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बसंतर की लड़ाई: 1971 की जंग का वो फैसला जिसने हणुत सिंह को अमर कर दिया!

आज महावीर चक्र से सम्मानित, 1971 युद्ध के हीरो लेफ्टिनेंट जनरल हणुत सिंह की जयंती है.

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फाइल फोटो (साभार- rajputcommunity.in)

सेना में जाकर देश की सेवा करने की इच्छा रखने वालों के लिए 6 जुलाई का दिन बेहद खास है. 1971 की जंग में पाकिस्तानी सेना के दर्जनों टैंक तबाह करने वाले लेफ्टिनेंट जनरल हणुत सिंह (हनुत भी लिखा जाता है) का 1933 में आज ही के दिन जन्म हुआ था. उनकी 90वीं जयंती पर लोग उन्हें उनके शौर्य के लिए याद कर रहे हैं. पत्रकार विनय सुल्तान ने भी हणुत सिंह को याद करते हुए उनसे जुड़े कई किस्से साझा किए हैं. एक लंबे ट्विटर थ्रेड में उन्होंने ‘बसंतर की लड़ाई’ का भी जिक्र किया है. उन्होंने बताया कि कैसे हणुत सिंह ने एंटी टैंक माइंस की परवाह किए बिना अपनी रेजिमेंट पूना हॉर्स को आगे बढ़ने की निर्देश दिया था. इसके बाद रेजिमेंट ने ना सिर्फ बिना कोई टैंक गवांए बसंतर नदी को पार किया, बल्कि उस पार डेरा डाली पाकिस्तानी सेना की सबसे एलीट स्क्वॉड्रन को तबाह कर दिया.

विनय सुल्तान लिखते हैं,

फ़ख्र-ए-हिंद, लेफ्टिनेंट जनरल हणुत सिंह जसोल... राजस्थान के शेखावाटी में रिपोर्टिंग के दौरान मुझे एक सज्जन मिले. नाम पूछने पर बताया, 'बसंतर सिंह'. मैंने मतलब पूछा तो बोले कि मेरे पिता जी बसंतर की जंग में लड़े थे. मैं उसी समय पैदा हुआ तो मेरा नाम भी बसंतर रख दिया

बसंतर की जंग?

1971 की जंग में खुद को पूर्वी मोर्चे पर पिटता देख पाकिस्तान ने रणनीति बदल दी. पश्चिम में नया मोर्चा खोल दिया. बसंतर रावी की सहायक नदी है. भारत के पास पहले से सूचना थी. तय हुआ कि शकरगढ़ कैप्चर करेंगे ताकि दुश्मन को हमले के लिए फेवरेबल पोजिशन ना मिले. सबसे पहले 16 मद्रास के जवानों को 1400 मीटर चौड़े रिवरबेड को पार करके सबसे पहले लाइयाल रिजर्व फॉरेस्ट में अपना मोर्चा डालना था. इसके बाद सराज चक नाम के गांव पर कब्जा करना था.

15 दिसम्बर 1971. सूरज के अस्त होने के साथ ही ऑपरेशन शुरू हुआ. 9.30 तक 16 मद्रास की एक बटालियन लाइयाल पहुंच चुकी थी. आधे घंटे में सराज चक भारत के कब्जे में था. दुश्मन ने तुरंत काउंटर ऑफफेंसिव शुरू किया. लेकिन 16 मद्रास के जवानों के हाथ पिटना पड़ा. आधी रात तक खबर आई कि गाजीपुर आरएफ से पाकिस्तानी आर्म्ड की एक टुकड़ी सराज चक की तरफ बढ़ रही है. 16 मद्रास के जवानों के लिए यह हमला रोकना मुश्किल हो जाता.

बसंतर नदी की दूसरी तरफ 17 पूना हॉर्स अपने सेंचुरियन टैंक लेकर इन्तेजार में खड़ी थी. इंजीनियर कोर के जवान एंटी टैंक माइंस से भरी बसंतर नदी में सुरक्षित रास्ता बनाने की कोशशि में लगे हुए थे. रात ढाई बजे 17 पूना हॉर्स के कमांडिंग ऑफिसर लेफ्टिनेंट कर्नल हणुत सिंह ने अपने माताहत अजय सिंह को पूना हॉर्स को बसंतर पार करवाने के निर्देश दिए. अजय सिंह ने सवाल किया, 'सर अभी माइंस फील्ड क्लियर नहीं हुआ है. हम आगे नहीं बढ़ सकते. हणुत का जवाब था, 'अजय अगर हमने अभी बसंतर पार नहीं की तो इतिहास पूना हॉर्स को कभी माफ नहीं करेगा.'

