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चंद्रयान-3 के दो हिस्से हुए, अब वो टेंशन शुरू हुई जिसने चंद्रयान-2 मिशन फेल कर दिया था?

'विक्रम' लैंडर अब सिर्फ अपने भरोसे. आगे का सफ़र नाजुक है.

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चांद के नजदीक की कक्षा से सतह पर उतरने तक का सफ़र विक्रम लैंडर को अकेले तय करना है (फोटो सोर्स- ISRO)

चंद्रयान-3 मिशन के लिए 17 अगस्त की तारीख अहम पड़ाव लेकर आई. इस दिन चांद के और नजदीक पहुंचे चंद्रयान के दो हिस्से हो गए. एक हिस्सा चांद के बाहर रह गया है और दूसरे हिस्से यानी लैंडर मॉड्यूल को चांद के दक्षिणी ध्रुव के अंधेरे इलाके में सॉफ्ट लैंडिंग करनी है. यानी हौले-हौले उतरना है. इस पर अब ISRO के वैज्ञानिकों का नियंत्रण बहुत कम है. और आगे का सफ़र बेहद मुश्किल है. क्या हैं ये मुश्किलात, आइए जानते हैं.

चंद्रयान-3 मिशन स्पेसक्राफ्ट के मोटा-माटी तीन हिस्से हैं- ऑर्बिटर, लैंडर और रोवर. ऑर्बिटर का काम प्रोपल्शन मॉड्यूल ने ही किया है. यही लैंडर मॉड्यूल को चांद की नजदीकी कक्षा तक लेकर आया है. लैंडर मॉड्यूल में ही रोवर है. चांद की सतह पर उतरने के बाद लैंडर एक जगह ठहर जाएगा, जबकि इससे बाहर आकर रोवर घूमेगा-टहलेगा और जानकारी, डाटा इकठ्ठा करेगा. लैंडर, सॉफ्ट लैंडिंग कर सके इसके लिए इसमें कई एडवांस्ड तकनीक वाले उपकरण लगे हैं, अल्टीमीटर है, जो एल्टीट्यूड (ऊंचाई) मापेगा. वेलॉसिटी (यानी स्पीड और डायरेक्शन दोनों) मापने के लिए वेलॉसीमीटर है, साथ ही कैमरा और लेजर सेंसर जैसे कई दूसरे उपकरण भी लगे हैं.

सॉफ्ट लैंडिंग कैसे होगी?

लॉन्च के बाद पृथ्वी के चारों तरफ कई चक्कर लगाते हुए स्पेसक्राफ्ट चांद के करीब आता गया. और अब 100x100 किलोमीटर की ऊंचाई पर चांद की कक्षा (ऑर्बिट) में लैंडर मॉड्यूल, प्रोपल्शन मॉड्यूल से अलग हो गया है. अब लैंडर मॉड्यूल, चांद के और करीब यानी 100x30 किलोमीटर की ऑर्बिट में पहुंचेगा. आज से लेकर चांद पर उतरने की पूरी प्रक्रिया में 6 दिन का वक़्त लगेगा. सबकुछ ठीक रहा तो 23 अगस्त की शाम करीब पौने छः बजे लैंडर विक्रम चांद की सतह पर होगा. ये 6 दिन और आखिर में लैंडिंग के वक़्त के कुछ मिनट सबसे क्रिटिकल हैं. पिछली बार इन्हीं आखिरी लम्हों में चंद्रयान-2 से संपर्क टूटा था.

ISRO चीफ एस सोमनाथ ने कहा था कि सॉफ्ट लैंडिंग के दौरान के 15 मिनट, 'टेरर के 15 मिनट' हैं. मिशन के लिए सबसे डरावने. इस मौके पर लैंडर को सही वक़्त और सही ऊंचाई पर अपने इंजन शुरू करने हैं. इस्तेमाल होने वाले फ्यूल की मात्रा, चांद की सतह की स्कैनिंग वगैरह सब बेहद सटीक होनी चाहिए. और ये पूरी तरह ऑटोनोमस स्टेज है. सबकुछ खुद होगा. ISRO के हाथ में करने के लिए बहुत कम चीजें हैं.

