लेकिन असल में चंद्रयान क्या है? अंतरिक्ष में क्या करेगा? कितना पैसा लगा है? कितना समय लगा है? कितनी मेहनत लगी है और सबसे ज़रूरी कि इस मिशन से भारत को क्या फायदा होगा? जानना है तो हम बताएंगे
क्या है चंद्रयान? कैसे हुई शुरुआत?
नाम को तोड़कर देखिए. 'चंद्र' और 'यान'. चंद्रमा तक जाने वाला यान. सबसे पहले खबरों में आया 2008 में. उस समय भारत सरकार के अधीन संचालित ISRO/ इसरो यानी Indian Space Research Organisation चंद्रयान - 1 लॉन्च करने की तैयारी कर रहा था. भारत के लिए एक बड़ा समय था. पहले भी भारत अंतरिक्ष में उपग्रह भेजता था. लेकिन देश के लिए पहला मौक़ा था कि चंद्रमा पर रीसर्च करने के लिए भारत कदम उठाएगा. घोषणा अटल बिहारी वाजपेयी के ही प्रधानमंत्री कार्यकाल में ही हो गयी थी. 2003 में. काम पूरा हुआ मनमोहन सिंह के कार्यकाल में.
22 अक्टूबर 2008. चेन्नई से 80 किलोमीटर दूर मौजूद श्रीहरिकोटा में मौजूदा सतीश धवन स्पेस सेंटर. यानी वो जगह जहां से इसरो अपने मिशन लांच करता है. और सतीश धवन कौन? इसरो के पूर्व चेयरमैन. इस सेंटर से चंद्रयान 1 अंतरिक्ष में भेजा गया.

चंद्रमा पर पानी की खोजाई होगी.
भेजे जाने के कुछ दिनों बाद यानी 8 नवंबर 2008 को चंद्रयान चंद्रमा की कक्षा में दाखिल हो गया. 'कक्षा' यानी किसी ग्रह के चारों ओर का वह घेरा जिसमें उसका गुरुत्वाकर्षण काम करता है. जिससे चीज़ें वापिस सतह की ओर खिंचती हैं. और कक्षा के बाहर जाने पर गुरुत्वाकर्षण का प्रभाव ख़त्म हो जाता है. 14 नवंबर को 'ऑर्बिटर' से 'इम्पैक्टर' अलग हो गया और चंद्रमा की सतह पर जाकर बैठ गया. इन दोनों के बारे में आगे बताएंगे.
लगभग एक साल तक चंद्रयान -1 ने डाटा जुटाया. जानकारी जुटाई. रीसर्च में मदद की. पानी का पता लगाया. 312 दिन का समय पूरा हुआ और 29 अगस्त 2009 में चंद्रयान ने अपना मिशन पूरा कर लिया. खर्च की बात हुई. सरकार ने राज्यसभा में 2017 में जवाब दिया. बताया कि इस मिशन में कुल 386 करोड़ रूपए का खर्च हुआ.
चंद्रयान कैसा होता है? कितने हिस्से होते हैं?
आप फोटो देखते हैं रॉकेट की. लंबा सफ़ेद-सा राकेट. जिसे लॉन्च किया जाता है. लेकिन ये रॉकेट जब हवा में जाता है तो कई हिस्सों में अलग हो जाता है. पहले रॉकेट का काम होता है कि चंद्रयान को कक्षा के बाहर ले जाना. फिर दूसरे रॉकेट का काम होता है कि चंद्रयान को कुछ और आगे ले जाना और आखिरी का काम होता है कि चंद्रमा की कक्षा तक चंद्रयान को ले जाना. सारे रॉकेट अपना काम करके चंद्रयान से अलग हो जाते हैं. आखिर में रॉकेट खुलता है तो अंदर से चंद्रयान अलग हो जाता है.

