आज मुझे भारत की सबसे पहली सुपरहिट फ़िल्म ‘अछूत कन्या’ (1936) का वो क्लाइमेक्स सीन याद आ रहा है जिसमें कई जानों को बचाने के लिए कस्तूरी, ट्रेन के आगे आ जाती है.बिमल रॉय की ‘देवदास’ (1955) में हृषिकेश मुखर्जी की एडिटिंग से क्लाइमेक्स सीन कमाल का बन पड़ा है. उसमें भी हृषिकेश और बिमल ने ट्रेन, उसमें कोयला झोंकने और उसके ट्रैक का बड़ा अद्वितीय इस्तेमाल किया है, और इसी के चलते देवदास का रोल और इंटेंस हो चला है, दिलीप कुमार की एक्टिंग प्रोमिनेंट हो चली है.
मुझे ‘ग़ुलाम’ (1998) फ़िल्म दो ही वजहों से याद है, एक तो आमिर का गाया गीत – आती क्या खंडाला के वजह से और दूसरी वो रेस अगेंस्ट टाइम या रेस अगेंस्ट ट्रेन वाले सीन के चलते.

जा सिमरन, जी ले अपनी ज़िंदगी
नाइंटीज़ की ब्लॉकबस्टर ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ (1995) का आज तक का सबसे सेलिब्रेटेड क्लाइमेक्स सीन हो या इक्कीसवीं सदी की मोस्ट रोमेंटिक फिल्मों में से एक ‘जब वी मेट’ (2007) का पूरा प्लॉट या फिर 1980 की दी बर्निंग ट्रेन की पूरी कहानी...मैंने कोई डाटा को कलेक्ट नहीं किया मगर हर दूसरी सुपरहिट फ़िल्म में ट्रेन का कोई न कोई यादगार सीन है ही. तो कहां तक और क्या-क्या इसके बारे में कोई लिखे?
लेकिन मैं ये सब बातें क्यूं कर रहा हूं?
दरअसल भारत में रेल का इतिहास डेढ़ सौ से ज़्यादा साल पुराना है. टू बी स्पेसिफिक 16 अप्रैल, 2018 को भारत में पहली पैसेंजर ट्रेन को चले ठीक एक सौ पैंसठ साल हो गए हैं. यह ट्रेन मुंबई से ठाणे तक चली थी – यानी कुल 34 किलोमीटर.

कस्तो मज़ा है (परिणीता)
उधर भारत में फिल्मों का इतिहास भी एक सौ पांच साल पुराना है. और इसलिए ही तो ट्रेन और फिल्मों का एक ऐसा संबंध स्थापित हुआ और धीरे-धीरे परवान चढ़ता गया कि दोनों को अलग-अलग सोचना भी अब मुश्किल है.और हां! ट्रेनों की तरह ही गीतों के बिना भी हिंदी फिल्मों को सोचना असंभव है. इसलिए ही फिल्मों के ये दोनों यार – ट्रेन और गीत एक दूसरे से किसी न किसी ‘ट्रैक’ पर ‘मिलते रहे हैं, मिलते रहेंगे’.
इतने सालों में ट्रेन हमारी सामजिक संरचना, इतिहास और अंततः बॉलीवुड में भी यूं रच बस गई है कि बोलों में ही नहीं कई बार तो म्यूज़िक में भी ट्रेन का उपयोग किया गया है.
कुछ गीत जो मुझे याद आ रहे हैं, जिसमें ट्रेन का उपयोग या तो फिल्माने में या बोलों में किया गया है (और मैं श्योर हूं कि इन गीतों को यहां लिख चुकने के बावज़ूद मैं कई हिट गीत मिस कर जाऊंगा) –

