[ टू बी कंटीन्यूड… ]
मंदिर ही नहीं, पुस्तक मेले में भी भीड़ खींच रहा है धर्म
पवित्र किताबें मुफ्त भी मिल रही हैं और उन्हें मूल्य चुका कर खरीदने वालों की भी कोई कमी नहीं.
विश्व पुस्तक मेले के तीसरे दिन का हाल सुनने के पहले धृतराष्ट्र बहुत व्याकुल हैं. लेकिन संजय के कम्प्यूटर ने धुआं छोड़ दिया, उसकी हार्ड डिस्क क्रैश हो गई. लिहाजा तीसरे दिन का हाल सुनने के लिए उन्हें बहुत विलंब बर्दाश्त करना पड़ा. कृष्ण के मार्फत शेखर को मेले के दूसरे दिन मिले इस उपदेश के बाद कि जैसे तुम जल्दी-जल्दी शराब पीते हो, वैसे ही जल्दी-जल्दी इस मेले में कोई निर्णय मत लो. धीरे-धीरे अपनी प्रिय किताबें उठाओ. धीरे-धीरे पीयो. धृतराष्ट्र इस सोच में डूब गए कि शेखर बड़ा पाठक है या बड़ा शराबी. इस सोच में डूबे हुए ही धृतराष्ट्र बोले : हे संजय! शेखर ने कृष्ण के प्रवचन-पश्चात फिर क्या किया? संजय उवाच : हे राजन! कृष्ण के इस महत्वपूर्ण वक्तव्य के बाद शेखर के पूर्वाग्रह नष्ट हो गए और वह धीरे-धीरे हिंदी किताबों वाले हॉल में अंतिका प्रकाशन की तरफ बढ़ा और उसने यायावर लेखक-पत्रकार अनिल यादव की नवीनतम गद्य-कृति 'सोनम गुप्ता बेवफा नहीं है' उठाई. किताब उठा कर उसने कृष्ण को नमस्कार किया. कृष्ण उवाच : किधर से बर्क़ चमकती है देखें ऐ वाइज
मैं अपना जाम उठाता हूं तू किताब उठा ! हे शेखर! अच्छी और बुरी किताबें संसार में सुख और दुःख की भांति ही एक सच हैं. तू शोक न करने योग्य किताबों के लिए शोक करता है. जबकि पंडित जन आधुनिक साहित्य से बचते हैं. वे सदा उन किताबों को उठाते हैं जिनकी शास्त्रीयता असंदिग्ध है. जब तू नहीं था तब भी महान किताबें थीं, जब तू है तब भी महान किताबें हैं और एक रोज जब तू नहीं रहेगा तब भी महान किताबें रहेंगी. पतनशील पुस्तकों से वीर पाठक मोहित नहीं होते. इस प्रकार की पुस्तकों को तू सहन कर वत्स! हिंदी के हाल और हॉल से निकल अंग्रेजी के हॉल में चल और विश्व साहित्य की कालजयी परंपरा से अपनी प्रिय पुस्तकें उठा. उन्हें पढ़. इस प्रकार की पुस्तकों को प्रिय बना जो अजर-अमर हैं, जिन्हें कोई चाह कर भी मार नहीं सकता. इस प्रकार की पुस्तकें केवल जन्मती हैं, मरती नहीं. जैसे एक सामान्य पाठक इस मेले में 'लप्रेक' को त्याग कर 'अकबर' को उठा रहा है. महान पुस्तकें भी इस प्रकार ही केवल अपना आवरण बदलती हैं, अंतर्वस्तु नहीं. महान पुस्तकों को न शस्त्र काट सकते हैं, न आग जला सकती है, न पानी गला सकता है, न हवा सुखा सकती और न आंधी उड़ा सकती है. महान पुस्तकें नित्य, सर्वव्यापी, अचल, स्थिर और सनातन हैं. तेरे वैरी लोग इस मेले में ''अभी तो हो न, मिलते हैं :-)'' यह कह कर न पढ़ने योग्य