ये तो काम हो गया रॉकेट का. लेकिन असल चंद्रयान के दो हिस्से होते हैं. एक होता है 'ऑर्बिटर' और एक होता है 'इम्पैक्टर'. ऑर्बिटर का काम होता है ऑर्बिट में. मतलब एक उपग्रह. जो चंद्रमा की कक्षा में टहलता रहता है. कक्षा क्या होती है, हमने थोड़ी देर पहले आपको बताया है. दोनों साथ जाते हैं अंतरिक्ष में. और चंद्रमा पर पहुंचकर अलग हो जाते हैं. ऑर्बिटर रह जाता है ऊपर, इम्पैक्टर अलग होकर आ जाता है चंद्रमा की सतह पर. चंद्रमा की सतह पर उतरता है. 'अंग्रेजी के शब्द 'Impact' से बना है इम्पैक्टर. जहां ऑर्बिटर कक्षा से चंद्रमा के बारे में जानकारियां जुटाता है, इम्पैक्टर सतह पर से जानकारियां जुटाता है.
इसरो के इम्पैक्टर को मून इम्पैक्ट प्रोब यानी MIP कहते हैं. पिछले चंद्रयान मिशन के समय इम्पैक्टर चंद्रमा की सतह से लगभग 100 किलोमीटर ऊपर ऑर्बिटर से अलग हुआ था, और चंद्रमा की सतह पर क्रैश हुआ था. लेकिन कोई नुकसान इसलिए नहीं हुआ क्योंकि उसे इसलिए बनाया ही गया था. इस प्रोब ने जानकारियां जुटाईं और पृथ्वी के सेंटर पर भेज दीं.
इम्पैक्टर के अलावा चंद्रयान में कुल 10 हिस्से रहे हैं. हिस्से भी गजब के. दूर से देख सकते हैं कि सतह कैसी है? ऊबड़-खाबड़ है? अगर है तो कितनी? उस पर कैसे काम कर सकते हैं. ऐसा कैमरा जो ऐसी चीज़ें देख सकता है जो हमारी-आपकी आंखें भी नहीं देख सकती हैं, या कोई दूसरा कैमरा भी नहीं. लेज़र फेंककर चीज़ों की दूरी निकालने वाला यंत्र भी है. मतलब जितनी दूर लेज़र गया, चीज़ या ज़मीन की दूरी उतनी.
चंद्रमा पर मिलने वाली चीज़ें खतरनाक हैं? रेडियोएक्टिव हैं? इसका पता लगाने की भी चीज़ें हैं. लेकिन MIP के अलावा सबसे कमाल चीज़ है Moon Mineralogy Mapper, मतलब वही चीज़, जिसने पता लगाया कि चंद्रमा पर पानी है. और इसी पानी की खोज पर चंद्रयान-2 की नींव रखी गयी.
दस सालों में चंद्रयान में क्या बदला?
पहला चंद्रयान तो अभी से दस सालों पहले अंतरिक्ष में गया था. दूसरे का डिज़ाइन 2009 में ही पूरा हो गया था. रूस का भी साथ मिला था. 2013 में सब पूरा हो गया था, लेकिन जिस चीज़ के सहारे इम्पैक्टर चंद्रमा पर उतरता, वो रूस को बनाना था. समय पर नहीं बन पाया तो सब 2019 तक रुका रह गया. रूस ने बीच में मना कर दिया तो भारत ने कहा कि हम सबकुछ खुद से ही बनाएंगे.
इस बार कुछ चीज़ें नयी हैं. जैसे नया लैंडर. जिसका नाम भारत ने 'विक्रम' रखा है. विक्रम साराभाई के नाम पर. इसरो के चेयरमैन और भारत में स्पेस मिशनों के पिता कहे जाने वाले विक्रम साराभाई. विक्रम लैंडर की मदद से मदद से चंद्रयान का एक हिस्सा धीरे-धीरे चंद्रमा की सतह पर उतरेगा. इस बार चंद्रयान का रोवर - यानी रोबोट से चलने वाली गाड़ी - सतह पर पानी और नम ज़मीन तलाशेगा. और इसको चलाया जाएगा धरती पर बैठकर.

चंद्रयान का रोवर और लैंडर
पिछले वाले में तो कुछ चीज़ें NASA ने दी थी, इस बार सब अपने यहां बना है. इस बार चंद्रयान बनाने में कुल 978 करोड़ रुपयों का खर्च आया था. और अगर जानना हो तो इस बार के चंद्रयान का वजन, मतलब रॉकेट और रॉकेट में पड़ने वाले ईंधन और चंद्रयान के हरेक हिस्से का वजन मिलाकर 3,850 किलो है. कुल इतना वजन एक साथ पृथ्वी से उड़ेगा. पिछली बार चंद्रयान में कुल 11 हिस्से थे, इस बार कुल 14 हिस्से होंगे. और काम सारे वैसे ही, एक से बढ़कर एक. और सब बने हुए भारत में.
रोवर के टायर कमाल
इसरो का लोगो देखिए. ये लगा हुआ है. अशोक चक्र देखिए, न देखा हो तो वो भी लगा हुआ है. रोवर के दो पहिए अशोक चक्र की आकृति के होंगे और दो पहिए इसरो के लोगो के आकार के. 17 मिनट में कक्षा से उतरेगा चंद्रमा की ज़मीन पर और शुरू कर देगा अपना काम.

