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सिगरेट फूंकने पर भी मन का धुआं बाहर न निकलता...

एक कहानी रोज़ में आज पढ़िए भावना शेखर की कहानी गणिका.

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गणिका

भावना शेखर

पिछले डेढ़ घंटे से शरद यूं ही आंख मूंदे आरामकुर्सी पर पड़ा है. आज दोपहर को ही ऑफिस से चला आया. घर आकर लंच भी नहीं किया. नौकरों को हिदायत दी कि उसे डिस्टर्ब न करे. पूरी दोपहर बिस्तर पर करवटों में निकाल दी. जब बेचैनी जरा भी कम न हुई तो आधा पैकेट सिगरेट फूंक डाली पर मन का धुआं बाहर निकलता ही न था.
दरवाजा हल्की खटखट के बाद आगंतुक ने स्वयं ही खोल दिया. ऐसी हिमाकत मनोहर काका ही कर सकते हैं. जिनकी बांहों ने शरद को बचपन में झुलाया वे हाथ में ट्रे थामे खड़े थे. 'बिटवा, तनिक खाय लो, तोहार पसंद के पनीर पकौड़ा बना के लाए हैं.'
शरद ने बूढ़ी काया पर नजर डाली, कुछ कह न सका. मौन से उत्साहित मनोहर मुस्काते हुए टेबल पर ट्रे रखकर आश्वस्त मुद्रा में कमरे से निकल जाता है. शरद ट्रे में रखी कॉफी और अपने पसंदीदा स्नैक्स पर बेरुखी से निगाह डालता है और पुनः उसी मुद्रा में लौट जाता है.
मुंदी पलकों के पीछे एक चित्र है जो शरद को उद्वेलित करता है. कोई किसी को इतना भी कैसे भा सकता है! शरद को एक खूबसूरत शेर याद आ गया:

मुद्दतों खुद की कुछ खबर न लगे, कोई अच्छा भी इस कदर न लगे.

उसके दिल से आह निकली और शायर के लिए ‘वाह’. क्या खूब लिखा है, मानो उसी का हाले दिल बयां कर डाला है! पिछले दो माह से यह चेहरा उसके जीवन में दखल किए हुए है. यह दखल उसके लिए अद्भुत था...अपूर्व अनुभवों का सामान था पर आज वह निराश है...हताश है. असमंजस की सूली पर अब वह और नहीं लटक सकता. उसे अपनी उम्मीद को जिलाना होगा और एक निर्णय लेना होगा- इस पार या उस पार. संघर्ष का अनभ्यस्त मनोमस्तिष्क उसका साथ नहीं दे पा रहा. एक ही ढर्रे पर चलती जिन्दगी ने उसे जुझारूपन से जुदा रखा. जीवन में उतार-चढ़ाव तो बहुत आए पर किस्मत ने गोद में उठाकर उसे कटीली राहें पार करा दीं. ऐसी सहूलियतें मिलीं जो बड़े बड़ों को नसीब नहीं होतीं पर ऐसे कुछ छोटे छोटे सुकूनों से वह महरूम रहा जो निहायत मामूली लोगों को यूं ही मयस्सर हुआ करती हैं.
 ये कहानी खुली छतरी किताब से ली गई है. किताब को राजकमल प्रकाशन ने छापा है.

(ये कहानी खुली छतरी किताब से ली गई है. किताब को राजकमल प्रकाशन ने छापा है.)

जन्म के दो वर्ष बाद शरद ने मां को खो दिया. दस वर्ष में घर से दूर हॉस्टल भेज दिया गया. पिता बड़े उद्योगपति थे. शरद की मां उनकी दूसरी पत्नी थी. पहली पत्नी बंध्या होने का गम लगा बैठी और दस साल बाद हृदय रोग से चल बसी. हेमेन्द्र ठाकुर ने दूसरा विवाह किया बारह साल छोटी शारदा के साथ. विवाह के चौथे वर्ष उसने शरद को जन्म देकर ठाकुर खानदान को निर्वंश होने से बचा लिया, पर दुर्भाग्य, दो वर्ष बाद एक सड़क हादसे ने शरद से मां को छीन लिया. अगले दस वर्षों तक शरद हॉस्टल में ही रहा. घर में गवर्नेस और हॉस्टल में वार्डेन, सुख-सुविधाओं से लैस जीवन, बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ, हवाई यात्राएँ- पर मन का एक कोना हमेशा खाली रहा. पिता ने फिर विवाह न किया. उनका व्यवसाय ही उनका साथी था.
