भीष्म साहनी. पंजाब में जन्मे एक अंग्रेजी के अध्यापक थे. जिन्होंने तमस लिखकर हिंदी साहित्य में एक नई लहर पैदा की. इनमें और प्रेमचंद की कहानियों में बहुत समानता है. दोनों समाज के दिखावों को अपने- अपने तरीके से लताढ़ लगाते थे. आज इन्हीं भीष्म साहनी की बरसी है. इनकी बेहतरीन रचनाओं में से 'एक कहानी रोज़' आपके लिए लेकर आया है चीफ की दावत.
'मां के चेहरे का रंग बदलने लगा, धीरे-धीरे उनका झुर्रियों-भरा मुंह खिलने लगा'
आज भीष्म साहनी का जन्मदिन है. पढ़िए उनकी कहानी.

आज मिस्टर शामनाथ के घर चीफ की दावत थी.
शामनाथ और उनकी धर्मपत्नी को पसीना पोंछने की फुर्सत न थी. पत्नी ड्रेसिंग गाउन पहने, उलझे हुए बालों का जूड़ा बनाए, मुंह पर फैली हुई सुर्खी और पाउडर को भूले, और मिस्टर शामनाथ सिगरेट-पर-सिगरेट फूंकते हुए, चीजों की फेहरिस्त हाथ में थामे, एक कमरे से दूसरे कमरे में आ-जा रहे थे.
आखिर पांच बजते-बजते तैयारी मुकम्मल होने लगी. कुर्सियां, मेज, तिपाइयां, नैपकिन, फूल-सब बरामदे में पहुंच गए. ड्रिंक का इन्तजाम बैठक में कर दिया गया. अब घर का फालतू सामान अलमारियों के पीछे और पलंगों के नीचे छिपाया जाने लगा. तभी शामनाथ के सामने सहसा एक अड़चन खड़ी हो गई, मां का क्या होगा?

ये एक सांकेतिक तस्वीर है, जिसे artranked.com से लिया गया है.
इस बात की ओर न उनका और न उनकी कुशल गृहिणी का ध्यान गया था. मिस्टर शामनाथ, श्रीमती की ओर घूमकर अंग्रेजी में बोले, ‘मां का क्या होगा?’
श्रीमती काम करते-करते ठहर गई, और थोड़ी देर तक सोचने के बाद
बोली, ‘‘इन्हें पिछवाड़े इनकी सहेली के घर भेज दो. रात-भर बेशक वहीं रहें. कल आ जाएं.’’
शामनाथ सिगरेट मुंह में रखे, सिकुड़ी आंखों से श्रीमती के चेहरे की ओर देखते हुए पल-भर सोचते रहे, फिर सिर हिलाकर बोले, 'नहीं, मैं नहीं चाहता कि उस बुढिय़ा का आना-जाना यहाँ फिर से शुरू हो. पहले ही बड़ी मुश्किल से बन्द किया था. मां से कहें कि जल्दी ही खाना खा के शाम को ही अपनी कोठरी में चली जाएँ. मेहमान कहीं आठ बजे आएँगे. इससे पहले ही अपने काम से निपट लें.’
सुझाव ठीक था. दोनों को पसन्द आया. मगर फिर सहसा श्रीमती बोल उठी, ‘जो वह सो गईं और नींद में खर्राटे लेने लगीं, तो? साथ ही तो बरामदा है, जहाँ लोग खाना खाएंगे.’मिस्टर शामनाथ चुप रहे. यह मौका बहस का न था, समस्या का हल ढूँढऩे का था. उन्होंने घूमकर मां की कोठरी की ओर देखा. कोठरी का दरवाजा बरामदे में खुलता था. बरामदे की ओर देखते हुए झट से बोले, ‘मैंने सोच लिया है,’ और उन्हीं कदमों से मां की कोठरी के बाहर जा खड़े हुए.
‘तो इन्हें कह देंगे कि अन्दर से दरवाजा बन्द कर लें. मैं बाहर से ताला लगा दूँगा. या मां को कह देता हूं कि अन्दर जाकर सोएं नहीं, बैठी रहें, और क्या?’
