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देवसेना को देखकर अच्छा लगा, तो जरा अपने घर में भी झांककर देख लो

मांस से लदी बाहों वाले बाहुबली के बारे में तो खूब बातें हो गईं, अब जरा देवसेना की बात करते हैं.

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'बाहुबली' में देवसेना के किरदार में अनुष्का शेट्टी
सुगंधा
सुगंधा

दी लल्लनटॉप की एक रीडर हैं सुगंधा मुंशी. सुगंधा जेंडर एक्सपर्ट हैं. बिहार के शिक्षा विभाग की जेंडर सेल में काम कर चुकी हैं. लंदन में हुए इंटरनेशनल लीडरशिप प्रोग्राम में भी शामिल हुई थीं. जमीन पर जाकर महिलाओं के लिए काम करने पर सुगंधा को राष्ट्रीय महिला सशक्तिकरण के लिए दिए जाने वाले अवॉर्ड 'आधी आबादी' से सम्मानित किया गया.

जब 'बाहुबली' आई थी, तो उसने ख़ूब ग़दर काटा था. लोग फिल्म की स्क्रिप्ट, इसके स्पेशल इफेक्ट्स, कमाई और बाहुबली की मांसल भुजाएं देखकर गद्गद थे. पर फिल्म में इससे अलावा भी बहुत कुछ है. इसके महिला किरदारों पर उतनी बात नहीं हुई, जितनी होनी चाहिए. सुगंधा इसी बात को आगे बढ़ाती हैं. आप खुद ही उनसे मुखातिब होइए.



ऐसे उपहारों के लिए आप लोग पूंछ हिलाते होंगे. मेरे लिए यह पैर की धूल तक नहीं: देवसेना

कोई भी परिभाषा महिलाओं के स्वाभिमान और साहस को इससे बेहतर अभिव्यक्त नहीं कर सकती. जहां महिलाओं के लिए पराया धन, कोमल, शांत और अबला जैसे विशेषण इस्तेमाल किए जाते हों, वहां 'बाहुबली' फिल्म की देवसेना एक प्रासंगिक सत्य है, जिसे हम अपनी रूढ़िवादी सोच के कारण नज़रअंदाज कर देते हैं.

समृद्ध भारत की छाप छोड़ने वाला सिनेमा कम ही बनता है. ऐसा सिनेमा, जिसमें हमें एक कमजोर राष्ट्र या परिस्थितियों से विचलित इंसान की जगह एक गौरवान्वित राष्ट्र और आत्मविश्वास से भरी प्रजा के किरदार में दिखाया जाए. 'बाहुबली' भव्य भारत की एक कल्पना मात्र न होकर साहसिक विचारों और यथार्थ अभिव्यक्त करने वाली फिल्म है. इसमें एक तरफ धर्म की स्थापना करता और राजधर्म निभाता एक वीर है और दूसरी तरफ साहस, आत्मविश्वास और संकल्पशक्ति से राजधर्म निभाती एक वीरांगना है.

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'बाहुबली' की देवसेना ने न सिर्फ एक साहसी महिला का किरदार पेश किया, बल्कि हमें ऐसी महिला से रू-ब-रू कराया, जो आत्मनिर्भर होने के साथ अपने कर्तव्य निभाती है. जो किसी पुरुषार्थ की मोहताज नहीं, बल्कि खुद की आहूति देने के जज्बे से भरी है. पितृ-सत्तामक समाज में हम एक महिला को देवी का रूप देकर अपना कर्तव्य पूरा समझते हैं. वहीं देवसेना हमारे सामने शौर्य, अडिग विश्वास, प्रेम और सच को जीती महिला रखती है.


आज का सिनेमा 'मुन्नी बदनाम हुई' और 'मैं तंदूरी मुर्गी हूं यार, गटका ले मुझे अल्कोहॉल से' दिखाकर सिनेमाहॉल की कुर्सियां भर लेतता है, लेकिन 'बाहुबली' फिल्मों में महिलाओं के प्रस्तुतिकरण का एक नया अध्याय शुरू करती है. जहां वह पेड़ के चारों तरफ नहीं घूमती, बल्कि अपना प्रजा के लिए रथ पर मातृभूमि की परिक्रमा करती है.

पुरुषार्थ का पर्याय हमें शब्दकोश में भले न मिले, लेकिन राजामौली की 'बाहुबली' में हमें ये देवसेना के रूप में देखने को मिलता है. बाहरी सुंदरता के बजाय अंदर की खूबसूरती उजागर करती हुई देवसेना एक बहन, मां और एक प्रेमिका होने के साथ-साथ एक वीरांगना की भूमिका निभाती है. उसका महिला होना राष्ट्रप्रेम और प्रजाकर्तव्य के रास्ते में रुकावट नहीं बनता. उसकी पहचान किसी पुरुषार्थ पर नहीं, बल्कि उसके खुद के सामर्थ्य पर निर्भर है.

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सवाल यह है कि क्या देवसेना 'बाहुबली' की एक रील मात्र अभिव्यक्ति है या इससे बढ़कर है! पितृ-सत्तामक सोच छोड़कर अगर हम इस भव्य कल्पना के यथार्थ को समझें, तो हमें जवाब मिल जाएगा.


देवसेना सरीखी वीरांगनाएं हमारे ही घरों में बसती हैं. आज हर देवसेना को ये समझाने की जरूरत है कि तुम वो नहीं हो, जो तुम्हारा समाज देखना चाहता है. अपनी जिस पहचान को तुम आजादी से जीना चाहती हो, वही यथार्थ है. हमें इन लड़कियों का साहस नहीं, बल्कि उसका डर दिखती है. उसकी आंखों में सपनों की जगह लाचारी दिखती है. हम उसके दृढ़-निश्चय और हिम्मत को सिरे से नकार देते हैं.

देवसेना के जरिए राजामौली ने हमारे सामने एक यथार्थ रखा है, जिसे हम चाहकर भी नहीं नकार सकते. साहस, दृढ़-निश्चय और निडर जैसी अवधारणाओं को हमने पुरुषार्थ से ही जोड़ रखा है. देवसेना हमें यही सोच बदलने पर मजबूर करती है. जिस तरह उसने महिलाओं को टटोलते उत्पीड़क की उंगलियां काटी थीं, उससे वह अपनी वीरता की नई गाथा गढ़ती है. वहां हमें एक महिला के राष्ट्रप्रेम का उदाहरण मिलता है. आज हमारी सोच को एक दिशा की जरूरत है. राष्ट्रनीति की संरचना सही मायनों में तभी होगी, जब उसमें महिलाओं का शौर्य शामिल होगा. भारत ने तो ऐसे कई उदाहरण जिए हैं.

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देवसेना प्रेम की नई परिभाषा गढ़ती है. वह प्रेम के लिए पुरुष पर निर्भर नहीं, बल्कि उसका साथ निभाती है. बाहुबली और देवसेना दंपती की सटीक परिभाषा भी सामने रखते हैं. बाहुबली का भरी सभा में देवसेना के उंगली काटने का समर्थन करना एक सकारात्मक दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है. पुरुषार्थ यही तो है, जहां महिला का सम्मान सिर्फ शब्दों तक सीमित न हो. वह हमारे व्यवहार में भी दिखना चाहिए. 'बाहुबली' हमें यह समझने का भरपूर अवसर देती है.




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