स्वघोषित बादशाह डॉनल्ड ट्रंप के कर कमलों से कनाडा के नए प्रधानमंत्री की ताजपोशी हुई है. ऐसा दुनिया कह रही है. तो हम भी पीछे क्यों हटें? कनाडा में 28 अप्रैल को चुनाव हुए. सबसे बड़ा मुद्दा था, ट्रंप से कैसे लड़ना है. ट्रंप को टक्कर कौन देगा? कौन सी पार्टी ट्रंप के हाथों मुंह की नहीं खाएगी. कौन सी पार्टी ट्रंप की ओर आंख उठा कर देख सकेगी. जनता ने इन सवालों का जवाब दे दिया है. जवाब है लिबरल पार्टी. जो भी दर्शक भारतवासी हैं वो इस पार्टी के नाम से चिर-परिचित होंगे. कनाडा के पूर्व प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो इसी पार्टी से आते थे. ट्रंप के सत्ता में आगमन से 14 दिन पहले ट्रूडो ने इस्तीफ़ा दे दिया.
भारत से रिश्ते, ट्रंप को जवाब और खालिस्तान पर लगाम; कनाडा की नई सरकार और चुनौतियां
कनाडा के चुनाव में सबसे बड़ा मुद्दा था, Trump से कैसे लड़ना है. ट्रंप को टक्कर कौन देगा? कौन सी पार्टी ट्रंप के हाथों मुंह की नहीं खाएगी. कौन सी पार्टी ट्रंप की ओर आंख उठा कर देख सकेगी. जनता ने इन सवालों का जवाब दे दिया है.

उस दौर में लिबरल पार्टी के सितारे धूमिल थे. कहा जा रहा था कि अगला चुनाव जब भी हो, जैसे भी हो, इसकी हार तो तय है. लेकिन अब इसी पार्टी के कैंडिडेट और कनाडा के मौजूदा प्रधानमंत्री मार्क कार्नी को जीत मिली है. लोगों को उम्मीद है कि नए निज़ाम की बुनियाद ट्रंप की मुख़ालिफ़त पर रखी जाएगी. लेकिन कनाडा के चुनाव में बिन बुलाए बाराती ट्रंप कहां से घुस गए? उनकी वजह से चुनाव कैसे पलट गया. मार्क कार्नी की कहानी क्या है? और, उनकी जीत से भारत-कनाडा रिश्तों पर क्या असर पड़ेगा? एक-एक कर के समझते हैं.

अमेरिकी लेखक डेविड ब्रूक्स कहते हैं कि ट्रंप की सबसे बड़ी कमज़ोरी उनकी ताक़त है. 20 जनवरी को ट्रंप राष्ट्रपति बने. 100 दिन पूरे हो गए हैं. ये उनका दूसरा कार्यकाल है. 2016 में पहली-पहली बार वो इस पद पर बैठे थे. कार्यकाल पूरा भी किया. लेकिन पहले कार्यकाल के पूरे चार साल और दूसरे कार्यकाल के इन 100 दिनों को तराज़ू पर रखें, तो ये 100 दिन भारी पड़ जाएंगे. ट्रंप को बनी-बनाई, रची-बसी घरेलू, आर्थिक, और विदेश नीति को उल्टा सीधा कर देने में महज़ 100 दिन लगे. उन्होंने दोस्तों में दुश्मन ढूंढें. और, दुश्मनों में दोस्त. सॉफ़्ट पॉवर को बिलकुल किनारे कर दिया. धमकियां दीं, टैरिफ़ ठोका, स्वास्थ्य और जलवायु से जुड़े समझौतों से अमरीका को निकाल दिया.