‘और जो सो गईं, तो? डिनर का क्या मालूम, कब तक चले? ग्यारह-ग्यारह बजे तक तो तुम ड्रिंक ही करते रहते हो.’
शामनाथ कुछ खीज उठे, हाथ झटकते हुए बोले, ‘अच्छी-भली यह भाई के पास जा रही थीं. तुमने यूं ही खुद अच्छा बनने के लिए बीच में टांग अड़ा दी!’
‘‘वाह! तुम मां और बेटे की बातों में मैं क्यों बुरी बनूं? तुम जानो और वह जानें!’’
मां दीवार के साथ एक चौकी पर बैठी, दुपट्टे में मुंह-सिर लपेटे, माला जप रही थीं. सुबह से तैयारी होती देखते हुए मां का भी दिल धड़क रहा था. बेटे के दफ्तर का बड़ा साहब घर पर आ रहा है, सारा काम सुभीते से चल जाए.
‘मां, आज तुम खाना जल्दी खा लेना. मेहमान लोग साढ़े सात बजे आ जाएँगे.’मिस्टर शामनाथ ने इन्तजाम तो कर दिया, फिर भी उनकी उधेड़-बुन खत्म नहीं हुई. जो चीफ अचानक उधर जा निकला, तो? आठ-दस मेहमान होंगे, देसी अफसर, उनकी स्त्रियाँ होंगी, कोई भी गुसलखाने की तरफ जा सकता है. क्षोभ और क्रोध में वह झुंझलाने लगे. एक कुर्सी को उठाकर बरामदे में कोठरी के बाहर रखते हुए बोले, ‘आओ मां, इस पर जरा बैठो तो.’
मां ने धीरे से मुँह पर से दुपट्टा हटाया और बेटे को देखते हुए कहा, ‘आज मुझे खाना नहीं खाना है, बेटा. तुम तो जानते हो, मांस-मछली बने, तो मैं कुछ नहीं खाती.’
‘जैसे भी हो, अपने काम से जल्दी निपट लेना.’
‘अच्छा, बेटा.’
‘और मां, हम लोग पहले बैठक में बैठेंगे. उतनी देर तुम यहाँ बरामदे में बैठना. फिर जब हम यहाँ आ जाएँ, तो तुम गुसलखाने के रास्ते बैठक में चली जाना.’
मां अवाक् बेटे का चेहरा देखने लगीं. फिर धीरे से बोलीं, ‘अच्छा, बेटा.’
‘और मां, आज जल्दी सो नहीं जाना. तुम्हारे खर्राटों की आवाज दूर तक जाती है.’
मां लज्जित-सी आवाज में बोलीं, ‘क्या करूँ बेटा, मेरे बस की बात नहीं है. जब से बीमारी से उठी हूं, नाक से साँस नहीं ले सकती.’
मां माला संभालती, पल्ला ठीक करती उठीं, और धीरे से कुर्सी पर आकर बैठ गईं.
‘यूं नहीं मां, टांगें ऊपर चढ़ाकर नहीं बैठते. यह खाट नहीं है.’मिस्टर शामनाथ सिगरेट मुंह में रखे, फिर अधखुली आंखों से मां की ओर देखने लगे, और मां के कपड़ों की सोचने लगे. शामनाथ हर बात में तरतीब चाहते थे. घर का सब संचालन उनके अपने हाथ में था. खूंटियां कमरों में कहां लगाई जाएं, बिस्तर कहां पर बिछें, किस रंग के पर्दे लगाए जाएं, श्रीमती कौन-सी साड़ी पहनें, मेज किस साइज की हो...शामनाथ को चिन्ता थी कि अगर चीफ का साक्षात् मां से हो गया, तो कहीं लज्जित न होना पड़े. मां को सिर से पांव तक देखते हुए बोले, ‘तुम सफेद कमीज और सफेद सलवार पहन लो, मां. पहन के आओ तो, जरा देखूं.’
मां ने टांगें नीचे उतार लीं.