जब वी मेट
'जब प्यार किसी से होता है' (1961) का 'जब प्यार किसी से होता है', 'शोले' (1975) का ‘स्टेशन से गाड़ी जब छूट जाती है’, 'आराधना' (1969) का ‘मेरे सपनों की रानी कब आएगी तू’, 'दोस्त' (1974) का ‘गाड़ी बुला रही है’, 'ज़माने को दिखना है' (1977) का ‘होगा तुमसे प्यारा कौन’, 'परिणीता' (2005) का ‘कस्तो मज़ा है’, 'आप की कसम' (1974) का ‘ज़िंदगी के सफ़र में गुज़र जाते हैं’, 'जागृति' (1954) का ‘आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं’, 'नास्तिक' (1954) का ‘कितना बदल गया इंसान’, 'प्रोफेसर' (1962) का ‘मैं चली, मैं चली’, 'अजनबी' (1974) का ‘हम दोनों दो प्रेमी’, 'बंटी और बबली' (2005) का 'छोटे-छोटे शहरों से'...बहरहाल इन सब गीतों के बीच में जो गीत एक नहीं कई कारणों से मुझे स्टैंड अपार्ट लगता है वो है – छैयां-छैयां.
इस गीत के बारे में मैं जितना भी लिखूं वो हमेशा कम ही लगता है. और यकीन कीजिए ये मैं तब कह रहा हूं जबकि इसके, इस एक गीत के, बारे में मैं अतीत में बहुत कुछ, बहुत जगहों में लिख चुका हूं.
मुझे याद है जब मुझसे मेरे कैरियर के एक शुरूआती इंटरव्यू में पूछा गया था कि आपको एक टापू में एक साल अकेले रहना है तो आप कौन सी तीन चीज़ें अपने साथ ले जाना पसंद करेंगे – मैंने कहा था टेप रिकॉर्डर और ‘दिल से’ (1998) की ऑडियो कैसेट. ‘और तीसरी चीज़?’ - उन्होंने पूछा. मैंने उत्तर दिया – ‘‘दिल से’ की एक और ऑडियो कैसेट, क्यूंकि एक साल में रीपीट मोड में बजाते हुए शायद पहली कैसेट घिस जाय इसलिए – टू बी ऑन अ सेफर साइड, यू सी.’
इंटरव्यू में सिलेक्शन नहीं हुआ – क्यूंकि मैं तीसरी कैसेट के चक्कर में ‘बैटरी’ ले जाना भूल गया था. बहरहाल...

ये काफी होगा बताने के लिए कि मेरा इस एक गीत के प्रति दीवानगी का आलम क्या था. जिस तरह मेरी आने वाली जनरेशन बताती है कि हमारे जमाने में स्मार्टफोन का अविष्कार हुआ था, जिस तरह मेरी पिछली जनरेशन्स नेहरु गांधी के गुण गाती है, वैसे ही मैं ये कहता हूं कि छैयां-छैयां मेरी युवावस्था, यानी मेरे समय में रिलीज़ हुआ था.ये आपको अतिशयोक्तिपूर्ण लग सकता है लेकिन मुझे फिर भी लगता है कि मैं अंडर-प्ले कर रहा हूं. कैसे? जस्टिफाई करने की जरूरत करता हूं.
एक गीत में टोटल पांच छः बड़े डिपार्टमेंट होते हैं. जैसे कि लिरिक्स, कोरियोग्राफी, म्यूज़िक आदि, किसी गीत में डांस अच्छा होता है, किसी में म्यूज़िक, किसी में दो तीन चीज़ें अच्छी होती हैं मगर सारी नहीं. अब आइये इस सब डिपार्टमेंट में यह गीत बाकियों से कैसे बेहतर ठहरता है जानते हैं -
# 1) लिरिक्स –

