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पुस्तक मेला कहीं लेखक मेला न हो जाए, संभालिए

विश्व पुस्तक मेले के दूसरे दिन का आंखो देखा हाल.

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फोटो: सुघोष मिश्र
नई दिल्ली के प्रगति मैदान में गतिशील विश्व पुस्तक मेले के दूसरे दिन का हाल क्या रहा, यह जानने के लिए धृतराष्ट्र इसलिए भी बहुत उत्सुक हैं क्योंकि उन्हें शेखर की भी बेहद फिक्र है. उन्हें संजय के सुनाए पहले दिन के आंखों देखे हाल
में  ‘शेखर : एक जीवनी’ से निकल कर शेखर मेले में प्रगट होता है और मेले में डटे हुए पुस्तक-पीड़ित और पुस्तक-अभिलाषी समुदाय को देख कर उसके अंग शिथिल होने लगते हैं. मुंह सूखने लगता है. कंपकंपी और रोमांच-सा भी होने लगता है. उसका डेबिट कार्ड उसके हाथ से गिर जाता है. उसकी त्वचा जलने लगती है और मन भ्रमित-सा होने लगता है... और तभी उसे कृष्ण (कल्पित) दिखते हैं…


धृतराष्ट्र उवाच : हे संजय! 12-12ए  हॉल में फिर शेखर का क्या हाल हुआ?
संजय उवाच : हे धृतराष्ट्र! कृष्ण को पाकर शेखर कुछ संयत हुआ और उसने कृष्ण से कहा कि मैं इन पुस्तकों को खरीदने में कोई कल्याण नहीं देखता. मैं न तो ‘गंदी बात’ चाहता हूं और न ही ‘पतनशील पत्नियों के नोट्स.’ मुझे इस प्रकार की किताबों से क्या प्रयोजन जिनमें न हिंदी गद्य की कोई परंपरा दिखती और न कोई उत्कर्ष.
कृष्ण उवाच : हे शेखर! तुझे आज रविवार के दिन मेले में उमड़ी यह भीड़ क्या इतनी परंपरावंचित और उत्कर्षहीन दिखाई दे रही है? यह हिंदी का हॉल देख/ गीता प्रेस ज्ञानपीठ राजपाल देख/ गत और अनागत काल देख/ ये देख जगत का साहित्य सृजन/ ये देख प्रकाशनों का आपसी रण/ पुस्तकों से पटी हुई भू है/ पहचान कहां इसमें तू है/ ई-बुक और किंडल का जाल देख/ बच्चों वाला भी हॉल देख/ सेल्फी में तीनों काल देख/ लेखक मंच विकराल देख/ सब लेखक मेले से जाते हैं/ फिर लौट मेले में आते हैं...
हे पार्थनुमा शेखर और शेखरनुमा पार्थ मेले में इस बार इतने लोग हैं कि कंधों से कंधे छिल रहे हैं. इस नोटबंदी के दौर में भी कैश पेमेंट कर-करके सब झोले भर-भरके किताबें खरीद रहे हैं. बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् और गीता प्रेस के स्टॉल पर दो-तीन सौ रुपए में ही झोला भर जाता है. गुलाबी नोट खुलाने की जरूरत नहीं पड़ती. डेबिट/क्रेडिट कार्ड स्वाइप कराने वाली मशीनें यहां 12-12ए हॉल में एक-दो नामी प्रकाशकों को छोड़कर और किसी के पास नहीं हैं. तेरे पास अगर कैश नहीं है तो मुझसे उधार ले ले. पुस्तकहीनता को मत प्राप्त हो, इस पुस्तक मेले में यह तुझ पर नहीं शोभती. अपने पूर्वाग्रहों को त्यागकर पुस्तकें खरीदने के लिए खड़ा हो जा.
शेखर उवाच : हे कृष्ण! भीड़ का क्या है वह तो किताबों के स्टॉल से ज्यादा छोले-भटूरे के स्टॉल पर टूट रही है. ‘कुरान’, ‘बाइबिल’ और ‘सत्यार्थ प्रकाश’ जैसे धार्मिक-ग्रंथ हर बार की तरह इस बार भी मेले में बिल्कुल फ्री या नाम मात्र की कीमत पर मिल रहे हैं. लेकिन मुझे नहीं लगता कि उन्हें कोई ले रहा है. दरअसल, मेले में प्रभात रंजन जैसे लेखक न सही, उनके जैसे पाठक जरूर आ रहे हैं जिनके लिए पुस्तक मेले में जाने का मतलब सिर्फ किताबों का खरीदार बनकर जाना नहीं है. बल्कि इसका मतलब है : घूमना-घुमाना, मिलना-मिलाना, खाना-पीना, बाहर बैठकर सिगरेट पीना, अंदर जाकर चाय पीना. प्रभात रंजन का यह भी मानना है कि अब पुस्तक मेले में जाना कोई साहित्य लिखने की तरह संघर्ष करना नहीं है कि भूखे-प्यासे बस घूमते रहा जाए. इसलिए इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि मेला कैशलेस है या नहीं.
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