रावलपिंडी, पेशावर… हर जगह से क़ाफ़िले आ रहे थे. लड़कियां ऐसे ले जाई जा रही थीं, मानो भेड़ बकरियां हों. गाड़ियों में लाशें कट-कट के आ रही थीं. आवाज़ें आ रही थीं- नारा ए तकबीर, अल्लाह हू अकबर’, ‘हर-हर महादेव’…
MDH के विज्ञापनों में दिखने वाले 'महाशय' की कहानी, कैसे बार-बार फेल हुआ लड़का सबसे कमाऊ CEO बना
इनके स्टार्टअप, स्ट्रगल और 'मसाला किंग' बनने तक की सक्सेस स्टोरी जान लो

मुझे आज भी याद है, हमारे गोदाम में मोहम्मद अली साहब थे. पिताजी सारा पैसा गोदाम में रखते थे. मोहम्मद अली पिताजी से बोले, ‘महाशय जी! अगर हम सारा पैसा छीन लें तो?’ उसी समय पिताजी ने तय किया कि हम चले जाएंगे यहां से. हमने सब छोड़ दिया. 7 सितंबर, 1947 को हम अमृतसर आ गए. पहली गाड़ी से. सही सलामत आ गए. दूसरी गाड़ी में लाशें आईं. बरसात का मौसम था. एक तरफ़ पाकिस्तान था, बीच में रावी का दरिया था, दूसरी तरफ़ डेरा बाबा नानक था. बड़ी मुश्किल से पार किया, चढ़ते-चढ़ते. मत पूछो यार. रोना आ जाएगा…
महाशय धर्मपाल गुलाटी देश के बंटवारे के वक्त की त्रासदी, और उसकी वजह से परिवार को मिले कष्टों की कहानी बयां करते-करते रुआंसे हो गए थे. ये बात है लगभग 5-6 साल पहले की, जब उन्होंने ABP न्यूज़ को दिए एक इंटरव्यू में ये कहानी सुनाई थी.
ये कहानी उन्हीं महाशय धर्मपाल गुलाटी की है, जिन्होंने न केवल बंटवारे का दंश झेला बल्कि अपना और अपने परिवार का पेट भरने के लिए तांगा तक चलाया. 2-2 पैसे में मेहंदी की पुड़िया बेचीं. 27 मार्च, 1923 को जन्मे महाशय धर्मपाल, जो 2017 में FMCG सेग्मेंट में सबसे ज़्यादा तनख़्वाह पाने वाले CEO बने थे. जिन्हें पिछले साल भारत के तीसरे सर्वोच्च सिविलियन सम्मान पद्मभूषण से नवाज़ा गया था. लेकिन भारत का बच्चा-बच्चा उन्हें, उनके चेहरे, उनकी पगड़ी और उनकी मूंछों को जानता पहचानता है, तो इन वजहों के चलते नहीं. उसकी वजह दूसरी है. धर्मपाल गुलाटी की ये तस्वीर 2011 में नीदरलैंड में खींची गई थी. (WSJ/MDH)
# सबसे उम्रदराज़ ब्रांड एंबेसेडर-
महाशय धर्मपाल गुलाटी न केवल किसी ब्रांड के सबसे उम्रदराज़ ब्रांड एंबेसेडर थे, बल्कि संभवत: सबसे लंबे समय तक ऐसा करने वाले शख्स भी थे. बूस्ट ने सचिन के बदले विराट को ले लिया. सलमान ने लिम्का, थम्स अप, माउंटेन ड्यू वग़ैरह सबके विज्ञापन कर डाले. लेकिन महाशय धर्मपाल गुलाटी नाम के ब्रांड एंबेसेडर की लॉयल्टी सिर्फ़ एक प्रोडक्ट के साथ रही. MDH के साथ. कारण, वो न केवल इसके ब्रांड एंबेसेडर थे बल्कि इसके मालिक भी थे.
