प्रयागराज के आदर्श नगर में एक जर्जर मज़ार है, छप्पन छुरी की मज़ार. ख़ूबसूरत महिला थीं. आवाज़ इतनी मधुर कि ब्रिटेन के तत्कालीन किंग जॉर्ज पंचम तक मुरीद थे. रीवा के महाराज ने तो दरबार में जगह देने की पेशकश कर दी थी. उस महिला ने तवायफ के दर्जे को ललकारकर संगीत की दुनिया में कदम रखा था. मशविरा भी लेती थी तो किससे? वो जिसके तंज की धार ने हुक्मरानों के पैरों तले ज़मीन हिला दी थी. दोनों इसी मिट्टी में जन्मे और ख़ुद के नाम में पूरे शहर को जोड़ लिया. आज अपनी-अपनी मज़ारों में सो रहे हैं, मगर कहानियां ज़िंदा हैं.
'छप्पन छुरी': प्रयागराज की वो मशहूर तवायफ, ब्रिटेन के किंग भी जिसकी गायकी के कायल थे
'छप्पन छुरी' की आवाज 2 दशक तक ग्रामोफोन पर राज करती रही. उन्हें पहली रिकॉर्डिंग के 250 रुपये मिले. आगे चलकर ये फीस 5 हजार तक पहुंच गई.

प्रयागराज के आदर्श नगर मोहल्ले में एक कब्रिस्तान है, कालाडांडा कब्रिस्तान. अंदर एक जर्जर सी मजार है जहां एक औरत 91 साल से सो रही है. इस खंडहर को ‘छप्पन छुरी’ की मजार कहा जाता है. छप्पन छुरी. कैसी होगी वो? मोहक, घातक या दिल चीर देने वाली सुंदर महिला. कम से कम उसके नाम पर गढ़े गए मुहावरे का मतलब तो यही होता है. खैर ये तो शब्दों का मायाजाल है. वो इनमें से कुछ भी नहीं थी. बस एक औरत थी, जिसने अपने शरीर पर हमला झेला था. 56 जख्म मिले तो नाम पड़ा छप्पन छुरी.
ये 56 जख्म उसे किसने दिए और कैसे? वो आगे चलकर हिंदुस्तानी म्यूजिक के रुपहले पर्दे पर कैसे छाई? इसके लिए संगम से 136 किलोमीटर दूर वाराणसी चलते हैं जहां जानकी बाई उर्फ छप्पन छुरी का जन्म हुआ. जानकी के पिता पेशे से पहलवान थे. उन्होंने अपनी पत्नी को छोड़कर दूसरी औरत के साथ घर बसा लिया. मजबूरन मां-बेटी ने घर छोड़ दिया और पहुंच गईं इलाहाबाद यानी आज के प्रयागराज में. नए शहर में कदम रखा ही था कि दोनों को एक कोठे के मालिक को बेच दिया गया.
बाद में मालिक की मौत होने पर जानकी की मां उस कोठे की हुजूर बन गईं. यानी की कोठा उन्हीं की देखरेख में था. वो अपनी बेटी को तवायफ से कुछ ज्यादा बनाना चाहती थीं. उन्होंने जानकी को लखनऊ के मशहूर हसू खान से संगीत की तालीम दिलाई. यही लड़की बड़ी हो कर मशहूर गायिका और तवायफ बनती है जिसकी दोस्ती कलकत्ता की मशहूर गौहर जान से भी थी.

1911 में किंग जॉर्ज पंचम जब इलाहाबाद आए तो जानकी बाई और गौहर जान ने एक साथ उनके सामने गाना गया. किंग जॉर्ज ने तब उन्हें 100 गिनी भेंट की थी. लेकिन जानकी के जीवन का एक काला अध्याय भी है जिसने उन्हें जिंदगी भर पर्दे में गाने को मजबूर कर दिया. इस कहानी का जिक्र लेखिका नीलम सरन गौर की किताब Requiem in Raga Janki में मिलता है. जानकी बाई इलाहाबादी उर्फ छप्पन छुरी के वास्तविक जीवन की कहानी से प्रेरित होकर, नीलम सरन गौर ने ये कहानी गढ़ी है.
