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गुजरात का वो मुख्यमंत्री जो हर सियासी तूफ़ान में अपनी कुर्सी बचाने में कामयाब रहा

यह मुख्यमंत्री सियासत की उलटबांसी था. अपनी कुर्सी बचाने के लिए एक से ज्यादा मौकों पर इसने अपने धुर विरोधियों को अपने पक्ष में साधा था.

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चिमनभाई पटेल ने मौक़ा आने पर बाबूभाई पटेल की पीठ में छूरा भोंक दिया
दिसम्बर का महीना, साल 1989. कुछ ही महीनों में गुजरात में विधानसभा चुनाव होने जा रहे थे. केंद्र में विश्वनाथ प्रताप सिंह सत्ता में थे. चिमनभाई पटेल गुजरात में जनता दल की कमान संभाल रहे थे. उन्हें पूरी उम्मीद थी कि केंद्र की तरफ गुजरात में भी कांग्रेस का जहाज डूबने वाला है. इसी बीच उनके पास एक खबर पहुंची. 1975 में आपातकाल के दौरान गुजरात के साफ़ छवि वाले मुख्यमंत्री बाबू जशभाई पटेल फिर से राजनीति में लौट रहे हैं. 1984 में उन्होंने लोक स्वराज संगठन मंच से एक सामाजिक संगठन शुरू किया था, लेकिन अब उनकी मंशा फिर से राजनीति में उतरने की थी.
जनवरी 1990, चुनाव से एक महीने पहले वे सूबे में जनता दल महासचिव प्रवीण सिंह जड़ेजा मीडिया को यह कहते पाए गए -
"बाबूभाई अपने लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए जाने जाते हैं. वीपी सिंह की कमान में पार्टी साफ़ छवि के लोगों को तवज्जो देने जा रही है. अगर वो हमारी पार्टी से जुड़ते हैं तो यह हमारे लिए गर्व की बात होगी."
चिमनभाई पटेल को 1974 में नवनिर्माण आंदोलन के बाद कुर्सी छोड़नी पड़ी थी. उस समय वो कांग्रेस में हुआ करते थे. यह 16 साल लंबा इंतजार था. वो अब किसी भी किस्म की चूक नहीं चाहते थे. बाबूभाई की साफ़ छवि उनकी राह का कांटा बन सकती थी. उन्होंने अपना पिछला दरवाजा खोला और कांग्रेस के बागियों से बातचीत शुरू कर दी. यह खबर उन्होंने खुद लीक करवा दी. दिल्ली में पार्टी आलाकमान के पास यह संदेश पहुंच चुका था. वीपी सिंह चिमनभाई के प्रति तमाम नापसंदगी के बावजूद यह जानते थे कि चिमन के बिना गुजरात चुनाव में जनता दल की नाव पार नहीं लगने वाली. इस तरह बाबूभाई जनता दल में आते-आते रह गए.
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बाबूभाई पटेल और चिमनभाई पटेल.

