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पहली बार विधायक बना यह शख्स सीधा मुख्यमंत्री की कुर्सी पर पहुंच गया

जब शंकर सिंह वाघेला अपने ही ईजाद किए दांव में उलझकर रह गए.

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दिलीप पारीख प्लास्टिक से पैसा बनाना जानते थे, राजनीति में प्लास्टिक का मुखौटा ओढ़ने में वो उतने कुशल नहीं साबित हुआ

20 अक्टूबर 1997. शंकर सिंह वाघेला के नेतृत्व में नई बनी राष्ट्रीय जनता पार्टी का पहला राष्ट्रीय अधिवेशन चल रहा था. शाम करीब पांच बजे उन्हें किसी ने आकर बताया कि अब उनके लिए मुख्यमंत्री की कुर्सी बचा पाना संभव नहीं है. कांग्रेस समर्थन वापस लेने का खत राज्यपाल को सौंप चुकी है. वाघेला को तब राजनीति में आए 30 साल हो चुके थे. वो जानते थे कि कांग्रेस के पास उनका साथ देने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है. अगर कांग्रेस ऐसा नहीं करती है तो सूबे में चुनाव होंगे. कांग्रेस इसके लिए तैयार नहीं है. ऐसे में वो भले ही मुख्यमंत्री के पद पर न रहें, सत्ता पर उनकी दखल बदस्तूर जारी रहेगी. वो सम्मलेन से बाहर निकले और पत्रकारों को संबोधित करते हुए उन्होंने पहला वाक्य कहा-

"सबसे पहले मैं कांग्रेस पार्टी का शुक्रिया अदा करता हूं. उन्होंने मेरी सरकार को एक साल तक बिना शर्त समर्थन दिया.”


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दिलीप पारीख, वाघेला के डैने के नीचे सियासत में आए थे और आखिर तक अपने राजनीतिक आका के प्रति वफ़ादार रहे.

यह बयान गठबंधन को आगे बनाए रखने की संभावना को ज़िंदा रखने लिए दिया दिया गया था. समर्थन खींचने के करीब एक सप्ताह बाद कांग्रेस खुद को असहज स्थिति में पा रही थी. समर्थन वापसी के लिए कांग्रेस की तरफ से जो पत्र राज्यपाल को सौंपा गया था उसमें बड़े और काले अक्षरों में एक बात लिखी गई थी, "यह सरकार गुजरात के लोगों को साफ-सुथरा और सेकुलर शासन देने में पूरी तरह से नाकाम साबित हुई है." अब कांग्रेस फिर से शंकर सिंह वाघेला के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनता पार्टी को समर्थन देने के लिए तैयार दिख रही थी. यह एक संयोग ही था कि छह महीने पहले कांग्रेस केंद्र में भी ऐसी ही दुविधा की स्थिति में फंस गई थी. उस समय देवेगौड़ा को प्रधानमंत्री की कुर्सी छोड़नी पड़ी थी और इंद्र कुमार गुजराल देश के नए प्रधानमंत्री बने. गुजरात में भी वही केस दोहराया जा रहा था. 27 अक्टूबर 1997 के रोज गुजरात कांग्रेस के अध्यक्ष सीडी पटेल मीडिया के सामने सफाई पेश कर रहे थे-

"हमारा मुख्य मकसद वाघेला के नेतृत्व से छुटकारा पाना था. समर्थन वापस लेने के निर्णय की वजह से यह मकसद पूरा हुआ. पार्टी और जनता के हितों का ध्यान रखते हुए हमने RJP को अपना समर्थन जारी रखने का निर्णय लिया है."


प्रणब मुखर्जी और सीताराम केसरी के इशारे पर प्रदेश कांग्रेस ना चाहते हुए भी पारीख को समर्थन देने पर मजबूर थी
प्रणब मुखर्जी और सीताराम केसरी के इशारे पर प्रदेश कांग्रेस न चाहते हुए भी पारीख को समर्थन देने पर मजबूर थी.

सीडी पटेल मीडिया के सामने जैसे-तैसे करके कांग्रेस के फैसले को तार्किक करार दे रहे थे लेकिन अंदर से वो इस बात से पूरी तरह असहमत थे. पटेल सहित उस समय की राजनीति को समझने वाला हर आदमी यह जनता था कि वाघेला की जगह मुख्यमंत्री बनने जा रहे दिलीप पारेख हाथी के दिखाने वाले दांत हैं. असल में सत्ता अब भी शंकर सिंह वाघेला के हाथ में ही रहने वाली है. ऐसे में इस सियासी उठा-पटक का नतीजा सिफर था. इस बीच शंकर सिंह वाघेला कांग्रेस के लिए स्थिति को और अधिक असहज बना दे रहे थे. 20-27 अक्टूबर के दौरान वो एक से ज्यादा बार सार्वजानिक सभाओं में मुस्कुराते हुए यह सवाल करते पाए गए, "आपने कुर्सी गंवाने के बाद ज्यादातर मुख्यमंत्रियों के मुरझाए हुए चेहरे देखे होंगे. मेरा चेहरा देखो आपको सारा अंतर समझ में आ जाएगा."