100x30 किलोमीटर की ऑर्बिट का मतलब ऐसे समझिए कि ये एक अंडाकार ऑर्बिट है. इस ऑर्बिट के एक पॉइंट पर लैंडर, चांद की सतह से 100 किलोमीटर की ऊंचाई पर होगा और एक पॉइंट पर 30 किलोमीटर की ऊंचाई पर. इस ऊंचाई पर लैंडर अपने थ्रस्टर का इस्तेमाल करेगा. थ्रस्ट माने धक्का. लैंडर के थ्रस्टर इसे चांद की तरफ उतारने में मदद करेंगे. इस फेज में पावर धीरे-धीरे कम की जाएगी. और लैंडर चांद की सतह की तरफ बढ़ेगा. इस दौरान थ्रस्टर की कोशिश होगी कि चांद की सतह पर उतारते वक़्त लैंडर क्रैश न हो. सेफ लैंडिंग के लिए लैंडर और चांद की सतह के बीच 90 डिग्री का कोण होगा.

लैंडिंग में दिक्कतें क्या हैं?

जब लैंडर, चांद की सतह से 100 मीटर की ऊंचाई पर पहुंचेगा तो इसमें लगे स्कैनर्स, सतह को स्कैन करेंगे. अगर सतह पर कोई रुकावट या गड़बड़ी नहीं है तो थ्रस्टर, लैंडर को सतह पर लैंड करवा देंगे. ये प्रक्रिया, सुनने/पढ़ने में भले आसान सी लग रही हो, लेकिन है बहुत टेढ़ी. क्योंकि इस वक़्त लैंडर की स्पीड 6 हजार किलोमीटर प्रति घंटा होती है. ये इतनी है कि 10 मिनट से भी कम वक़्त में दिल्ली से लखनऊ तक का सफ़र हो जाए. लैंडर की इस स्पीड को कुछ ही सेकंड्स में जीरो तक लाना होता है. और ये काम ब्रेक लगाने से नहीं होने वाला. लैंडर में पैराशूट लगा दें तो भी काम नहीं बनेगा, क्योंकि चांद पर हवा नहीं है.

एक और दिक्कत ये भी है कि, चांद के दक्षिणी ध्रुव पर लैंडर को जहां उतरना है, वो इलाका अप्रत्याशित है. इस टेरेन में अचानक होने वाले बदलाव को मापना सेंसर के लिए मुश्किल हो सकता है और सॉफ्टवेयर में गड़बड़ी आ सकती है. चंद्रयान-2 मिशन का लैंडर जब चांद से 2.1 किलोमीटर की ऊंचाई के अंदर पहुंचा था तो इसके सॉफ्टवेयर में आई गड़बड़ी के चलते इसकी स्पीड पर्याप्त कम नहीं हो पाई. जिसके चलते लैंडर की क्रैश लैंडिंग हुई थी.

अब मान लीजिए, स्पीड कम करने का काम भी सटीक तरह से हो गया, तो भी एक आख़िरी दिक्कत बचती है. वो है- लूनर डस्ट यानी चांद की धूल. जब लैंडर चांद की सतह को टच करता है, उस वक़्त लैंडर की स्पीड कंट्रोल करने वाले थ्रस्टर बहुत तेजी से चांद की धूल को उडाता है. जो लैंडर के कैमरा के लेंस पर जमा हो सकती है. ऐसा हुआ तो डाटा कलेक्ट करने के दौरान सही रीडिंग्स नहीं मिल पाएंगीं. टेम्परेचर कंट्रोल भी प्रभावित होगा.

धूल कितनी उड़ेगी, ये इस बात पर भी निर्भर करता है कि लैंडिंग के दौरान कितने थ्रस्टर्स का इस्तेमाल किया गया है. चंद्रयान-2 में 5 थ्रस्टर थे, लेकिन इस बार 4 ही हैं. इसके अलावा इस बार ISRO ने कुछ और बदलाव भी किए हैं, ताकि लैंडिंग सेफ हो सके. मसलन, इस बार लैंडर की टांगें पहले से ज्यादा मजबूत रखी गई हैं, लैंडर में ईंधन ले जाने की क्षमता बढ़ाई गई है, सोलर पैनल भी पहले से बड़े हैं, लैंडिंग स्पीड को 2 मीटर प्रति सेकंड से बढ़ाकर 3 मीटर प्रति सेकंड किया गया है. और सबसे ख़ास बात, इस बार के लैंडर के लिए चंद्रयान-2 की तुलना में कहीं बड़ी लैंडिंग साइट चुनी गई है. ये लैंडिंग साइट 8 वर्ग किलोमीटर की है.

हालांकि तमाम चुनौतियों के बावजूद भी अब तक तीन देश चांद की सतह पर सॉफ्ट-लैंडिंग कर चुके हैं. चीन, अमेरिका और रूस के बाद, 24 अगस्त को भारत का चंद्रयान भी इतिहास रचने वाला है.

वीडियो: चंद्रयान 3 के कई दिनों बाद लांच हुए रूसी रॉकेट की मून लैंडिग पहले कैसे?