‘और खुदा के वास्ते नंगे पांव नहीं घूमना. न ही वह खड़ाऊं पहनकर सामने आना. किसी दिन तुम्हारी वह खड़ाऊं उठाकर मैं बाहर फेंक दूंगा.’’
मां चुप रहीं.
‘कपड़े कौन-से पहनोगी, मां?’
‘जो हैं, वही पहनूंगी, बेटा! जो कहो, पहन लूं.’
मां धीरे से उठीं और अपनी कोठरी में कपड़े पहनने चली गईं.
‘यह मां का झमेला ही रहेगा,’ उन्होंने फिर अंग्रेजी में अपनी स्त्री से कहा, ‘‘कोई ढंग की बात हो, तो भी कोई कहे. अगर कहीं कोई उल्टी-सीधी बात हो गई, चीफ को बुरा लगा, तो सारा मजा जाता रहेगा.’’
मां सफेद कमीज और सफेद सलवार पहनकर बाहर निकलीं. छोटा-सा कद, सफेद कपड़ों में लिपटा, छोटा-सा सूखा हुआ शरीर, धुंधली आंखें, केवल सिर के आधे झड़े हुए बाल पल्ले की ओट में छिप पाए थे. पहले से कुछ ही कम कुरूप नजर आ रही थीं.
‘चलो, ठीक है. कोई चूडिय़ां-वूडिय़ां हों, तो वह भी पहन लो. कोई हर्ज नहीं.’
‘चूडिय़ां कहां से लाऊं, बेटा? तुम तो जानते हो, सब जेवर तुम्हारी पढ़ाई में बिक गए.’
यह वाक्य शामनाथ को तीर की तरह लगा. तुनककर बोले, ‘‘यह कौन-सा राग छेड़ दिया मां! सीधा कह दो, नहीं हैं जेवर, बस. इससे पढ़ाई-वढ़ाई का क्या ताल्लुक है! जो जेवर बिका, तो कुछ बनकर ही आया हूं, निरा लंडूरा तो नहीं लौट आया? जितना दिया था, उससे दुगना ले लेना.’

ये एक सांकेतिक तस्वीर है जिसे laughingcolours.com की एक खबर से उठाया गया है. जिसमें एक बेटा अपनी मां को कमरे में बंद कर लेता है.
‘मेरी जीभ जल जाए बेटा, तुमसे जेवर लूंगी? मेरे मुंह से यूं ही निकल गया. जो होते, तो लाख बार पहनती!’
साढ़े पांच बज चुके थे. अभी मिस्टर शामनाथ को खुद भी नहा-धोकर तैयार होना था. श्रीमती कब की अपने कमरे में जा चुकी थीं. शामनाथ जाते हुए एक बार फिर मां को हिदायत करते गए, ‘‘मां, रोज की तरह गुमसुम बन के नहीं बैठी रहना. अगर साहब इधर आ निकलें और कोई बात पूछें तो ठीक तरह से बात का जवाब देना.’’
‘मैं न पढ़ी, न लिखी, बेटा, मैं क्या बात करूंगी! तुम कह देना, मां अनपढ़ है, कुछ जानती-समझती नहीं. वह नहीं पूछेगा.’
सात बजते-बजते मां का दिल धक्-धक् करने लगा. अगर चीफ सामने आ गया और उसने कुछ पूछा, तो वह क्या जवाब देगी? अंग्रेज को तो दूर से ही देखकर घबरा उठती थी, यह तो अमरीकी है. न मालूम वह क्या पूछे? मैं क्या कहूंगी? मां का जी चाहा कि चुपचाप पिछवाड़े विधवा सहेली के घर चली जाए. मगर बेटे के हुक्म को कैसे टाल सकती थी? चुपचाप कुर्सी पर से टांगें लटकाए वहीं बैठी रहीं.