अब तक इंजीनियरिंग कोर के जवानों ने आधा रास्ता क्लियर कर दिया था. 17 पूना हॉर्स की सी स्क्वॉड्रन को बची हुई 600 गज की दूरी अपने जज्बे पर तय करनी थी. कमाल की बात है कि सी स्क्वॉड्रन के सारे टैंक बिना किसी नुकसान के बसंतर पार कर गए. यहां उन्होंने पाकिस्तान के सबसे एलीट 1 स्क्वॉड्रन से ना सिर्फ टक्कर ली. बल्कि उसे चकनाचूर कर दिया. 48 टैंक तबाह किए. सीओ को मार गिराया. इसी जंग में PVC सेकेंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल वीरगति को प्राप्त हुए.

इस जंग के बाद 17 पूना हॉर्स को नया नाम मिला- 'फ़ख्र-ए-हिन्द' और हणुत को महावीर चक्र से नवाजा गया.

हणुत का ताल्लुक मारवाड़ के जसोल ठिकाने से था. परिवार में सैनिक सेवा का इतिहास था. पिता अर्जुन सिंह जसोल पहले जोधपुर लांसर्स में थे और बाद में कच्छावा हॉर्सेज के सीओ रहे. हणुत 1952 में आईएमए देहरादून से ग्रेजुएट होने के बाद आर्म्ड कोर में कमीशन किए गए. अपने साहस के अलावा वो अपनी साफ बयानी के लिए जाने जाते थे. अम्बाला में उनकी जनरल सुंदरजी के साथ हुई नोक-झोंक के किस्से आज भी सुने जाते हैं. सुंदर जी उस समय आर्म्ड की तैयारी का जायजा ले रहे थे. हणुत जीओसी आर्म्ड हुआ करते थे. अपने प्रजेन्टेशन में उन्होंने कहा कि जंग की हालत में वो एक दिन में 20 किमी तक एडवांस कर सकते हैं.

इतना सुनना था कि सुंदरजी बिफर गए. सुंदरजी ने कहा कि आर्म्ड को हिसाब से एक दिन में 100 किमी एडवांस करना चाहिए. हणुत अपनी कुर्सी से खड़े हुए और एक सिरे से कमियां गिनवाने लगे. आखिर में कहा कि अगर उन्हें सभी जरूरी साजो-सामान मिल जाए तो वो एक दिन में 100 की जगह 120 किमी करके दे देंगे.

अपने इसी स्वभाव की वजह से हणुत को नुकसान भी उठाना पड़ा. जब उनके आर्मी चीफ बनने की बारी आई तो बोर्ड की सिफारिश के बावजूद राजनीतिक नेतृत्व ने उनके नाम पर मोहर नहीं लगाई. उनसे जूनियर अफसर को चीफ बना दिया गया. कहा गया कि हणुत बैचलर हैं. आर्मी चीफ को कई सामाजिक आयोजन में भाग लेना होता है. लेकिन उस दौर के कई अफसर इस तर्क से सहमत नहीं थे. कहा जाता है कि राजीव गांधी ने ही हणुत को ऑपरेशन ब्रासटैक्स के लिए चुना था. कहने को यह महज एक सैनिक अभ्यास था, लेकिन इसने दोनों देशों को युद्ध की कगार पर ला छोड़ा था.

बाद में राजीव ने राजनीतिक दबाव के चलते कदम पीछे खींच लिए. उसके बाद हणुत और राजीव के बीच रिश्ते सजह नहीं रहे. इतना सबकुछ होने पर भी हणुत ने कोई हुज्जत नहीं की. बड़ी इज्जत के साथ अपनी सर्विस पूरी की. रिटायर होने बाद हणुत अध्यात्म की तरफ मुड़ गए. अध्यात्म में उनका रुझान बचपन से था. शिव बालयोगी का उन पर गहरा असर रहा. अपने जीवन के आखिरी दौर में वो देहरादून में रहे और आध्यामिक साधना करते हुए देह त्यागी.

जनणी जणे तो ऐसो जण
के दाता के सूर।
नहीं तो रहिजे बांझड़ी
मति गमाजे नूर।।

मारवाड़ का यह लाल, यह संत सिपाही हमें 11 अप्रैल 2015 को अलविदा कह गया. 1971 की जंग की कहानी मारवाड़ के दो सूरो के कारनामे के बिना पूरी नहीं होगी. पहले लेफ्टिनेंट जनरल हणुत सिंह जसोल और दूसरे लेफ्टिनेंट जनरल सगत सिंह... आज लेफ्टिनेंट जनरल हणुत सिंह की जयंती है. उन्हें सौ-सौ बार सलाम.

दी लल्लनटॉप भी भारतीय सेना के इस सूरमा को श्रद्धांजलि अर्पित करता है!