अप्रवासियों के ख़ून-पसीने से बने देश को ग्रेट बनाने की ज़िद में अप्रवासियों को ही डिपोर्ट करना शुरू किया. शरणार्थियों को बैन किया. बर्थराइट सिटिज़नशिप ख़त्म करने की कोशिश की. अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की धज्जियां उड़ा दीं. अंतर्राष्ट्रीय सप्लाई चेन का गुड़ गोबर कर दिया. ज़रूरतमंद देशों को भेजने जाने वाली मदद रोक दी. सुप्रसिद्ध अमेरिकी विश्वविद्यालयों की फंडिंग रोकी. अपने दावों से मुंह मोड़ लिया. पहले, ग़ज़ा में सीज़फ़ायर का क्रेडिट लिया. उसके बाद ग़ज़ा के लोगों को ख़ुद धमकियां देनी शुरू कीं. इज़रायल तक पहुंचने वाली अमेरिकी मदद का रास्ता साफ़ किया. रूस-यूक्रेन जंग रुकवाने के दावे पर भी पानी फिरता दिख रहा है. इसी महीने अमेरिकी मैगज़ीन द अटलांटिक को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा,
पहले कार्यकाल में मुझे दो चीज़ें करनी थीं. देश चलाना था. और, ख़ुद को भी बचाना था. लेकिन दूसरे कार्यकाल में मैं देश भी चला रहा हूं. और, दुनिया भी. और, मुझे बहुत मज़ा आ रहा है.
इसी मज़े की चाह में ट्रंप ने ग्रीनलैंड को ख़रीदने की बात कह दी. पनामा नहर हथियाने की धमकी दी. सैन्य ताक़त का इस्तेमाल करेंगे, ये तक कहने में नहीं कतराए. इसी सिलसिले में और इसी मज़े-मज़े में उन्होंने ये कहना शुरू कर दिया कि कनाडा को हमारा 51वां राज्य बन जाना चाहिए. ये बेहद ख़ूबसूरत होगा. 51वां इसलिए क्योंकि अमरीका में फिलहाल 50 राज्य हैं. आप इस बात की गहराई ऐसे समझिए कि एक संप्रभु राष्ट्र के बारे में कह देना कि उसे हमारा राज्य बन जाना चाहिए. ट्रंप ने शपथ लेने से पहले ही कनाडा के बारे में ऐसा कहना शुरू कर दिया था. शपथ ली तो दुहराने लगे. जब मौक़ा मिला, जस्टिन ट्रूडो को गवर्नर कह कर संबोधित किया. जस्टिन ट्रूडो की बात आई है तो ये जानते हैं कि इस पिक्चर से उनकी विदाई कैसे हुई?

दरअसल, 6 जनवरी 2025 को उन्होंने प्रधानमंत्री और सत्ताधारी लिबरल पार्टी के नेता के पद से इस्तीफ़ा दे दिया. वो 2015 में कनाडा की सत्ता में आए थे. उस दौर में लिबरल पार्टी की हालत ख़राब थी. लोगों को लग रहा था कि पार्टी का अंत नज़दीक है. लेकिन अंदाज़े ग़लत साबित हुए. ट्रूडो ने न सिर्फ चुनाव जीता, बल्कि शुरुआती कुछ बरसों में बेहतरीन काम करके भी दिखाया. फिर, 2017 के बाद से ट्रूडो पर करप्शन के आरोप लगने लगे. ये भी कहा जाने लगा कि वो कनाडा की अर्थव्यवस्था को सही ढंग से नहीं चला पा रहे हैं.
कोविड के दौर में मिसमैनेजमेंट के आरोप लगे. घरेलू मोर्चे पर विरोध शुरू हुआ. पार्टी में आंतरिक कलह हुई. फिर, 2023 में हरदीप सिंह निज्जर की हत्या के मामले में भारत से विवाद शुरू हुआ. ये विवाद थमा नहीं भी था कि ट्रंप चुनकर आ गए. ट्रूडो को अमेरिका का गवर्नर बताने लगे. इसी बीच उनकी अप्रूवल रेटिंग भी गिरने लगी. इन सब के चलते ट्रूडो ने इस्तीफ़ा दे दिया. कहा कि तब तक काम संभालता रहूंगा, जब तक लिबरल पार्टी नया नेता नहीं चुन लेती. 9 मार्च को लिबरल पार्टी ने मार्क कार्नी को अपना नेता चुना.
14 मार्च को वो प्रधानमंत्री बने. ट्रंप के ख़िलाफ़ कड़ा रुख़ अपनाया. फिर, 23 मार्च को उन्होंने अचानक कार्यकाल पूरा करने से पहले ही चुनाव का एलान कर दिया. आधिकारिक तौर पर कनाडा में 20 अक्तूबर 2025 को चुनाव होने थे. कार्नी ने तर्क दिया कि ट्रंप का सामना करने के लिए एक मजबूत और सकारात्मक जनादेश चाहिए. जल्दी चुनाव कराने की तारीख़ तय हुई 28 अप्रैल, 2025.
