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जस्टिस चंद्रचूड़ को रात में धमकी भरा फोन क्यों आया?

गांधी परिवार के एक बहुत बड़े नेता से जुड़ा मामला.

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1978 से 1985 तक CJI रहे वाई वी चंद्रचूड़ और उनके बेटे डी वाई चंद्रचूड़, जो अभी CJI हैं. (फोटो: इंडिया टुडे)

17 नवंबर 1979 की रात. क़रीब साढ़े दस बजे. चीफ़ जस्टिस यशवंत विष्णु चंद्रचूड़ के फोन की घंटी बजी. उनकी पत्नी ने फोन उठाया. मालूम हुआ कि किसी ने खुद को संजय गांधी बताते हुए फोन किया है. वे बोलीं कि जज साहब सोने चले गए हैं, आप कल सुबह कोर्ट में उनसे संपर्क करें. इतना कह कर फ़ोन काट दिया. दस मिनट बाद फिर एक बार फोन की घंटी बजी. इस बार चीफ जस्टिस के बीस बरस के बेटे धनंजय चंद्रचूड़ ने फोन उठाया. धनंजय उस वक़्त क़ानून के छात्र थे. फोन उठाते ही सामने से कॉल करने वाले ने धमकी देना शुरू कर दिया. धनंजय ने फ़ोन धम्म से रख दिया.        

पर चीफ़ जस्टिस के घर ये धमकी भरा फोन आया क्यों था? और क्या सत्तर के दशक में लोकतंत्र की संस्थाओं दी गयी ये इकलौती धमकी थी?

किसने किया था फोन?

25 जून 1975 को भारतीय लोकतंत्र पर यही ख़तरा नज़र आया, जब उस वक़्त की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लगा दिया. नागरिक अधिकार सस्पेंड कर दिए गए थे. प्रेस कुछ भी छापे, इस पर सरकार का सेंसर था. तमाम दिग्गज नेता जेल में ठूंस दिए गए थे. वो दौर जबरन नसबंदी जैसी कई क्रूर घटनाओं का भी साक्षी रहा. साल 1977 की जनवरी में चुनाव की घोषणा तक यही स्थिति जारी रही. हम आपको इमरजेंसी के दिनों की कुछ कहानियां सुनाएंगे.

अब उस टेलीफोन की बात, जो जस्टिस चंद्रचूड़ को आया था. दरअसल, उन दिनों वे उस तीन जज वाली बेंच के सदस्य थे जो संजय गांधी से जुड़े एक केस की सुनवाई कर रही थी. इस केस में निचली अदालत ने संजय को पहले ही दो साल की सज़ा सुना दी थी. और वे ज़मानत पर थे. इसी तरह का धमकी भरा फोन बेंच के दूसरे जज जस्टिस गुप्ता को भी आया था. वे कुछ दिन पहले ही सुप्रीम कोर्ट में पोस्ट हुए थे और उन्होंने संजय गांधी की मारुति कार कम्पनी के घोटाले की जांच की थी और भरी गड़बड़ियों की रिपोर्ट दी थी.

इंडियन एक्सप्रेस के संपादक को गिरफ़्तार नहीं किया?

उस वक़्त अख़बार ही ख़बरों का ज़रिया थे. और, इमरजेंसी का सबसे ज़्यादा क़हर मीडिया पर ही टूटा था. 25-26 जून यानी इमरजेंसी वाली दरमियानी रात, अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस की बिजली काट ही दी गई. फिर उसके सरकारी विज्ञापन भी बंद कर दिए गए थे. बैंकों से दिए जाने वाले क़र्ज़ पर भी रोक लगा दी गई. संपादक रामनाथ गोयनका को धमकाया गया. अख़बारी क़ाग़ज की सप्लाई में कटौती कर दी गई. लेकिन ताज्जुब है कि गोयनका के ज़बरदस्त सरकार-विरोधी तेवर के बावजूद उन्हें गिरफ़्तार नहीं किया गया!

रामनाथ गोंएका इंडियन एक्सप्रेस के संस्थापक थे (फोटो - इंडिया टुडे)

राजनीतिक टिप्पणीकार जाविद लायक - जो उस समय "इंडियन एक्सप्रेस" में थे - उन्होंने बताया कि इमरजेंसी के बाद उन्होंने एक दिन रामनाथ गोयनका से यही सवाल पूछा. गोयनका ने इसका बहुत दिलचस्प खुलासा किया. उन्होंने बताया कि इमरजेंसी से बहुत पहले उन्होंने इंदिरा गांधी से अलग होकर रह रहे उनके पति, फ़िरोज़ गांधी को एक्सप्रेस ग्रुप में नौकरी पर रखा था. उन दिनों वे फ़िरोज़ और इंदिरा गांधी दोनों के काफी नज़दीकी थे. वे अपनी शादी के कठिन दौर से गुज़र रहे थे और दोनों ने गोयनका को ढेर सारे पत्र लिखे थे. जिनमें एक-दूसरे पर निजी तौर पर अभद्र व्यवहार के कई आरोप लगाए गए थे. रामनाथ गोयनका ने इन अति व्यक्तिगत पत्रों को एक फ़ाइल में नत्थी कर रखा था.