कहानी ये है कि एक दिन जानकी महफिल में ‘जमुना तट श्याम खेलें होरी’ गा रही थी. सुनने वालों का मजमा लगा था. इसी बीच एक आदमी आता है. न बहुत बूढ़ा न बहुत जवान ये आदमी रमानंद दुबे, अंग्रेजों का सैनिक था. पान, इत्र और जाम का मज़ा लेते हुए वो तकिए सहारे बैठकर गाना सुन रहा था. जानकी उस समय यही कुछ 8 साल की रही होंगी. उस दिन रामानंद, जानकी से पहली बार मुखातिब हुआ था. वो जानकी की आवाज से इतना प्रभावित हुआ कि नोटों को उसके सिर के चारों ओर घुमाकर पास रखी चांदी की नक्काशीदार थाली में डाल दी. वो जानकी की मां के पास गया और बोला कि इसकी नथ उतराई नहीं हुई है लेकिन जब होगी मैं ही उसका नथ बाबू बनूंगा.
नथ उतराई, तवायफ़ बनने की एक रस्म थी. यह रस्म कोठे में रहने वाली लड़की के लिए बहुत अहम थी. इस रस्म में लड़की को दुल्हन की तरह सजाया जाता था और नाक के बाईं तरफ़ एक बड़ी नथ पहनाई जाती थी. यह नथ उसके कौमार्य का प्रतीक थी. इस रस्म के बाद लड़की कभी नथ नहीं पहनती थी.
जानकी की मां को ये नागवार था. उन्होंने शुरुआत में लाख समझाया कि वो कलाकार है लेकिन सिपाही उसकी बात मानने को तैयार नहीं था. बार-बार एक ही रट लगाने पर जानकी की मां तिलमिला उठीं. उन्होंने अपनी बेटी को एक शीशा लेकर सिपाही के सामने खड़े होने को कह दिया. खुद जानकी को समझ नहीं आ रहा था कि उसके साथ हो क्या रहा है? वो शीशा लेकर उसके सामने खड़ी हो गई. जिसमें सिपाही का चेहरा दिख रहा था. जानकी की मां ने उससे बोला मेरे साथ दोहराओ जानकी ,
बाबू साहब, मैंने अंग्रेज़ लाट साहब के सामने बनारस के राजा की कोठी में शगुन-नेक किया है. मैं बनारस की वो मशहूर सुंदरी हूं, जिसे देखने दूर-दूर से लोग आते हैं. मैं ग्वालियर और लखनऊ के मशहूर हसू खान साहब और बनारस के कोयडल महाराज की शिष्या हूं, मैं संगीत की दुनिया की महारानी बनने जा रही हूं. लेकिन तुम, सिपहिया, तुम क्या हो? अपने चेहरे को देखो और बताओ. तुम तो बस पुलिस फौज के एक मामूली जमादार हो!
इतना सब कुछ सुनकर वो सिपाही रामानंद दुबे इतना झल्लाया कि उसने जानकी के उसी चेहरों को बर्बाद करने की कसम खा ली. वो वहां से उस समय तो चला गया लेकिन दोबारा लौटा इस बार उसकी हाथ में तलवार थी और सामने जनकी. उसने जानकी पर इतने वार किए कि पूरा चेहरा बर्बाद हो गया. वो किसी तरह जिंदा तो बच गई लेकिन शरीर पर 56 जख्म रह गए. इसके बाद जानकी बाई अक्सर पर्दे के पीछे से गाने लगीं. इस घटना के बाद उन्हें लोग छप्पन छुरी नाम से पुकारते थे.