शरद जब भी घर आता, जोर-शोर से उसका स्वागत होता, पार्टी का आयोजन होता. फिर आगत मेहमानों की तरह पिता भी लौट जाते अपनी व्यस्त दुनिया में. यही गहमागहमी फिर दिखती, जिस दिन शरद को हॉस्टल लौटना होता. घीरे धीरे घर से शरद उदासीन होने लगा. छुट्टियों में भी घर आने की बजाय दोस्तों के साथ सैर-सपाटा उसे ज्यादा उत्साहित करता. पढ़ाई में वह कोई तीर न मार पाया अलबत्ता बिगड़ैल दोस्तों के साथ अमीरजादों के सारे शौक सीख गया था. सिगरेट का पहला छल्ला सातवीं में उड़ाया और नौवीं तक आते आते शराब की तल्खी को चख लिया था.
एक बार छुट्टियों में घर आया तो पाया कि एक रात पापा रात दो बजे तक घर न लौटे. वह पहली बार चिंतित हो उठा. बाद में देखा कि अक्सर पापा अर्धरात्रि तक बाहर रहते हैं. जल्दी ही जान गया कि पिता किसी औरत के पास. उसके किशोर मन में निर्मित पिता का बिम्ब टूट गया. कोई उसे समझाने वाला नहीं था कि पिता एक पुरुष भी हैं और पुरुष की जरूरतें जायज भी हो सकती हैं. वह सोते में पिता की बांहों में किसी स्त्री की कल्पना से विचलित हो उठता. उस बार वह समय से पूर्व ही हॉस्टल लौट आया. कुछ दिन वीतरागी बना रहा पर जल्दी ही उसकी कुंठा उसे एक नए अनुभव की ओर ढकेलने लगी.
दिशाहीन शरद अपने खिलंदड़े दोस्तों की राह पर एक आदिवासी लड़की को, जो हॉस्टल में साफ-सफाई करने आती थी, मौका पाकर दबोच लेता है. उसे सुखद आश्चर्य हुआ कि लड़की ने कोई प्रतिकार नहीं किया वरन् पिछले कुछ दिनों से इन लड़कों को वह मौन आमंत्रण दिया करती थी.
कॉलेज जाकर शरद और भी स्वच्छंद हो गया. हर तरह का व्यसन करने लगा. अकूत संपत्ति और बिजनेस-अंपायर का अकेला वारिस. जेब में एक की जगह अनेक क्रेडिट कार्ड, कीमती कपड़े और उन्मुक्त जीवन. न पढ़ाई की फिक्र, न कैरियर की चिंता, संघर्ष किस चिड़िया का नाम है, वह नहीं जानता था.
नित नई शर्ट की तरह गर्ल-फ्रैन्ड्स बदलना उसका प्रिय शगल बन गया था. पढ़ाई के नाम पर ग्रेजुएशन किया और पापा का ऑफिस ज्वाइन कर लिया. पर स्वच्छंदता को अंकुश रास न आया. पापा ने धमकाया कि आर्थिक अधिकार छीन लिए जाएंगे, यदि उनका प्रस्ताव न माना. ठंडे दिमाग से उनके प्रस्ताव पर गौर करने पर शरद ने पाया कि प्रस्ताव कुछ कम आकर्षक न था. एक टी ग्रुप ऑफ कम्पनीज की एक कम्पनी के सी.ई.ओ. के पद पर उसे काम करना था और छह अंकों में मासिक वेतन.
थोड़ी मुश्किल हुई थी तालमेल बिठाने में, अब तो तीन साल हो गए- वह एक जिम्मेदार अधिकारी की तरह कम्पनी का प्रबंधन संभाल रहा है. पर न शौक बदले हैं न शान. उसके शौक को अंजाम देने में पुराना दोस्त जयंत आज भी उसका हमराज और हमराही है.
