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कानू सान्याल: एक छात्र के नक्सली बनने की कहानी

पढ़िए बप्पादित्य पॉल की पुस्तक 'पहला नक्सली: कानू सान्याल की जीवनी' के कुछ अंश.

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सत्यबप्पादित्य पॉल न्यूज़मेन, कोलकाता के संपादक हैं. 2005 में सिलीगुड़ी में द स्टेट्समैन में एक कर्मचारी पत्रकार के रूप में शुरुआत करने से पहले उन्होंने मास कम्युनिकेशन से ग्रेजुएशन की डिग्री ली. पॉल ने नक्सलवाद से लेकर गोरखालैंड आंदोलन, समकालीन भारतीय राजनीति से लेकर पर्यावरणीय दुर्दशा तक विभिन्न मुद्दों पर कई आर्टिकल लिखे हैं. पहला नक्सली: कानू सान्याल की अधिकृत जीवनी उनकी पहली किताब है.

ऐसा कभी-कभी ही होता है कि किसी एक व्यक्ति की कहानी उसके द्वारा किए गए कार्य के साथ इतना ज़्यादा गुंथ जाती है कि उस व्यक्ति विशेष को और उस कार्य को एक-दूसरे से अलग करना नामुमकिन हो जाता है. कानू सान्याल की कहानी ऐसी ही एक दुर्लभ कहानी है: इसे पढ़ना यानि नक्सली आंदोलन के इतिहास को, जिसे भारतीय संस्थानों ने देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा ख़तरा माना है, फिर से अनुभव करना है. यह पुस्तक कानू सान्याल के बचपन से लेकर नक्सलबाड़ी विद्रोह के दिनों और उससे भी आगे की कहानी बयान करती है. यह पुस्तक एक साम्यवादी विद्रोही के रूप में सान्याल की क्रमागत उन्नति पर विशद जानकारी प्रदान करती है और नक्सली आंदोलन की पृष्ठभूमि की प्रासंगिक जानकारी के साथ उसके विभिन्न चरणों पर प्रकाश डालती है. आइए पढ़ते हैं पहला नक्सली: कानू सान्याल की अधिकृत जीवनी के कुछ अंश-


पहला नक्सली: कानू सान्याल की अधिकृत जीवनी- पुस्तक अंश

राजनैतिक खोज में उलझे हुए सान्याल 1948 में आई.एस.सी की परीक्षा में बैठे परंतु उन्हें सफलता प्राप्त नहीं हो पाई. वे रसायनविज्ञान में अनुत्तीर्णत्तीर्ण हो गए. पिताजी अन्नदा गोविन्द ने उन्हें अगले सत्र में परीक्षा में फिर से बैठने की सलाह दी परंतु सान्याल ने मना कर दिया. उन्होंने आगे पढ़ाई करने में अनिच्छा दर्शाई और कहा कि पढ़ाई के बजाय वे सरकारी नौकरी करना चाहेंगे. यह सुनकर, अन्नदा गोविन्द ने उनकी हंसी उड़ाते हुए कहा कि मात्र एक मैट्रिक-पास को भला कौन नौकरी देगा. परंतु सान्याल इससे अविचलित नहीं हुए; उन्होंने एकाग्रचित्त होकर जल्द -से-जल्द सरकारी नौकरी ढूँढ़ने की कोशिश शुरू कर दी. 