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बंगाल का सबसे फेमस कोर्ट केस, जब चिता से उठकर लौट आया नागा सन्यासी और बन गया राजा!

जब भावाल रियासत का राजकुमार मौत के 12 साल बाद नागा सन्यासी बनकर लौटा!

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जज पन्नालाल बसु ने भावाल सन्यासी केस में फैसला देने के बाद जजी छोड़ दी (तस्वीर: IMDB/Wikimedia Commons )
तीन राजकुमारों की मौत

ये कहानी शुरू होती है साल 1909 में. पूर्वी बंगाल ढाका के पास भावाल नाम की एक रियासत हुआ करती थी. काफ़ी बड़ी रियासत थी. जिससे सालाना साढ़े 6 लाख रुपए की कमाई होती थी. और ये सारी कमाई जाती थी भावाल के ज़मींदार के पास, जिन्हें राजा साहब कहा जाता था. पूरा परिवार जयदेवपुर बाड़ी में रहता था, जो भावाल राज परिवार की पुश्तैनी हवेली थी. साल 1909 में इस रियासत को तीन राजकुमार संभाल रहे थे. इनमें मझला राजकुमार, जिसका नाम रमेंद्र नारायण रॉय था. वो इस कहानी का मुख्य पात्र है.

शुरुआत ऐसे हुई कि 18 अप्रैल 1909 के रोज़ रमेंद्र, भावाल से दार्जलिंग के लिए रवाना हुआ. उनके साथ उनकी पत्नी, बिभावती, बिभावती का भाई, सत्येंद्र और 21 नौकर थे. इनके अलावा एक डॉक्टर भी साथ में था. सबके दार्जलिंग जाने का एक ख़ास कारण था. रमेंद्र नारायण को सिफ़लिस की बीमारी थी, जिसके चलते डॉक्टर ने उन्हें साफ़ हवा पानी के लिए कुछ वक्त पहाड़ों में बिताने की सलाह दी . रमेंद्र पूरे कारवां के साथ दार्जलिंग पहुंचे लेकिन कुछ रोज़ बाद ही रमेंद्र की तबीयत सुधरने के बजाय और बिगड़ने लगी. और बिगड़ती ही चली गई. तीन दिन के अंदर रमेंद्र की मौत हो गई. दार्जलिंग में ही उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया. आम आदमी होता तो कोई ना पूछता, लेकिन बड़े ज़मींदार की मौत हुई थी, इसलिए जल्द की पूरी रियासत में कानाफूसी शुरू हो गई. कुछ लोगों ने शक जताना शुरू कर दिया कि रमेंद्र की हत्या में कोई षड्यंत्र है. मामला करोड़ों की प्रॉपर्टी का था, इसलिए आवाज़ें उठनी लाज़मी थीं.

शरीफ़ खान नाम का एक अर्दली, जो मंझले राजकुमार के साथ दार्जलिंग गया था, उसने कहना शुरू कर दिया कि राजा साहब को भयानक उल्टी हुई थी. जिसके कुछ छीटें उसके कपड़ों पर गिरे और उनमें सुराख़ हो गया. एक अफ़वाह ये भी उड़ी कि रमेंद्र का शरीर शमशान ले ज़ाया गया, लेकिन उसका अंतिम संस्कार वहां ना करके कहीं और किया गया. बहरहाल भावाल रियासत में ज़िंदगी जल्द ही आगे बढ़ गई. लेकिन फिर एक साल बाद कुछ ऐसा हुआ, जिससे लोगों का शक और गहरा हो गया.

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रमेंद्र नारायण राव, 1700 से 1901 तक भावाल रियासत की बागडोर रॉय वंश के हाथों में रही (तस्वीर: Wikimedia Commons) 

रमेंद्र की मौत के एक साल बाद उसके बड़े भाई, रणेंद्र की भी मौत हो गई. और इसके तीन साल बाद सबसे छोटे राजकुमार रवींद्र भी चल बसे. उस दौर में ब्रिटिश राज का एक सिस्टम हुआ करता था कि अगर ज़मींदारी संभालने वाला कोई नहीं हो तो प्रॉपर्टी की देखेरेख सरकार अपने हाथ में ले लेती. ऐसा ही भावाल रियासत के साथ भी हुआ. राजकुमारों की मौत के बाद तीनों राजकुमारों की बीवियां जयदेवपुर बाड़ी छोड़कर चली गई. और रियासत का कामकाज, कोर्ट ऑफ़ वॉर्ड्स नाम के सरकारी डिपार्टमेंट ने अपने हाथ में ले लिया. सम्भव था कि कहानी यहीं ख़त्म हो जाती लेकिन फिर इस कहानी एंट्री हुई एक ऐसे शख़्स की. जिसके आने से भावाल रियसात में एक बार अफ़वाहों को हवा मिलने लगी. 