पूर्व मुख्यमंत्री अमर सिंह चौधरी उस समय कांग्रेस के विधायक दल के नेता हुआ करते थे
पूर्व मुख्यमंत्री अमर सिंह चौधरी उस समय कांग्रेस के विधायक दल के नेता हुआ करते थे.

वाघेला मुख्यमंत्री की कुर्सी से हटने के बाद भी सत्ता के असल मालिक थे. लेकिन सत्ता का हस्तांतरण उतना आसान नहीं था जितना उन्होंने सोचा था. आत्माराम पटेल जिन्होंने साल भर पहले वाघेला को बगावत का बहाना मुहैया करवाया था, वो वाघेला से बगावत पर उतारू हो गए थे. वाघेला के हटने के बाद सबसे ज्यादा अनुभवी होने के कारण वो मुख्यमंत्री की कुर्सी पर अपनी उम्मीदवारी को बहुत स्वाभाविक मानते थे. दिलीप पारेख न सिर्फ वाघेला के भरोसे के आदमी थे बल्कि वो गुजरात के मध्यम वर्ग के प्रतिनिधि भी थे. गुजरात का मध्यम वर्गीय व्यापारी बड़ा वोट बैंक वाघेला का सबसे आलोचक था. परंपरागत तौर यह मध्यम वर्गीय व्यापारी जिनमें हिन्दू और जैन दोनों शामिल थे, बीजेपी के वोटर माने जाते थे. वाघेला पारेख के जरिए इस वोट बैंक में सेंध लगाना चाह रहे थे. आत्मराम पटेल की बगावत ने मामले को थोड़ा पेचीदा बना दिया. समझाइश के बाद पटेल की बगावत को शांत किया गया. 28 अक्टूबर को दिलीप पारेख ने सूबे के 13वें मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ली. राज्यपाल ने उन्हें अपना बहुमत साबित करने लिए 13 नवंबर तक का समय दिया.

वाघेला इस काम में माहिर हैं

बीजेपी आत्माराम पटेल की बगावत पर कड़ी नजर बनाए हुए थी. इस बीच यह अफवाह उड़ने लगी कि बीजेपी ने वाघेला के खेमे के 11 विधायक अपने पाले में कर लिए हैं. इस खबर को सुनते ही वाघेला के कान खड़े हो गए. उन्होंने अपने सभी विधायकों को एक जगह इकट्ठा किया और अहमदाबाद से 180 किलोमीटर दूर बनासकांठा जिला में राजस्थान की सीमा पर पड़ने वाले अम्बाजी मंदिर घुमाने निकल पड़े. इन विधायकों को 12 नवंबर की रात गांधीनगर लाया गया. वाघेला एक बार फिर से क्राइसिस मैनेजमेंट में अपनी महारत साबित कर चुके थे.


गुजरात का अम्बाजी मंदिर. 2014 में नरेंद्र मोदी ने अपना प्रचार अभियान इसी मंदिर से शुरू किया था.
गुजरात का अम्बाजी मंदिर. 2014 में नरेंद्र मोदी ने अपना प्रचार अभियान इसी मंदिर से शुरू किया था.

इस बीच पूर्व मुख्यमंत्री छबीलदास मेहता अलग ही गुंताड़े में लगे हुए थे. वो अंदर ही अंदर कांग्रेस में तोड़-फोड़ करने की कोशिश में लगे हुए थे. इसके लिए वो लगातार बीजेपी के संपर्क में थे. उनकी कोशिश थी कि कांग्रेस दर्जन भर से ज्यादा विधायक तोड़कर वो बीजेपी के समर्थन से फिर से मुख्यमंत्री की कुर्सी हासिल कर पाएं. मेहता ने जब यह पाया कि आधा दर्जन से ज्यादा लोग उनके साथ आने के लिए तैयार नहीं हैं, उन्होंने अपने प्रयास अलग दिशा में मोड़ दिया. ऐसे माहौल में 12 नवम्बर 1997 के रोज कांग्रेस विधायक दल की महत्वपूर्ण मीटिंग बुलाई गई. इस मीटिंग में छबीलदास मेहता ने प्रस्ताव रखा कि कांग्रेस को बिना शर्त समर्थन देने की बजाय सरकार में शामिल होना चाहिए. इस प्रस्ताव पर कांग्रेस के ज्यादातर विधायक सहमत थे. पूर्व मुख्यमंत्री अमर सिंह चौधरी और प्रदेश अध्यक्ष सीडी पटेल ने दिल्ली में आला कमान से इस बाबत बातचीत की. उन्हें वहां से सरकार में शामिल न होने का आदेश दिया गया. इस तरह कांग्रेस के भीतर पैदा हो रहे तनाव को हाईकमान के हवाले से शांत करवा दिया गया.