और यक़ीन कीजिए, महाशय धर्मपाल गुलाटी एक ब्रांड एंबेसेडर के रूप में इतने कामयाब हुए, जैसे मैगी को आप ‘2 मिनट’ से, और कोक को उसके कर्सिव फ़ॉन्ट से पहचानते हैं. उसी तरह महाशय धर्मपाल, MDH की पहचान बन गए. कभी वो किसी नए शादी के जोड़े को आशीर्वाद देते हुए दिखते, कभी किसी बच्ची को दादू बनकर खिलाते हुए और कभी अपने मसालों के ख़ालिसपन के बारे ग्राहकों को सुनिश्चित करते हुए. क़रीने से पहने हुए सफ़ारी सूट और शर्ट के ऊपर कुछ-कुछ हरियाणवी सी पगड़ी, ठीक वैसी जैसी प्राण ने चाचा चौधरी को पहनाई थी. और गले में झक्क सफ़ेद मोतियों की माला. इस सबके बावज़ूद पहली नजर में शायद यकीन न हो कि विज्ञापन में दिखने वाले ये बुजुर्ग, FMCG सेक्टर में भारत के सबसे ज़्यादा तनख़्वाह पाने वाले CEO हैं. सारे स्मार्ट, खूबसूरत, ग्लैमरस रंग-बिरंगे स्टार एक तरफ़, और इन बुजुर्ग का अपनत्व एक तरफ़. ज़िंदगी और जीने के असली मसाले… सच… सच…
# MDH-
MDH का फ़ुल फ़ॉर्म जनरल नॉलेज के लिए जानना हो तो जान लीजिए. वरना MDH, अब MDH है. एक ब्रांड. अपने आप में एक पूर्ण शब्द. राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद से पद्म भूषण प्राप्त करते महाशय धर्म पाल गुलाटी. (स्क्रीनग्रैब: प्रेज़िडेंट ऑफ़ इंडिया का यू ट्यूब चैनल)
नहीं, इसका अर्थ ‘मिर्ची, धनिया, हल्दी’ नहीं है, जैसा किसी ने मुझे बचपन में बताया था. और मैंने काफ़ी लंबे समय तक यही मान लिया था. हालांकि ऐसा लगता है तो लगने में कोई बुराई नहीं. सबसे ज़रूरी मसाले. मिर्ची, धनिया, हल्दी. MDH.
लेकिन MDH की असली फुल फ़ॉर्म है: महाशियां दी हट्टी. मतलब महाशय की हट्टी. हट्टी, हाट शब्द से बना है. हाट बोले तो ख़रीद फ़रोख़्त की जगह. चाहे बाज़ार कह लो, चाहे दुकान कह लो. वो कबीर का दोहा नहीं है- प्रेम न हाट बिकाय. मतलब प्रेम दुकान में या बाज़ार में नहीं बिकता. लेकिन मसाले बिकते हैं. और जिस दुकान में मसाले बिकते हैं, अगर वो दुकान महाशय फ़ैमिली की हो तो उसका नाम महाशय एंड संस भी हो सकता है, महाशय किराना स्टोर भी हो सकता है और महाशियां दी हट्टी भी.
महाशय वैसे तो किसी सम्मानित व्यक्ति के नाम से पहले लगाया जाता है. लेकिन MDH की गुलाटी फ़ैमली को भी महाशय फ़ैमिली कहा जाता है. धर्मपाल गुलाटी को भी लोग प्रेमपूर्वक महाशय जी कहते हैं.
# स्कूल ड्रॉपआउट, स्टार्टअप-
21वीं सदी में थ्री इडियट्स या टीवीएफ पिचर्स देखने के बाद कितनों ने ही ड्रॉपआउट, पैशन फ़ॉलो करने और स्टार्टअप को अपना ड्रीम और जीवन का उद्देश्य बना लिया था. लेकिन जिस स्कूल ड्रॉपआउट की बात हम कर रहे हैं, वो आज से लगभग एक सदी पहले का था. और वो स्टार्टअप भी. जो शायद किसी भी ओला, उबर, ज़ोमेटो, बायजू से कहीं ज़्यादा सफल रहा था. सफल है.
लोग कहते हैं कि गुरू की मार भी उनका आशीर्वाद होता है. यही हुआ 8-10 साल की उम्र के लड़के धर्मपाल गुलाटी के साथ. लेकिन कुछ अलग तरह से. फ़िफ़्थ क्लास में एक दिन उसे मास्साब किशोरीलाल ने कूट दिया. अगले दिन से उसने स्कूल जाना बंद कर दिया. पिता को चिंता लगी कि अब लड़का कमाएगा-खाएगा क्या. तो बेटे को लकड़ी का काम सिखाने दस्तकारों के पास भेज दिया. 6-8 महीने में बेटा वो काम छोड़कर आ गया. फिर साबुन से लेकर चावल की फ़ैक्टरी तक, हर जगह लड़के ने हाथ आज़माया. लेकिन मामला कहीं सेट न हुआ. घरवालों ने सोचा, शादी कर देते हैं, शायद ज़िम्मेदारी का एहसास हो, यूं 18 साल की उम्र में उस नौजवान की शादी कर दी गई. लेकिन उससे पहले ही उसे पिता ने अपने साथ रख लिया अपनी दुकान में. महाशय धर्मपाल गुलाटी अपनी पत्नी लीलावती के साथ. (तस्वीर: MDH)
क्योंकि अब वो अपने लड़के को अब अपने से दूर नहीं रखना चाहते थे. पिछली बार जिस हार्डवेयर के काम में उसे लगाया था, वहां से लड़का अपना सर फुड़वा आया था. तब से धर्मपाल गुलाटी अपने पिता की दुकान में बैठने लगे.