जब ट्रूडो ने इस्तीफ़ा दिया था तब वो पोल सर्वे में पीछे चल रहे थे. दिसंबर 2024 में सिर्फ़ 22 फ़ीसदी कनाडाई लोगों ने कहा कि वो ट्रूडो के नेतृत्व का समर्थन करते हैं. उस वक़्त कनाडा की कंजर्वेटिव पार्टी के नेता पिएरे पोलिविएयर, ट्रूडो से इस पोल में 24 प्वाइंट आगे चल रहे थे. ये इस बात का संकेत था कि कनाडा के अगले चुनाव में लिबरल्स को बड़ी हार का सामना करना पड़ा सकता है. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. पिएरे पोलिविएयर ने राजधानी ओटावा में अपनी सीट तक खो दी. सोचिए, एक पेशेवर राजनीतिज्ञ, जो पिछले दो दशकों से, यानी 25 वर्ष की उम्र से, इस सीट पर काबिज था, वो भी हार गया. और क्या-क्या हुआ इस चुनाव में? समझने के लिए पहले बेसिक्स क्लियर करिए.
कनाडा, नॉर्थ अमेरिका महाद्वीप के उत्तरी भाग में बसा है. ये एक संवैधानिक राजतंत्र और संसदीय लोकतंत्र है. सरकार ब्रिटिश क्राउन के नाम पर काम करती है लेकिन उनकी पॉवर का स्रोत है, वहां की जनता. कनाडा की संसदीय प्रणाली, ब्रिटिश, या "वेस्टमिंस्टर" परंपरा से उपजी है. संसद में क्राउन, सीनेट और हाउस ऑफ कॉमन्स शामिल हैं. न्यायपालिका क़ानून और संविधान की व्याख्या और उसे लागू कराने तथा निष्पक्ष निर्णय देने के लिए जिम्मेदार है. संसद में दो सदन हैं.
- ऊपरी सदन को सीनेट कहते हैं. इसमें कुल 105 सीटें हैं.
- निचले सदन का नाम है, हाउस ऑफ़ कॉमन्स. इसमें कुल 338 सीटें हैं.

इसके सदस्यों का चुनाव जनता के डायरेक्ट वोट से होता है. हाउस ऑफ़ कॉमंस में बहुमत पाने वाले दल या गठबंधन का नेता देश का प्रधानमंत्री बनता है. बहुमत के लिए ज़रूरी आंकड़ा है, 170. इस चुनाव में किसको कितनी सीटें मिलीं? एक-एक कर देखते हैं. अब तक जितने परिणाम जारी हुए हैं, उसके मुताबिक़
- लिबरल पार्टी को 168 सीटें मिली हैं. मार्क कार्नी इसके उम्मीदवार थे.
- कंज़र्वेटिव पार्टी को 144 सीटें मिलीं हैं. पिएरे पोलिविएयर इसके उम्मीदवार थे.
- ब्लॉक क्यूबेकॉइस को 23 सीटें मिलीं हैं. यवेस-फ्रांकोइस ब्लैंचेट इनके उम्मीदवार हैं.
- न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी को 7 सीटें. इनके उम्मीदवार थे जगमीत सिंह.
- ग्रीन पार्टी को 1 सीट.

आंकड़ों को देखें तो आप समझ सकते हैं कि लिबरल और कंज़र्वेटिव दोनों पार्टियों को पिछले चुनाव के मुक़ाबले बढ़त मिली है. लिबरल और कंज़र्वेटिव्स की वोट शेयर में बढ़ोतरी की क़ीमत छोटी पार्टियों को चुकानी पड़ी है. ख़ास तौर पर न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी (NDP) का वोट शेयर लगभग 12 फ़ीसद कम हो गया है. NDP के मुखिया जगमीत सिंह थे. इन्हें भारत-विरोधी स्टांस के लिए जाना जाता है. इस चुनाव में जगमीत ख़ुद अपनी सीट भी हार गए हैं. इस हार के बाद उन्होंने अपनी न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी (NDP) के चीफ से इस्तीफा दे दिया है. इस चुनाव का आधिकारिक रिजल्ट 30 अप्रैल या 1 मई को आएगा. हालांकि, लिबरल पार्टी को अभी बहुमत नहीं मिला है और उसे सरकार बनाने के लिए दूसरी पार्टियों से गठबंधन करना पड़ेगा. जैसा कि उसने 2019 और 2021 मेंं किया था.