किताबें तुझे ''प्रिय शेखर के लिए, सप्रेम'' लिख कर दे देंगे. लेकिन कर्मयोग यह है कि इन पुस्तकों को किसी सहृदयी निश्चल (ओम नहीं ) आलोचक के मत्थे मढ़ दिया जाए. इस प्रकार के आलोचक इस मेले में अज्ञातकुलशील लेखकों की किताबें ढोते कहीं भी देखे जा सकते हैं -- फूड कोर्ट में भी. लॉन में भी और लॉन से मेट्रो स्टेशन की तरफ जा रहे रास्ते पर भी. हे शेखर! ये सब प्रकार के भोगों में तन्मय हिंदी पट्टी के सुपाड़ी आलोचक हैं. मेलों में इन आलोचकों से वैसे ही बचना चाहिए जैसे फोटोखेंचवा से. शेखर उवाच : हे कृष्ण! जैसे एक अफवाह के दौर में माएं बचाती थीं मुंहनोचवा से अपने बच्चों को, वैसे ही आपने मुझे इस मेले में फोटोखेंचवा से बचाया. हे कृष्ण! जैसे भयंकर गर्दिश के दौर में पिता बचाते थे तेज बारिश से एक ही छतरी में अपने तीन बच्चों को, आपने मुझे इस मेले में उस कवि से बचाया जिसने इस मेले से ठीक पहले अपनी सेलरी से तीन बुरे लेखकों को पुरस्कार दिए. हे कृष्ण! जैसे हनुमान चालीसा बचपन में बचाती थी चुड़ैलों से, आपने मुझे इस मेले में उस लेखिका से बचाया जो चार हाथों और चालीस उंगलियों से लिखती है. हे कृष्ण! जैसे कानपुर में दूर के रिश्तेदार बचाते थे बिजली विभाग से कटियाबाजों को, वैसे ही आपने मुझे उस विस्फोटक लेखक से बचाया जिसकी हिंदी में चौरासी किताबें आ चुकी हैं और अंग्रेजी में चार अनुवाद. कृष्ण उवाच : हे शेखर! जैसे कछुआ सब ओर से अपने अंगों को समेट लेता है, वैसे ही मेले में इस प्रकार के सज्जनों (?) को देख कर इनकी नजर में पड़ने से खुद को बचा लेना चाहिए. हे शेखरनुमा धनंजय और धनंजयनुमा शेखर! कल इस मेले में मैं तुझे एक सेक्सी समीक्षाएं लिखने वाले समीक्षक से बचाऊंगा. कल ही मैं तुझे बहुत विद्वतापूर्ण लेख लिखने वाले एक स्यूडो इंटेलेक्चुअल से भी बचाऊंगा. कल ही मैं तुझे कविता को सौ मीटर की दौड़ समझने वाली चार कवयित्रियों से भी बचाऊंगा. कल ही मैं तुझे उन पवित्र किताबों से भी बचाऊंगा जो मेले में मुफ्त मिल रही हैं और जिनकी पवित्रता बस तभी तक है जब तक उन्हें छुआ न जाए. पवित्र किताबें वैसे मूल्य चुका कर भी खरीदने वालों की कोई कमी नहीं है. गीता प्रेस के स्टॉल पर मौजूद स्थायी भीड़ इस तथ्य का ही संकेत है. धर्म अब भी सबसे ज्यादा आकर्षक और बिकाऊ वस्तु है शेखर - चाहे मेलों में देख लो या मंदिरों में. कल ही मैं तुझे उस हिंदी साहित्य के युवा-प्रेमी प्रकाशक से भी बचाऊंगा जो इस बात से बहुत दुःखी है कि उसका स्टॉल धार्मिक और पवित्र किताबें बेच रहे प्रकाशकों-संस्थानों के स्टॉल्स से घिर गया है. और जिसे देख कर यह गाना बहुत याद आ रहा है : https://www.youtube.com/watch?v=I4d0KU-SuBc