दुकान, जो उनके जन्म से 4 साल पहले 1919 में उनके पिता महाशय चुन्नी लाल गुलाटी ने खोली थी. नाम था महाशियां दी हट्टी. और ये हट्टी थी, सियालकोट के पंसारिया बाज़ार में. तब सियालकोट भारत में ही था. 1947 में पाकिस्तान के पास चला गया. और जैसे ही सियालकोट पाकिस्तान में गया, ये हट्टी भी बंद हो गई. लेकिन जिस तरह ‘काँटा लगा’ जैसे गाने रीलॉन्च होने के बाद ज़्यादा मशहूर होते हैं, वैसा ही महाशियां दी हट्टी के साथ भी हुआ. वो MDH बनकर दुनिया में छा गई.
हालांकि महाशियां दी हट्टी के MDH होने के बीच भी बहुत कुछ हुआ. इसकी वजह से आज हम महाशय धर्मपाल गुलाटी को याद कर रहे हैं.
जब महाशय परिवार सियालकोट से विस्थापित होकर, डेरा बाबा नानक से अमृतसर पहुंचा तो यहां उनके पास कुछ नहीं था. महाशय धर्मपाल गुलाटी ने एक बार बताया था-
जब मैं 7 सितंबर को अमृतसर के रिफ़्यूजी कैम्प पहुंचा था, तब मैं 23 साल का था. मैंने रिफ़्यूजी कैम्प छोड़ दिया, और काम की तलाश में जीजा के साथ दिल्ली आ गया.
एक्टर राजकपूर के साथ धर्मपाल गुलाटी. (WSJ/MDH)
महाशय धर्मपाल गुलाटी अपनी बहन की ससुराल में रहने लगे. दिल्ली के क़रोलबाग में. पिताजी चुन्नीलाल ने जो रूपये दिए थे, उससे तांगा ख़रीदा. दो-दो आने में सवारियों को क़रोलबाग से सीपी और सीपी से क़रोलबाग लाने-ले जाने लगे. लेकिन दिल्ली में इस तांगे वाले काम का भी वही हश्र हुआ, जो सियालकोट में बढ़ई या साबुन की फ़ैक्ट्री वाले काम का हुआ था. 2 महीने होते-होते तांगा बेच दिया. अब क्या करें? तब उन्हें अतीत की सुगंध आई, मसालों की सुगंध आई. उनको याद आने लगा कि कैसे पिताजी के साथ बैठकर 2-2 पैसे में मेहंदी की पुड़िया बेचा करते थे. कैसे उनकी देगी मिर्च की पूरे पंसारिया बाज़ार में चर्चा होती थी. बिना विज्ञापन के. और क्यों उनके परिवार को दूर-दूर तक ‘देगी मिर्च वाले’ के नाम से जाना जाता था.
तो बस! अजमल खां रोड पर सड़क किनारे एक झोपड़ी-नुमा दुकान में मसाले बेचने शुरू कर दिए. ये बात साल 1948 की थी. मसाले घर में पीसे. इस दुकान का नाम भी वही सियालकोट वाला रखा, महाशियां दी हट्टी. सियालकोट की देगी-मिर्च का तड़के यहां भी लोगों की जुबान पर चढ़ गया.
दुकान का नाम बेशक महाशियां दी हट्टी था, लेकिन इसमें मसालों के नाम ‘पाल दी मिर्ची’, ‘पाल दी धनिया’ सरीखे थे. ये पैकिंग वाला हिसाब-किताब उस वक़्त नया था. लोग तो खुले और अपने सामने पिसवाए हुए मसाले ख़रीदते थे. पैकिंग को लेकर लोगों में शंका थी. लेकिन ‘देगी मिर्च वाले’ का नाम भी तो पाकिस्तान से चलकर भारत पहुंच चुका था.