25 मार्च 1948 को, पश्चिम बंगाल की प्रांतीय सरकार ने साम्यवादी दल (ज़्यादातर सीपीआई के नाम से जाने जानी वाली) पर प्रतिबंध लगा दिया. कांग्रेस के नेतृत्व में बनी उस वक्त की राज्य सरकार के मुख्यमंत्री बिधानचन्द्र रॉय थे. इस घटना से सान्याल को बहुत ताज्जुब हुआ. “मेरे दिमाग में यह प्रश्न आया कि आखिर आज़ाद भारत में एक राजनैतिक दल पर प्रतिबंध क्यों लगाया गया है, वह भी ऐसे भारत में जो कि अब अंग्रेजों के पंजे से मुक्त हो चुका है? मैं बहुत ही हताश होकर इसके उत्तर की खोज में था,” वे याद करते हैं. सान्याल के परिवार का सिलीगुड़ी में स्थानांतरण होने के बाद, उनकी दोस्ती साम्यवादी दल की विद्यार्थी शाखा- अखिल भारतीय विद्यार्थी संघ (एआईएसएफ) - के कार्यकर्ता राखाल चौधरी से हुई. राखाल सिलीगुड़ी के बाबूपुरा के रहनेवाले थे. उनको तपेदिक रोग का निदान हुआ था जो उस वक्त एक जानलेवा बीमारी मानी जाती थी. लेकिन राखाल भाग्यशाली थे कि कुर्सियांग के आरोग्य-आश्रम (सेनेटोरियम) के लम्बे इलाज के बाद वे पूर्ण रूप से ठीक हो गए थे. स्पष्टत:, तपेदि का इलाज करानेवाले के बारे में बहुतसी अफवाहें फैलती थीं; और जब राखाल स्वस्थ होकर घर लौटे तो अजनबी सान्याल सिर्फ़ ‘उत्सुकतावश’ उनसे मिलने पहुंचे। इसी क्रम में, वे दोनों दोस्त बन गए. एक शाम, राखाल के घर पर हुई भेंट के दौरान, उन दोनों ने साम्यवादी दल पर राज्य सरकार के प्रति बंध पर समीक्षात्मक दृष्टिकोण से विश्लेषण करना शुरू किया. चर्चा के दौरान, राखाल ने साम्यवादियों के साथ संपर्क रखने के लिए एक गुप्त समूह बनाने का प्रस्ताव रखा. उसने सान्याल को उस समूह का नेतृत्व करने के लिए कहा लेकिन सान्याल ने इस ज़िम्म्मेदारी को यह कहकर नकार दिया कि वे सिलीगुड़ी में किसी भी साम्यवादी नेता को नहीं जानते हैं. लेकिन राखाल ने अपना आग्रह न छोड़ते हुए उन्हें यह कहा कि वे उनका परिचय अपनी पहचान के एक साम्यवादी नेता से करा देंगे. लगभग उसी दौरान, सान्याल की मुलाकात अपने पिता अन्नदा गोविन्द के मित्र सुनील सरकार से हुई. सरकार बीपीटीयूसी (बंगाल प्रांतीय श्रमिक संघ कांग्रेस) के सदस्य थे, यह कांग्रेस दल से सम्बद्ध श्रमिकों (मजदूरों) का एक संघ था. कांग्रेस में होने के बावजूद, सरकार का झुकाव साम्यवादी दल की तरफ़ था. उन्होंने सान्याल के सामने एकत्रित साम्यवादी दल में शामिल होने का प्रस्ताव रखा. उन्होंने युवा अमल कुलचार्य से मित्रता की जिसने कुछ समय पहले मैट्रिक की परीक्षा दी थी और अपने परिणाम का इंतज़ार कर रहा था. जल्द ही उनमें एक अन्य युवक भी शामिल हो गया जो अर्धसाक्षर संगठन नामक एक स्थानीय स्वयंसेवी संगठन के साथ काम करता था. इस प्रकार, सान्याल, राखाल, अमल, सुनील सरकार और उनका युवा मित्र एकत्र आये और साम्यवादियों के समर्थन में एक भूमिगत संगठन बनाया. उन्होंने इसका नाम ‘जन रक्षा समिति’ रखा.