एक रविवार शरद संध्या समय घर पर था. नौकर-चाकर, ड्राइवर हैरान थे क्योंकि इस समय वह किसी होटल, पब या क्लब की शोभा बढ़ाता है. शरीर में कुछ हरारत थी. उसने फोन करके जयंत को बुला भेजा. घर में ही ‘बार’ था पर रंग बिखेरने वाली तितलियाँ न थीं. ‘चियर्स’ के साथ दोनों ने जाम टकराए.
‘‘चल यार, तुझे यंगिस्तान की सैर कराता हूं.’’ कहते हुए जयंत लैपटॉप के बटनों से खेलने लगा.
पेशेवर ढंग से डिजाइन की गई वेबसाइट खुली- ‘रात की तितलियां.’ ढेरों सेवाओं की पेशकश सामने आने लगी, जिनके साथ उनकी फीस भी दर्ज थी. सेवाओं के विकल्प विभिन्न स्तरों के थे- ‘मौज मस्ती का दौरा, व्यापारिक कार्यक्रम, कॉर्पोरेट कार्यक्रम, उत्सव या रात्रिभोज.’ ग्राहक दुनिया के किसी भी कोने में सेवाएं मांग सकते हैं. वेबसाइट का दावा था कि ‘खास तौर पर चुनी गई लड़कियाँ आपको पेशेवर अंदाज में पूरी दक्षता और ईमानदारी से हर सम्भव सेवा देंगी.’
शरद के लिए ऐशपरस्ती में कोई कौतूहल या ललक नहीं थी. वह चेंज के लिए नवीन प्रयोग करता था. जयंत की पहल पर वे दोनों फोन पर लम्बी बात के बाद एक पॉश इलाके में पहुंचे जहां काली लम्बी स्कर्ट पहले सुर्ख होंठों वाली एक स्थूलकाय ‘आंटी’ से भेंट हुई. उसने शरद और जयंत को कोठी के निचले फ्लोर पर दो अलग-अलग कमरों में भेज दिया. शरद ने देखा, नारंगी रंग की खाली दीवारों वाला बड़ा सा कमरा था. बीच में दीवार से सटा पलंग था जिस पर बिछी चादर बेंज कलर के बेस पर चटख रंग के पेट्रन से दीवारों के साथ सामंजस्य बैठा रही थी. एक ओर कोने में छोटे आकार का फ्रिज था. साइड में दो लोगों के बैठने लायक एक काउच, सामने की टेबल जिस पर काँच के ही दो गिलास और जग रखे थे. यहां लाइटों वाला ड्रेसिंग टेबल भी था जो सौन्दर्य प्रसाधनों से लैस था. शरद की दृष्टि घूमी. देखा, एक गोरी-चिट्टी लड़की उसकी सेवा में हाजिर थी. एक आत्मविश्वासी मुस्कान के साथ उसने हाथ शरद की ओर बढ़ा दिया. शरद के हाथ को उसकी नर्म हथेली की छुअन यूँ लग रही थी जैसे रेशमी धागों का कोई गुच्छा हो.
‘‘हैलो!’’ तरुणी की आवाज उसके कानों को तरंगित करती है. ‘‘ओ, हैलो.’’ ‘‘आय एम नीलोफर,’’ डार्क आई लाइनर और मस्कारे से सजी घनेरी पलकों वाली नीली आंखों को झपकाते हुए वह बोली.
शरद मुस्कुराया. उसने नाम बताना उचित न समझा. क्या जाने यह ‘नीलोफर’ भी इसका छद्मनाम हो! वह उठकर फ्रिज में से आईस-क्यूब्स ले आई. पैग तैयार करते हुए उसकी अर्धवसना देह को देख किसी तिलस्मी राजकुमारी का गुमाँ हो रहा था. आवरण हटाते हुए जब उसने खुद को परोसा तो बीसियों कामिनियों से गुजरा यह कामी युवक होश खो बैठा. यह निर्वस्त्र लड़की संगमरमर का तराशा हुआ शाहकार थी.