गुलज़ार, मेरा ख्याल है कि, इस दौर के सबसे बड़े लिरिक्स राइटर हैं, और जो कोई भी सेकेंड नंबर में है उनके और गुलज़ार के बीच बहुत बड़ा मार्जिन है. लेकिन कहने वाले ये कहेंगे कि इससे ये सिद्ध नहीं हो जाता कि वो हर गीत ही अच्छा लिखेंगे.और साथ ही कहने वाले ये भी कहेंगे, और ग़लत भी नहीं है कि, कविता/गीत/नज़्म/लिरिक्स एक ‘एबस्ट्रेक्ट फ़िनॉमिना’ है जिसमें कोई फर्स्ट, कोई सेंकंड नहीं होता.
ओके मान लिया. अब आप ये पढ़िए –
‘वो यार है जो खुशबू की तरह, वो जिसकी ज़ुबां उर्दू की तरह’
या ये -
मैं उसके रूप का शैदाई,बुल्ले-शाह एक बहुत बड़े पंजाबी सूफी कवि हुए हैं. उनका गीत था – ‘थैया-थैया’. उसी ‘ज़मीन’ यानी उसी को बेस बनाकर गुलज़ार ने ये गीत लिखा है. ‘दिल से’ की ऑडियो एल्बम में एक और गीत है जिसके लिरिक्स कुछ यूं हैं –
वो धूप छांव सा हरजाई
वो शोख है रंग बदलता है
मैं रंग-रूप का सौदाई.
ईद आई मेरा यार नि आया,
तैनूं वेखण दा जा पाया वे सजना,
ईद आई मेरा यार नि आया,
कर थैया-थैया-थैया-थैया,
तेरे इश्क नचाया कर थैया-थैया.
# 2) म्यूज़िक –

जो ऊपर ‘लिरिक्स’ के लिए लिखा था वही अगर ‘म्यूज़िक’ के लिए भी लिख दिया जाए तो भी एकदम फिट बैठता है – रहमान, मेरा ख्याल है कि, इस दौर के सबसे बड़े म्यूज़िक डायरेक्टर हैं, और जो कोई भी सेकेंड नंबर में है उनके और रहमान के बीच बहुत बड़ा मार्जिन है.इस गीत के म्यूज़िक और रहमान के बारे में एक बार गुलज़ार ने कहा था – अतीत में गीतों की टोन(म्यूज़िक) एक सेट फॉर्मेट में बनती थी – मुखड़ा-अंतरा-मुखड़ा. लेकिन रहमान ने इस फॉर्मेट के इतर म्यूज़िक लिखा जिससे गीतकार को कवि और कवि को गीतकार बनने की छूट मिली.
और आप देख लें कि ये गीत – छैयां-छैयां भी उस सेट फॉर्मेट (मुखड़ा-अंतरा-मुखड़ा) से अलहदा है.
ये वो गीत है जो मेरा और मेरे साथ के लाखों युवाओं का तब फेवरेट हो चुका था जब गुलज़ार और रहमान की जोड़ी को ऑस्कर मिला भी नहीं था.
इस गीत को हॉलीवुड की एक सुपर-हिट संस्पेंस थ्रिलर मूवी – ‘इनसाइड मैन’ में भी यूज़ किया गया है और इसी गीत के वजह से मैंने ये मूवी देखी थी. ये और बात है कि अपने क्लाइमेक्स के चलते ‘इनसाइड मैन’ मुझे एनीवे पसंद आई थी.
# 3) सिनेमाटोग्राफी –

यदि ट्रेन के ऊपर कैमरा लगा दिया जाए, और वो कैमरा कभी गुफाओं के अंदर से बाहर निकले तो?अचानक रौशनी हो और रौशनी बढ़ती चली जाए तो? वो ट्रेन के ऊपर लगा कैमरा कभी ट्रेन में झुक रहीं पेड़ों की पत्तियों को छूकर निकल जाए कभी बादलों का लैंडस्केप तो कभी जंगलों का विहंगम दृश्य (बर्ड आई व्यू) दिखाए तो?
कुछ दृश्य जो दूर हैं वो वहीं ठहरे रहें, कुछ जो नज़दीक हैं वो तेज़ी से बदलते रहें. सिनेमाटोग्राफी आर्ट में बदल जाए और आर्ट और दर्शन में कोई ख़ास अंतर न रहे तो? पुल हों तो गहराइयां हों, आकाश हो तो ऊंचाइयां हों. और ये सब एक गीत में हो तो?

