पूर्व-प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह (Chaudhary Charan Singh) के लिए भारत रत्न की घोषणा की गई है. चरण सिंह को भारत के बड़े किसान नेताओं में गिना जाता है. वो भारत के पांचवें प्रधानमंत्री रहे. दो बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और एक बार 170 दिनों के लिए भारत के प्रधानमंत्री रहे. पिछले कई सालों से राष्ट्रीय लोकदल (RLD) की तरफ से ऐसी मांग उठाई जा रही थी. इस बीच भाजपा और RLD के बीच गठबंधन की भी खबरें आई थीं.
कहानी चौधरी चरण सिंह की...जिन्हें भारत रत्न मिलते ही NDA में शामिल हो गए जयंत चौधरी
इधर मोदी सरकार ने पूर्व प्रधानमंत्री Chaudhary Charan Singh को भारत रत्न देने की घोषणा की और उधर RLD प्रमुख Jayant Chaudhary ने कहा- दिल जीत लिया. इसके कुछ ही देर बाद रालोद ने एनडीए में शामिल होने का एलान कर दिया.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) ने चौधरी चरण सिंह के लिए भारत रत्न की घोषणा करते हुए एक X (ट्विटर) पोस्ट किया है. लिखा है,
"उन्होंने किसानों के अधिकार और उनके कल्याण के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया था."
इस पोस्ट को रिपोस्ट करते हुए राष्ट्रीय लोक दल के प्रमुख जयंत चौधरी ने लिखा - ‘दिल जीत लिया!’
इससे पहले 1 दिसंबर 2021 को लल्लनटॉप पर चौधरी चरण सिंह के जीवन पर एक विस्तृत कॉपी छपी थी. इसमें उनके जीवन और राजनीतिक यात्रा के बारे में अहम जानकारियां दी गई है. आपके लिए हम उसे एक बार फिर से यहां छाप रहे हैं.
Who is Chaudhary Charan Singh?साल 1942, अगस्त का महीना. महात्मा गांधी की अगुवाई में अंग्रेजों के खिलाफ़ अंतिम और निर्णायक आंदोलन चल रहा था. एक नौजवान नेता भूमिगत होकर मेरठ और उससे लगे शहरों में गुप्त क्रांतिकारी संगठनों का संचालन कर रहा था. ब्रितानिया हुकूमत की खिलाफ़त के चलते मेरठ प्रशासन ने उस नौजवान को देखते ही गोली मारने के आदेश दिए थे. पुलिस जगह-जगह ढूंढती, लेकिन जब तक कोई ख़बर मिलती ये क्रांतिकारी नेता सभाओं में भाषण देकर निकल जाता था. लेकिन आख़िरकार गिरफ़्तारी हो गई.
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हालांकि इसके पहले भी साल 1930 और 1940 में जेल जाना पड़ा था. लेकिन इस बार जेल से वापसी के बाद सियासत के कैनवास पर उस नेता की तस्वीर साफ़ उभर आई थी. 1937 में छपरौली विधानसभा की नुमाइंदगी से जो तस्वीर बनी थी, उससे भी साफ़.
हम बात कर रहे हैं आज़ादी के आंदोलन में सक्रिय भागीदारी और उसके बाद कांग्रेस पार्टी से अपना राजनीतिक सफ़र शुरू करने वाले चौधरी चरण सिंह की. वे दो बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और एक बार 170 दिन के लिए भारत के प्रधानमंत्री रहे.
आज चौधरी चरण सिंह की तीसरी पीढ़ी राजनीति में है. उनके पोते और अजीत सिंह के बेटे जयंत चौधरी अपने बाप-दादा की राजनीतिक विरासत संभाले हुए हैं. संभाले हुए हैं या कोशिश कर रहे हैं, ये आगे समझेंगे.
Jayant Chaudhary संभाल पाएंगे लेगेसी?चौधरी चरण सिंह ने जब कांग्रेस छोड़कर खुद की पार्टी बनाई तब उनकी पार्टी का नाम था– भारतीय क्रांति दल. आज उनके पोते जयंत सिंह जो पार्टी चला रहे हैं उसका नाम है 'राष्ट्रीय लोक दल' यानी रालोद (RLD). तब चुनाव निशान हल और किसान हुआ करता था, आज हैंडपंप है. उस दौर में पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश पर चौधरी साहब का प्रभाव था. क़रीब 150 सीटों पर, लेकिन समय के साथ ये प्रभाव कम होता गया.
