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एक कहानी रोज़: क्षितिज रॉय की कहानी 'ताकि पापा मर ना जाएं'

फिर आवाज ने उससे कहा जाकर सरला आंटी के लॉन में रखे गुलाब के गमले में पेशाब कर दे.

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क्षितिज रॉय पढ़े दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में, राइटर हो गए, बाद में या पहले, ये शोध का विषय है, उम्र के हिस्से 25 बसंत आए हैं. पटना के हैं फिलहाल दिल्ली में बसेरा है.

ताकि पापा मर ना जाएं क्षितिज रॉय


वो सात साल का था तब - अपने पापा के लिए राजा बेटा था, मां के लिए नाकारा. पापा दिन भर घर से बाहर रहते थे, मां दिन भर घर में. उसे अपने पापा बेहद अच्छे लगते थे, क्योंकि रात को उनके घर लौटने पर ही उसे प्यार के दो मीठे बोल नसीब होते थे. ऐसा नहीं था कि मां उसे प्यार नहीं करती थी, पर बर्तनों के थाक और कपड़ो के ढेर को साफ़ करते-करते वो रोज थक जाती थी और सात साल के उस बच्चे को मातृत्व जैसा गूढ़ रहस्य सरलीकृत कर समझा नहीं पाती थी. वो दोपहर में सोना नहीं चाहता था, उसे पास वाले मकान की लड़की के साथ छत पर खेलना होता था. मां उसे बिस्तर पर पटक देती. वो कुनमुनाता तो उसे पढ़ने के लिए बिठा देती. उससे गणित के सवाल कभी नहीं सुलझते थे, मां गुस्से से बिफर जाती. मां बिफरती तो वो बिफरता. फिर मां उसे थप्पड़ जड़ देती. ये मजबूर थप्पड़ थे, जिनका उसके सवाल नहीं हल करने से कोई लेना देना नहीं था. ये थप्पड़ मां की हताशा थे, मां भी कभी पढ़ के डॉक्टर बनना चाहती थी. अब मां बस एक औरत है, और उसे इस बात पर बेहद गुस्सा आता है.
खैर मां दम भर के गुस्सा करने के बाद उससे हार जाती थी. उसकी नालायकी बदस्तूर जारी रहती. उसे पास वाले मकान की सरला आंटी से भी नफरत थी. जब भी आतीं थी, उस दिन मां उसे बेलन या झाड़ू से जरूर मारती थी. सरला आंटी अपने सुपुत्र से बड़ा खुश रहती थीं, वो हर बार क्लास में अव्वल आता था. लिहाज़ा सरला आंटी को नाना प्रकार से परेशान करने का जिम्मा इस लड़के ने अपने नाज़ुक कन्धों पर उठा लिया था.
बस एक पापा ही थे जो उसे ज्यों का त्यों समझते थे. शाम को लौटते तो उसके लिए टॉफी ले के आते. मां वही पुरानी शिकायत करती, पापा पान की पीक थूकते सुनते रहते. उसे अपने पापा की पान की महक बड़ी प्यारी थी. रात में वो पापा के बगल में सोता था, उनकी छाती के बालों को देखता, उनके मुंह की महक को सूंघता - वो सुरक्षित महसूस करता. दिन भर की थकी मां फिर सो जाती. पापा उससे बातें करते, कहानियां सुनाते, फिर उसकी तारीफ करते – यूं ही बिना किसी बात के. और उनके ऐसा करने से उसकी नींद में खुशियों की कुछ कहानियां बूंदें घुल जाती. वो खुश सो जाता था. रंगीन सपनों की ओट में जिसमें खिलौने और टॉफियां अक्सर आया करती थीं.
लेकिन इधर कुछ रातों से उसने एक अजीब सा सपना देखना शुरू किया था. सपने में वो अपने पापा को मरा हुआ देखता था. कभी ट्रक के चक्के तले वो उन्हें दबा देखता तो कभी उनके सिर पर किसी ने गोली मार दी होती थी. व कल सुबह वो चीख कर उठ गया था. उसने देखा, पापा को किसी सांप ने काट लिया था. वो जार जार रोने लगा था. पापा ने पूछा था तो हिचकते हुए बताया था उसने अपना सपना.!