एक कामयाब पार्टी वह है, जिसमें ड्रिंक कामयाबी से चल जाए. शामनाथ की पार्टी सफलता के शिखर चूमने लगी. वार्तालाप उसी रौ में बह रहा था, जिस रौ में गिलास भरे जा रहे थे. कहीं कोई रुकावट न थी, कोई अड़चन न थी. साहब को व्हिस्की पसन्द आई थी. मेमसाहब को पर्दे पसन्द आए थे, सोफा-कवर का डिजाइन पसन्द आया था, कमरे की सजावट पसन्द आई थी. इससे बढ़कर क्या चाहिए! साहब तो ड्रिंक के दूसरे दौर में ही चुटकुले और कहानियाँ कहने लग गए थे. दफ्तर में जितना रौब रखते थे, यहां पर उतने ही दोस्त-परवर हो रहे थे और उनकी स्त्री काला गाउन पहने, गले में सफेद मोतियों का हार, सेंट और पाउडर की महक से ओतप्रोत, कमरे में बैठी सभी देशी स्त्रियों की आराधना का केन्द्र बनी हुई थीं. बात-बात पर हंसतीं, बात-बात पर सिर हिलातीं और शामनाथ की स्त्री से तो ऐसे बातें कर रही थीं, जैसे उनकी पुरानी सहेली हों!
और इसी रौ में पीते-पिलाते साढ़े दस बज गए. वक्त गुजरते पता ही न चला.
आखिर सब लोग अपने-अपने गिलासों में से आखिरी घूंट पीकर खाना खाने के लिए उठे और बैठक से बाहर निकले. आगे-आगे शामनाथ रास्ता दिखाते हुए, पीछे चीफ और दूसरे मेहमान.
बरामदे में पहुंचते ही शामनाथ सहसा ठिठक गए. जो दृश्य उन्होंने देखा, उससे उनकी टांगें लडख़ड़ा गईं, और क्षण-भर में सारा नशा हिरन होने लगा. बरामदे में ऐन कोठरी के बाहर मां अपनी कुर्सी पर ज्यों-की-त्यों बैठी थीं. मगर दोनों पांव कुर्सी की सीट पर रखे हुए, और सिर दाएं से बाएं और बाएं से दाएं झूल रहा था और मुंह में से लगातार गहरे खर्राटों की आवाजें आ रही थीं. जब सिर कुछ देर के लिए टेढ़ा होकर एक तरफ को थम जाता, तो खर्राटे और भी गहरे हो उठते. और फिर जब झटके से नींद टूटती, तो सिर फिर दाएं से बाएं झूलने लगता. पल्ला सिर पर से खिसक आया था, और मां के झरे हुए बाल, आधे गंजे सिर पर अस्त-व्यस्त बिखर रहे थे.
देखते ही शामनाथ क्रुद्ध हो उठे. जी चाहा कि मां को धक्का देकर उठा दें, और उन्हें कोठरी में धकेल दें, मगर ऐसा करना सम्भव न था, चीफ और बाकी मेहमान पास खड़े थे.मां ने झिझकते हुए, अपने में सिमटते हुए दोनों हाथ जोड़े, मगर एक हाथ दुपट्टे के अन्दर माला को पकड़े हुए था, दूसरा बाहर, ठीक तरह से नमस्ते भी न कर पाईं. शामनाथ इस पर भी खिन्न हो उठे.
मां को देखते ही देसी अफसरों की कुछ स्त्रियां हंस दीं कि इतने में चीफ ने धीरे से कहा, ‘‘पूअर डियर.’’
मां हड़बड़ा के उठ बैठीं. सामने खड़े इतने लोगों को देखकर ऐसी घबराईं कि कुछ कहते न बना. झट से पल्ला सिर पर रखती हुई खड़ी हो गईं और जमीन को देखने लगीं. उनके पाँव लडख़ड़ाने लगे और हाथों की उंगलियां थर-थर कांपने लगीं.
‘मां, तुम जाके सो जाओ, तुम क्यों इतनी देर तक जाग रही थीं?’ और खिसियाई हुई नजरों से शामनाथ चीफ के मुंह की ओर देखने लगे.
चीफ के चेहरे पर मुस्कुराहट थी. वह वहीं खड़े-खड़े बोले, ‘नमस्ते!’