Chaudhary Charan Singh की राजनीति?पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट राजनीति की धुरी रहे चौधरी परिवार का सफ़र बताएंगे. चौधरी चरण सिंह ने कब, किस पार्टी से हाथ मिलाया, कहां विलय किया, अजीत सिंह रालोद के साथ-साथ और किस पार्टी का अलम उठाए रहे और आज जयंत चौधरी किसका दामन थामने जा रहे हैं. सब विस्तार से बताएंगे.
लोकदल और राष्ट्रीय लोकदल कैसे अलग है? ये भी बताएंगे. चौधरी चरण सिंह का राजनीतिक सफर 1929 में कांग्रेस ज्वाइन करने के बाद चौधरी चरण सिंह पहली बार 1937 में छपरौली से उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए चुने गए. इसके बाद 1946, 1952, 1962 और 1967 में भी विधानसभा के लिए चुने गए. इस दौरान जून 1951 में स्टेट कैबिनेट मिनिस्टर बने. 1952 में डॉ. सम्पूर्णानन्द के मंत्रिमंडल में एग्रीकल्चर मिनिस्ट्री से लेकर 1966 तक चरण सिंह के पास कोई न कोई मंत्रालय बना रहा.
लोकदल की स्थापना1 अप्रैल 1967 को चरण सिंह ने कांग्रेस पार्टी छोड़कर ‘भारतीय क्रांति दल’ नाम से अपनी पार्टी बना ली. कांग्रेस के 16 विधायक भी साथ आ गए. चौधरी चरण सिंह ने इसी साल यानी 1967 में उत्तर प्रदेश में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार बनाई. राज नारायण और राम मनोहर लोहिया जैसे नेताओं के वरदहस्त थे और था जनसंघ और कम्युनिस्ट पार्टी का साथ. लेकिन ये सरकार ज्यादा टिकी नहीं. 3 अप्रैल 1967 को चरण सिंह ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी, लेकिन 17 अप्रैल 1968 को इस्तीफ़ा देना पड़ा. कांग्रेस की सरकार गिराकर खुद मुख्यमंत्री बने चौधरी चरण सिंह पार्टी के नेताओं को नहीं संभाल पाए. निजी स्वार्थों के टकराव के चलते ये सरकार भी गिर गई.
इसके बाद फरवरी 1970 में चरण सिंह दोबारा उत्तर-प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. इस बार कांग्रेस का सपोर्ट था. इसके बाद चरण सिंह ने दिल्ली की सियासत में कदम रखा. इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बन चुकी थीं. लेकिन देश में माहौल कांग्रेस के खिलाफ़ बन रहा था. 1975 में इंदिरा ने विवादित फैसला लिया. आपातकाल का फैसला. सैकड़ों नेता जेल में डाल दिए गए. 26 जून 1975 की रात चरण सिंह भी जेल में थे. इसके बाद पूरा विपक्ष लामबंद हो गया. आपातकाल का निर्णय कांग्रेस के लिए आत्मघाती साबित हुआ और 1977 के लोकसभा चुनाव में इंदिरा बुरी तरह हार गईं.
देश में पहली बार गैर-कांग्रेसी पार्टियों ने मिलकर जनता पार्टी की सरकार बनाई. इस चुनाव में जनता पार्टी का चुनाव निशान हलधर किसान ही था. वही जो भारतीय क्रांति दल का था. मोरार जी देसाई प्रधानमंत्री बने. चरण सिंह इस सरकार में उप-प्रधानमंत्री और गृहमंत्री रहे. लेकिन ज्यादा जोगी मठ उजाड़. जनता पार्टी में कलह हो गई. चरण सिंह और मोरारजी देसाई के बीच मतभेद हुए तो उन्होंने बगावत करते हुए जनता पार्टी भी छोड़ दी. मोरारजी की सरकार गिर गई या कहिए चरण सिंह ने गिरा दी थी.
लोक दल का गठन और चरण सिंह प्रधानमंत्री बनेजनता पार्टी से अलग होने के बाद चरण सिंह ने नई पार्टी बना ली. नाम था- लोकदल (लोकदल (Lokdal) और चुनाव निशान था- हल जोतता हुआ किसान. 28 जुलाई 1979 को कांग्रेस और दूसरे दलों के समर्थन से चौधरी चरण सिंह देश के पांचवे प्रधानमंत्री बने. लेकिन बहुमत साबित करने के लिए 20 अगस्त तक का वक़्त दिया गया था. इंदिरा ने 19 को समर्थन वापस ले लिया. ये सरकार भी गिर गई और संसद का बगैर एक दिन सामना किये चरण सिंह को इस्तीफ़ा देना पड़ा.