अशोक चक्र

इसरो
चंद्रयान का काम क्या?
दो ही ग्रह हैं. मंगल और चंद्रमा. जिन पर जीवन की खोज की जा रही है. जीवन के लिए हवा और पानी ज़रूरी है. और सब जगह यही खोज हो रही है. जिस Mapper के बारे में हमने अभी बताया, उसने दस साल पहले चंद्रयान-1 के समय चंद्रमा पर पानी की खोज कर दी. लेकिन चंद्रयान-1 को जो मिला, वो पानी के कुछ हिस्से ही थे. कुछ कण ही मिले थे. पानी का कोई बहुत बड़ा भंडार नहीं था. पानी का कोई स्रोत भी नहीं मिला था. अब उसकी ही खोज हो रही है.
इस बारे में इसरो ने भी मीडिया को बताया. इसरो ने कहा था,
"चंद्रयान-1 से हमें चंद्रमा पर पानी के कण मिले थे. इस पर ज्यादा शोध होना चाहिए. चंद्रमा की सतह पर पानी कहां-कहां और किस रूप में मौजूद है, और क्या सतह के नीचे और वहां के पर्यावरण में मौजूद है, इस पर और जांच की आवश्यकता है."जैसे हमारे ग्रह पर उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव हैं, वैसे चंद्रमा पर भी हैं. और इसरो का मानना है कि चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर बहुत बड़ी परछाई दिखती है. और ये परछाई किसी न किसी वजह से पानी की उपस्थिति की ओर इशारा है.
लेकिन पानी की इतनी ज़रुरत क्यों है?
चंद्रमा और मंगल पर लोगों के रहने की बात हो रही है. धरती का माहौल खराब है, हवा और पानी में बहुत मिलावट हो गयी है. अब क्या करें? तो बहस हुई कि पृथ्वी को ठीक करना तो बहुत कठिन काम है, पैसा खर्च करके बाहर ही रहने का हिसाब देखा जाए. अमरीका ने शुरू किया तो रूस ने भी किया. जापान आया तो भारत भी आ गया. अब चंद्रमा पर पानी की तलाश हो रही है.
लेकिन इसके अलावा सबसे बड़ा कारण है रीसर्च. खोजबीन. पता लगाना कि हमारा ब्रह्माण्ड कब और कैसे बना? कितना फैला? और पानी जैसी चीज़, जिससे जीवन मिलता है, कहां से आई?

चंद्रमा पर अगला पेट्रोल पंप होगा?
और अगर पानी और हवा मिल गए तो समझ लीजिये कि चंद्रमा एक पेट्रोल पंप की तरह हो जाएगा. पृथ्वी से सुदूर ग्रहों के लिए यान अभी से कम पानी और हवा भरकर निकलेंगे. चंद्रमा पर रुकेंगे. सुस्ताएंगे. हवा पानी रीचार्ज करेंगे और आगे बढ़ जाएंगे. अगर सफलता मिली तो सुदूर ग्रहों तक की यात्रा में थोड़ा कम खर्च होगा. और नयी-नयी जानकारियां हमारे सामने आ सकेंगी.
क्यों रोकी गयी लॉन्चिंग?
लॉन्च के 56 मिनट पहले इसरो ने कहा कि अभी मत उड़ाओ. कह रहे हैं कि टेक्नीकल गड़बड़ी हो गयी. कहां हुई, इस बारे में इसरो ने कुछ नहीं कहा. लेकिन 'आजतक' से बातचीत में वैज्ञानिकों ने बताया कि रॉकेट में पड़ने वाले ईंधन का प्रेशर कुछ गड़बड़ दिख रहा था, इस वजह से मिशन को ऐन मौके पर रोक दिया गया. इसका ये भी मतलब लगाया जा सकता है कि चंद्रयान में कोई गड़बड़ी नहीं थी, बल्कि इसको लेकर जाने वाले रॉकेट में कुछ दिक्कत हुई, जिसकी वजह से मामला टल गया.
कब होगी लॉन्चिंग?
कुछ नहीं पता. जब इसरो कहेगा "आल गुड", तब होगा "लिफ्ट ऑफ".
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