‘‘नई दिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित विश्व पुस्तक मेला अब शनै:-शनै: स्व-समापन की ओर है. छठवें रोज शेखर को कृष्ण के माध्यम से स्त्रीवादी-दर्शन प्राप्त हुआ और इसके पश्चात वह कृष्ण के आग्रह के वशीभूत हो लोकार्पण में प्रवृत्त हुआ.’’ संजय के इस कथन के बाद धृतराष्ट्र बोले : हे संजय! यह तेरी हिंदी को क्या हुआ. कैसी बहकी-बहकी हिंदी बोल रहा है, क्या ‘नई वाली हिंदी’ का तुझे कुछ पता नहीं?
संजय उवाच : हे धृतराष्ट्र! मुझे यों प्रतीत होता है कि नए के लिए प्राचीन को त्यागा नहीं जा सकता. ‘नई वाली हिंदी’ बोलने के लिए पुरानी तमीज से गुजरना भी जरूरी है. असद ज़ैदी की जुबां में कहूं तो, ‘‘मैं तेरह जबानों में नमस्ते और तेईस में अलविदा कहना जानता हूं.’’
धृतराष्ट्र उवाच : हे संजय! तेरह+तेईस = छत्तीस जबानों को छोड़ और मुझे नई वाली हिंदी में इस विश्व पुस्तक मेले के सातवें रोज का हाल सुना.
संजय उवाच : हे राजन! ‘नई वाली हिंदी’ को जानने के प्रति अपनी असीम आतुरता जाहिर करते हुए मेले के सातवें रोज कृष्ण से शेखर ने जानना चाहा कि यह ‘नई वाली हिंदी’ क्या है?
गंदी हिंदी से भरी हुई एक पुस्तक का लोकार्पण करने के बाद कृष्ण उवाच : हे शेखर! मैं असद ज़ैदी-सा महसूस कर रहा हूं :
‘‘मुझे मालूम है इन चीजों का हश्र क्या होगा
और उस जबान का भी जिसे मैं समझता हूं
अपनी मातृभाषा और इस भर्राई-सी घिसी-सी सपाट आवाज का
जो हरदम नहूसत की अलामत बन कर आती है और उस जमीन का जिसकी तारीख पर बात
अजनबी लोगों के दरमियान ही हो सकती है और इस गुलदस्ते का जिसे मैं
उल्टी तरफ से पकड़े हुए हूं’’ शेखर उवाच : hi कृष्ण! जब आप दो अलग-अलग हिंदियों में रोते हैं, तब मुझे पता नहीं चलता कि कौन से आंसू कौन सी हिंदी के हैं.
कृष्ण उवाच : हे बंधु! यह एक प्रहसन है. मैं जब-जब इससे ऊबता हूं, ‘बाल मंडप’ की तरफ चला जाता हूं. ये बच्चे पता नहीं भविष्य में कौन-सी हिंदी लिखेंगे. ‘आओ बनाएं एक कहानी’ जैसी कार्यशालाओं में बच्चों को कहानियां रचते देख बहुत सुख महसूस होता है. इतनी परिचर्चाएं और इतने लोकार्पण पता नहीं कौन-सी हिंदी के हैं? लोग जो मेले से लौट रहे हैं अपने डेरों की ओर, पता नहीं उनके झोले में कैसी किताबें हैं, लेकिन क्या यह सुख नहीं है कि वे खाली हाथ नहीं लौट रहे हैं, उन्हें कुछ पढ़ने लायक मिला है... वह भी इस वक्त में, वह भी किताब की शक्ल में? हॉल नंबर सात में स्थापित विदेशी मंडप कुछ मुल्कों की पुस्तकों, साहित्य या लेखकों का परिचय मात्र नहीं है. यह पुस्तक-संस्कृति की वैश्विकता को समझने के लिए बहुत उपयोगी है. इसमें भी जाना ही चाहिए. इस मेले में नहीं आ पाए वरिष्ठ साहित्यकार आग्नेय अगर इस मेले में आते तब यहीं सबसे ज्यादा नजर आते. उनसे बात होने पर वह इस पुस्तक मेले पर कहते हैं :
‘‘आज पुस्तक मेले शासकीय औपचारिकताओं का हिस्सा बन चुके हैं. नेशनल बुक ट्रस्ट को हर साल जगह-जगह ऐसे मेले लगाने ही होते हैं. यह तो ठीक है, लेकिन जरूरी सवाल यह है कि इन मेलों से हर साल कितने नए पाठक बनते हैं. क्या इस तथ्य का कोई हिसाब-किताब है? जहां तक मैं समझता हूं कि ये मेले लेखक-पाठक-प्रकाशक के बीच कोई सारगर्भित संवाद नहीं बना पाते हैं. थैली प्रकाशकों को न तो नए लेखकों की आज कोई जरूरत है और न ही नए पाठकों की. उन्हें तो बस कैसे भी अपनी किताबों को ठिकाने लगाकर अकूत कमाई करनी है. ये प्रकाशक प्रत्येक वर्ष नई किताबें छापते हैं. कोई उनसे पूछे कि वे इन नई किताबों को पाठकों तक ले जाने के लिए क्या उपक्रम और उपाय करते हैं? हर साल उनकी किताबों को खरीदने वाले पाठकों की संख्या में क्या कोई वृद्धि होती है? दरअसल, हमारे प्रकाशक निरंकुश और अनपढ़ हैं. वे नौकरशाहों और वृद्ध आलोचकों को जाल में फंसाकर लेखकों का शोषण करते हैं. इन थैली प्रकाशकों ने पुस्तकों को छापने की कोई प्रक्रिया ही अब तक निर्धारित नहीं की है. वे लेखकों का कोई सम्मान नहीं करते हैं. वे लेखकों को अपनी पांडुलिपि उनके चरणों में रखने के लिए विवश करते हैं. इस समय ये प्रकाशक लेखक-द्रोही और पाठक-द्रोही बन चुके हैं.’’
शेखर उवाच : हे कृष्ण! आग्नेय बहुत वरिष्ठ हो चुके लेखक हैं और ज्यादातर वरिष्ठ लेखक नई वाली हिंदी को नहीं समझ रहे हैं. हिंदी नई हो चुकी है और इस आलोक में प्रकाशक भी अब नए हो चुके हैं या कहें बदल रहे हैं. नए लेखक बहुत समझदार प्रतीत होते हैं और नए पाठक भी.
कृष्ण उवाच : हे शेखर! तेरी बातों से लग रहा है कि अब प्रकाशक सोनम गुप्ता की तरह बेवफा नहीं हैं. मुझे तू भी बहुत बदला हुआ लग रहा है. तू अज्ञेय का शेखर नहीं लगता.
शेखर उवाच : हे कृष्ण! मैं नया वाला शेखर हूं.
कृष्ण उवाच : हे शेखर! ‘पानी’ को जब तक मैं ‘जल’ न कहूं/ मुझे इसकी कल-कल सुनाई नहीं देती/ मेरी चुटिया इससे भीगती नहीं/ मेरे लोटे में भरा रहता हैं अंधकार... ये भी असद ज़ैदी की ही कविता-पंक्तियां हैं. वह आगे फरमाते हैं :
‘‘पाणिनी भी इसे जल ही कहते थे
पानी नहीं
कालांतर में इसे पानी कहा जाने लगा
रघुवीर सहाय जैसे कवि हुए, उठ कर बोले :
‘पानी नहीं दिया तो समझो
हमको बानी नहीं दिया’ सही कहा – पानी में बानी कहां
वह तो जल में है.’’
[ टू बी कंटीन्यूड… ]