कहा जाता है कि चौधरी चरण सिंह अगर संसद तक पहुंचे होते तो आज किसानों की स्थिति कुछ और होती. इससे सहमत हों या न हों लेकिन ये तो सच है कि चरण सिंह का दर्जा किसानों के पहले राष्ट्रीय नेता का बन गया था. लोग चरण सिंह को किसानों का आंबेडकर कहने लगे थे.
1979 में जब चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री थे, उस दौर का एक किस्सा बड़ा चर्चित है. चरण सिंह अपने काफिले को दूर रोककर इटावा के उसराहार थाने पहुंच गए, मैले कुचैले कपडे पहनकर. दरोगा से बैल चोरी की रिपोर्ट लिखने को कहा तो दरोगा ने चलता कर दिया. एक सिपाही ने रिपोर्ट लिखवाने के 35 रुपए मांगे और जब पूछा कि बाबा अंगूठा लगाओगे या दस्तखत करोगे तो, बाबा ने अपनी प्राइममिनिस्टर ऑफ़ इंडिया की मोहर निकालकर लगा दी. थाने में हड़कंप मच गया और इसके बाद चौधरी चरण सिंह ने पूरे थाने को सस्पेंड कर दिया था.
साल 1987. 29 मई को चौधरी चरण सिंह ने आख़िरी सांस ली. और इसके साथ ही भारतीय लोक दल की राजनीतिक विरासत को लेकर घमासान शुरू हो गया.
लोकदल की टूट और राष्ट्रीय लोकदल का उद्भवलोकदल पार्टी 1987 में चौधरी चरण सिंह के देहांत तक ठीक-ठाक चलती रही. एक वक़्त तक देवी लाल, नीतीश कुमार, बीजू पटनायक, शरद यादव और मुलायम सिंह यादव इसी लोकदल के नेता हुआ करते थे. 1984 के लोकसभा चुनाव में जब भाजपा के सिर्फ दो सांसद थे तब लोकदल के चार सांसद होते थे. लेकिन चौधरी चरण सिंह के देहांत के बाद लोकदल पर कब्जे की लड़ाई छिड़ गई. कुछ दिनों तक हेमवती नंदन बहुगुणा इसके अध्यक्ष रहे. लेकिन पार्टी की विरासत की लड़ाई आख़िरकार चुनाव आयोग पहुंची. उस वक़्त पार्टी पर दावा करने वालों में खुद चौधरी चरण सिंह के बेटे अजीत सिंह भी शामिल थे. लेकिन चुनाव आयोग ने फैसला उनके खिलाफ़ सुनाया. चुनाव आयोग ने कहा कि अजीत सिंह, चरण सिंह की संपत्ति के वारिस तो हो सकते हैं, मगर पार्टी की विरासत उन्हें नहीं मिल सकती.
तब अजीत सिंह ने ‘राष्ट्रीय लोक दल’ नाम की अपनी अलग पार्टी बना ली जिसे आज उनके देहांत के बाद जयंत सिंह चला रहे हैं. इधर लंबी कानूनी लड़ाई के बाद असली 'लोकदल' की कमान अलीगढ़ के जाट नेता चौधरी राजेंद्र सिंह के हाथों में पहुंच गई. साफ़ है कि एक वक़्त चौधरी राजेंद्र सिंह इस पार्टी के कद्दावर नेता थे. सुनील सिंह उन्हीं राजेंद्र सिंह के बेटे हैं जो पिता के न रहने के बाद किसी तरह से लोकदल का नाम और चुनाव चिन्ह अपने पास बनाए हुए हैं. सुनील सिंह एक बार उत्तर प्रदेश के विधान परिषद सदस्य तो बने, लेकिन उसके बाद हर चुनाव हारे. चुनाव आयोग की लिस्ट देखेंगे तो लोकदल उत्तर प्रदेश की एक Unrecognized पार्टी के तौर पर दर्ज है.