उसके साथ गुजरे दो घंटों का अनुभव शरद के लिए ‘न भूतो न भविष्यति’ सा अपूर्व था, जिसके लिए उसने छह हजार रुपये की कीमत अदा की थी. लौटने के बाद देर तक उसका मन इस नई सैरगाह की ऊंचाइयों-तराइयों, रमणीक पहाड़ियों और घाटियों में उन्मत्त हरिण सा भटकता रहा. तन नीलोफर की खुशबू से लहक रहा था. वह बेकल हो उठा और हफ्ता भी न बीता था कि इस अनूठे अनुभव को दोहराने ‘आंटी’ के पास जा पहुँचा. अब ज्यादा दरियाफ्त न की गई और जल्द ही वह मंजिल तक पहुंचा दिया गया.
चॉकलेट कलर की मिनी स्कर्ट और गुलाबी शर्ट में नीलोफर गजब ढा रही थी. उसकी खुली बांहें, सुडौल पिंडलियां और शरबती आंखें शरद को बेसुध कर रही थीं. वह इतने सुरुचिपूर्ण ढंग से पेश आ रही थी कि शरद उसका मुरीद हो गया. अतरंग पलों में उसका सहज, संपूर्ण समर्पण उसे असीम तृप्ति दे गया.
पिछले दो माह में सात-आठ बार वह उससे मिल चुका है. वह इसी लड़की की फरमाइश करता और उसकी उपलब्धता के अनुसार पहले ही फोन पर समय निश्चित कर लेता. ‘आंटी’ के लिए यह कुछ असामान्य है क्योंकि अधिकांश ग्राहक नई लड़की की माँग करते हैं, पर वह ‘नीलोफर’ को. इसके लिए तेजी से उसका बैंक अकाउंट खाली हुआ है. दो बार तो वह उसे पूरे दिन या पूरी रात के लिए बुक कर चुका है जिसके लिए बीस-बीस हजार रुपये प्रति मुलाकात की रकम चुकाई गई थी. पर वे मुलाकातें कितनी खूबसूरत थीं- कभी फाइव स्टार होटल की लॉबी, कभी क्लब, कभी मल्टीप्लेक्स और कभी फार्म हाउस. उसके साथ घूमते-फिरते या हमबिस्तर होते वह अपनी सारी फंतासियों का आनन्द पाता. कई बार कुछ परिचित मित्रों ने उन्हें साथ घूमते देखा. शरद एक लड़की को ‘रिपीट’ नहीं करता पर यह लड़की? ऐसा तो नहीं कि शरद का इस हसीना पर दिल आ गया है!
लोगों की अटकलें सही थीं. शरद पहली बार किसी से जुड़ रहा था- भावनात्मक तौर पर. वह खुद पर हैरान था. जयंत ने उसे समझाया- ‘‘यार, बेवकूफी मत कर, प्यार करने के लिए हजारों पड़ी हैं, तेरे कदमों में बिछने को तैयार. छीः!. दिल भी आया तो कॉल-गर्ल पर...स्साली...थू!’’
‘‘जयंत!’’ शरद ने जयंत का कालर पकड़ लिया था. दांत भींचकर उसने आग्नेय नेत्रों से घूरा. उस दिन से जयंत ने भी उससे मिलना छोड़ दिया, वह शरद के भावों को कतई बल नहीं देना चाहता था.
जिस एजेंट के माध्यम से शरद और जयंत उस ‘आंटी’ तक पहुँचे थे, वह अब शरद को किसी दूसरी ‘आंटी’ का नम्बर देने लगा था. सम्भवतः जयंत ने उस एजेंट तक शरद की भावुकता की बात पहुँचा दी थी. इस धंधे में कोई भी गैरपेशेवर व्यवहार नहीं चाहता है. लोग आते हैं, कीमत चुकाते हैं, सेवाएं प्राप्त करते हैं. अधिकतर लोग नाम भी बताते-पूछते नहीं और चले जाते हैं शायद फिर कभी न लौटने को और लौटते भी हैं तो किसी नई तितली के लिए.