पर्दा हटाने से मना कियाएक बार जानकी को मध्य भारत की रीवा रियासत के दरबार के दशहरा समारोह में गाने के लिए बुलाया गया. रीवा दरबार में जानकी बाई ने एक पर्दे के पीछे से गाना गया. महाराजा उनकी गायकी से इतने मोहित हो गए कि पर्दा हटाकर कलाकार को सूरत दिखाने का आदेश दिया. लेकिन जानकी ने साफ मना कर दिया. ये कहते हुए कि,
महफ़िल में सूरत की नहीं, सीरत की फ़तेह होती है
रीवा के महाराज ने खुश होकर जानकी बाई को दरबार में जगह देने की भी बात कही लेकिन जानकी ने इस बात से भी इंकार कर दिया क्योंकि उनकी आत्मा इलाहाबाद में बसती थी. वो अपना पूरा नाम ‘जानकी बाई इलाहाबादी’ बताती थीं और अपने गानों के अंत में पूरा नाम लेना नहीं भूलती थीं. जानकी वो पहली भारतीय महिला थीं जिनकी आवाज़ ग्रामोफोन पर रिकॉर्ड की गई. इतिहासकार और लेखक विक्रम संपत अपने लेख में बताते हैं,
मार्च 1907 में जानकी ने दिल्ली में अपनी पहली रिकॉर्डिंग की. कुछ लोगों का कहना है कि उनकी आवाज को फ्रेडरिक विलियम गैस्बर्ग ने अपनी पहली यात्रा के दौरान रिकॉर्ड किया था, लेकिन वे रिकॉर्ड नष्ट हो गए या खो गए.
बहरहाल, जानकी की आवाज 2 दशक तक ग्रामोफोन पर राज करती रही. उन्हें पहली रिकॉर्डिंग के 250 रुपये मिले. आगे चलकर ये फीस 5 हजार तक पहुंच गई. जानकी को फ़ारसी, उर्दू, संस्कृत और अंग्रेज़ी भाषाओं का इल्म था. उन्होंने कई ग़ज़लें भी लिखी. 'दीवान-ए-जानकी' नाम से उनका कलाम प्रकाशित भी हुआ. 18 मई 1934 को उनकी मौत हो गई. जानकी इकलौती नहीं थीं जो अपने नाम में पूरे इलाहाबाद शहर को साथ लेकर चलती थीं. एक शख्स और थे, मशहूर शायर अकबर इलाहाबादी.

जानकी बाई कुछ भी लिखती तो अकबर से राय मशविरा इस्लाह जरूर लेती थीं. अकबर 1846 में पैदा हुए थे यानी महात्मा गांधी से 23 साल और अल्लामा इक़बाल से 31 साल पहले. सारे जहां से अच्छा, हिंदोस्तां हमारा लिखने वाले अल्लामा से भी एक बार अकबर की जुगलबंदी हो गई. कैसे? 1904 में, जब अल्लामा इक़बाल लाहौर के गवर्नमेंट कॉलेज में पढ़ा रहे थे, उसी समय स्वतंत्रता सेनानी लाला हरदयाल वहां से एम.ए. की पढ़ाई कर रहे थे.

लाला हरदयाल उस समय यंग मेंस क्रिश्चियन एसोसिएशन के मेंबर थे लेकिन उन्होंने महसूस किया कि भारतीयों को एक स्वतंत्र राष्ट्रीय संगठन की ज़रूरत है. उन्होंने यंग मेंस इंडियन एसोसिएशन की स्थापना की, जिसका उद्देश्य भारतीय युवाओं में देशभक्ति की भावना जगाना था. इसी कड़ी में, लाला हरदयाल ने इक़बाल को YMIA की उद्घाटन बैठक की अध्यक्षता करने के लिए बुलाया. इक़बाल ने कुछ घंटों के भीतर ही ‘सारे जहां से अच्छा, हिंदोस्तां हमारा’ लिख दिया, जिसे उन्होंने उसी बैठक में सुनाया. ये गीत इतना लोकप्रिय हुआ कि जल्द ही ‘इत्तेहाद’ पत्रिका में छप गया और पूरे देश में गूंजने लगी. उसी कॉलेज में अकबर इलाहाबादी भी थे . इक़बाल से सीनियर थे. अब अकबर इलाहाबादी अपने व्यंगों के लिए जाने जाते थे. उन्होंने ‘सारे जहाँ से अच्छा’ का उत्तर एक शेर में दिया. उन्होंने लिखा:
कॉलेज में हो चुका जब इम्तिहान हमारा,
सीखा ज़बान ने कहना हिंदोस्तां हमारा!