लेकिन मार्क कार्नी ने बाज़ी कैसे पलट दी? सबसे बड़ा सवाल यही है. डॉनल्ड ट्रंप ने जबसे सत्ता में वापसी की, कनाडा को लेकर जो ज़हर उगला, वो हर दिन बढ़ता गया. कनाडाई वोटर हिल गए. देश की संप्रभुता का सवाल खड़ा हो गया. कनाडा में ग़ुस्सा फूटा. इसी दौर में एक और मोर्चा खुला. ट्रम्प ने कनाडा पर 25% टैरिफ लगाने की धमकी दे दी. ट्रूडो भागे-भागे वॉशिंगटन पहुंचे. लेकिन ट्रंप ने लौटते ही उन्हें 'गवर्नर ऑफ अमेरिका' बोल दिया. ट्रूडो ख़ामोश रहे. इससे कनाडा की अवाम में उनकी साख और गिरी.
इसी बीच लिबरल पार्टी ने मार्क कार्नी को मैदान में उतार दिया. जो न तो प्रोफेशनल पॉलिटिशियन थे, न ही कभी चुनाव लड़े थे. लेकिन जो आर्थिक संकटों के दौर में कनाडा और ब्रिटेन को संभाल चुके थे. ये कहानी हम आपको आगे बताएंगे. ख़ैर, ट्रंप के बयानों से उपजे मौक़े को मार्क कार्नी ने पहचाना. इस चुनाव को ट्रंप बनाम कनाडा की लड़ाई बना दिया. अपनी रैलियों में सीधा वार किया. बोले,
अमेरिका हमें तोड़ना चाहता है, ताकि हमें निगल सके. लेकिन हम कभी झुकेंगे नहीं.
दूसरी तरफ थे कंज़र्वेटिव नेता पियरे. उन्होंने ट्रंप का नाम मुश्किल से लिया. महंगाई, हाउसिंग संकट, अपराध, घरेलू मुद्दों पर टिके रहे. लेकिन माहौल अब बदल चुका था. मार्क कार्नी ने सीधे राष्ट्रवाद के धागे को पकड़ा. कुछ ही हफ़्तों में नज़ारा बदल गया. पोल्स में 30 पर्सेंट का स्विंग हुआ. लाखों वोटर अचानक लिबरल पार्टी की तरफ लौटे. पियरे इस बदले हुए माहौल को भांप नहीं सके. उन्होंने ट्रंप को सीधे चुनौती नहीं दी. नतीजा साफ रहा. पियरे की आक्रामक राजनीति ध्वस्त हो गई. और, कनाडा ने पहला ऐसा प्रधानमंत्री चुना, जिसने कभी कोई चुनाव नहीं लड़ा था. इस प्रधानमंत्री की कहानी क्या है? संक्षिप्त में जानिए.
कहानी शुरू होती है कनाडा के फ़ोर्ट स्मिथ शहर से. कार्नी वहीं पैदा हुए. ठंडी, दूरदराज़ जगह. पढ़ाई की हार्वर्ड में. स्कॉलरशिप पर वहां पहुंचे. आइस हॉकी खेलते थे, गोलकीपर थे. फिर ऑक्सफोर्ड से पीएचडी की. 1995 में पीएचडी पूरी हुई. 2003 में बैंक ऑफ़ कनाडा में शामिल हुए. 2008 की ग्लोबल मंदी के वक्त वही गवर्नर थे. और कनाडा उस तूफ़ान से काफ़ी हद तक बच निकला. क्यों? क्योंकि कार्नी ने ब्याज़ दरें गिरा दीं. और साफ़-साफ़ कहा. एक साल तक दरें नहीं बढ़ेंगी. बिज़नेस कॉन्फ़िडेंस बना रहा. बाज़ार थमे, लेकिन गिरे नहीं.