जोगी आयो शहर में

ढाका के पास एक नदी बहती है, बुरिगंगा. 21 वीं सदी में ये बांग्लादेश की सबसे प्रदूषित नदियों में से एक है. नदी को छिपाने के लिए एक दीवार बना दी गई है. लेकिन एक वक्त में यहां एक रिवर फ़्रंट हुआ करता था. जहां लोग शाम की ठंडी हवा में घूमने ज़ाया करते थे. दिसंबर 1920 या जनवरी 1921 की बात होगी. नदी के किनारे एक जोगी, एक सन्यासी को घूमते देखा गया. जटाओं जैसे बाल, और लम्बी दाढ़ी वाला ये साधु सिर्फ़ एक लंगोट पहना हुआ था. और उसने अपने पूरे शरीर पर राख मली हुई थी. चार महीने तक नदी के किनारे वो ध्यान लगाए बैठा रहा. जैसा कि भारत में आम तौर पर होता था, लोग साधु सन्यासियों की इज्जत किया करते थे. उनसे वरदान मिलने का लालच भी हुआ करता था. इसलिए धीरे-धीरे लोग साधु महाराज के पास अपने मर्जों का इलाज पाने के लिए जाने लगे. दिन गुजरते रहे लेकिन फिर पता नहीं कैसे लेकिन अचानक शहर में ये अफ़वाह फैल गई कि ये सन्यासी और कोई नहीं, भावाल के मंझले राजकुमार रमेंद्र नारायण राय हैं.

ये अफ़वाह राज परिवार के कानों तक भी पहुंची. रमेंद्र की एक बड़ी बहन थी, ज्योतिर्मयी. उन्होंने अपने बेटे बुद्धु को सन्यासी के पास भेजा. वापस आकर उसने बताया कि सन्यासी का चेहरा मोहरा, रमेंद्र से मिलता- जुलता है. लेकिन इसका बात की पुष्टी करने का उसके पास कोई ज़रिया नहीं था. किसी ने सुझाया कि सन्यासी को जयदेवपुर लेकर आना चाहिए. 12 अप्रैल, 1921 के रोज़ सन्यासी को हाथी पर बिठाकर जयदेवपुर बाड़ी लाया गया. यहां ज्योतिर्मयी ने पहली बार सन्यासी को देखा. वो आंगन में बैठा हुआ था. सर झुकाए हुए. ज्योतिर्मयी के अनुसार उसकी एक आंख तिरछी कर देखने का तरीक़ा बिलकुल रमेंद्र की तरह था.

परिवार ने अगले कुछ रोज़ सन्यासी को अपने घर ठहराया. परिवार ने उसे राजकुमार रमेंद्र की तस्वीरें दिखाई. जिन्हें देखकर वो अचानक रोने लगा. ज्योतिर्मयी ने उससे पूछा, साधु होकर भी रो क्यों रहे हो. इस पर उसने जवाब दिया, माया के कारण.

इसके बाद ज्योतिर्मयी ने उसे अपने भाई की कहानी सुनाई. उसने बताया कि उसका भाई रमेंद्र दार्जलिंग में मर गया था. कुछ लोग कहते हैं उसका दाह संस्कार हुआ, जबकि कुछ कहते हैं, नहीं हुआ. ये सुनकर सन्यासी ने अपने आंसू पोछे और एकदम से बोल पड़ा, "नहीं ये सच नहीं है. उसे जलाया नहीं गया. वो ज़िंदा है." ज्योतिर्मयी ने उससे पूछा, उसका भाई कहां है, लेकिन सन्यासी ने आगे कुछ भी बोलने से इंक़ार कर दिया.

देखो! वो लौट आए हैं 

1921, मई के महीने तक ज्योतिर्मयी और राज परिवार के कई लोगों को यक़ीन हो चला था कि सन्यासी रमेंद्र ही है. लेकिन सन्यासी खुद ये बात मानने को तैयार नहीं था. सवालों से तंग होकर वो कुछ रोज़ बाद चटगांव चला गया. और वहां से एक हफ़्ते बाद वापस लौटा. इस बार ज्योतिर्मयी ने उससे कहा कि वो उसके शरीर के निशान देखना चाहती है.