अकबर इलाहाबादी ने इस शेर से तर्क दिया कि राष्ट्रवाद और देशभक्ति को समझने के लिए केवल शिक्षा और अनुभव ही असली माध्यम है. उन्होंने ये भी कहा कि भौगोलिक सीमाओं का कोई मतलब नहीं है. ये पूरी पृथ्वी ईश्वर की देन है. इसी विचार को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने लिखा
हिंदुस्तान कैसा, सारा जहान हमारा,
लेकिन ये सब गलत है, कहना यही है लाज़िम!
अकबर इलाहाबादी का मानना था कि पूरी दुनिया ईश्वर की बनाई हुई है, और सिर्फ किसी सीमित जमीन को अपना कहना सीमित सोच का प्रतीक है. इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के हिस्ट्री प्रोफेसर Heramb Chaturvedi बताते हैं कि,
अकबर इलाहाबादी ने कंस्ट्रक्शन साइट पर हिसाब मुंशी के तौर पर काम शुरू किया. यहां से वो RMS गए फिर कचहरी में गए और फिर प्रैक्टिस शुरू की. वो हाई कोर्ट तक जाने वाले थे. एक इंग्लिश जस्टिस के रिटायर होने के बाद उन्हें मौका मिला कि वो जज बने. लेकिन अकबर ने मना कर दिया. उन्हें रिलीव चाहिए था क्योंकि उनकी आंखों की रोशनी कम हो चुकी थी.
अकबर की फिलॉसफी को आप इस शेर से समझिए.
हम क्या कहें अहबाब क्या कार-ए-नुमायां कर गए
बी-ए हुए नौकर हुए पेंशन मिली फिर मर गए
एक ही जिंदगी मिलती है और उसे किसी एक काम में सीमित नहीं रखने वाले शायर अकबर इलाहाबादी हरफनमौला थे. मुस्लिम लीग के नेता अल्लामा इक़बाल ने 1930 के अपने भाषण में भारत के मुसलमानों के लिए एक अलग देश की बात की थी. इस समय तक मुस्लिम लीग में विभाजन को लेकर साफ रुख नहीं था. 23 मार्च 1940 को मुस्लिम लीग ने लाहौर में एक प्रस्ताव पास किया, जिसमें मुसलमानों के लिए एक अलग राष्ट्र (पाकिस्तान) की मांग की गई.

यहीं से कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच टकराव और गहरा हो गया. हिंदू-मुस्लिम तनाव चरम पर था और अंग्रेज़ अपनी ‘फूट डालो और राज करो’ नीति में मसरुफ थे. इस समय अकबर इलाहाबादी हिंदू-मुस्लिम एकता पैरवी कर रहे थे. उनके विचारों को लेकर कई नेताओं ने तंज कसा और कहा कि शायद हिंदुओं ने उन्हें शराब पिला दी है, तभी वह ऐसी बातें कर रहे हैं. अब अकबर ठहरे कमाल के व्यंगकार तो उन्होंने भी तानों का जवाब देते हुए गजल लिख दी. क्या थी ये ग़ज़ल?
