारत के मुख्य न्यायधीश यानी CJI
और लोक सभा के नेता विपक्ष
इसके साथ ही नौकरी के मामले में जो सुरक्षा पहले सिर्फ मुख्य चुनाव आयुक्त के पास थी वो सुरक्षा बाकी दोनों चुनाव आयुक्तों को भी मिली. यानी अब बाकि दोनों चुनाव आयुक्तों को हटाने के लिए भी इम्पीचमेंट का प्रॉसेस करना पड़ेगा.
मुख्य चुनाव आयुक्त की ही तरह बाकी दो चुनाव आयुक्तों को, सैलरी और मिलने वाली सुविधाओं को कम नहीं कर किया जा सकता.
इसके साथ सुप्रीम कोर्ट ने एक बात और भी कही. सुप्रीम कोर्ट का कहना था, कि ये सारे दिशा निर्देश तब तक के लिए है जब तक संसद इस मामले में कोई कानून नहीं बनती. और कानून ऐसा होना चाहिए जो आर्टिकल 324 से मेल खाता हो. इसके बाद कहानी पहुंचती है संसद द्वारा पास किए कानून तक.
संसद ने कानून बनाया
2023 में सरकार ने संसद में एक बिल पेश किया. इसका नाम था- चीफ इलेक्शन कमिश्नर एंड अदर इलेक्शन कमिश्नर( अपॉइंटमेंट, कंडीशन ऑफ़ सर्विस एंड टर्म ऑफ़ ऑफिस) विधेयक, 2023. ये बिल संसद से पास हुआ और बन गया कानून. इस क़ानून की खास बात ये थी कि इसने सुप्रीम कोर्ट के बनाए सिस्टम में कई बड़े बदलाव कर दिए थे. कैसे? सुप्रीम कोर्ट ने चयन करने के लिए कमिटी बनाई थी. सरकार ने इस कमिटी के मेंबर बदल दिए. अब चुनाव आयुक्त चुनने वाले कमिटी के मेंबर ये तीन लोग होते हैं -
प्रधानमंत्री
लोक सभा के नेता विपक्ष
और प्रधानमंत्री द्वारा चुना कोई एक मंत्री
यानी सरकार के 2 लोग और विपक्ष का एक. तीन में से दो लोग जिस भी व्यक्ति पर मोहर लगा देंगे उसे राष्ट्रपति मुख्य चुनाव आयुक्त या चुनाव आयुक्त बना देंगे.
चूंकि चुनाव आयुक्त को चुनने वाली कमिटी में सरकार के दो लोग हैं. और चुनाव बहुमत से होता है. इसलिए विपक्ष का कहना है कि नए क़ानून से चुनाव आयोग की स्वतंत्रता कमजोर हुई है. अरुण गोयल के इस्तीफे के बाद ये मुद्दा एक बार फॉयर फोकस में आ गया है. कांग्रेस की नेता जया ठाकुर ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दाखिल की है. इसमें मांग की गई है कि चुनाव आयुक्त की नियुक्ति 2023 में पास हुए कानून के हिसाब से नहीं, अनूप बरनवाल केस के जजमेंट के हिसाब से होनी चाहिए. चर्चा है कि क़ानून के हिसाब से दो नए चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए बैठक 15 मार्च को होगी. जिसमें प्रधानमंत्री भी शामिल होंगे. अगर सुप्रीम कोर्ट इस मामले में इससे पहले संज्ञान लेता है. तो उस स्थिति में एक बार फिर न्यायपालिका और विधायिका में टक्कर देखने को मिल सकती है. आगे क्या होगा, ये भविष्य के गर्भ में है.