सिलीगुड़ी की जलपाईगुड़ी सड़क पर बंगाल विनियर सॉमिल नामक एक आराघर (यंत्र से लकड़ी चीरने का कारखाना) था. वहां पर बंगाल प्रांतीय श्रमिक संघ कांग्रेस रेस से सम्बद्ध श्रमिक संघ था जिस के प्रभारी सुनील सरकार थे. राखाल ने प्रस्ताव रखा कि ‘जन रक्षा समिति’ का पहला कार्य आराघर संघ को अपनाना होगा. समूह के बाकी के सदस्यों ने भी ख़ुशी-ख़ुशी से इस सुझाव को सहमति दे दी. मजदूरों के साथ संघटित होने की संभावना के चलते उन सबमें से सबसे ज़्यादा खुश सान्याल थे. लगभग उसी समय, उनकी मुलाकात सुधांग्शु सेनगुप्ता से हुई जो ढाका (पूर्व बंगाल) के निवासी थे और साम्यवादी दल के सक्रिय कार्यकर्ता थे, और उस वक्त सिलीगुड़ी में छिपे हुए थे. सेनगुप्ता का छोटा भाई बंगाल विनियर सॉमिल के श्रमिक संघटन का सचिव था. इससे उनके संबंध मज़बूत करने में और ‘जन रक्षा समिति’ की ताक़त बढ़ाने में मदद मिली. समिति ने पूरी सिलीगुड़ी में सीपीआई पर लगे प्रतिबंध के विरोध में इश्तेहार (पोस्टर) चिपकाने शुरू कर दिए. इन इश्तेहारों में पूरे बंगाल में साम्यवादी कार्यकर्ताओं पर किए गए पुलिस के अत्याचारों की भी निंदा की गई थी. “राखाल इश्तेहार लिखने में बड़ा माहिर था. हम द नेशन और पश्चिम बंग में छपी हुई ख़बरों पर से मुद्दे तैयार करते थे और पुलिस से बचने के लिए रातोंरात इन इश्तेहारों को चिपका देते थे,” सान्याल याद करते हैं. सीपीआई के साथ सहानुभूति दर्शानेवाले इन इश्तेहारों से सिलीगुड़ी के पुलिस अधिकारियों में ख़लबली मच जाती थी; लेकिन लाख कोशिशों के बावजूद भी वे यह पता लगाने में नाकामयाब रहे कि इसके पीछे किन लोगों का हाथ था. इन सबके साथ ही सान्याल की सरकारी नौकरी पाने की अपनी ज़ोरदार कोशिश भी चालू थी. अपनी इसी धुन के चलते 1948 के अंत तक उन्हें दार्जिलिंग की पहाड़ियों में स्थित कालिमपोंग उपमंडल दफ़्तर में नौकरी मिल गई. सान्याल को राजस्व वसूली लिपिक के पद पर नियुक्त किया गया. इस नौकरी के लिए उन्हें एक लिखित परीक्षा देनी पड़ी जिसमें उन्होंने सभी सहभागियों के बीच द्वितीय स्थान प्राप्त किया. कालिमपोंग में अपने दफ़्तर के नज़दीक घर किराये पर लेने के बजाय, सान्याल ने उस शांत पहाड़ी शहर में एक सराय में ठहरने का विकल्प चुना. उन्होंने मासिक भाड़े पर एक कमरा किराये पर लिया और सराय द्वारा उपलब्ध कराया गया भोजन खाते रहे. सान्याल बड़ी उत्सु्सुकता से शनिवार का इंतज़ार करते थे, जब उनके दफ़्तर की आधी छुट्टी होती थी. दोपहर में, जैसे ही दफ़्तर बंद होता था, वे तुरंत ही सिलीगुड़ी के लिए निकल पड़ते थे; माता-पिता से भी मिलने से ज़्यादा अपनी राजनैतिक गतिविधियों को पूरा करना इसका मुख्य कारण था. शनिवार शाम से लेकर रविवार रात तक, सान्याल ‘जन रक्षा समिति’ की बैठकों, इश्तेहार चिपकाने, श्रमिक संघ की गतिविधियों का कार्य करने में उलझे रहते थे. दफ़्तर में जाने के लिए वे सोमवार की सुबह कालिमपोंग लौट जाया करते थे. यही दिनक्रम हफ़्त्ते-दर-हफ़्त्ते चलता रहा. ‘जन रक्षा समिति’ से जुड़े रहने के इन्हीं दिनों