1950-60 के दौरान सरकार ने धर्मपाल गुलाटी को क़रोल बाग में दुकान नम्बर 37 अलॉट कर दी. तस्वीर में धर्मपाल गुलाटी अपने छोटे भाई सतपाल गुलाटी के साथ. (तस्वीर: WSJ/MDH)
बचा-खुचा काम महाशय परिवार ने अख़बारों में विज्ञापन देकर पूरा कर दिया. प्रताप नाम के एक उर्दू अखबार में इन्होंने पहला विज्ञापन दिया था. दुकान चल निकली. अब बड़ी जगह की ज़रूरत थी. तो 1953 में चांदनी चौक में एक दुकान किराए पर ले ली. उसके बाद 1954 में रूपक स्टोर्स नाम से ख़ुद का मसालों का एक बड़ा स्टोर खोला. महाशय धर्मपाल ने बाद में रूपक स्टोर्स को अपने छोटे भाई के नाम कर दिया. फिर 1959 में कीर्ति नगर में मसाले पीसने की एक यूनिट खरीद ली. इसके बाद दिल्ली में ही MDH की कई ब्रांच खुल गईं. पहले पंजाबी बाग में, फिर खारी बावली में…
और फिर उसके बाद जो हुआ, वो सफलताओं की दोहराई गई इबारतें हैं.
यानी पहले विक्रेता, फिर निर्माता और अब बढ़ते-बढ़ते निर्यातक… आज भारत और दुबई में ही MDH की डेढ़ दर्जन फैक्ट्रियां हैं. दुनिया के 100 देशों में इनके मसालों का निर्यात होता है. भारत के अलावा दुबई और लंदन में भी ऑफ़िस हैं. MDH के देगी मिर्च, चाट मसाला और चना मसाला के हर महीने क़रीब एक करोड़ पैकेट बिक जाते हैं. 16,000 करोड़ रुपये के मसालों के बाज़ार में MDH का दूसरा बड़ा हिस्सा है. कुल 50 से ज़्यादा प्रोडक्ट बनाने वाली MDH के मालिक महाशय धर्मपाल गुलाटी, हुरुन इंडिया रिच लिस्ट के इस वर्ष के संस्करण में भारत के सबसे उम्रदराज़ अमीर शख़्स थे. शायद भारत का पहला मसालों का स्टोर था, रूपक स्टोर्स. (MDH)
# चैरिटी-
महाशय धर्मपाल गुलाटी की मां का नाम चन्नन देवी था. इस नाम से कुछ याद आया? अगर दिल्ली के हैं तो ज़रूर याद आ गया होगा. जनकपुरी में एक हॉस्पिटल है. माता चन्नन देवी अस्पताल. महाशय धर्मपाल गुलाटी ने अपनी मां के नाम पर ये चेरिटेबल हॉस्पिटल खोला था. दादाजी या महाशय जी के नाम से फ़ेमस महाशय धर्मपाल गुलाटी ने 3 दिसंबर, 2020 को इसी अस्पताल में आख़िरी सांस ली.
हमने आपको ये तो बताया ही था कि महाशय धर्मपाल गुलाटी कुछ सबसे ज़्यादा तनख़्वाह पाने वाले CEO में से थे. ये भी जान लीजिए कि वो अपनी सैलरी का क़रीब 90% दान कर देते थे. पिता के नाम पर ‘महाशय चुन्नीलाल चैरिटेबल ट्रस्ट’ से भी उन्होंने ज़रूरतमंदों की काफ़ी हेल्प की. ये ट्रस्ट एक मोबाइल हॉस्पिटल भी चलाता है, जो झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों का इलाज करता है. इस ट्रस्ट के चार स्कूल भी हैं. माता चन्नन देवी अस्पताल. (तस्वीर: इंडिया टुडे)
# और अंत में
महाशय गुलाटी जब तक जीवित थे, ऑफ़िस से जुड़े कामों को लेकर पूरी तरह एक्टिव रहते थे. संडे को भी काम करते थे. उनके पास MDH कंपनी के 80% शेयर्स थे. बरसों तक लगातर चलते रहने को लेकर, और कभी रिटायर न होने को लेकर एक बार महाशय धर्मपाल गुलाटी ने कहा था-
अपने प्रोडक्ट्स की गुणवत्ता के प्रति ईमानदार रहना, और इसे सभी के लिए अफ़ोर्डेबल (सुलभ या सस्ता) बनाना, यही वो चीज़ें है, जिससे मुझे लगातर काम करते रहने की प्रेरणा मिलती है.
वीडियो देखें: मशहूर MDH मसाले के चेयरमैन महाशय धर्मपाल गुलाटी का 98 साल की उम्र में निधन-