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वो षड्यंत्र जिसके चलते हर तीसरे साल आपको फोन बदलना पड़ता है!

वो कॉन्सपिरेसी थियोरी जो सच निकली

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सन 1880 में थॉमस एल्वा एडिसन ने अपने द्वारा बनाए गए पहले बल्ब का पेटेंट हासिल किया था. यह दुनिया का पहला बल्ब था, जो बाजार में बेचा गया था (तस्वीर- Wikimedia commons)

ग्राहक को क्या चाहिए?
तीन चीजें- सस्ता, सुंदर और... टिकाऊ. 
सस्ता- सम्भव है. हज़ार रुपए की टीशर्ट है और सौ की भी 
सुंदर- सम्भव है. एक से एक रंग हैं, जो सुंदर लगे, ले लीजिए. 
लेकिन टिकाऊ- ये सम्भव नहीं. 

कित्ते भी पैसे दे दो. ऐसा फ़ोन नहीं मिल सकता, जो 10 साल चले. फ़ोन तो तीन ही साल चलेगा. फिर बैटरी ख़त्म, फ़ोन स्लो. तमाम झंझट. अगर आप सोचते हैं कि आज के जमाने की चीजें, पुराने जमाने की तरह टिकाऊ नहीं रह गई हैं, तो ऐसा इत्तेफाकन नहीं है. ऐसा होने के पीछे छुपी है एक कॉन्सपिरेसी. एक षड्यंत्र. और एक झूठ. (History of the Light Bulb)

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Livermore Centennial Light Bulb
कैलिफोर्निया के लिवरमोर शहर के दमकल केंद्र में लगे इस बल्ब को साल 1901 में पहली बार जलाया गया था और तब से लेकर आज तक यह बल्ब जल रहा है. इस बल्ब का नाम गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में भी दर्ज है (तस्वीर- Wikimedia commons)

बिजली के बल्ब की खोज किसने की?

शुरुआत एक सवाल से. एक बल्ब बदलना हो तो उसके लिए कितने लेखक लगेंगे? जवाब- बल्ब का तो पता नहीं लेकिन नरेटिव बदलने के लिए एक ही लेखक काफ़ी होता है. बात समझ ना आई हो तो ऊपर दी हुई ये तस्वीर देखिए. एक बल्ब है. लेकिन ये आपके घर वाला बल्ब नहीं जो महीने भर में बोल जाता है. ये जल रहा है, एक सदी से. एकदम सटीक बताएं तो 122 सालों से. ये एडिसन वाला बल्ब भी नहीं है. इसको बनाया था, अडोल्फ़ शैलेट नाम के एक फ़्रेंच इंजिनीयर ने. लेकिन हमने पढ़ा है और सुना है कि बल्ब ईजाद किया था, महान आविष्कारक थामस एल्वा एडिसन(Thomas Alva Edison) ने. यहीं पर आता है हमारा पहला झूठ. 

लेखकों ने तो लिख दिया कि एडिसन ने बल्ब बनाया, लेकिन ये नहीं बताया कि एडिसन से पहले और भी लोग थे, जो बल्ब का आविष्कार कर चुके थे. एडिसन से पहले कम से कम 3 लोगों ने बल्ब बना लिया था. इन आविष्कारों में कुछ दिक्कतें थी, लेकिन फिर भी ये बल्ब तो थे ही. ख़ासकर एक व्यक्ति का नाम आपको ज़रूर जानना चाहिए. इनका नाम था जोसेफ स्वान. साल 1860 में स्वान ने कार्बन युक्त पेपर फ़िलामेंट का इस्तेमाल कर बल्ब बनाया. और 1878 में UK में इसका पेटेंट भी ले लिया था.

फ़रवरी 1879 में इन्होंने एक लेक्चर के दौरान इस जलते हुए बल्ब का प्रदर्शन भी किया. हालांकि ये बल्ब आम इस्तेमाल के काम में नहीं लिया जा सकता था. बल्ब के अंदर रौशनी पैदा करने के लिए एक बाल बराबर पतले फ़िलामेंट से करेंट पास करना होता था. इससे फ़िलामेंट गरम हो जाता था, और तब उसमें से रौशनी भी निकलती थी. इसमें बड़ी दिक़्क़त ये थी कि फ़िलामेंट जलकर जल्द ही टूट जाता था. ऐसे में उस समय के तमाम आविष्कारक ऐसी तरकीब की खोज में थे, जिससे फ़िलामेंट लम्बे समय तक चल सके. एक तरीक़ा ये था कि फ़िलामेंट जिस कांच के खोल में रखा रहता है, उसमें एक वैक्यूम पैदा कर दिया जाए. ताकि अंदर ऑक्सिजन न रहे, जिससे फ़िलामेंट तेजी ने न जले और देर तक चले.