शरद को याद है, अन्तिम दो मुलाकातों में उसने नीलोफर का नाजुक हाथ अपने हाथों में लेकर कहा था- ‘नीलोफर! मैं तुसे शादी करना चाहता हूं. तुमने मेरे रात-दिन पर कब्जा कर लिया है, पल भर को भी तुम्हारी याद दिल से नहीं जाती...न ऑफिस में ठीक से काम कर सकता हूँ...खाना पीना सब मुहाल हो गया है...मैं तुम्हारे बिना जी नहीं सकता....’
नीलोफर ने मुस्कुराकर अपना हाथ हौले से खींच लिया था और पैग तैयार करने लगी थी. शरद के प्रस्ताव से न वह उत्साहित हुई, न विचलित. बड़ी सहजता से उसने उसकी शाम को रूमानियत से लबरेज किया और बड़े प्यार से उसे विदा किया.
नीलोफर की तटस्थता न शरद को हतोत्साहित किया. वह सोचने लगा, शायद ‘आंटी’ और ‘एजेंट’ के चंगुल में फंसी यह लड़की कोई निर्णय लेने की स्थिति में नहीं है...ठीक है, मैं बड़ी से बड़ी कीमत चुकाने को तैयार हूं...आखिर इन्हें क्या चाहिए...पैसा?...कितना पैसा? शरद झटके से आरामकुरसी से उठा. ठंडी कॉफी पर नजर पड़ी पर आगे बढ़ गया. वॉर्डरोब खोलकर अपनी चेकबुक ली और कपड़े पहन तेजी से कमरे से निकल गया. बड़ी मुस्तैदी से स्टीयरिंग पर उसके हाथ घूम रहे थे. लाल बत्ती पर गाड़ी रुकी. उसका मन उसका पीठ थपथपाने लगा- ‘शरद! जीवन भर कोई नेक काम नहीं किया, दुनिया भर के ऐब तुझमें भरे हैं...पाप-पुण्य की बात ही न सोची, यह अच्छा काम करके तू एक लड़की का उद्धार करेगा....’
गाड़ी उसके विचारों की तरह फिर सड़क पर दौड़ने लगी. ‘बस, एक बार वो हां कर दे...फिर पापा से बात करूंगा...जानता हूं...वे आसानी से न मानेंगे...पर मैं भी उनका बेटा हूं. मानेंगे कैसे नहीं...और न माने...तो...सब छोड़-छाड़ के नीलोफर को लेकर कहीं चला जाऊंगा.’
अहाते में घुसते ही गाड़ी के ब्रेक चरमरा उठे. लम्बे डग भरता वह भवन में दाखिल हुआ. ‘आंटी’ प्रकट हुई. चेहरे पर निश्ंिचत भाव थे. उंगलियों में सिगरेट. बगैर कुछ कहे-सुने हमेशा की तरह सांकेतिक वार्तालाप और शरद भीतर दाईं ओर के कमरे में घुसता है. कश खींचती आंटी अर्थ भरी निगाह से उसे देखती हैं. दो मिनट बाद परदा हिलता है और उसी दरवाजे से एक नवयुवती प्रविष्ट होती है- नीलोफर जैसी गोरी चिट्टी, पर यह नीलोफर नहीं है.
‘‘आप?’’ वह प्रश्न दागता है और उठकर जाने लगता है. पहले की बात होती तो वह ऐसा न करता पर आज नीलोफर का रंग उस पर चढ़ चुका है और अब कोई दूसरा रंग चढ़ना मुश्किल लगता है.
‘‘प्लीज, कम एंड सिट.’’ कदम ठिठकते हैं. ‘‘आय एम स्वेतलाना!’’ वह हाथ बढ़ाकर अभिवादन करती है.
शरद औपचारिकता निभाता है और बैठ जाता है. अगले एक घंटे वह स्वेतलाना के साथ रहता है. इस कमरे में ऐसा कभी न हुआ था. यहां सिर्फ जिस्म बोलते हैं. सांसें सुनती हैं. पहली बार हुआ है जब दर्द ने कहा है, रंज ने सुना है.