2013 में ब्रिटेन ने उन्हें बुला लिया. कार्नी बैंक ऑफ़ इंग्लैंड के पहले गैर-ब्रिटिश गवर्नर बने. इसके बाद ब्रेक्ज़िट आया. यानी EU से ब्रिटेन का एग्जिट. ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने इस्तीफ़ा दिया. इसके बाद करेंसी पाउंड को झटका लगा. कार्नी ने कैमरे के सामने आकर देश को भरोसा दिलाया. बैंकिंग सिस्टम सलामत रहेगा. 2011 से 2018 तक, दुनिया के तमाम रेग्युलेटरी बॉडीज़ को जोड़ने वाले फाइनेंशियल स्टेबिलिटी बोर्ड के चेयरमैन रहे. G20 में उन्होंने ट्रंप को क़रीब से देखा. कार्नी बिल्कुल पॉलिटिक्स में नए थे. लेकिन आर्थिक रणनीति के मैदान में पुराने योद्धा.
भारत पर असरसितंबर 2023 में ट्रूडो ने सीधे भारत पर आरोप लगाया. कहा, खालिस्तानी आतंकी हरदीप सिंह निज्जर भारत के एजेंट्स के इशारे पर मारा गया. निज्जर, खालिस्तान टाइगर फोर्स (KTF) का सरगना था. पंजाब में हुई टारगेट किलिंग्स के पीछे उसी का नाम बार-बार आता रहा. भारत पहले ही KTF को आतंकी संगठन घोषित कर चुका है. लेकिन ट्रूडो के इस बयान ने भारत-कनाडा रिश्तों में तनाव पैदा किया. जब भारत पर आरोप लगे तो उसने कड़ी आपत्ति दर्ज कराई. कनाडा के एक्टिंग हाई कमिश्नर और पांच डिप्लोमैट्स को बाहर का रास्ता दिखाया गया. अपने हाई कमिश्नर को भी वापस बुला लिया.

इसके बाद वीज़ा सेवाएं रोक दी गईं. ट्रूडो ने अपनी ज़िद जारी रखी. नतीजा ये हुआ कि भारत और कनाडा के रिश्ते पूरी तरह फ्रीज़ हो गए. ऊपर से ट्रूडो की घरेलू राजनीति भी खालिस्तानी नेताओं के दबाव में चल रही थी. उनकी अल्पमत सरकार को NDP का समर्थन चाहिए था. और NDP के नेता जगमीत सिंह, खालिस्तान की खुली वकालत करते रहे. फिर तस्वीर बदली. ट्रूडो गए. मार्क कार्नी आए. मार्च 2025 में जब वे प्रधानमंत्री बने तो एक मंदिर में रामनवमी मनाने पहुंचे.
कार्नी का रुख अब तक ट्रूडो से बिल्कुल उल्टा रहा है. उन्होंने कई बार कहा कि भारत-कनाडा रिश्ता बेहद अहम है. ट्रंप के टैरिफ वाले तेवरों के बाद अब कार्नी नए साझेदारों की तलाश में हैं. और इसमें भारत का रोल बहुत बड़ा माना जा रहा है. कार्नी अब तक निज्जर की हत्या पर कुछ नहीं बोले हैं. भारत भी हालात पर नज़र रख रहा है. रिपोर्ट्स बताती हैं कि भारत कनाडा में अपने हाई कमिश्नर को बहाल करने पर विचार कर रहा है.
कार्नी अब तक ट्रंप से मिले नहीं हैं. सिर्फ़ एक दफ़े उनकी फ़ोन पर बात हुई है. 28 मार्च को हुई इस बातचीत में तय हुआ था कि जो भी प्रधानंत्री चुना जाएगा ट्रंप उससे नेगोशिएट करेंगे. क्या मार्क कार्नी कनाडा को ट्रंप के मंसूबों से बचा पाएंगे? क्योंकि इस बार मुसीबत सिर्फ़ इकॉनॉमिक नहीं, पॉलिटिकल भी है. ट्रंप के साथ उनका रिश्ता कैसा हो सकता है? इन सारे सवालों के जवाब आने वाले दिनों में मिल जाएंगे.
वीडियो: दुनियादारी: क्या डॉनल्ड ट्रंप ने कनाडा का चुनाव पलटा?