इतने में चीफ ने अपना दायाँ हाथ, हाथ मिलाने के लिए मां के आगे किया. मां और भी घबरा उठीं.
‘मां, हाथ मिलाओ.’
पर हाथ कैसे मिलातीं? दाएं हाथ में तो माला थी. घबराहट में मां ने बायां हाथ ही साहब के दाएं हाथ में रख दिया. शामनाथ दिल ही दिल में जल उठे. देसी अफसरों की स्त्रियां खिलखिलाकर हंस पड़ीं.
‘यूं नहीं, मां! तुम तो जानती हो, दायां हाथ मिलाया जाता है. दायां हाथ मिलाओ.’’वातावरण हल्का होने लगा. साहब ने स्थिति संभाल ली थी. लोग हँसने-चहकने लगे थे. शामनाथ के मन का क्षोभ भी कुछ-कुछ कम होने लगा था.
मगर तब तक चीफ मां का बायां हाथ ही बार-बार हिलाकर कह रहे थे, ‘‘हौ डू यू डू?’’
‘कहो मां, मैं ठीक हूं, खैरियत से हूं’’
मां कुछ बड़बड़ाईं.
‘मां कहती हैं, मैं ठीक हूं. कहो मां, हौ डू यू डू?’
मां धीरे से सकुचाते हुए बोलीं, ‘हौ डू डू...’
एक बार फिर कहकहा उठा.
साहब अपने हाथ में मां का हाथ अब भी पकड़े हुए थे, और मां सिकुड़ी जा रही थीं. साहब के मुंह से शराब की बू आ रही थी.
शामनाथ अंग्रेजी में बोले, ‘मेरी मां गांव की रहने वाली हैं. उम्र-भर गांव में रही हैं. इसलिए आपसे लजाती हैं.’
साहब इस पर खुश नजर आए. बोले, ‘सच? मुझे गांव के लोग बहुत पसन्द हैं, तब तो तुम्हारी मां गांव के गीत और नाच भी जानती होंगी?’ चीफ खुशी से सिर हिलाते हुए मां को टकटकी बांधे देखने लगे.
‘‘मां, साहब कहते हैं, कोई गाना सुनाओ. कोई पुराना गीत, तुम्हें तो कितने ही याद होंगे.’’देसी अफसर और उनकी स्त्रियों ने इस सुझाव पर तालियां पीटीं. मां कभी दीन दृष्टि से बेटे के चेहरे को देखतीं, कभी पास खड़ी बहू के चेहरे को.
मां धीरे से बोलीं, ‘मैं क्या गाऊंगी, बेटा! मैंने कब गाया है?’
‘वाह, मां! मेहमान का कहा भी कोई टालता है? साहब ने इतनी रीझ से कहा है, नहीं गाओगी, तो साहब बुरा मानेंगे.’
‘मैं क्या गाऊं, बेटा! मुझे क्या आता है?’
‘वाह! कोई बढिय़ा टप्पे सुना दो. दो पत्तर अनारां दे...’
इतने में बेटे ने गम्भीर आदेश-भरे लहजे में कहा, ‘‘मां!’’
इसके बाद हां या ना का सवाल ही न उठता था. मां बैठ गईं और क्षीण, दुर्बल, लरजती आवाज में एक पुराना विवाह का गीत गाने लगीं :
हरिया नी माये, हरिया नी भैणे
हरिया ते भागी भरिया है!
देसी स्त्रियां खिलखिला के हंस उठीं. तीन पंक्तियां गा के मां चुप हो गईं.बरामदा तालियों से गूंज उठा. साहब तालियां पीटना बन्द ही न करते थे. शामनाथ की खीज प्रसन्नता और गर्व में बदल उठी थी. मां ने पार्टी में नया रंग भर दिया था.
तालियां थमने पर साहब बोले, ‘‘पंजाब के गांवों की दस्तकारी क्या है?’’