संतोष सीवान
- छः मिनट अड़चालीस सेकेंड प्रकृति अपने प्योरेस्ट फॉर्म में हो तो!इसलिए ही इस गीत को ढेरों बार तो म्यूट करके ही देख लिया जाना चाहिए.
संतोष सीवान इस फ़िल्म के सिनेमाटोग्राफर हैं, जिन्हें इस फ़िल्म के लिए नेशनल और फिल्मफेयर, दोनों अवार्ड मिले थे. बाद में फिल्मों में अपने योगदान के लिए उन्हें पद्मश्री भी मिला.
# 4) कोरियोग्राफी –

फरहा खान को इस फ़िल्म के लिए बेस्ट कोरियोग्राफी का पुरस्कार मिला, डांस तो आपने देखा ही होगा.फ़िल्म बेशक फ्लॉप रही, और बेशक फ़िल्म में मलाइका का एकमात्र आइटम नंबर था, लेकिन इसके बाद मलाइका बॉलीवुड की डांसिंग-डिवा बन गईं. छैयां-छैयां से पहले और बाद में भी कई आइटम नंबर आए और काफी हिट भी रहे, लेकिन कई लोगों का कैरियर एक साथ उठाने में जो गीत सफल रहा वो था – छैयां-छैयां. मल्लाईका अरोड़ा खान बाद-बाद तक भी डांस नंबर्स देती रहीं उनका लेटेस्ट हिट ‘मुन्नी बदनाम हुई’ भी सेंसेशन बन गया था. उनके बारे में उस वक्त एक चीज़ बहुत फेमस हो गई थी जो हमारी मम्मियां और अंटियां कहती थीं – ‘बताओ कौन कहेगा कि ये दो बच्चों की मां है, देखो कैसे मेंटेन किया है खुद को.’ (होने को वो केवल एक बच्चे की मां थीं.)
बहरहाल थोड़ी लक्की भी रहीं थी मलाइका, क्यूंकि यह गीत पहले शिल्पा शिरोडकर को दिया जाने वाला था.
# 5) एक्टिंग –

सभी लोगों को ट्रेन से बांध दिया गया था, ताकि कोई हादसा न हो.लेकिन शाहरुख़ खान ने बंधने से इंकार कर दिया, तब वो युवा रहे थे. और एक बार जोश में ज़्यादा ही ऊंचा कूद गए थे, गिरते गिरते बचे थे. जब जुनून का आलम ये था तो वो एनर्जी पर्दे में दिखनी ही थी और गीत कल्ट होना ही था. और हुआ.
# 6) गायक/गायिका –

सुखविंदर सिंह
सुखविंदर के जीवन को दो भागों में बांटा जा सकता है – छैयां-छैयां से पहले और छैयां-छैयां के बाद और दोनों सुखविंदर में बहुत अंतर है.इस गीत से पहले सुखविंदर सिंह ज़्यादातर माता की भेटों के लिए जाने जाते थे. लेकिन इस गीत के बाद वो हाएस्ट पेड सिंगर हो गए और उन्हें केवल इस एक गीत के वजह से कई स्टेज परफोर्मेंसेज़ में मोटी रकम देकर बुलाया जाने लगा. और इसका क्रेडिट भी खुद उन्हें ही जाता है. जिस तरह से उन्होंने ऊंचे सुरों में भी मेलोडी की लगाम कस के पकड़ी हुई है, जिस तरह की हरकतें उन्होंने ली हैं कहना न होगा उस एक गीत के वजह से वो स्थापित पार्श्व गायक बन गए थे. मुझे याद है कि उदित नारायण और कुमार शानू के ढेरों फैन उनको भूल के रातों रात सुखविंदर के अगले गीत का इंतज़ार करने वालों में से एक बन गए थे. और इसलिए ही उन्हें इस गीत के लिए प्ले-बैक सिंगिंग का फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड भी मिला.
# 7) डायरेक्शन –