शंकर सिंह वाघेला के सत्ता से हटने के बाद छबीलदास मेहता मुख्यमंत्री की कुर्सी फिर से हासिल करने के गुंताड़े में लग गए
शंकर सिंह वाघेला के सत्ता से हटने के बाद छबीलदास मेहता मुख्यमंत्री की कुर्सी फिर से हासिल करने के गुंताड़े में लग गए.

13 नवम्बर को विधानसभा में दिलीप पारेख को अपना बहुमत साबित करना था. बीजेपी के पास पारेख की सरकार गिराने का एक जरिया यह भी था कि वो 15 निर्दल विधायकों को अपने पक्ष में कर ले. पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व ने इस प्रस्ताव को यह कहते हुए ठुकरा दिया कि कई निर्दल प्रत्याशियों पर गंभीर अापराधिक मुकदमे चल रहे हैं. ज्यादातर निर्दलीय विधायक समर्थन के बदले में मंत्री का पद और अगले चुनाव में पार्टी की टिकट की मांग कर रहे थे. ऐसे में बीजेपी की तरफ से वाघेला के खिलाफ 'विश्वासघाती' होने प्रचार अभियान औंधे मुंह गिर पड़ेगा. बीजेपी के पास कोई ख़ास विकल्प बचा नहीं था. सदन में दिलीप पारेख ने बिना किसी प्रस्तावना के महज़ एक लाइन का विश्वास प्रस्ताव लिखकर अध्यक्ष के सामने पेश किया. इस पर वोटिंग हुई. दिलीप पारेख 76 के मुकाबले 98 वोटों से विश्वासमत हासिल करने में कामयाब हुए.

और उसने इस्तीफ़ा सौंप दिया

24 दिसम्बर 1998. शंकर सिंह वाघेला मुख्यमंत्री की कुर्सी पर नहीं थे लेकिन सरकार के काम में उनकी छाप देखी जा सकती थी. उन्होंने मुख्यमंत्री रहने के दौरान एक चलन शुरू किया था कि कैबिनेट की मीटिंग गांधीनगर की बजाय राज्य के अलग-लग हिस्सों में लगाई जाए. दिलीप पारीख ने कैबिनेट की ऐसी ही एक बैठक नर्मदा पर बन रहे सरदार सरोवर बांध के पास लगाने का फैसला किया. दोपहर करीब एक बजे मीटिंग में लंच ब्रेक हुआ ही था कि मुख्यमंत्री दिलीप पारीख और शंकर सिंह वाघेला अचानक से हेलीकॉप्टर में बैठकर गांधीनगर के लिए रवाना हो गए. सरदार सरोवर पर जुटे मंत्रिमंडल के पास कार्यक्रम में हुए इस अचानक बदलाव की कोई जानकारी नहीं थी.

इधर गांधीनगर में भी पारीख मंत्रिमंडल को समर्थन दे रही कांग्रेस के पास इस औचक वापसी की कोई जानकारी नहीं थी. शाम करीब चार बजे पारीख और वाघेला राज्यपाल केपी सिंह के पास पहुंचे. पारीख ने राज्यपाल को अपना इस्तीफ़ा सौंपते हुए विधानसभा भंग करने की सिफरिश पेश की. 24 घंटे के अंदर विधानसभा भंग कर दी गई.


राज्यपाल केपी सिंह के साथ दिलीप पारीख
राज्यपाल केपी सिंह के साथ दिलीप पारीख

आखिरकार अचानक से कांग्रेस को विश्वास में लिए बगैर पारीख ने अपना इस्तीफ़ा क्यों सौंप दिया? असल में वाघेला को अपने सूत्रों से खबर मिल गई थी बीजेपी के पास सरकार बनाने का जरूरी बहुमत आ चुका है, ऐसे में उनकी सरकार का जाना तय है. वाघेला जानते थे कि अगर लोकसभा चुनाव से ठीक पहले बीजेपी सूबे में फिर से सत्ता पर काबिज हो जाती है तो लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी और कांग्रेस के गठबंधन की संभावनाओं पर पानी फिर जाएगा. ऐसे में उन्होंने बीजेपी के अविश्वास प्रस्ताव लाने से पहले विधानसभा भंग करने की पेशकश कर दी.