स्वेतलाना नीलोफर की हमदर्द थी. दोनों एक ही नाव पर सवार थीं. स्वेतलाना ने खुद जैसी गणिकाओं की व्यथा सुनाई कि नीलोफर और उस जैसी लड़कियां पूर्व सोवियत के देशों से एजेंटों के माध्यम से इस देह व्यापार में उतारी जाती हैं. ‘आंटियों’ की इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है. उनके साथ होने से कोई शक नहीं करता. दलालों, वीसा एजेंटों और पुलिस अधिकारियों से निबटने में इनके पास वर्षों का अनुभव है. ये आंटियाँ खुद वेश्या नहीं रहीं पर प्रायः भारत में अपने संपर्कों के चलते वे खूब पैसा बना रही हैं. एक आंटी के पिता दो दशक पूर्व भारत में कूटनयिक हुआ करते थे- वगैरह, वगैरह.
बाहर ग्राहकों के साथ जाने वाली लड़कियां ‘फैब इंडिया’ के कपड़े पहनकर निकलती हैं और होटल या फार्महाउस में बदलकर लैदर के कपड़े पहन लेती हैं. यूएई और दुबई की तरह गोरी चमड़ी का यह काला व्यवसाय भारत में खूब फलफूल रहा है क्योंकि भारतीय गोरी चमड़ी के दीवाने हैं. शरद को इस कथा में व्यथा जैसी कोई बात नजर नहीं आ रही थी पर व्यथा नीलोफर की कथा में थी, स्वेतलाना की कथा में थी. स्वेतलाना ताशकंद से आई है. पांच भाई-बहिनों में सबसे बड़ी है. पिता ने दूसरी शादी कर ली. वह कॉलेज की पढ़ाई कर रही थी. पिता का पलायन...मां की बीमारी...छोटे भाई-बहिनों को पढ़ाने और पालने हेतु इतनी मोटी रकम किसी नौकरी में नहीं मिलती...सो वह चली आई.
...‘‘और नीलोफर?’’ ‘‘वो चली गई.’’ शरद का दिल जोरों से धड़का- ‘‘कहां?’’ ‘‘वह उज्बेकिस्तान के बक्जोरो की रहने वाली थी.’’
उसके आगे स्वेतलाना ने जो बताया, उसने शरद को जड़ कर दिया. नीलोफर का असली नाम मशूरा था. उसी ने जाते हुए स्वेतलाना को जिम्मेवारी सौंपी थी कि वह उसके प्रेमी ग्राहक को बता दे कि वह एक गरीब घर में अपने पति और दो बच्चों के साथ रहती है. भारी कर्ज के बोझ को चुकाने के लिए पति की रजामंदी से वह बाजार में उतरी थी सिर्फ तीन महीने के अनुबंध पर. उसका कर्ज चुकता हो गया है, सो लौट रही है अपनी दुनिया में- आगे का जीवन हँसी खुशी काटने के लिए.
स्वेतलाना छह महीनों के लिए आई है. उसे दो महीने और रहना है. वे ये सब अंदरूनी तथ्य किसी के सामने प्रकट नहीं करतीं पर नीलोफर ने शरद के मन में उपजी सच्चाई को भांप लिया था...उसे शरद से सहानुभूति है पर उसने कभी उसे प्यार नहीं किया, बस काम को निष्ठा से निभाया. शरद उठ खड़ा हुआ. उसने स्वेतलाना की ओर कृतज्ञता से देखा और कमरे से निकल गया. मूल्य चुकाया और अपनी गाड़ी की ओर बढ़ा. चाबी निकालने के लिए पॉकेट में हाथ डाला तो मुड़ी हुई चेकबुक भी बाहर आ गई. उसने चेकबुक को खोला. ब्लैंक चेक पर नजर डाली. उसे बंद कर बगल वाली सीट पर फेंक दिया और निर्विकार भाव से गाड़ी स्टार्ट की.
बाहर रिमझिम बारिश हुई थी. पानी से भीगी सड़क रोशनी में साफ, चिकनी लग रही थी- बिलकुल शरद के मन की तरह. घर से निकलते वक्त की निराशा, हताशा, तनाव धुल चुका था. उसके मन का पिंजरा खाली था...पर पंछी के आकाश में उड़ान भरने की सुखद कल्पना ने उसे मुक्ति के अहसास से भर दिया.


गरीबी को ददवा ने अपने चापट से बोटी-बोटी कर छांट दिया था