बाबूभाई सियासत का बुनियादी उसूल नहीं भूले थे
इधर बीजेपी भी बाबूभाई को पार्टी ज्वाइन करने का प्रस्ताव भेज रही थी. बाबूभाई भले ही साफ़ छवि वाले राजनेता थे लेकिन वो सियासत का बुनियादी उसूल नहीं भूले थे. उन्होंने अपने लिए सभी दरवाजे खुले रखे और मोरबी से निर्दलीय चुनाव लड़ गए. इस तरह चिमनभाई की राह का यह कांटा पूरी तरह से हटा नहीं था.
फरवरी में चुनाव के नतीजे आ चुके थे. चिमनभाई के जनता दल को मिली 70 सीटें, बीजेपी के पास 67. कांग्रेस अपने इतिहास में सबसे कम 33 सीटों पर जाकर अटक गई. बाबूभाई पटेल सहित 12 निर्दलीय नई विधानसभा का हिस्सा बने. यह खंडित जनादेश था. इसके बाद उठा-पटक का जो खेल शुरू होने जा रहा था, उसमें चिमनभाई सूबे के सबसे बड़े खिलाड़ी माने जाते थे.
फरवरी के आखिरी सप्ताह में दो आदमी अपने-अपने कमरे में बैठे ख़त लिख रहे थे. पहले थे बाबूभाई पटेल. उन्होंने अपने लिए समर्थन मांगते हुए बारी-बारी से एक-एक चिट्ठी सूबे में बीजेपी के अध्यक्ष शंकर सिंह वाघेला और जनता दल के अध्यक्ष चिमनभाई पटेल के पास भेजी. बीजेपी बाबूभाई के नाम पर सहमत थी. चिमनभाई ने जब यह ख़त पढ़ा तो जवाब दिया कि वो सूबे में सबसे बड़ी पार्टी के मुखिया हैं. ऐसे में किसी दूसरे दल के पास सरकार बनाने के लिए समर्थन मांगने का नैतिक आधार नहीं है.
शंकर सिंह वाघेला उस समय गुजरात में बीजेपी के अध्यक्ष हुआ करते थे
शंकर सिंह वाघेला उस समय गुजरात में बीजेपी के अध्यक्ष हुआ करते थे.

इसके बाद चिमनभाई शंकर सिंह वाघेला से मिले थे. बीजेपी से समर्थन लेने में एक दिक्कत थी. चुनाव प्रचार के दौरान बीजेपी के वरिष्ठ नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें 'दुर्योधन' कहा था. यह भाषण चुनाव के दौरान काफी चर्चा में रहा था. ऐसे में बीजेपी और चिमनभाई दोनों के लिए एक-दूसरे का समर्थन करना असहज करने वाली स्थिति थी. राजनीतिक चिन्तक प्रकाश जे. शाह चिमनभाई के बारे में एक मार्के की बात कहते हैं कि चिमनभाई की राजनीति किसी विचारधारा नहीं, बल्कि खुद को सत्ता में बनाए रखने पर टिकी हुई थी.
चिमनभाई और शंकर सिंह वाघेला की मीटिंग में तय हुआ कि बीजेपी जनता दल को समर्थन देने के लिए तैयार है. बदले में केशूभाई पटेल बतौर उप मुख्यमंत्री चिमनभाई के साथ शपथ लेंगे. बीजेपी की तरफ से केशूभाई पटेल का नाम आगे बढ़ाए जाने की एक वजह पटेल समाज में अपनी पैठ मजबूत करना भी था. दरअसल 1980 से 1990 तक, पूरे एक दशक पटेल बिरादरी गुजरात की सियासत में अप्रासंगिक बनी रही. वजह थी माधव सिंह सोलंकी का 'खाम' समीकरण. खाम माने क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी और मुस्लिम. इस समीकरण में पटेल कहीं भी फिट नहीं बैठते थे. 1985 में जब माधव सिंह सोलंकी फिर से जीत कर आए, उन्होंने नए मंत्रिमंडल में पटेल समाज के एक भी नेता को जगह नहीं दी थी. चिमनभाई को इस प्रस्ताव से कोई दिक्कत नहीं थी. वो खुद भी इसी बिरादरी से आते थे. यह पाटीदारों की वफ़ादारी हासिल करने के लिहाज से अच्छा समझौता था. इस तरह वो 16 साल बाद एक बार फिर से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर थे.
जनता दल और बीजेपी के गठबंधन वाली इस सरकार में केशुभाई उप-मुख्यमंत्री थे
जनता दल और बीजेपी के गठबंधन वाली इस सरकार में केशुभाई उप-मुख्यमंत्री थे.