दो महीने पहले जब दिलीप पारीख ने अपना बहुमत साबित किया था उस समय बीजेपी के पाले में महज 76 विधायक खड़े थे. यह बहुमत के लिए जरूरी 92 की संख्या से 16 कम था. दो महीने के भीतर ऐसा क्या हुआ कि बहुमत के जरूरी आंकड़ा बीजेपी के खाते में आ गया. इसके पीछे वजह थे आत्माराम पटेल. दिलीप पारीख को मुख्यमंत्री बनाए जाने से नाराज पटेल ने वाघेला को उनके ही दांव से चित्त कर दिया. 1996 में वाघेला ने बीजेपी से 46 विधायक तोड़कर अपनी नई पार्टी राष्ट्रीय जनता पार्टी बनाई थी. पटेल ने इसी से सबक लेते हुए राष्ट्रीय जनता पार्टी के 46 में 17 विधायक तोड़ लिए और नई पार्टी आरजेपी (ए) बना ली.


मेहसाणा के आत्माराम पटेल ने शंकर सिंह वाघेला को उन्ही के दांव से चित्त किया
मेहसाणा के आत्माराम पटेल ने शंकर सिंह वाघेला को उन्ही के दांव से चित्त किया.

आरजेपी में अलग गुट बनाने के बाद आत्माराम पटेल सबसे पहले दिल्ली गए. यहां उन्होंने सीताराम केसरी से मुलाकात करके उनसे अपने धड़े के लिए समर्थन मांगा. सीताराम केसरी की नज़र प्रधानमंत्री की कुर्सी पर टिकी हुई थी. आने वाले लोकसभा चुनाव तक शंकर सिंह वाघेला से किसी भी किस्म का टकराव नहीं चाहते थे. ऐसे में उन्होंने आत्माराम पटेल को टका सा जवाब दे दिया. शंकर सिंह वाघेला के पास आत्माराम के दिल्ली यात्रा की खबर थी. वो सीताराम केसरी का जवाब जानते थे. इसलिए आत्माराम की दिल्ली यात्रा उनके ललाट पर बल डालने का सबब नहीं पाई. वाघेला की असल त्योरियां चढ़ीं आत्माराम पटेल की एक अप्रत्याशित चाल से. जब वाघेला को पता लगा कि आत्माराम पटेल और केशुभाई के बीच सरकार बनाने को लेकर बात लगभग तय हो चुकी है. ऐसे में उनके सामने पहलकदमी करने या फिर शिकस्त झेलने जैसी स्थिति पैदा हो गई. इस तरह शपथ लेने के दो महीने के भीतर ही दिलीप पारीख मुख्यमंत्री से कार्यकारी मुख्यमंत्री बन गए.


दिलीप पारीख, वाघेला की तरह राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी नहीं थे. 80 के दशक के आखिरी कुछ साल से पहले गुजरात से उनका महज़ इतना ही रिश्ता था कि उनके पुरखे गुजरात से थे, घर में गुजराती बोली जाती थी और अखबारवाला अंग्रेजी अखबार के अलावा 'गुजरात समाचार' की एक प्रति भी दरवाजे के भीतर सरका जाया करता था. बाकी पैदाइश मुंबई की थी. उन्होंने मुंबई के ही प्रतिष्ठित एल्फिन्स्टन कॉलेज से अर्थशास्त्र की डिग्री हासिल थी. इसके बाद उन्होंने प्लास्टिक के व्यापार में किस्मत अाजमाई और सफल रहे.

गुजरात से उनका सीधा वास्ता पड़ा 80 के दशक के आखिर में जब उनके पास गुजरात चैंबर ऑफ़ कॉमर्स का चेयरमैन बनने का प्रस्ताव आया. उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया. 1990 के साल में वो शंकर सिंह वाघेला के नीचे राजनीति में आए. बीजेपी के टिकट पर पहला चुनाव लड़ा अहमदाबाद की धंधुका सीट से. इस चुनाव में बीजेपी के टिकट वितरण की जिम्मेदारी वाघेला के कंधों पर थी. वाघेला ने ही पारीख को टिकट दी थी. पारीख आखिर तक वाघेला के साथ वफादार बने रहे. सियासी उठा-पटक कई बार अटपटे इत्तेफ़ाक खड़े कर देती है. दिलीप पारीख का मामला भी ऐसा ही अटपटा इत्तेफ़ाक ही था जब पहली बार विधायक बना आदमी अपने सियासी करियर के तीसरे ही साल में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर पहुंच गया. वही मुख्यमंत्री की कुर्सी जिस तक पहुंचने के लिए पारीख के सियासी गुरु शंकर सिंह वाघेला को तीन दशक का समय लग गया था.

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