संजय गांधी: जोखिम का इतना शौक कि चप्पल पहनकर ही प्लेन उड़ाने लगते थे
23 जून 1980 को पेड़ काटकर उतारी गई थी संजय गांधी की लाश.
आज से 41 साल पहले की बात है ये. दिन था 23 जून 1980 का. सुबह का वक्त. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के घर से एक गाड़ी बाहर निकली. हरे रंग की मेटाडोर. चला रहे थे उनके छोटे बेटे संजय गांधी. अमेठी से सांसद. और एक महीने पहले ही कांग्रेस के महासचिव बने. मगर संजय को अपनी सत्ता और शक्ति के लिए इन पदों की दरकार नहीं थी. सब जानते थे कि पिछले पांच बरस से वही कांग्रेस के सर्वेसर्वा थे. बहरहाल. संजय घर से निकले. जल्दी में मां को बाय भी नहीं बोला. बेटा वरुण सो रहा था. 3 महीने 10 दिन का बच्चा. पत्नी मेनका उसे संभालने में लगी थीं. संजय पहुंचे एक किलोमीटर दूर सफदरजंग एयरपोर्ट. यहां उनका इंतजार कर रहे थे दिल्ली फ्लाइंग क्लब के चीफ इन्स्ट्रक्टर सुभाष सक्सेना. और एक मशीन. लाल रंग की शोख चिड़िया. एक नया एयरक्राफ्ट. पिट्स एस 2 ए. हल्का इंजन. कलाबाजी खाने के लिए मुफीद विंग्स. बस एक चीज मुफीद नहीं थी. संजय का रवैया. सियासत की तरह फ्लाइंग में भी वह दुस्साहस की हद तक लापरवाह और जोखिम लेने वाले थे. अकसर सुरक्षा नियमों को तोड़ते थे. कहने वाले तो ये भी कहते हैं कि जूतों के बजाय कोल्हापुरी चप्पलों में ही प्लेन उड़ाने लग जाते थे. संजय की मां इंदिरा को तमाम ब्यूरोक्रेट्स और नेताओं ने इस बारे में बताया था. मगर बात संजय की थी. जिसकी जिद के आगे पहले भी एक बार बेबस मां ने पूरे देश को रेहन रख दिया था. यहां तो सिर्फ कुछ नियमों भर की बात थी.
मगर नहीं, बात दो जिंदगियों की थी. जो सुबह 7.15 बजे उड़ान भर चुकी थीं. कुछ ही मिनटों में वह अशोका होटल के ऊपर गोल नाच रहे थे. एयरक्राफ्ट अपने नाम के मुताबिक काम दे रहा था. लेकिन 10 मिनट बीतने के बाद संजय इसे खतरनाक निचाई पर लाकर गोते खिलाने लगे. और उसके भी कुछ मिनटों के बाद उनका नियंत्रण खत्म हो गया. और फिर घर्र घर्र की आवाज करता हुआ डिप्लोमैटिक एनक्लेव में संजय गांधी के घर से कुछ ही मिनटों की एरियल दूरी पर पिट्स क्रैश कर गया. 15 मिनट में मौके पर एंबुलैंस और एयरक्राफ्ट पहुंचे. डालियां काटी गईं. प्लेन के मलबे के बीच से संजय और सुभाष की लाश निकाली गई. ब्रेन हैमरेज के चलते दोनों की मौके पर ही मौत हो गई थी. उन्हें वहीं स्ट्रैचर पर लाल कंबल से ढक रख दिया गया. कुछ ही मिनटों में वहां पर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पहुंचीं. अपने सचिव आरके धवन के साथ. कार से उतरते ही इंदिरा दौड़ने लगीं. फिर कुछ संभलीं. मगर बेटे की शकल देखने के बाद फूट फूट कर रोने लगीं. इंदिरा को संभालने वाला कोई नहीं था. उनकी ताकत छोटा बेटा और राजनीतिक उत्तराधिकारी संजय एक लाश बन चुका था. संजय की बीवी मेनका घर पर थी. बड़ा बेटा राजीव, बहू सोनिया और उनके बच्चे राहुल और प्रियंका इटली में छुट्टियां मना रहे थे. पूरा देश सकते में था. सब अपने अपने ढंग से संजय को याद कर रहे थे. विरोधी दलों के लिए वह इमरजेंसी का खलनायक था. जिसकी पहली जिद थी जनता कार बनाना. मारूति के नाम से. और इस सपने के लिए मां इंदिरा ने बैकों की तिजोरियां खुलवा दीं. सरकार की हर मुमकिन मदद दी. कार फिर भी नहीं बनी. मगर बेटा तब तक सरकारें बनाने बिगाड़ने में लग गया था. इमरजेंसी के दौरान उसने कभी सेंसरशिप की आड़ में पत्रकारों को धमकाया. तो कभी पूरी की पूरी फिल्म की रील ही जलवा दी. तुर्कमान गेट पर मलिन बस्ती हटाने के लिए गोलियां चलीं. नसबंदी कार्यक्रम के लिए जबरदस्ती की गई. मगर पब्लिक जबर थी. मसट्ट मारे बैठी रही. और जब बारी आई. तो ऐसा पलटवार किया कि मां इंदिरा रायबरेली से और बेटा संजय अमेठी से बुरी तरह चुनाव हार गए.