में सान्याल धीरे-धीरे साम्यवादी दल के भी निकट आते जा रहे थे. यह किसी कायापलट से कम नहीं था; यह वही सान्याल थे जो किसी समय नेताजी को गद्दार कहने के कारण साम्यवादियों से नफ़रत करते थे. “साम्यवादी दल से जुड़ने की इच्छा किसी वैचारिक प्रेरणा का नतीज़ा नहीं थी. बल्कि यह तो युवावस्था में आनेवाली अस्वस्थता और कुछ नया कर गुज़रने की सोच के चलते था. “मैं किसी उत्तेजनापूर्ण वस्तु के लिए अधीर था, कुछ ऐसा जो बिल्कुल नया-ताज़ा हो, लेकिन इस बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं थी,” सान्याल बताते थे. वे बिना किसी हिचकिचाहट के यह स्वीकार करते थे कि अपने महाविद्यालय के दिनों में, बहुत बार प्रयास करने के बावजूद भी उन्हें बोल्शेविक पार्टी-र इतिहास समझ में नहीं आई थी, जो जोसेफ़ स्टालिन की पुस्तक हिस्ट्री ऑफ़ द बोल्शेविक पार्टी का बंगाली अनुवाद थी. इस मुद्दे का योग्य विचार करते हुए सान्याल स्पष्ट करते हैं, “उस वक्त तक मैंने केवल एक ही साम्यवादी साहित्य पढ़ा था, और वह यह पुस्तक थी, और मुझे इस पुस्तक का कोई भी अंश समझ में नहीं आया था, इसीलिए किसी वैचारिक प्रेरणा का तो कोई सवाल ही पैदा नहीं होता था.” 1949 में, कलकत्ता की बॉउ बाज़ार गली में पुलिस ने विरोध करनेवाले साम्यवादी आंदोलकों पर गोलीबारी की, जिसमें पांच प्रदर्शनकारियों: लतिका, प्रतिभा, अमिया, गीता और एक पुरुष की मौके पर ही मृत्यु हो गई थी. इसके बाद पूरे पश्चिम बंगाल में व्यापक रूप से तीखी प्रतिक्रियाओं की बौछार हो गई. “आखिर किस तरह आज़ाद भारत की पुलिस राजनैतिक प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चला सकती है?” यह विचार क्रोधित सान्याल के मन में आया. इस घटना के परिणामस्वरूप सान्याल दिलोदिमाग से साम्यवादी दल में शामिल होने के लिए तैयार हो गए. जब सान्याल और ‘जन रक्षा समिति ’ के उनके साथी कलकत्ता में पुलिस की गोलीबारी के विरुद्ध क्रोधित होकर बैठे थे, संयोग से उसी समय अपने क्रोध को बाहर निकालने का एक उपयुक्त मौका उनके हाथ लगा. उन्हें यह पता चला कि राज्य के मुख्यमंत्री डॉ. बिधानचन् द्र रॉय, 18 दिसंबर को सिलीगुड़ी में उपमंडलीय न्यायालय के पास एक सार्वजनिक पुस्तकालय का उद्घाटन करने आ रहे हैं. ‘जन रक्षा समिति’ ने मुख्यमंत्री के आगमन के दिन एक जुलूस निकालने का निश्चय किया. सुनील सरकार ने प्रस्ताव रखा कि पुलिस को झांसा देने के लिए वे जुलूस में कांग्रेस के झंडे लेकर जायेंगे. लेकिन सान्याल ने इस प्रस्ता्ताव का ज़ोरदार ढंग से विरोध किया जिससे समूह में वादविविवाद की स्थिति पैदा हो गई. इस समस्या को फिर काले झंडे लेकर जाने की बात पर सुलझाया गया. अब, करने के लिए दो महत्वपूर्ण काम थे: पहला, जुलूस में पर्याप्त मात्रा में आम जनता को शामिल