हंगामा है क्यों बरपा,
थोड़ी सी जो पी ली है।
डाका तो नहीं डाला,
चोरी तो नहीं की है।।
माने आख़िर इतना हंगामा क्यों मचा रखा है, अगर मैंने थोड़ी शराब पी भी ली है? मैंने किसी को लूटा नहीं, कोई चोरी तो नहीं की! 1990 में इस गजल पर एक एल्बम भी बनी जिसे मेहदी हसन ने गाया था.
अकबर इलाहाबादी के तंज भरे और भी किस्से है. एक तो मोतीलाल नेहरू से जुड़ा है. ये उन दिनों की बात है जब उत्तर-पश्चिमी प्रांत (NWP) के तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर विलियम मुइर ने सर सैय्यद को अलीगढ़ से इलाहाबाद बुलाया. प्रोफेसर Heramb Chaturvedi बताते हैं,
लाट साहब को सर सैय्यद से मशविरा लेने में मुश्किल होती थी. चूंकि खान अलीगढ़ में रहते थे उनके पास लंबी यात्राओं के लिए इलाहाबाद में ठहरने की जगह नहीं थी. मुइर ने सुझाव दिया कि खान इलाहाबाद में भी एक घर बनाए रखें, जहां वे ऐसी आधिकारिक यात्राओं के दौरान रुक सकें. जमीन दी गई. नया घर बनाया गया. नाम दिया गया महमूद मंजिल.
बाद में इस बिल्डिंग को शाहजहांपुर के न्यायाधीश राय बहादुर परमानंद पाठक को बेच दिया गया फिर इसे खरीद लिया मोतीलाल नेहरू ने. घर को रिनोवेशन की जरूरत थी. मोतीलाल ने यूरोप की यात्रा के दौरान फर्नीचर और चीनी मिट्टी के बर्तन खरीदे. घर की काया पलटी और हवेली में बदल दिया. लेफ्टिनेंट गवर्नर विलियम मुइर ने सोचा था कि इलाहाबाद के सिविल लाइन्स में ये महलनुमा घर भारत में ब्रिटिश साम्राज्य को एक साथ जोड़े रखने वाला सीमेंट बन जाएगा. बाद में ये भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का उद्गम स्थल बन गया, जिसका उद्देश्य भारत में ब्रिटिश शासन को नष्ट करना था. इस पर अकबर इलाहाबादी कहते हैं,
कौम के गम में डिनर खाते हुक्काम के साथ
रंज लीडर को बहुत है लेकिन आराम के साथ
अकबर इलाहाबादी का तरीका ही यही था. उनके तंज कभी चुभने वाले होते तो कभी सुनकर हंसी छूट जाती. इलाहाबाद में जब Crosthwaite Girls College, Mary wanamaker, Indian Girls School की नींव रखी जा रही थी तब लड़कियां स्कूल जाने लगी थीं. इस पर वो लिखते हैं कि,
न हिलमिल है न पनिया कवामूल है
एक ननदिया थी वो भी दाखिले स्कूल है
इलाहाबाद अब प्रयागराज हो चुका है. शहर में अकबर की यादों को संजोए हुए बस दो ही निशां बाकी हैं, उनकी रानी मंडी वाली कोठी ‘इशरत मंजिल’ जिसमें अब यादगारे हुसैनी इंटर कॉलेज है और दूसरा उनकी मजार, जो काला डांडा कब्रिस्तान में हैं. वहीं जानकी बाई का शुरू किया गया धर्मार्थ ट्रस्ट आज भी मौजूद है. शहर के नाम बदल जाते हैं, गलियां नई बन जाती हैं, लेकिन कुछ कहानियां हवा में तैरती रहती हैं. किसी पुराने ग्रामोफोन की टूटी सुई की तरह, किसी जर्जर मजार के सूनेपन की तरह. वो दोनों अब इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन जब भी इतिहास को पलटते हैं तो कहीं दूर कोई ग़ज़ल गा रहा होता है, कोई तंज़ कसता दिखता है.
वीडियो: PM Modi ने Mallikarjun Kharge पर क्या कहा जो पूरा सदन हंस पड़ा?