'धत पगला, ये तो शुभ होता है, इससे तेरे पापा की उम्र बढ़ जाएगी.' पापा ने कहा था. मां चुपचाप हंस रही थी. ‘सपना में सांप आने का मतलब समझते हो? साक्षात् शिव जी तुमको दर्शन दिए थे रे पगला!’ मां ने पापा जी के जाने के बाद कहा था. तब वो रोज की तरह गणित से जूझ रहा था – दो पूर्णांक एक बटे चार को दशमलव में बदलना नहीं आता था उसे. ‘अकल काहे नहीं मांग लिए तुम उनसे जी थोडा..! इहो नहीं हो रहा है क्या जी तुमसे?’ मां ने चिमटे का प्रहार उसकी हथेलियों पर किया. पागल हो तुम..भक्क...नहीं पढना हमको तुमसे..पगली औरत, जब देखो मार-पिटाई! कहते हुए वो उसकी पकड़ से अपना हाथ छुड़ा कर बाहर भाग गया था. पापा के बिना वो घर में रहना ही नहीं चाहता था. मां उसे बदमिजाज़ लगने लगी थी. वो बड़ा हो रहा था. उसे अब हर रोज अपने पापा का बाहर जाना डराने लगा था. शाम होते ही वो अब दरवाजे की ओर नजर गडाए देखने लगता था. अब आयेंगे पापा. आमतौर पर उसके पापा सात बजे तक लौट आते थे. स्कूटर की घर्र-घर्र सुन वो स्थिर हो जाता था, उसके गले में फंसा वो 'कुछ-कुछ' भीतर चला जाता था. पापा अन्दर आते, तो वो निश्चिंत होकर अपने होमवर्क पर ध्यान देने लगता. मां शिकायत करती- 'शाम से इतना ही हुआ है तुम्हारा!' वो बेशर्मी से मुस्काता और पापा से लिपटने लगता था. कल उसने टी-वी पे समाचार सुन लिया था - दिल्ली के किसी मोहल्ले के किसी पापा की मौत की खबर थी. उनका भी स्कूटर किसी ट्रक से टकरा गया था. वो भीतर तक हदस गया था. मां ने आ कर स्टार प्लस लगा दिया था. उसने घडी देखी, सात बजने को थे. उसके पेट में खलबली सी उठने लगी. उसने अपनी किताब देखी. शब्द सारे गड्ड-मड्ड हो रहे थे. साढ़े सात बजे, आठ भी बज गया, फिर साधे आठ बजे. उसने मां से पूछा- 'मां, पापा क्यों नहीं आये अब तक?' मां टी-वी पर सास-बहू देख रही थी. उसने झिड़क दिया - आ जाएंगे, जा के पढो तुम. बड़े आए पापा के बेटे, तुमको सर पे चढ़ा दिए हैं इ! जैसे लगता है इन दोनों के अलावा दुनिया में कोई बाप बेटा ही नहीं हुआ! जाओ पढो. वो फिर कमरे से बाहर चला गया. उसके जेहन में वो पिछली सुबह का सपना फिर से आ गया. 'कहीं पापा भी किसी ट्रक से टकरा के मर तो नहीं गए?' वो कांप गया. अगर ऐसा हुआ तो? मैं इस बदमिजाज़ औरत के साथ नहीं रह सकता. उसने डरते डरते सोचा था. नहीं, मुझे मां के साथ दिन और रात दोनों डांट सुनते हुए नहीं बिताना, उसने सोचा था. फिर उसके दिमाग में आवाजें उठनी शुरू हो गयी. कोई आवाज़ उससे कह रही थी - जा के बाथरूम में अपना सर भिगो ले, पापा आ जाएंगे. वो चुपके से उठा, बाथरूम में गया, नल के नीचे बैठ गया. उसे डर भी लग रहा था. मां देख लेती तो बेलन से मारती. नौ बज गए थे. पापा गायब थे. वो अपने नाख़ून कुतरने लगा. मां पता नहीं क्यों, निश्चिंत थी. मां भी हद है. उसने सोचा. कहीं पापा मर तो नहीं गए. वो लगातार सोच रहा था. उसके अन्दर फिर एक आवाज़ आई - तेरे पापा अगले दस मिनट में घर आ जायेंगे. तू एक काम कर दे. 'क्या?' उसने आवाज़ से पूछा. जा कर बाहर सरला आंटी के लॉन में रखे गुलाब के गमले में पेशाब कर दे. उसे ये बेहद बेतुका लगा. उसने आवाज़ को झिड़क दिया. ‘ये गन्दी बात है, मैं नहीं करता ये सब.’ उसने कहा था. आवाज़ ने कहा - तेरी मर्ज़ी. तेरे पापा के लिए ही कह रही थी मैं. और वो ग़ुम हो गयी.