करना और दूसरा, सिलीगुड़ी के साम्यवादी दल के नेताओं से सर्थन हासिल करना. राखाल ने अपनी बहिन रेणुका को जुलूस में पर्याप्त मात्रा में महिलाओं को एकत्र करके लाने का काम सुपुर्द किया. सुनील सरकार ने बंगाल विनियर सॉ मिल में से बड़ी संख्या में मजदूरों को लाने का आश्वासन दिया. जुलूस के लिए साम्यवादी दल का समर्थन लाने का काम सान्याल के ज़िम्मे पड़ा. सान्याल ने सिलीगुड़ी के खुदीरामपल्ली (महानंदापारा) में रहनेवाले साम्यवादी दल के नेता रुनु मित्रा का नाम सुना था। एक शाम को वे मित्रा के घर पहुंचे और अपने प्रस्तावित आंदोलन के बारे में उन्हें संक्षेप में बताया. “मुझे आश्चर्य हुआ, जब हमारे प्रयासों का समर्थन करने के बजाय, रुनुबाबू ने कठोर शब्दों में मुझे फटकार दिया। उन्होंने मुझपर कांग्रेस का दलाल होने का आरोप लगाया और कहा कि साम्यवादी दल तो इस प्रस्तावित जुलूस का समर्थन किसी कीमत पर नहीं करेगी,” सान्याल याद करते हुए बताते हैं. खिन्न मन से वे अपने साथी कार्यकर्ताओं के पास लौट गए. बाद में एक लम्बी चर्चा के बाद, उन्होंने इस जुलूस को अपने दम पर आयोजित करने का निर्णय लिया. 18 दिसंबर, 1949 को, सभी को आश्चर्य चकित करते हुए ‘जन रक्षा समिति’ ने 150 लोगों के साथ बाबूपुरा से इस विरोध प्रदर्शन की शुरुआत की. “इस सब में संभवतः सबसे ज़्यादा आश्चर्यचकित तो मैं ख़ुद था. मैं देख रहा था कि जुलूस में ज़्यादातर सहभागी बाबूपुरा इलाके से थे, जो उस वक्त सिलीगुड़ी के सबसे ज़्यादा प्रतिक्रियावादी इलाकों में से एक था,” सान्याल ने समझाया. इस जुलूस को पुलिस का पहला सामना सिलीगुड़ी पुलिस स्टेशन के सामने करना पड़ा, लेकिन जुलूस में शामिल लोगों ने मुट्ठी -भर पुलिस वालों का सामना आसानी से कर लिया और जोशीले ढंग से आगे बढ़ते रहे. दूसरे विरोध का सामना उन्हें अस्पताल के सामने करना पड़ा. इस बार पुलिसवालों की संख्या काफी ज़्यादा थी. जैसे ही प्रदर्शनकारी बलपूर्वक आगे बढ़ने का प्रयास करने लगे, पुलिस वालों ने लाठीचार्ज का सहारा लिया. पलभर की घबराहट से उबरने के बाद, प्रदर्शनकारियों ने पलटकर ईंट-पत्थरों से हमला बोल दिया. जिस समय पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच मुठभेड़ जारी थी, ठीक उसी समय मुख्यमंत्री डॉ. बिधानचन्द्र रॉय का काफ़िला सार्वजनिक पुस्तकालय के उद्घाटनस्थल की तरफ़ रवाना हो रहा था. गली में चल रहे ज़ोरदार शोर-शराबे के चलते यह काफ़िला थोडा धीमा पड़ा. “इस अवसर का लाभ उठाते हुए, हमारे कार्यकर्ता अमल कुलाचार्य ने एक ईंट उठाई और मुख्यमंत्री की एम्बेसडर गाड़ी के पीछे की कांच पर जोर से दे मारी. अमल, बिधानचन्द्र रॉय को घायल करने में असफल रहे, लेकिन जब अमल ने अपना हाथ चकनाचूर कांच के बीच से निकाला तो उनकी बांह की त्वचा लगभग