मैंने हर वह फ़न अपना रखा था जिसमें उसे मज़ा आता था. अब समझ आता है वह इश्क़ था. जब उसने कहा भी तब भी मैं बेवक़ूफ़ की तरह नही समझा. जब समझा तब तक वह एक बच्चे की मां होकर दुनिया को भी छोड़ गई. मुझे इश्क़ नही पता. अगर किसी के साथ खुश रहना इश्क है तो मैंने किया है इश्क. अगर पार्कों में घूमना,फ़िल्म देखना,एक कप में चाय पीना,बिला वजह दिमाग में किसी का ख्याल आना, उसकी तस्वीर देखते रहना इश्क है तो मैं इश्क में था. क्या करें जब कुछ समझ में आए तो समझ भी जवाब दे देती है. आज भी घूमना,पढ़ना,चाय साथ मगर बिल्कुल अकेले. दिल में कभी कभी कोई दस्तक दे जाता है फिर भी उस वक़्त उसी वक़्त की तरह दिमाग तेज़ चलने लगता है और दिमाग ऐसी एडिटिंग करता है कि उस दस्तक का वजूद भी खत्म हो जाता है. देखते हैं कभी कोई दस्तक एडिटिंग को हरा भी पाती है या नहीं. तब तक मैं नशे में हूं. चाय के नशे में.
सांकेतिक फ़ोटो
#आशिक़ी_द्वितीय
तुम गाना गा रही हो?अच्छा वह वाला गाओ न.जो उस दिन कालेज की सीढ़ियों पर गा रही थीं. जिसके लफ्ज़ मेरे कानों में आज भी गूंज रहें. तुम्हे याद है हमने सैकड़ों क्लास सिर्फ अपना क्लॉस मेंटेन करने में बंक की थी. तुम्हारे अल्लामा इक़बाल जैसे अड़ियल शायर बाप के लिए दो सौ शेर याद किये थे,फिर भी उन्होंने कह ही दिया था यह तुमसे,कहां फंस गई बेटा. तुम तो जानती हो आइंस्टीन का फार्मूला याद करने में मुझे 6 महीने लग गए थे जबकि शेर दो हफ़्तों में. कितना फ़र्क था हममे और तुममें. मैं वही हिंदी वाला मूंगा और तुम उर्दिश वाली याक़ूत. मैं इसे इश्क़ तो नही कहूंगा, न समझूंगा.इसे तो मगरूरियत की फक्कड़पन के आगे शिकस्त कहूंगा.
इश्क़ होता तो आज कुछ और होता. मज़ा तो तब आया जब तुम्हारे सिगार वाले अब्बा तो तैयार हो गए मगर मेरे बीड़ी वाले अब्बा का फटीचर खानदान सामने आ गया. वह खानदान जिसने हमेशा ही अब्बा को फेहरिस्त में इतने नीचे जगह दी की अगर कलम ज़रा से फिसलती तो वह मुगलिया खानदान से बाहर हो जाते. फिर भी बालक बीड़ी के धुंए से भरी अब्बा की खानदानी नाक ने तुम्हारे शेरवानी खानदान को मना कर दिया. तुम भी तो किमाम की सैकड़ो गोलियां खाकर काफ़ूर को जिस्म से मल बैठी. तुम अल्लामा को,हमको,दुनिया को छोड़कर उस गाने की धुन बन गई जो आज तुम गा रही हो. तुम्हारे जाने के बाद मैं तब तक इस धुन में रहूँगा जब तक कोई दूसरी धुन मुझमे घुन नही लगा देती.
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#आशिक़ी_तृतीय
अब बेतुकी बात मत करना।पहले ही कह चुका हूं. मुझे बहुत डर लगता है. कोई देख गया तो,खैर तुमसे बातें करें वह भी छुप छुप कर. मेरे जिगरा नही है।एक तो तुम यही फ़र्क़ देख लो न की तुम आलिमत जैसे मज़हबी कोर्स में हो मैं एक नम्बर का गैर मज़हबी. जब तुम सलाम करती हो लगता है मैं किसी मदरसे की चौखट पर खड़ा हूं. तुम जैसे ही खिड़की से झांकती हो मुझे अपने आप अज़ान सुनाई देने लगती है. जब तुम मुझ पर हाथ रखती हो लगता है मलकुल मौत रूह निकाल रही है और हां ख़त तो मत ही लिखा करो, दुनिया कहां पहुंच गई तुम अब भी कलम और कागज़ में अटकी हो।वो भी उर्दू में खत,पढ़ने मे ही मोहब्बत की बैंड बज जाए.
जाओ और कोई बढ़िया खूब बालों वाली दाढ़ी वाला घबरु मौलाना ढूंढ लो,यहां तो तुम्हारा ईमान ही टूट जाएगा. अब यह न कहना की तुम मुझमे ही सारी क़ायनात देखती हो. वैसे भी मुझे इतनी क़ुरान की आयते याद नही जितनी तुम हम पर पढ़ कर फूंका करती हो.
मुंह पर फूंकते वक़्त यह भी ख्याल नही रखती की तुम्हारी बीमारी के जरासीम मुझमे भी आ जाएंगे।माना की तुम बेहद खूबसूरत हो मगर यह तो बताओ मेरे अलावा कौन यह खूबसूरती देख पाया है. पर्दा इतना तगड़ा जैसे मिस्र की ममी. कमबख्त अपने अमीर दोस्तो को तुम्हारी खूबसूरती दिखा कर जला भी नही पाऊंगा.
मैं तमाम कमियां निकालता रहा और वह एक बेहद खूबसूरत, नूरानी चेहरे वाले मौलाना की दुल्हन हो गई. मौलाना की दाढ़ी में जितने बाल थे उतने तो मेरे जिस्म भर में नही थे. वो मौलाना अमरीका,यूरोप,गल्फ़ के बच्चों की क्लास ऑनलाइन लेते हैं. हद तो तब हुई जब उसने मुझसे औरों से ज़्यादा गाढ़ा पर्दा कर डाला. अपने बच्चे से मामू भी नही कहलवाया।मौलानी होती ही हैं ऐसी, जाओ मैंने तुम्हे हमेशा के लिए भुला दिया,दफा हो जाओ मेरे ज़हन से.
पुस्तक का नाम : हैशटैग आशिक़ीलेखक : हफ़ीज़ क़िदवई प्रकाशक : रेडग्रैब बुक्स ऑनलाइन उपलब्धता : अमेज़न
मूल्य: 74 रूपए (पेपर बैक)
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