गोयनका आगे बताते हैं कि इंदिरा गांधी को डर था कि अगर उन्होंने गोयनका को गिरफ़्तार कर लिया तो ये लेटर्स तत्काल दुनिया भर में छप जाएंगे. हालांकि, वे कहते हैं कि इंदिरा का ऐसा सोचना ग़लत था. वो कभी भी इन लेटर्स को प्रकाशित नहीं करवाते. क्योंकि ऐसा करना व्यक्तिगत तौर पर विश्वासघात होता.

भारत का वो प्रधानमंत्री जिसने संसद का मुंह नहीं देखा

अब क़िस्सा उस प्रधानमंत्री का जो बस दो मिनट तक ही संसद में प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठ पाए. ये थे भारत के पांचवे प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह. आधुनिक भारत के इतिहास में चौधरी चरण सिंह ही एकमात्र ऐसे प्रधानमंत्री हुए, जिन्हें सदन का विश्वास प्राप्त नहीं था. उन्होंने सदन का सामना नहीं किया. शपथ ग्रहण के बाद वे केवल 23 दिन तक ही प्रधानमंत्री रहे. और लोकसभा पहुंचने के बाद चरण सिंह मात्र दो मिनट के लिए ही प्रधानमंत्री की सीट पर बैठ पाए. वो भी तब, जब वो राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी को अपना इस्तीफा पेश कर चुके थे.

चौधरी चरण सिंह 23 दिन के लिए भारत के प्रधानमंत्री थे. (फोटो - इंडिया टुडे)

पेश एक माफीनामा भी हुआ था, वो भी 35 बरस बाद. और ये आया था, भारत के पूर्व चीफ जस्टिस पी. एन. भगवती की ओर से. दरअसल 1976 में इमरजेंसी के दौरान जीवन के अधिकार को निरस्त करने के अपने ही फैसले को लेकर साल 2011 में भगवती ने गलती मानते हुए पछतावा जाहिर किया. इस फैसले को ADM जबलपुर के नाम से जाना जाता है. जिसे सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की बेंच ने दिया था जिसमें जस्टिस भगवती भी शामिल थे. 89 बरस के भगवती ने पैंतीस बरस बाद कहा था, 

“सुप्रीम कोर्ट को एडीएम जबलपुर जैसे फैसले पर शर्म आनी चाहिए. मैं इसके लिए अपने को दोषी मानता हूं. उस समय, मैं नया था. एक नौजवान जज के रूप में इस तरह का केस पहली बार संभाल रहा था."

जब डांट खा कर रो पड़ीं इंदिरा गांधी

करीब बीस बरस तक 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या तक उनके डॉक्टर रहे, के.पी. माथुर के हवाले से भी हमें एक और रोचक ब्यौरा मिला. जब इमरजेंसी के दिनों में संजय गांधी की काम करने की अखरने वाली शैली पर सवाल खड़े हुए तो परिवार के एक बुजुर्ग बी. के. नेहरू, जिनका इंदिरा बहुत आदर करती थीं. इस स्थिति के लिए फटकार लगाई. इंदिरा रुआंसी हो गई. यहां तक कि वे कुछ बोल ही नहीं पाई. ब्रज कुमार नेहरू इंदिरा के चचेरे भाई थे. और वो भारत सरकार में कई उच्च पदों पर रहे थे. मसलन अमेरिका में भारत के राजदूत समेत ब्रिटेन में भारत के हाई-कमिश्नर के रूप में वे पोस्टेड थे.

कुछ और क़िस्से  -

> एक किस्सा ऐसा भी कि “इंदिरा गांधी जिन्दाबाद-जिन्दाबाद” के कारण संपादक को जेल हो गयी. बात ये थी कि बनारस के डेली अख़बार गांडीव ने समापदकीय की पूरी जगह खाली न छोड़कर “इंदिरा गांधी जिंदाबाद, इंदिरा गांधी जिंदाबाद” से भर दी. सरकार के लिए ये बात नाकाबिले बर्दाश्त थी, क्योंकि इसमें छिपा हुआ कटाक्ष एक खास अर्थ रखता था. अख़बार के बुजुर्ग संपादक भगवानदास अरोड़ा को जेल की हवा खानी पड़ी.      

> इमरजेंसी के दिनों में केंद्रीय सूचना व प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल ने एक बार विदेशी संवाददाताओं के बारे में कहा कि उन्हें हमारी बात माननी होगी, नहीं तो वे भारत से जा सकते हैं. विद्याचरण ने अंग्रेजी में जो लाइन कही, वो इस तरह थी, “otherwise they are welcome to go”. यह जुमला बहुत चर्चित हुआ था. किताब के लेखक इस पर चुटकी भरे अंदाज में लिखते हैं, “इसे उनके शब्दों वाली अंग्रेजी का कमाल कहा जाए या विद्याचरण शुक्ल का?”