पूरी छिल गई थी. उनके हाथ से बहुत ज़्यादा खून बह रहा था,” सान्याल ने उस असाधारण घटना का वर्णन करते हुए बताया. सान्याल विभूत होकर दूर से ही अमल के इस दुस्साहस को देख रहे थे. पीछे मुड़कर देखने पर पता चला कि ज़्यादातर प्रदर्शनकारी जा चुके थे. सब लोग पुलिस के प्रतिकार से बचने के लिए भाग खड़े हुए थे जब कि इस मुठभेड़ की वजह से बहुत से राह चलते लोगों का तत्क्षण समर्थन उन्हें मिल रहा था. वहां से एक दूधवाला साइकिल पर एक बड़े एल्यु्मीनियम के बर्तन में ताज़ा दूध लेकर जा रहा था. जब उसने पुलिस वालों को डंडा लेकर प्रदर्शनकारियों के पीछे भागते हुए देखा तो वह अपनी साइकिल पर से उतरा और अपनी पूरी ताक़त लगाकर वह एल्यु्युमीनिय का बर्तन एक पुलिस वाले को दे मारा. घायल अमल कुलाचार्य की देखभाल करने के लिए सान्याल अकेले ही वहां रह गए थे. वहीं पास में एक सरकारी अस्पताल था लेकिन उन्हें लगा कि अमल को वहां ले जाना ख़तरनाक होगा क्योंकि पुलिस उन दोनों को ही गिरफ़्तार कर स कती थी. सान्याल अमल को अपनी पीठ पर लादकर, गली-कूचों में से अपना रास्ता बनाते हुए, जल्दी से पुराने मछली बाज़ार के पास स्थित अपने परिचित डॉ. एल.एन.चटर्जी के दवाखाने में ले गए. डॉ. चटर्जी ने अमल के घावों को धोया, कुछ टांके लगाए और पट्टी बांध दी. लेकिन पुलिस के डर से, वे बार-बार सान्याल को यह ताकीद देते रहे कि इस बात का ज़िक्र किसी से न करें. सान्याल ने अमल को उनके घर छोड़ा और सांझ के झुटपुटे में अपने घर गए. उसी रात, सिलीगुड़ी पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी ने सान्याल के पिता अन्नदा गोविन्द को बुला भेजा. अधिकारी ने उन्हें सुबह के हिंसक जुलूस के बारे में बताया और उस आंदोलन में सान्याल की भूमिका के बारे में भी संक्षेप में बताया. उन्होंने यह भी चेतावनी दी कि कि मुख्यमंत्री के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करने के कारण सान्याल को गिरफ़्तार भी किया जा सकता है. अन्नदा गोविन्द गुस्से से आगबबूला होते हुए घर पहुंचे और सान्याल की कोड़ों से ज़बरदस्त पिटाई की. इस घटना ने पूरे परिवार में ख़लबली मचा दी; उनकी माता, निर्मला तो पुलिस वालों की गिरफ़्तारी की धमकी की बात सुनकर पूरी रात रोती रहीं. “बाबा के साथ मेरे संबंध कभी भी बहुत मधुर नहीं थे. परंतु उस दिन की पिटाई के बाद तो हमारे बीच सिर्फ़ ज़रूरत-भर का रिश्ता रह गया,”सान्याल ने बताया. अगली सुबह सान्याल दफ़्तर जाने के लिए कालिमपोंग के लिए निकल पड़े. कुछ दिनों बाद, जनवरी 1950 के दूसरे हफ़्त्ते में, उनका तबादला कालिमपोंग से सिलीगुड़ी के उपमंडलीय दफ़्तर में कर दिया गया. सिलीगुड़ी में सान्याल मुश्किल से दो-तीन दिन ही दफ़्तर में गए होंगे जब पुलिस ने उन्हें मुख्यमंत्री बिधानचन्द्र