शामनाथ खुशी में झूम रहे थे. बोले, ‘‘ओ, बहुत कुछ, साहब! मैं आपको एक सेट उन चीजों का भेंट करूंगा. आप उन्हें देखकर खुश होंगे.’’
मगर साहब ने सिर हिलाकर अंग्रेजी में फिर पूछा, ‘‘नहीं, मैं दुकानों की चीज नहीं मांगता. पंजाबियों के घरों में क्या बनता है, औरतें खुद क्या बनाती हैं?’’
शामनाथ कुछ सोचते हुए बोले, ‘‘लड़कियां गुडिय़ां बनाती हैं, औरतें फुलकारियां बनाती हैं.’’
‘‘फुलकारी क्या?’’
शामनाथ फुलकारी का मतलब समझाने की असफल चेष्टा करने के बाद मां को बोले, ‘‘क्यों, मां, कोई पुरानी फुलकारी घर में है?’’
मां चुपचाप अन्दर गईं और अपनी पुरानी फुलकारी उठा लाईं.
साहब बड़ी रुचि से फुलकारी देखने लगे. पुरानी फुलकारी थी, जगह-जगह से उसके तागे टूट रहे थे और कपड़ा फटने लगा था. साहब की रुचि को देखकर शामनाथ बोले, ‘‘यह फटी हुई है, साहब, मैं आपको नई बनवा दूंगा. मां बना देंगी. क्यों मां, साहब को फुलकारी बहुत पसन्द है, इन्हें ऐसी ही एक फुलकारी बना दोगी न?’’
मां चुप रहीं, फिर डरते-डरते धीरे से बोलीं, ‘‘अब मेरी नजर कहाँ है, बेटा! बूढ़ी आँखें क्या देखेंगी...?’’
मगर मां का वाक्य बीच ही में तोड़ते हुए शामनाथ साहब को बोले, ‘‘वह जरूर बना देंगी. आप उसे देखकर खुश होंगे.’’
साहब ने सिर हिलाया, धन्यवाद किया और हल्के-हल्के झूमते हुए खाने की मेज की ओर बढ़ गए. बाकी मेहमान भी उनके पीछे-पीछे हो लिए.
जब मेहमान बैठ गए और मां पर से सबकी आँखें हट गईं, तो मां धीरे से कुर्सी पर से उठीं, और सबसे नजरें बचाती हुई अपनी कोठरी में चली गईं.
मगर कोठरी में बैठने की देर थी कि आँखों से छल-छल आंसू बहने लगे. वह दुपट्टे से बार-बार उन्हें पोंछतीं, पर वह बार-बार उमड़ आते, जैसे बरसों का बांध तोड़कर उमड़ आए हों! मां ने बहुतेरा दिल को समझाया, हाथ जोड़े, भगवान का नाम लिया, बेटे के चिरायु होने की प्रार्थना की, बार-बार आंखें बन्द कीं, मगर आंसू बरसात के पानी की तरह जैसे थमने में ही न आते थे.

ये एक सांकेतिक तस्वीर है जिसे laughingcolours.com की एक खबर से उठाया गया है.
आधी रात का वक्त होगा. मेहमान खाना खाकर एक-एक करके जा चुके थे. मां दीवार से सटकर बैठी आँखें फाड़े दीवार को देखे जा रही थीं. घर के वातावरण में तनाव ढीला पड़ चुका था. मुहल्ले की निस्तब्धता शामनाथ के घर पर भी छा चुकी थी, केवल रसोई में प्लेटों के खनकने की आवाज आ रही थी. तभी सहसा मां की कोठरी का दरवाजा जोर से खटकने लगा.
‘‘मां, दरवाजा खोलो!’’
मां का दिल बैठ गया. हड़बड़ाकर उठ बैठीं. क्या मुझसे फिर कोई भूल हो गई? मां कितनी देर से अपने-आपको कोस रही थीं कि क्यों उन्हें नींद आ गई, क्यों वह ऊंघने लगी? क्या बेटे ने अभी तक क्षमा नहीं किया? मां उठीं और कांपते हाथों से दरवाजा खोल दिया.