क्यों चिमनभाई राजनीति में उलटबांसी करने वाले आदमी कहे जाते हैं
चिमनभाई किसी राजनीतिक परिवार की विरासत को लेकर यहां तक नहीं पहुंचे थे. वो किसान के लड़के थे. उन्होंने यह मुकाम हासिल करने के लिए चप्पल घिसी थीं. चिमनभाई की पैदाइश 3 जून 1929 की है. उनका गांव चिकोद्रा वड़ोदरा की शंखेडा तहसील में पड़ता है. वो अपने कॉलेज के दिनों में छात्र राजनीति में उतर गए. 1950 में वो वड़ोदरा की 'महाराजा सयाजीराव यूनिवर्सिटी' के प्रेसिडेंट चुने गए. यहां से उनके राजनीतिक सफ़र की शुरुआत हुई. 1967 में उन्हें शंखेडा से कांग्रेस का टिकट मिला. वो जीत गए और हितेंद्र देसाई की सरकार में मंत्री बनाए गए. इसके बाद घनश्याम ओझा की सरकार में मंत्री रहे. चिमन पटेल के सियासी करियर में बुरा दौर आया 1974 के बाद. कांग्रेस छोड़कर उन्होंने नई पार्टी बनाई. लेकिन बात बनी नहीं. इसके बाद वो जनता पार्टी के विभिन्न धड़ों की यात्रा करते हुए जनता दल में पहुंचे. अंत में इसी पार्टी के बैनर पर मुख्यमंत्री बने.
चिमनभाई पटेल सियासत में उलटबांसी को अंजाम देने वाले शख्स थे. जिन चिमनभाई के खिलाफ 1974 में भ्रष्ट्राचार विरोधी नव निर्माण आंदोलन खड़ा हुआ था वो 1974 में कांग्रेस से अलग हुए. अपनी नई पार्टी बनाई "किसान मजदूर लोक पक्ष".  हालांकि उन पर भ्रष्ट्राचार करके गुजरात के कुछ पूंजीपतियों को फायदा पहुंचाने के आरोप थे. 1975 में अपने खिलाफ खड़े हुए नव निर्माण आंदोलन की राजनीतिक विरासत जनता पार्टी के साथ वो गठबंधन कर चुके थे.  1977 में आपातकाल खत्म होने के बाद वो गुजरात में जनता पार्टी के झंडाबरदार बन चुके थे. वहां से जनता दल में गए. 1990 में जनता दल के मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ली. 1991 तक कांग्रेस में जा चुके थे. वो पाला बदलने और बदलवाने के गुर में माहिर थे. उनकी इस प्रतिभा का प्रभाव आज भी सूबे की सियासत पर देखा जा सकता है.
वीपी सिंह ने गोल तो किया लेकिन अपना पैर तोड़ लिया
साल 1990. मंडल कमीशन की 10 साल पहले आई रिपोर्ट सियासी गलियारों में ऐसी खतरनाक चीज थी जिसे कोई हाथ नहीं लगाना चाहता था. "संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़ा पाए सौ में साठ" - विश्वनाथ प्रताप सिंह इस नारे को सड़कों पर बुलंद करते हुए सत्ता के सबसे ताकतवर गलियारे में पहुंचे थे. उन्होंने अगस्त महीने में तमाम विरोधों को दरकिनार करते हुए मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू कर दिया. देश के कई शिक्षण संस्थानों में हिंसक प्रदर्शन शुरू हो गए. खुद वीपी सिंह के शब्दों में उन्होंने "गोल तो किया, लेकिन इस चक्कर में अपना पैर तोड़ लिया."
वीपी सिंह, आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेयी
अटल बिहारी वाजपेयी, वीपी सिंह और लालकृष्ण आडवाणी.