वो बैठा रहा, सोचता रहा. उसके पास दस मिनट थे. स्कूटर की आवाज़ दूर-दूर तक सुनाई नहीं देती थी. उसे डर अब भी लग रहा था – पापा नहीं आये तो? वो आवाज़ यूं ही थोड़े न बोलती होगी? और फिर गमला है भी तो किसका? सरला आंटी का! पापा मर जाएंगे...तू ऐसा कर देगा तो वो आ जाएंगे!’ लड़के के भीतर कुछ बोल रहा था.
फिर अचानक से वो उठ गया, सहमे पांव दरवाज़ा खोला. सरला आंटी के घर के भीतर उजियारा और चुप्पी पसरी हुई थी. झींगुर सुनाई पड़ते थे. उसने बिना आवाज़ किए हुए उनके घर का दरवाज़ा खोल दिया. और चुप-चाप जा कर उस लाल गुलाब के गमले में पेशाब करने लगा. पेशाब कर के वो हल्का हुआ. तन से और मन से भी. फिर उसने पीछे देखा. सरला आंटी मुंह खोले हुए खड़ी थीं. ‘मिस्सेस राय, एगो बात बताइयेगा हमको आप? आपके घर में पेशाब करने का जगह नहीं है जो अपने बुतरू के मेरे गमले में करने के लिए भेज देती हैं?’ लड़के का हाथ थामे हुए सरला आंटी ने जाकर उसकी मां से ये सवाल पूछा था. और फिर मां  के सधे हुए पुष्ट हाथ झापड़ बन ताबड़तोड़ उस पर बरसने लगे थे. फिर झाड़ू उठा, फिर बेलन, फिर कंघा और फिर चिमटा – किचन का हर एक सामान जैसे उसकी पीठ से दिल्लगी करने को उतारू था.
नालायक, मुंहझौंसा, करमजला, पगला ,ढक्लेल कहीं का. सब सहूर बेच के खा गया है तुम. आने दो अपने पप्पा जी को. आज कुटवाते हैं तुमको उनसे कह के! वो पिटता रहा फिर भी उसकी निगाहें दिवार पे लटकी घडी से लगी हुई थी.
और फिर पिटने के दौरान ही पापा के स्कूटर की आवाज़ उसके कानों में पड़ी. वो निहाल हो गया. पापा जिन्दा था. मां उसके गुलाब तले मूत्र-विसर्जन का किस्सा बताये नहीं थक रही थी. पापा भी गुस्सा हो गए. आखिर एक हद होती है नालायकी की.
अब मां डांट रही थी, पापा ठोक रहे थे. मां उसे पीट पीट के थक चुकी थी. सामने बालकनी से सरला जी अपने पति के साथ इस नज़ारे को देख कर हंस रही थी. वो खुश था. उसके पापा घर आ गए थे. भला हो उस आवाज़ का जिसने उसे ये नुस्खा सिखाया था ताकि पापा मर न जाएं.