स्वान के पास वैक्यूम पैदा करने के उन्नत उपकरण नहीं थे. इसलिए उनका बल्ब कमर्शियल उपयोग में नहीं लाया जा सका. ठीक इसी समय बल्ब को लेकर एडिसन भी कुछ एक्सपेरिमेंट्स कर रहे थे, अमेरिका में. नवंबर 1879 में उन्होंने एक नए तरह के फ़िलामेंट का इस्तेमाल कर बल्ब बना लिया. डिज़ाइन वही था, जो स्वान ने बनाया था. स्वान ने भी एडिसन की देखा-देखी अपने बल्ब में सुधार किया और इंग्लैंड में एक इलेक्ट्रिक कम्पनी शुरू कर दी.

इधर एडिसन अमेरिका में अपनी कम्पनी बना रहे थे और उन्होंने दुनिया भर में अपना इलेक्ट्रिसिटी बिज़नेस फैलाने का सपना भी संजो लिया था. दुनिया भर का मतलब तक दो ही देश थे. अमेरिका और ब्रिटेन. थोड़ा बहुत बाक़ी यूरोप भी इसमें जोड़ सकते हैं. यहीं सारा आधुनिकीकरण चल रहा था. लेकिन जैसे ही एडिसन ब्रिटेन पहुंचे. उन्होंने देखा कि वहां स्वान पेटेंट लिए बैठे हैं. उन्होंने स्वान पर पेटेंट चोरी का केस कर दिया. स्वान ये केस जीत गए. इसके बाद स्वान ने अमेरिका में अपने कार्बन फ़िलामेंट का पेटेंट दाखिल कर दिया. 11 जुलाई, 1892 को अपना निर्णय सुनाते हुए पेटेंट ऑफ़िस ने फ़ैसला सुनाया कि ये पेटेंट भी स्वान को ही मिलना चाहिए. लड़ाई अति गम्भीर होती जा रही थी. लेकिन एडिसन भी एकदम काइयां व्यापारी थे. उन्होंने जोसेफ स्वान की तरफ़ साझेदारी का हाथ बढ़ाया. और दोनों ने मिलकर एडिसन स्वान नाम की एक कम्पनी बना ली.

Joseph Swan
साल 1860 में जोसेफ स्वान ने कार्बोनेटेड पेपर फिलामेंट्स का उपयोग करके बल्ब विकसित किया था (तस्वीर- Tyne and Wear Archive and Museum)

एडिसन ने आगे कई और कंपनियां बनाई. और इन सबको मिलाकर शुरुआत हुई जनरल इलेक्ट्रिक कम्पनी की. चूंकि जनरल इलेक्ट्रिक दुनिया की सबसे बड़ी कम्पनियों में से एक के तौर पर उभरी, इसलिए आगे जाकर बल्ब के आविष्कार का श्रेय एडिसन को ही दिया गया. 

षड्यंत्र जो 100 साल बाद भी लोगों की जेब खाली कर रहा है 

अब इसी बल्ब से जुड़ी एक और कहानी सुनिए, जो झूठ से ज़्यादा एक षड्यंत्र था. एक कांसपीरेसी, जिसके चलते आज भी आपको ना टिकाऊ बल्ब मिल पाता है. ना टिकाऊ फ़ोन. फ़ोन की एक कम्पनी सॉफ़्टवेयर अपडेट के ज़रिए जानबूझकर आपका पुराना फ़ोन स्लो कर देती है. और फिर कहती है, ये सब हमने इसलिए किया ताकि आपकी बैटरी लम्बी चले. बैटरी बदल क्यों नहीं सकते? इसका जवाब न ही पूछें तो अच्छा है.

अभी कुछ देर पहले हमने एक बल्ब की बात की थी. वही जो 122 साल से जल रहा है. ये बल्ब अमेरिका के कैलिफ़ोर्निया राज्य में एक फ़ायर डिपार्टमेंट के ऑफ़िस में लगा हुआ है. और साल 2023 में, अलबत्ता मंद रौशनी में ही सही, जल रहा है. सोचिए इस बल्ब में ऐसा क्या है, जो एक सदी से काम कर रहा है. और हमारे आधुनिक बल्ब क्यों महीनों के अंदर काम करना बंद कर देते हैं? ऐसे बल्ब अब क्यों नहीं बन सकते. या बाक़ी चीज़ें ऐसी क्यों नहीं बनती जो टिकाऊ हों? आपको लग सकता है कि टिकाऊ चीज़ बनानी महंगी पड़ती होगी, या टेक्नॉलॉजी के चलते ऐसा हो रहा है. एक कहानी सुनिए और फिर कीजिए फ़ैसला.