इसके एक महीने बाद 25 सितंबर के रोज गुजरात के सोमनाथ से अयोध्या के लिए रथ यात्रा की शुरुआत हुई. 'मंदिर वहीं बनाएंगे' का नारा लगाते हुए लालकृष्ण आडवाणी, एक एयर कंडीशन टोयोटा पर सवार थे. इसे रथ की शक्ल में ढाला गया था. बीजेपी राम जन्मभूमि आंदोलन को आने वाले चुनाव में अपना मुख्य मुद्दा बनाने जा रही थी.
1989 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस 197 सीट पर सिमट गई थी. वीपी सिंह के नेतृत्व वाला जनता दल 143 सीटों के साथ दूसरा सबसे बड़ा दल था. बीजेपी 85 सीटों के साथ तीसरी सबसे बड़ी पार्टी थी. वाम मोर्चे की चारों पार्टियों को मिलाकर मिली थी 52 सीट. कांग्रेस के विरोध में लेफ्ट और बीजेपी के समर्थन से जनता दल ने सरकार बनाई. प्रधानमंत्री बने विश्वनाथ प्रताप सिंह.
आडवाणी ने अरेस्ट होने से पहले कुछ मिनट मांगकर क्या किया
मंडल कमीशन के बाद शुरू हुए हिंसक प्रदर्शन के चलते वीपी सिंह सरकार पहले से ही सांसत में थी. ऊपर से रथ यात्रा ने चीजों को और कठिन बना दिया. वीपी सिंह की तरफ से बीजेपी और संघ परिवार के नेताओं की काफी समझाइश की गई. बीजेपी जन्मभूमि के मुद्दे से पीछे हटने के लिए तैयार नहीं थी.
18 अक्टूबर को लालकृष्ण आडवाणी वीपी सिंह से मुलाकात के बाद राजधानी एक्सप्रेस से धनबाद के लिए रवाना हुए. 20 तारीख से धनबाद से रथ यात्रा को फिर से शुरू होना था. 22 तारीख को गया होते हुए वो पटना पहुंचे. यहां उन्होंने गांधी मैदान में अपने समर्थकों को संबोधित किया और रात्रि विश्राम के लिए समस्तीपुर के सरकारी गेस्ट हाउस के लिए रवाना हो गए. इसी रात प्राइम टाइम के वक़्त वीपी सिंह ने अॉल इंडिया रेडियो और दूरदर्शन पर बतौर प्रधानमंत्री राष्ट्र को संबोधित किया. उन्होंने अपने भाषण में साफ़ किया कि अब रथ यात्रा को आगे नहीं बढ़ने दिया जाएगा.
सोमनाथ से रवाना होती आडवाणी की रथ यात्रा
सोमनाथ से रवाना होती आडवाणी की रथ यात्रा.

23 तारीख की अल सुबह समस्तीपुर के मजिस्ट्रेट ने खुद को गेस्ट हाउस के उस कमरे में पाया, जहां आडवाणी रुके हुए थे. उनके हाथ में गिरफ्तारी का वारंट था. आडवाणी रथ यात्रा के इस संभावित परिणाम से वाकिफ थे. उन्होंने वारंट पढ़ा और एक ख़त लिखने लिए कुछ मिनट का वक़्त मांगा. उन्होंने राष्ट्रपति वेंकटरमण के नाम ख़त लिखा और मजिस्ट्रेट के साथ रवाना हो गए. इस ख़त में बीजेपी की तरफ से समर्थन वापस लेने की घोषणा की गई थी.
चिमन अपना गोलपोस्ट बचाने में कैसे कामयाब रहे
केंद्र में जनता दल और बीजेपी के बीच का गठबंधन टूट गया था. उनकी सरकार भी उसी फॉर्मूले पर चल रही थी, जिस पर केंद्र में वीपी सिंह की सरकार चल रही थी. बीजेपी के 67 विधायकों के समर्थन के बिना वो सरकार नहीं चला सकते थे. 23 अक्टूबर को ही जनता दल के राष्ट्रीय सचिव एस. आर. बोमई ने चिमनभाई को निर्देश दे दिए थे कि कैबिनेट में मौजूद सभी भारतीय जनता पार्टी के मंत्रियों के इस्तीफे ले लिए जाएं. इसका मतलब था सरकार का गिर जाना. 25 अक्टूबर को गुजरात में जनता दल और बीजेपी का गठबंधन आखिरकार टूट गया. लेकिन चिमनभाई इतनी आसानी से बाजी जाने देने वालों में से नहीं थे.
चिमनभाई, अजीत सिंह और चंद्रशेखर (बाएं से दाएं). पीछे खड़े हैं यशवंत सिंहा
चिमनभाई, अजीत सिंह और चंद्रशेखर (बाएं से दाएं). पीछे खड़े हैं यशवंत सिन्हा.

