[ टू बी कंटीन्यूड... ]
पुस्तक मेले में जारी है अंबेडकर का जलवा
लेकिन ‘दास कैपिटल’ ढोता हुआ कोई अंबेडकरनिष्ठा वाला व्यक्ति इस विश्व पुस्तक मेले में अब तक नहीं दिखा!
संजय को इस संसार के सर्वप्रथम ‘तकनीकसक्षम पुरुष’ होने का गौरव प्राप्त है, लेकिन धृतराष्ट्र को विश्व पुस्तक मेले का आंखों देखा हाल सुनाने के क्रम में संजय ने पाया कि तकनीक पर बहुत भरोसा नहीं किया जा सकता. तीसरे दिन के हाल को तमाम तकनीकी बाधाओं के बाद संजय ने तब रोका जब कृष्ण ने शेखर से यह कहा कि कल मैं तुझे हिंदी साहित्य के उस युवा-प्रेमी प्रकाशक से बचाऊंगा जो इस बात से बहुत व्यथित है कि उसके प्रकाशन का स्टॉल धार्मिक और पवित्र किताबें बेच रहे प्रकाशकों-संस्थानों के स्टॉल्स से घिर गया है. धृतराष्ट्र उवाच : हे संजय! कृष्ण ने विश्व पुस्तक मेले के चौथे रोज शेखर को उस ‘विधर्मी’ प्रकाशक से कैसे बचाया? संजय उवाच : हे धृतराष्ट्र! यह संसार तो विधर्मियों से ही भरा हुआ है, धार्मिक तो केवल वे हैं जो दूसरों को विधर्मी कह रहे हैं. वह प्रकाशक क्या मात्र इसलिए ही विधर्मी ठहरा क्योंकि वह युवा लेखकों का बहुत सम्मान करता है या इसलिए विधर्मी ठहरा क्योंकि दिल्ली के नामचीन प्रकाशकों की तरह उसके पास बड़ी पूंजी नहीं है? कृष्ण तो शेखर को उससे सिर्फ इसलिए बचाना चाहते हैं कि कहीं शेखर अपनी अधूरी किताब इस प्रकाशक के आग्रह में पड़ कर उसे छापने के लिए न सौंप दे. कृष्ण बड़े स्नेह से शेखर को समझाने में लगे हैं... कृष्ण उवाच : हे शेखर! वह लेखक जो केवल रचता है और प्रकाशन की कामना को बिल्कुल त्याग कर मात्र स्वयं के लिए ही रच कर संतुष्ट रहता है, उसे स्थितप्रज्ञ कहते हैं. चिरकुट समवयस्कों, औसत वरिष्ठों और समयखत्म समादृतों की धड़ाधड़ आ रही किताबों को देख कर जिसके मन में उद्वेग नहीं उपजता... जो प्रकाशन और उससे प्राप्त लाभों के प्रति निर्लिप्त रहता है, सृजन-सुख से जिसका क्रोध नष्ट हो गया है, ऐसे लेखक को स्थिरबुद्धि कहते हैं. शेखर उवाच : हे कृष्ण! जब लेखन-कर्म प्रकाशन-विमुख होकर भी इतना श्रेष्ठ है, तब आप मुझे पाठक-कर्म में क्यों लगाते हैं? एक बात को निश्चित होकर कहिए जिससे मेरा कल्याण हो. कृष्ण उवाच : भवानी बाबू की ये पंक्तियां तू अपने कमरे में नहीं अपने मन में कहीं लिख कर टांग ले : ‘‘कुछ लिख के सो/ कुछ पढ़ के सो/ जिस जगह जागा सवेरे/ उस जगह से बढ़ के सो.’’ हे शेखर! मैं नहीं चाहता कि तू वैसा पाठक हो जाए जैसा अभी तुझसे हाथ मिला कर गया है. वह जो बाबा साहेब अंबेडकर के समग्र वांग्मय को केवल ढोने के लिए ढो रहा था. उसकी पूरी देह में अब कोई अन्य वांग्मय टिकाने की जगह नहीं थी. वह कह रहा था कि तीन चक्कर लगा चुका हूं, बहुत भारी पड़ रहे हैं अंबेडकर! लेकिन मैं केवल दिल्ली विश्वविद्यालय से प्रगति मैदान तक इसलिए आ-जा रहा हूं क्योंकि मुझे पता है कि क्रांति का रास्ता यहीं से हो कर जाएगा. बोलो : जय भीम! लाल सलाम! भीम उवाच : मैं बहुत भारी पड़ रहा हूं, इसकी मुझे कोई खुशी नहीं है. नि:संदेह इतना भारी पड़ना ठीक नहीं. ये मूढ़बुद्धि शोधार्थी केवल मेरा वांग्मय ढोए जा रहे हैं. इन्हें और भी कुछ पढ़ाओ भाई. इतना बड़ा मेला है, इतनी सारी किताबें हैं! शेखर उवाच : हे भीम! इस लोक में दो प्रकार की निष्ठाएं कृष्ण ने कही हैं. एक मार्क्सनिष्ठा और दूसरी अंबेडकरनिष्ठा. इन दिनों दोनों को मिलाने पर बहुत जोर है. लेकिन ‘दास कैपिटल’ ढोता हुआ कोई अंबेडकरनिष्ठा वाला व्यक्ति इस विश्व पुस्तक मेले में अब तक नहीं दिखा! कृष्ण उवाच : हे शेखर! तू एक खुले मन-मस्तिष्क वाला पाठक बन. संसार में जो भी सुंदर रचना है, उसकी जय बोल. जिस भी मनुष्य ने साहस किया और अन्याय और अत्याचार से लड़ा उसकी जय बोल. उसके बारे में खोज कर पढ़. दरअसल, सारे महान लेखक महान किताबों से पैदा होते हैं, सारी महान किताबें साहसिक जीवन जीवन जीने से पैदा होती हैं, साहसिक जीवन कर्म में निष्ठा से पैदा होता है और कर्म को तू प्रतिक्रिया से नहीं प्रगतिशीलता से उत्पन्न जान. कर्म की महिमा ही संसार के महान साहित्य और कला में प्रतिष्ठित हुई है. शेखर उवाच : हे कृष्ण! तब इस मेले में ये लेखक-मंच पर मंडराते प्राणी कौन हैं? क्या ये महान होने की आशंकाओं से मुक्त हैं? कृष्ण उवाच : हे शेखर! ये लेखक नहीं अहंकार से मोहित या कहें पीड़ित यशलोलुप पापायु हैं. शेखर उवाच : हे कृष्ण! ये किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करते हैं? कृष्ण उवाच : हे शेखर! छपास और पुरस्कार और मंच के वशीभूत हो ये लेखक साहित्य में साहित्येतर कारणों से पापाचरण करते हैं. इसलिए हे प्रिय! तू सबसे पहले इन कारणों से स्वयं को सदा मुक्त रख. बुद्धि के द्वारा मन को वश में करके तू वर्ग-शत्रु से ज्यादा साहित्य-शत्रु से दूर रह और साहित्य-सृजन के मार्ग पर चल कर कर्म में प्रवृत्त हो.
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