रॉय के खिलाफ़ प्रदर्शन करने के जुर्म में गिरफ़्तार कर लिया. सान्याल को भारतीय दंड संहिता के गैर-ज़मानती आरोप के तहत गिरफ़्तार किया गया था और इसीलिए स्थानीय न्यायालय के सामने प्रस्तुत करने से पहले उन्हें सिलीगुड़ी उपमंडलीय हवालात में न्यायिक हिरासत में रखा गया. “पहली बार मैंने जेल की हवा खाई थी और इसके साथ ही आनेवाले सालों में मेरे नियमित जेल में आना-जाना नित्यकर्म हो गया था,” उन्होंने बताया था. सिलीगुड़ी उपमंडलीय जेल में उनकी मुलाकात साम्यवादी दल के नेताओं सौरेश मित्रा, राधा गोबिन्द दास, मोलिन डे और महेंद्र दास से हुई। वे सभी 26 जनवरी 1950 को आनेवाले भारत के प्रथम गणतन्त्र दिवस की तैयारियों के चलते सुरक्षात्मक गिरफ़्तारी में थे. सभी ने और ख़ास तौर पर सौरेश मित्रा ने, सान्याल से ‘जन रक्षा समिति’ की आगामी गतिविधियों और योजनाओं के बारे में पूछताछ की. चर्चा के दौरान, जब सान्याल ने साम्यवादी दल में शामिल होने की इच्छा जताई तो मित्रा ने उनसे जेल से छूटने के बाद मिलने को कहा. सीपीआई के नेताओं को एक महीने बाद छोड़ दिया गया; सान्याल को तीन महीने सलाखों के पीछे बिताने के बाद ज़मानत पर रिहा किया गया. जेल से छूटने के बाद, सान्याल फिर से लौटकर दफ़्तर नहीं गए. पश्चिम बंगाल की सरकार के साथ उनकी छोटी सी व्यावसायिक कार्यावधि का यह अप्रत्याशित अंत था. अब वे अपने पिता द्वारा सिलीगुड़ी के महाबीर स्थान में सेवानिवृत्ति के बाद खोली हुई कपड़ों की दुकान में बैठने लगे. कुछ ही दिन बाद, सान्याल को साम्यवादी दल के नेता सौरेश मित्रा का एक गुप्त संदेश मिला. मित्रा ने उन्हें तराई विद्यालय के पास देशबंधु पारा में एक एकांत जगह पर मिलने के लिए बुलाया था. नियत शाम को जब सान्याल उस जगह पर पहुंचे, तो मित्रा ने साम्यवादी दल में शामिल होने की उनके विचार के बारे में उनसे एक घंटे तक प्रश्न पूछे. पूछताछ का सत्र समाप्त होने के बाद, मित्रा ने सान्याल से जल्दी ही फिर से मिलने का वादा करते हुए विदा ली. लगभग एक हफ़्त्ते बाद, वे फिर से प्रकट हुए और सान्याल को मोनोरंजन रॉय के पास ले गए, जो कि कि दार्जिलिंग ज़िले में साम्यवादी दल के संगठन-प्रभारी के प्रांतीय समिति आयोजक थे. एक छोटी सी चर्चा के बाद, रॉय ने सान्याल के सामने साम्यवादी दल की सदस्यता का प्रस्ताव रखा जो सान्याल ने ख़ुशी-ख़ुशी स्वीकार कर लिया. सान्याल अप्रैल 1950 में सीपीआई के सदस्य बने. ‘जन रक्षा समिति’ में सान्याल के साथी कार्यकर्ता-सुनील सरकार और राखाल चौधरी ने भी उनका अनुकरण किया.

किताब का नामः  पहला नक्सली: कानू सान्याल की अधिकृत जीवनी

लेखकः बप्पादित्य पॉल

प्रकाशकः सेज भाषा

उपलब्धता: सेज

मूल्यः 325 रुपए (पेपरबैक)


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