दरवाजा खुलते ही शामनाथ झूमते हुए आगे बढ़ आए और मां को आलिंगन में भर लिया.
‘ओ अम्मी! तुमने तो आज रंग ला दिया!...साहब तुमसे इतना खुश हुआ कि क्या कहूं. ओ अम्मी! अम्मी!’
मां की छोटी-सी काया सिमटकर बेटे के आलिंगन में छिप गई. मां की आँखों में फिर आँसू आ गए. उन्हें पोंछती हुई धीरे से बोलीं, ‘‘बेटा, तुम मुझे हरिद्वार भेज दो. मैं कब से कह रही हूं.’’
शामनाथ का झूमना सहसा बन्द हो गया और उनकी पेशानी पर फिर तनाव के बल पडऩे लगे. उनकी बाँहें मां के शरीर पर से हट आईं.
‘क्या कहा, मां? यह कौन-सा राग तुमने फिर छेड़ दिया?’और मां दिल-ही-दिल में फिर बेटे के उज्ज्वल भविष्य की कामनाएं करने लगीं और मिस्टर शामनाथ, 'अब सो जाओ, मां,’ कहते हुए, तनिक लडख़ड़ाते हुए अपने कमरे की ओर घूम गए.
शामनाथ का क्रोध बढऩे लगा था, बोलते गए, ‘‘तुम मुझे बदनाम करना चाहती हो, ताकि दुनिया कहे कि बेटा मां को अपने पास नहीं रख सकता.’’
‘‘नहीं, बेटा, अब तुम अपनी बहू के साथ जैसा मन चाहे, रहो. मैंने अपना खा-पहन लिया. अब यहां क्या करूंगी! जो थोड़े दिन जिन्दगानी के बाकी हैं, भगवान का नाम लूंगी. तुम मुझे हरिद्वार भेज दो!’’
‘‘तुम चली जाओगी, तो फुलकारी कौन बनाएगा? साहब से तुम्हारे सामने ही फुलकारी देने का इकरार किया है.’’
‘‘मेरी आंखें अब नहीं हैं, बेटा, जो फुलकारी बना सकूँ. तुम कहीं और से बनवा लो. बनी-बनाई ले लो.’’
‘‘मां, तुम मुझे धोखा देके यूं चली जाओगी? मेरा बनता काम बिगाड़ोगी? जानती नहीं, साहब खुश होगा, तो मुझे तरक्की मिलेगी!’’
मां चुप हो गईं. फिर बेटे के मुंह की ओर देखती हुई बोलीं, ‘‘क्या तेरी तरक्की होगी? क्या साहब तेरी तरक्की कर देगा? क्या उसने कुछ कहा है?’’
‘‘कहा नहीं, मगर देखती नहीं, कितना खुश गया है? कहता था, जब तेरी मां फुलकारी बनाना शुरू करेंगी, तो मैं देखने आऊँगा कि कैसे बनाती हैं. जो साहब खुश हो गया, तो मुझे इससे बड़ी नौकरी भी मिल सकती है, मैं बड़ा अफसर बन सकता हूं.’’
मां के चेहरे का रंग बदलने लगा, धीरे-धीरे उनका झुर्रियों-भरा मुंह खिलने लगा, आँखों में हल्की-हल्की चमक आने लगी.
‘‘तो तेरी तरक्की होगी, बेटा?’’
‘‘तरक्की यूं ही हो जाएगी? साहब को खुश रखूंगा, तो कुछ करेगा, वरना उसकी खिदमत करने वाले और थोड़े हैं?’’
‘‘तो मैं बना दूंगी, बेटा, जैसे बन पड़ेगा, बना दूंगी.’’

पहला पाठ का पहला पेज
किताब का नाम -पहला पाठ
लेखक -भीष्म साहनी
विधा - कहानी
प्रकाशन - राजकमल प्रकाशन
कीमत - 125/- रूपए पेपरबैक
वीडियो देखें- इस वजह से मुमताज़ ने शम्मी कपूर, जीतेंद्र और यश चोपड़ा के रिश्ते ठुकरा दिए थे