ये बात है 20 वीं सदी की शुरुआत की. बिजली का प्रसार हुआ, तो दुनिया चमचम होने लगी. 1920 तक तमाम यूरोप और अमेरिका के देशों में बल्ब ख़रीदे जाने लगे. पहला बल्ब जो एडिसन ने बनाया था, वो चौदह घंटे तक चलता था. वहीं 1920 तक बल्ब का जीवनकाल ढाई हज़ार घंटे तक पहुंच चुका था. आगे और तरक़्क़ी की उम्मीद थी. लेकिन फिर अचानक कुछ ही सालों में बल्ब महज़ हज़ार घंटे चलने के बाद ही ख़राब होने लगे. लोगों ने पूछा तो कम्पनियों ने कहा, अजी आपका फ़ायदा है. देखिए तो, नए बल्ब रौशनी ज़्यादा दे रहे हैं. ऐसे में इनकी उम्र तो कम होगी ही. लोग क्या कर सकते थे. जो मिलता, उसी को ख़रीदते रहे . लेकिन उन्हें पता नहीं था कि उनके खिलाफ़ एक बहुत बड़ा षड्यंत्र किया जा रहा था. (Lightbulb Conspiracy)

General Electric
एडिसन ने जोसेफ स्वान के साथ मिलकर 'एडिसन स्वान' नाम की एक कम्पनी बनाई. आगे जाकर एडिसन ने कई और कंपनियों को मिलाकर जनरल इलेक्ट्रिक कम्पनी की शुरुआत की (तस्वीर- Wikimedia commons)

23 दिसम्बर की तारीख़. साल 1924. जेनेवा के होटल में एक सीक्रेट मीटिंग रखी गई. जिसमें दुनिया की सबसे बड़ी इलेक्ट्रिक कम्पनियों के प्रतिनिधि शामिल हुए. इनमें चार कम्पनियां सबसे प्रमुख थी- अमेरिका की जनरल इलेक्ट्रिक. जर्मनी की ओसराम. नीदरलैंड की फ़िलिप्स कंपनी. और फ़्रांस की 'द लैम्प कम्पनी'. इस मीटिंग में सभी कम्पनियों के बीच एक गुप्त समझौता हुआ. जिसके तहत एक कार्टल की नींव रखी गई. इस कार्टल का नाम था फीबस कार्टल.

क्यों बनाया गया ये कार्टल?

इस कार्टल के तहत सभी कम्पनियों ने मिलकर तय किया कि अबसे सिर्फ़ लिमिटेड क्वोटा में बल्ब बनाए जाएंगे. ऐसा इसलिए किया गया, क्योंकि कम्पनियों के बीच कंपीटीशन के चलते बल्ब की गुणवत्ता में सुधार होता जा रहा था. जिसके चलते वो लम्बा चलते थे. चीज़ लम्बी चलेगी तो लोग उसे बार-बार नहीं ख़रीदेंगे. नतीजा हुआ कि बल्ब की बिक्री कम होने लगी. 1922 में जर्मन कम्पनी ओसराम ने 63 करोड़ बल्ब बेचे थे. इसके अगले ही साल ये संख्या गिरकर 28 करोड़ पहुंच गई. बाक़ी कम्पनियों का भी कमोबेश यही हाल था. इसलिए सबने मिलकर तय किया कि बल्ब सीमित संख्या में बनाए जाएंगे. इस प्लान में सभी कम्पनियों का शामिल होना ज़रूरी था. क्योंकि एक भी अलग रास्ते चलता तो प्लान फेल हो जाता. लिहाज़ा एक कार्टल बनाया गया. यहां तक तो ठीक था. लेकिन इस कार्टल ने एक और चालूपंती दिखाई.

सभी कम्पनियों ने अपने इंजीनियरों से कहा, ऐसा बल्ब बनाओ जो सिर्फ़ हज़ार घंटा चले. जबकि जैसा अभी कुछ देर पहले बताया, 1920 तक ऐसे बल्ब बनने लगे थे, जिनकी उम्र ढाई हज़ार घंटे से ऊपर थी. अचानक बल्ब की उम्र कम करना मुश्किल था. आप ये तो कर सकते थे कि एक ख़राब बल्ब बना दो. लेकिन बल्ब में इस तरह बदलाव करना कि ठीक हज़ार घंटे चले, मुश्किल था. लिहाज़ा कम्पनी ने अपने तमाम इंजीनियरों को इस काम के पीछे लगा दिया. इनमें सबसे आगे थी जनरल इलेक्ट्रिक. GE की फैक्टरियों में जो बल्ब बनाए जाते, उनका एक सैम्पल पहले उनकी सेंट्रल टेस्टिंग लैब में भेजे जाता था. ये लैब स्विट्जरलैंड में थी. और यहां घंटों की टेस्टिंग के बाद ये पक्का किया जाता था कि बल्ब 1200 घंटे से ऊपर ना चले. अब जानिए एक कमाल की बात. इस निर्देश को फ़ॉलो करने में अगर कोई फ़ैक्ट्री फेल होती, तो उसे बाक़ायदा जुर्माना भी देना होता था.