इस बीच केंद्र में जनता दल में चन्द्रशेखर के नेतृत्व वाले धड़े और राजीव गांधी के बीच सरकार बनाने पर बातचीत शुरू हुई. चिमनभाई गुजरात में जनता दल के सर्वेसर्वा थे. उन्होंने जनता दल से ही नया दल बनाया जनता दल (गुजरात). उन्होंने अपने पुराने संपर्कों में फिर से चाबी भरनी शुरू की. महज आठ दिन में चिमनभाई के पास बहुमत मौजूद था.
चंद्रशेखर के साथ कांग्रेस की बात अभी चल ही रही थी और चिमनभाई कांग्रेस के साथ गठबंधन कर चुके थे. जनता पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व को इस गठबंधन से कोई एतराज नहीं था. बदले में चिमनभाई ने चंद्रशेखर को गुजरात के तीन सांसदों का समर्थन लेकर दिया था.
कांग्रेस के 33 विधायकों की मदद से उन्होंने 1 नवंबर को विधानसभा में अपना बहुमत फिर से साबित कर दिया. चिमनभाई अपना गोलपोस्ट बचाने में कामयाब रहे थे.
अंत में - लौट कर उल्लू घर को आए
1990 के अंत तक चंद्रशेखर और राजीव गांधी के बीच दूरियां बढ़ने लगीं. 6 मार्च 1991 को इसी अविश्वास के चलते चंद्रशेखर ने नाटकीय तरीके से अपना इस्तीफ़ा राष्ट्रपति को सौंप दिया. केंद्र में जनता दल और कांग्रेस का गठबंधन टूट गया. चिमनभाई पटेल की कुर्सी फिर से खतरे में आ गई.
राजीव गांधी, चिमनभाई और पी. चिदंबरम
राजीव गांधी, चिमनभाई और पी. चिदंबरम

चिमनभाई के राजीव गांधी से अच्छे संबंध थे. इन संबंधों को ढाल बनाते हुए चिमनभाई अपने 66 विधायकों के साथ कांग्रेस में शामिल हो गए. कांग्रेस का स्थानीय नेतृत्व चिमनभाई के पार्टी ज्वाइन करने का विरोध करता रहा लेकिन राजीव गांधी के आगे किसी की नहीं चली. उस समय की राजनीतिक स्थिति यह थी कि कांग्रेस में चिमनभाई के सभी संभावित प्रतिद्वंदी हाशिए पर थे. माधव सिंह सोलंकी बोफोर्स मामले में घिरे हुए थे. अमर सिंह चौधरी विधानसभा चुनाव हार गए थे और आने वाले उप-चुनाव में टिकट के लिए संघर्ष कर रहे थे. ओल्ड गार्ड्स का हिस्सा रहे हितेंद्र देसाई बूढ़े और अप्रासंगिक हो गए थे.
कांग्रेस के स्थानीय नेतृत्व को चिमनभाई की वजह से जो डर था वो सही साबित हुआ. 1991 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की 26 सीटों में से 20 बीजेपी के खाते में गई. कांग्रेस को महज 5 सीटों से संतोष करना पड़ा.
फिर से कांग्रेस ज्वाइन करते वक़्त चिमनभाई पटेल ने पत्रकारों को संबोधित करते हुए कहा था, "मैं किसी भी हाल में अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा करूंगा." तमाम उठा-पटक के बावजूद वो ऐसा नहीं कर पाए. 17 फरवरी 1994 को अपने मुख्यमंत्री कार्यकाल के खत्म होने से लगभग एल साल पहले यह दुनिया छोड़ कर चले गए.

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