इंदिरा गांधी (फोटो - इंडिया टुडे)

> सन 1977 में जब चुनाव अभियान का दौर चल रहा था, तो कर्नाटक की अपनी एक जनसभा में उन्होंने एक बड़ा पोस्टर लगाया, जिसमें इंदिरा गांधी को किंग कोबरा के तौर पर दिखाया गया था. उस पर लिखा था, सावधान, इस चुनाव के जरिये एक शक्तिशाली कोबरा अपना फन उठाने वाला है. बलबीर लिखते हैं, पता नहीं कर्नाटक का मूल निवासी होने के बावजूद जॉर्ज को ये बात मालूम नहीं थी या उन्होंने नजरअंदाज कर दी थी, कि कर्नाटक में नागराज को धरती के संरक्षक के रूप में पूजा जाता है. उस पोस्टर के नजदीक एक छोटे पोस्टर और लगा था. उस पर लिखा था, जनता के लिए नागराज का खात्मा कर दें. चिकमंगलूर में नागराज को मार डालना बहुत ही ख़राब माना जाता है. इससे भी जनता पार्टी को काफी नुकसान हुआ.

> इंदिरा गांधी दोबारा सत्ता में आईं तो सीनियरॉरिटी के लिहाज से सेनाअध्यक्ष बनने का नंबर लेफ्टिनेंट जनरल एस. के सिन्हा का था. लेकिन इंदिरा ने ऐसा होने नहीं दिया. क्योंकि कुछ बरस पहले इंटेलिजेंस ब्यूरो ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि सिन्हा के जयप्रकाश नारायण से संबंध हैं. दरअसल जयप्रकाश नारायण, जनरल सिन्हा के पिता के दोस्त थे. एक बार हवाई जहाज में जयप्रकाश नारायण को देखने पर जनरल सिन्हा ने शिष्टाचार के नाते उनका बैग खुद पकड़ लिया. अगले दिन इंदिरा को इसकी सूचना दे दी गई थी. शायद यह सूचना इंदिरा को “अलर्ट” करने के लिए काफी थी.    

> जाते-जाते आचार्य विनोबा भावे से जुड़ी एक जानकारी भी साझा करते हुए जाते हैं: जब आपातकाल में विनोबा भावे पर भी सेंसर लग गया था. विनोबा की पत्रिका “मैत्री” की चार हजार प्रतियां जब्त कर ली गयीं. जिसमें उनके आमरण अनशन की घोषणा छापी गयी थी. जब उनके पवनार आश्रम पर छापा डाला गया, तो विनोबा को सूचित तक नहीं किया गया था, छापे की कार्रवाई को बड़ी शांति से देखते हुए विनोबा ने केवल इतना ही कहा, “धन्य हो! धन्य हो!”

पर अभी एक मीटिंग चक्र को पूरा होना बाकी है. साल 1976 में विनोबा ने एक आचार्य सम्मेलन करवाया. उन्होंने अपने दूत को इंदिरा गांधी के पास भेजा कि वे जाकर इस सम्मेलन की जानकारियां इंदिरा को दे आएं. पर इंदिरा ने दूत को मिलने का समय ही नहीं दिया. विनोबा को इससे दुःख पंहुचा. पर अभी चक्र का आधा सिरा बाकी है, सन 77 की हार के बाद इंदिरा पवनार आश्रम में विनोबा से मिलने गयी. तब विनोबा ने ठन्डे स्वर में इंदिरा गांधी से कहा था, “बाबा राजनीति नहीं समझता.”

बलबीर कई अख़बार और पत्रिकाओं के संपादक रह चुके हैं. (फोटो - विकी/फ़्लिपकार्ट)

पर एक नागरिक के तौर हम समझते हैं कि लोकतंत्र और लोकतान्त्रिक संस्थाएं सुचारु रूप से चलती रहे. ये बहुत जरुरी है. जरुरी ये भी है कि हम अपने इतिहास से सीखते रहें. ताकि अपने वर्तमान का ख्याल रखते हुए, हम अपना भविष्य संवार सकें. और इसका सबसे मजबूत जरिया है, किताबें. ये क़िस्से हमने पढ़े हैं "इमरजेंसी का कहर और सेंसर का जहर" में. इस किताब को लिखा है, पत्रकार बलबीर दत्त ने. अविभाजित भारत के रावलपिंडी में जन्मे और पद्मश्री से सम्मानित बलबीर कई अख़बार और पत्रिकाओं के संपादक रह चुके हैं. बलबीर की ये किताब आठ खंडों के 82 चैप्टर्स में इमरजेंसी के दिनों का एक दस्तावेज़ है. अपनी रिपोर्टिंग शैली में बलबीर ने इमरजेंसी के दिनों में की गयी सेंसरशिप, राजनैतिक उठा-पटक और उसके बाद के दिनों के बारे में कई जानकारियां दर्ज की हैं. वे प्रसिद्द ग्रीक दार्शनिक प्लेटो की किताब "रिपब्लिक" की विवेचन करते हुए कहते हैं - 'गणतंत्र को सबसे बड़ा ख़तरा भीतर से है, बाहर से नहीं'.

वीडियो: किताबी बातें: इंदिरा गांधी ने चाय पर बुलाया, शायर ने नेहरू से न मिलने की शर्त रख दी