इस कार्टल के साथ ही एक ऐसी प्रथा की शुरुआत हुई. जिसमें कंपनियां अपना मुनाफ़ा बरकरार रखने के लिए चीज़ की गुणवत्ता जानबूझकर कमतर रखती. या उनके प्रोडक्शन पर लगाम लगाती, ताकि मार्केट में क़ीमत और मांग बनी रहे. इस जुगत का फ़ायदा भी हुआ. बल्ब बनाने की तकनीक बेहतर होती रहीं, कच्चे माल के दाम कम हुए, लेकिन बल्ब का दाम बरकरार रहा. इसके बाद तो जैसे, इस तरीके का इस्तेमाल बिजनेस का एक नियम ही बन गया. मोटर गाड़ियों ने हर दूसरे साल नई कार निकालना शुरू कर दिया. जो असल में नई नहीं थी. बस उन्हें नए रंगों में लांच कर दिया जाता था. इसके बरअक्स, मोटर गाड़ी के निर्माता हेनरी फ़ोर्ड का बयान याद कीजिए. फ़ोर्ड की शुरुआती गाड़ियां सिर्फ़ काले रंग में निकलती थी, जब एक बार किसी ने दूसरे रंग की गाड़ियां निकालने का सुझाव दिया, तो फ़ोर्ड ने जवाब दिया,

“ग्राहक अपनी कार को किसी भी रंग में रंगवा सकता है, बशर्ते वह रंग काला हो''

1930 में जब अमेरिका में ग्रेट डिप्रेशन की शुरुआत हुई. इस विचार को और बढ़ावा मिला. कई विचारकों ने कहा, आयोजित कमी पैदा कर हम बाज़ार में मांग पैदा कर सकते हैं. जिससे बिज़नेस डूबने से बच जाएंगे और लोगों को रोज़गार भी मिलेगा.

Phoebus cartel
फीबस कार्टल की स्थापना 15 जनवरी 1925 के दिन जेनेवा में हुई. इसमें चार मुख्य इलेक्ट्रिक कंपनियां शामिल थी - जनरल इलेक्ट्रिक, ओसराम, फ़िलिप्स, 'द लैम्प कम्पनी (तस्वीर- Philips Company Archives)

फीबस कार्टल ने इस धूर्तता की शुरुआत की थी. लेकिन 21 वीं शताब्दी में भी ये क़ायम है. हालिया उदाहरण के लिए साल 2007 का एक केस मिलता है. जिसमें प्रिंटर बनाने वाली एक कंपनी पर केस किया गया, क्योंकि कम्पनी अपने प्रिंटर की इंक कार्ट्रिज को इस तरह डिज़ाइन कर रही थी, जिससे एक निश्चित अवधि के बाद कार्ट्रिज काम करना बंद कर दे. चाहे उसमें इंक बाक़ी हो, तब भी. ऐसे कई और मामले भी हैं.

एप्पल कम्पनी ने खुद स्वीकार किया कि वो अपने पुराने फ़ोन स्लो कर देती है, ताकि बैटरी लम्बी चल सके. हक़ीकत क्या है आप समझ ही सकते हैं. इसीलिए फ़ोन कम्पनियों द्वारा हर कुछ सालों में थोड़ा बहुत डिज़ाइन चेंज कर लगभग वही फ़ोन मार्केट में उतारा जाता है.फ़ोन, लैप्टॉप आदि गैजेट्स की बैटरी बदलने की प्रक्रिया को मुश्किल और महंगा बनाया जाता है, ताकि आप नया सामान लें. चीज़ टिकाऊ बनाई जा सकती थी, लेकिन बिजनेस के हिसाब से टिकाऊ शब्द एक ख़तरा है. जैसे कि एक कहावत है,

"ग्राहकों को बार-बार ख़रीदने के लिए मजबूर किए बिना धंधा नहीं चल सकता. बशर्ते आप कफ़न का धंधा न करते हों.

आख़िर में फीबस कार्टल का अंजाम बताते हुए बात को समाप्त करते हैं. 1924 में जब इन कम्पनियों में करार हुआ, तब तय हुआ था कि ये सिस्टम 1955 तक चलेगा. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. 1940 में युद्ध शुरू हो गया. तमाम देश एक दूसरे के ख़िलाफ़ युद्ध में थे. इसलिए इन देशों की कम्पनियों के बीच साझेदारी भी बरकरार ना रह सकी. और 1940 में फीबस कार्टल को भंग कर दिया गया.

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