साफ़ है कि असली लोकदल की नींव भले चौधरी चरण सिंह ने रखी हो, लेकिन आज जिस पार्टी के पास चौधरी चरण सिंह की राजनीतिक विरासत है उसका नाम राष्ट्रीय लोकदल है, जिसकी नींव अजीत सिंह ने रखी थी. अजीत सिंह का राजनीतिक सफर चौधरी चरण सिंह के आख़िरी के राजनीतिक दिनों में अजीत सिंह लोकदल के भी अध्यक्ष रहे थे. उस दौर से लेकर राष्ट्रीय लोक दल के गठन के बाद की राजनीति के दौरान अजीत सिंह ने कई बार दूसरे राजनीतिक दलों से गठबंधन किया. सियासी गठजोड़ का ये खेल कोई नई बात नहीं थी, ये गुर भी अजीत सिंह ने अपने पिता से सीखा था. ब्रीफ में समझते हैं.
जनता पार्टी में विलयसाल 1986 में पहली बार राज्यसभा सांसद बने अजीत सिंह, कुल सात बार लोकसभा सदस्य रहे. साल 1987 में अजीत सिंह ने लोक दल (अजीत) नाम से लोक दल का एक अलग गुट बना लिया. चौधरी अजीत सिंह इस नव निर्मित दल के अध्यक्ष बन गए. लेकिन अगले साल अजीत सिंह ने इस गुट का जनता पार्टी में विलय कर दिया. 87-88 में अजीत सिंह जनता पार्टी के अध्यक्ष भी रहे और जब जनता पार्टी, लोक दल और जन मोर्चा के विलय के साथ जनता दल बना तब चौधरी अजीत सिंह इसके महासचिव चुने गए. इसी दौरान विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार में अजीत सिंह दिसंबर 1989 से नवंबर 1990 तक केन्द्रीय उद्योग मंत्री भी रहे.
कांग्रेस का साथनब्बे के दशक में अजीत सिंह कांग्रेस के सदस्य बन गए. पी.वी. नरसिंह राव की सरकार में साल 1995-1996 तक अजीत खाद्य मंत्री भी रहे. 1996 में कांग्रेस के टिकट पर जीतने के बाद लोकसभा सदस्य बने. लेकिन एक साल के अन्दर ही लोकसभा और कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया.
भारतीय किसान कामगार पार्टी का गठनकांग्रेस से इस्तीफ़ा देने के बाद अगले उपचुनाव में अजीत सिंह किसान कामगार पार्टी के प्रत्याशी के तौर पर बागपत से चुनाव लड़े और जीते. लेकिन इसके बाद 1988 में अजीत सिंह लोकसभा चुनाव हार गए.
राष्ट्रीय लोकदल का निर्माण और भाजपा के साथ गठबंधन1999 में अजीत सिंह ने राष्ट्रीय लोकदल का गठन किया. चुनाव निशान था- हैंडपंप. जुलाई 2001 के आम चुनावों में अजीत सिंह की पार्टी रालोद ने भाजपा के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ा. अजीत सिंह चुनाव भी जीते और अटल सरकार में बतौर कैबिनेट मंत्री बने. 2003 तक कृषि मंत्री रहे.
भाजपा और बसपा से गठबंधन
अजीत सिंह ने अपनी पार्टी को भाजपा-बसपा गठबंधन में शामिल तो कर लिया, लेकिन जब 2003 में भाजपा और बसपा का साथ टूटा और उत्तर-प्रदेश में मायावती की सरकार गिरी, उसके पहले ही रालोद इस गठजोड़ से अलग हो चुकी थी. गठबंधन टूटने के चलते बसपा अपना कार्यकाल नहीं पूरा कर पाई.
सपा के साथ गठबंधन
मायावती गईं तो मौके पे चौका मारा मुलायम ने. सपा को रालोद का भी साथ मिला और जोड़-गांठ के मुलायम सिंह की सरकार बन गई. सरकार और रालोद की सपा के साथ जुगलबंदी 2007 तक चली.
2009 लोकसभा चुनाव में रालोद का भाजपा के साथ गठबंधन हुआ. अजीत सिंह ने 2009 के आम चुनावों में एनडीए के घटक के तौर पर चुनाव लड़ा और एक बार फिर सांसद बने.
लेकिन 2011 में रालोद ‘यूनाइटेड प्रोग्रेसिव एलाएंस’ यानी कांग्रेस की UPA सरकार में शामिल हो गई. और अजीत सिंह को दिसंबर 2011 में मंत्री बना दिया गया. मई 2014 तक अजीत सिंह मंत्री रहे.