मणिरत्नम
मुझे लगता है कि मणिरत्नम को शायद आज भी कमतर आंका गया है. नॉर्थ-इंडियंस में से बहुत कम लोगों के फेवरेट होंगे वो.लेकिन उनका फैन बनना है तो ‘दिल से...’ का ही दूसरा गीत ‘दिल से रे...’ देखा जाना चाहिए. जो एक चलती फिरती पोट्रेट है, आर्ट है, कविता है. जहां बैकग्राउंड में युद्ध का माहौल है और सामने प्रेम. जलती हुई सीढ़ियों में छुपते हुए प्रेमी. एक हिलता हुआ झूला, जो इस बात की ताक़ीद करता है कि अभी-अभी कोइ इसे झूल रहा था. मोती की सफेद-माला के बैकग्राउंड में स्याह-मौत. और भी बहुत कुछ मानो जो कह रहा हो कि – प्रेम की ठीक उस जगह पर पाए जाने की संभावना सबसे अधिक होती हैं, जहां की धरती प्रेम के वास्ते ऊसर हो चुकती है.
तो अंततः असल में हुआ ये था कि उस वक्त का सबसे अच्छा निर्देशक, उस वक्त का सबसे अच्छा गीतकार, उसक वक्त का सबसे अच्छा संगीतकार, उस वक्त का सबसे अच्छा अदाकार, उस वक्त की सबसे अच्छी कोरियोग्राफर एक साथ एक गीत में आ गए थे और सबने अपना बेस्ट दिया था.

वो पत्ते दिल थे, दिल थे...
और जो ‘उस वक्त के सबसे अच्छे’ नहीं थे, वो इस गीत के बाद हो गए थे.

बाबा बुल्ले शाह
किसी गीत को हिट बनाने में 'कंट्रोवर्सी' का एक बहुत बड़ा योगदान होता है.लेकिन ये गीत पहले ही इतन बड़ा इतना कल्ट बन चुका था कि किसी 'कंट्रोवर्सी' की जुर्रत नहीं थी कि इसकी इमेज को ज़रा भी बढ़ा या घटा सके. इसलिए - 'पांव के नीचे जन्नत होगी' को लेकर दबे छिपे जो विवाद हुआ वो भी दब भी गया. हां आज के दौर में शायद विवाद और बड़ा होता. उस वक्त के लोग कहते थे कि जन्नत आखिर पैरों के नीचे कैसे हो सकती है? लेकिन ये सूफी गीत था. वही सूफीइज्म जो कहता था - अनहल हक़!
इस गीत के अलावा एक सौ पांच साल के इतिहास में मुझे कोई और गीत नज़र नहीं आता जिसमें इन सारे डाइमेंशन में गीत परफेक्ट या नियर टू परफेक्ट साबित होता हो.

एन एम आर ट्रेन
ये तो थी कला पक्ष की बात, इसके अलावा भाव पक्ष की बात करें तो यह गीत मेलोडियस और डांसिंग नंबर एक साथ है. इसे एकमात्र ब्लॉकबस्टर कविता/नज़्म कहा जा सकता है जो कि एक डांसिंग नंबर भी है.लेकिन फिर भी इस गीत में सबसे ज़्यादा क्रेडिट किसी को दिया जाना चाहिए तो वो होगी ट्रेन - निलगिरी माउंटेन रेलवे यानी एनएमआर(NMR) जिसकी छत पर ये गीत फिल्माया गया. NMR दक्षिणी रेलवे के अंडर में आती है. 1908 में बनाई गई. आज भी भाप से चलती है. 2005 में यूनेस्को ने ‘नीलगिरि पर्वतीय रेल’ को दार्जिलिंग हिमालयी रेल के एक्स्टेंशन के रूप में विश्व धरोहर के रूप में मान्यता दी थी और तब से इन्हें संयुक्त रूप से ‘भारत की पर्वतीय रेल’ के नाम से जाना जाता है. बहुत खूबसूरत ट्रैक है इसका. और हां ये भारत की एकमात्र रैक-रेलवे है. रैक-रेलवे मतलब पहिए गोल और पटरी समतल न होकर दोनों में दांत या खांचे बने होते हैं इसलिए ट्रेन पटरी से सटकर चलती है.

रैक रेल की पटरियां
तो भारतीय रेलवे के 'स्थापना दिवस' पर दी लल्लनटॉप की तरफ से – चल छैयां, छैयां, छैयां, छैयां...