इसके बाद शुरू हुआ ट्रायल का दौर. संजय गांधी पर एक के बाद एक मुकदमे लदने लगे. उनका तमाम वक्त पेशी में बीतता. मगर इसे भी संजय ने शक्ति प्रदर्शन का जरिया बना लिया. अदालतों में उनके बाहुबली युवा समर्थकों का हूजूम जुटता. ऐसा लगता गोया कोर्ट रूम नहीं संजय का दरबार सज रहा हो. एक रोज 11 महीने की सुनवाई के बाद दिल्ली की तीस हजारी कोर्ट के जज वोहरा ने उन्हें किस्सा कुर्सी का मामले में एक महीने की सजा सुना दी. और इसके बाद जमानत भी नहीं दी. संजय गांधी, जो एक साल पहले तक देश के हर खड़कते पत्ते को इजाजत देता था, दिल्ली की जेल में था. कुछ रोज बाद उन्हें ऊपरी कोर्ट से जमानत मिली. समय बदला. लोग बदले. सत्ता बदली और संजय भी बदले. 1980 के चुनाव में उन्होंने मम्मी को वापस पीएम बनाने के लिए सब पत्ते सही फेंके. युवाओं को जमकर टिकट बांटे गए. जनता, सत्तारूढ़ जनता पार्टी के बंटरबांट से तंग थी. कांग्रेस केंद्र में वापस लौटी. और लौटा संजय का रसूख. वह पहला और इकलौता चुनाव भी तभी जीते. अमेठी से ही. जल्द ही उन्होंने मम्मी को एक काम के लिए राजी कर लिया. 9 ऐसे राज्यों में जहां कांग्रेस सत्ता में नहीं थी, विधानसभा भंग करने का फैसला किया गया. कहा गया कि देश ने नया जनादेश दिया है. इन्हें भी नए सिरे से इसे मानना होगा. चुनाव हुए तो 8 राज्यों में कांग्रेस सत्ता में वापस लौटी. इसका श्रेय भी संजय को दिया गया. उन्होंने सभी जगह अपने लोगों को सीएम की कुर्सी पर बैठाया. संजय के राज्यारोहण की तैयारी शुरू हो चुकी थी. वह अपना राजनीतिक कौशल जाहिर कर चुके थे. ये तय था कि अब कांग्रेस में वही होगा जो संजय चाहेंगे. इसलिए तमाम बूढ़े पुराने नेता भी घुटने मोड़कर दंडवत करने लगे थे. मुख्यमंत्रियों को तो अपनी ऑक्सीजन ही यहीं से मिलती थी. और तब अचानक संजय चल बसे. सबके समीकऱण हिल गए. मगर जल्द ही समझ आ गया कि संजय के बाद बारी राजीव गांधी की है. जो नहीं समझे, वे संजय की नाराज विधवा मेनका गांधी संग हो लिए. मेनका ने संजय विचार मंच नाम से पार्टी बनाई. अलग चुनाव लड़ा. 1984 में अमेठी से राजीव को चुनौती देने पहुंचीं और खेत रहीं. मगर जनता दल के उदय के साथ उनकी किस्मत भी चमकी. बाद में वह बीजेपी में आ गईं. और बेटा वरुण भी कमल सहारे खिलने की कोशिशों में लगा है. संजय गांधी की मौत भी उनकी जिंदगी की तरह थी. अचानक. क्रूर. सबको चौंकाने वाली. और उनका जनाजा उनके राजनीतिक कद की गवाही दे रहा था. हर राज्य का मुख्यमंत्री चिता के 200 मीटर के दायरे में मौजूद था. दिल्ली में मौजूद हर देश का प्रतिनिधि कतार लगा कर खड़ा था. रेडियो पर प्रोटोकॉल तोड़ते हुए शोक धुन बज रही थी. अगले रोज यानी 24 जून को मद्रास में पूर्व राष्ट्रपति वीवी गिरि का भी निधन हुआ था. मगर उस तरफ किसका ध्यान होता. संजय ने आखिरी बार अपनी तरफ पूरा ध्यान खींचा. और चले गए. मारुति बनाने की चाह रखने वाला मारुति नंदन की तरह हवा में उड़ना चाह रहा था. मगर वो ईश्वर थे. उन्हें गिरने का भय नहीं होता. ये इंसान था. जिसके अंत के लिए एक चूक काफी थी.