2014 में अजीत सिंह को अपने राजनीतिक जीवन की दूसरी हार मिली. ये हार जाट वोटों का जनाधार खिसकने जैसी थी. बागपत के ही रहने वाले और जाट समाज से ही आने वाले सत्यपाल सिंह ने अजीत सिंह को चुनाव हराया. हार की वजह 2013 के जाट-मुस्लिम दंगों को बताया जाता है. जाटों का झुकाव बीजेपी की तरफ हो गया था. ये भी कहा जाता है कि अजीत सिंह इस चुनाव के पहले तक अकेले जाट नेता थे इसलिए चल रहे थे, वरना उनके अन्दर चौधरी चरण सिंह वाले गुण नहीं थे, मुसलमान छोड़िए, जाट भी उनसे बहुत खुश नहीं थे, लेकिन जाते कहां, चरण सिंह के नाम पर रालोद को वोट दे देते थे. और रालोद के 4-5 सांसद और 20-25 विधायक बन जाते थे, जिसके चलते अजीत सिंह को मंत्री पद मिल जाता था.
2019 में अजीत सिंह ने अपना आख़िरी चुनाव बागपत छोड़ मुजफ्फरनगर से लड़ा, बागपत से लड़ाया अपने बेटे जयंत को. लेकिन बागपत में जयंत, सत्यपाल सिंह से अपने पिता की हार का बदला नहीं ले पाए और करीब 23000 वोटों से हारे. इधर अजीत सिंह भी मुजफ्फरनगर में वापसी नहीं कर पाए और बीजेपी के संजीव बालियान के हाथों करीब 6000 वोटों से हार मिली.
इस साल 6 मई 2021 को अजीत सिंह का कोविड के चलते गुरुग्राम के एक प्राइवेट हॉस्पिटल में निधन हो गया. जयंत चौधरी की यूपी की सियासत में आमद हर चुनाव में रालोद के खाते में जितनी सीटें आई हैं उसके मुताबिक़ ये कहा जा सकता है कि अजीत सिंह के दौर में पार्टी कमज़ोर होती चली गई. अपने पिता की लेगेसी को अजीत सिंह संभाल नहीं पाए अब ज़िम्मेदारी अजीत के बेटे और राष्ट्रीय लोक दल के वर्तमान कर्ताधर्ता जयंत चौधरी के कंधों पर है.
पिता अजीत सिंह के निधन के बाद 25 मई को जयंत रालोद के अध्यक्ष बन गए थे. उत्तर प्रदेश की योगी सरकार पर जयंत लगातार हमलावर दिख रहे हैं. लखीमपुर हिंसा में जब किसानों की मौत हुई, उसके बाद जयंत बहुत एक्टिव दिखे, पुलिस से बचते-बचाते जयंत हिंसा में मारे गए किसानों में से एक लवप्रीत सिंह के घर भी पहुंचे. भाकियू नेता राकेश टिकैत के साथ की जयंत की तस्वीरें भी न्यूज़ मीडिया पर चलती रहीं.
इधर रालोद का सपा से गठबंधन लगभग तय हो चुका है, औपचारिक घोषणा होनी बाकी है, सीटों के बंटवारे पर बात पक्की होने को बची है. आज तक की एक खबर के मुताबिक़ जयंत चौधरी रालोद के लिए करीब 50 सीटें मांग रहे थे. लेकिन सपा 30 के आस-पास सीटों से आगे नहीं बढ़ रही थी. इधर लखनऊ में जयंत चौधरी अखिलेश यादव से मिले हैं, सूत्रों के मुताबिक़ अखिलेश RLD को 36 सीटें दे सकते हैं. खबर ये भी है कि कुछ सीटों पर सपा प्रत्याशी लड़ेंगें लेकिन सिंबल RLD का होगा. सीटों के अलावा रालोद ने जयंत चौधरी के लिए उप-मुख्यमंत्री पद भी मांगा है.
जहां तक चौधरी चरण सिंह की लिगेसी की बात है, 1987 में जब चरण सिंह की मौत हुई तब यूपी की विधानसभा में लोकदल के 84 विधायक थे. लेकिन आज यूपी में एक भी विधायक नहीं है. जयंत चौधरी सपा के साथ गठबंधन में 50 सीटें भी नहीं ले पा रहे हैं. बात सिर्फ सपा के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ने की नहीं है. जो सीटें आरएलडी को मिलेंगी उसमें से कितनी सीटें जीतेंगे ये भी देखने वाली बात होगी.