4 मई की तारीख़. जयदेवपुर बाड़ी में सैकड़ों की भीड़ जमा थी. ज्योतिर्मयी के बेटे बुद्धु ने भीड़ के सामने घोषणा की. सन्यासी के शरीर पर ठीक वही निशान हैं, जो रमेंद्र के शरीर पर थे. हालांकि सन्यासी अभी भी मानने को तैयार नहीं था. अंत में ज्योतिर्मयी ने उससे कहा, अगर वो ये बात स्वीकार नहीं करेगा तो वो खाना पीना छोड़ देगी. इसके बाद दोपहर के वक्त सन्यासी भीड़ के सामने आया. भीड़ में से किसी ने पूछा.''तुम्हारा नाम क्या है?"

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सन्यासी की कहानी के अनुसार नागा साधुओं ने उसकी जान बचाई थी (तस्वीर: Wikimedia Commons)

सन्यासी बोला, मेरा नाम रमेंद्र नारायण राय है. इसके बाद उसके माता पिता का नाम पूछा तो वो भी उसने सही सही बता दिया. ये सुनकर भीड़ में से किसी ने कहा, "राजा रानी का नाम सबको पता है, तुम अपनी दाई मां का नाम बताओ". सन्यासी ने इस सवाल का भी ठीक जवाब दे दिया. जवाब सुनते ही भीड़ जय जयकार करने लगी. सबको पक्का यक़ीन हो चुका था कि सन्यासी ही रमेंद्र नारायण है.

जिस समय ये सब हो रहा था, रमेंद्र की पत्नी, बिभवती कलकत्ता में रह रही थी. उसे और उसके साथ-साथ राजपरिवार के सारे रिश्तेदारों को ये खबर पहुंचाई गई. एक मीटिंग बुलाकर तय किया गया कि चूंकि परिवार के वारिस लौट आए हैं. इसलिए ज़मींदारी का ज़िम्मा एक बार फिर सन्यासी उर्फ़ रमेंद्र नारायण को मिलना चाहिए. इस काम में सरकार अड़ंगा लगा सकती थी. इसलिए सबने चंदा जमाकर एक फंड जुटाया ताकि रमेंद्र को क़ानूनी हक़ दिलवाने की लड़ाई लड़ी जा सके. क़ानूनी लड़ाई होती, उससे पहले ही सरकार हरकत में आ गई. ढाका के कलेक्टर JH लिंडसे ने तुरंत पूरे शहर में कुछ नोटिस छपवा दिए. नोटिस में लिखा था,

"भावाल रियासत के सभी किरायदारों को सूचित किया जाता है कि राजा रमेंद्र के अंतिम संस्कार किए जाने के पुख़्ता सबूत सरकार के पास मौजूद है. इससे पता चलता है कि खुद को रमेंद्र बताने वाला साधु एक बहुरूपिया है. इसलिए जो कोई उसे किराया चुकाएगा, ऐसा वो अपने रिस्क पर करेगा"

ध्यान दीजिए ये वो दौर था, जब बंगाल में ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़ विद्रोह की चिंगारी सुलग रही थी. इसलिए भावलपुर केस में भी लोग सरकार के ख़िलाफ़ खड़े हो ग़ए. 10 जून को मिर्ज़ापुर में एक विरोध प्रदर्शन हुआ. प्रदर्शनकारियों की माँग थी कि सरकार रमेंद्र को उसका जायज़ हक़ दे. इस प्रदर्शन के दौरान गोली चली और एक शख़्स की मौत हो गई. और यहां से इस कहानी ने एक नया मोड़ ले लिया. जो सीधा जाकर रुक कोर्ट के दरवाज़े पर.

नागा साधु ने मरे को ज़िंदा कर दिया?

कोर्ट में क्या हुआ, उसके लिए आपको पहले सन्यासी के नज़रिए से इस कहानी को सुनना होगा. 

8 मई, 1909 की तारीख़. राजकुमार रमेंद्र की मौत के बाद उनके शव को जलाने के लिए ले ज़ाया जा रहा है. शव को चिता पर रख लकड़ियां लगाई जाती हैं. इतनी देर में अचानक कहीं से ज़ोरों की बारिश आती है और सब शव वहीं छोड़कर भाग जाते हैं. रात तक शव वहीं पड़ा हुआ था. कुछ नागा साधु शमशान से गुजरते हुए उस शव को देखते हैं. और अपने साथ ले जाते हैं. तभी चमत्कार जैसा कुछ होता है और पता चलता है, रमेंद्र मरा नहीं. ज़िंदा है. 

नागा साधु उसकी देखभाल करते हैं. रमेंद्र चंगा हो जाता है. लेकिन उसकी याददाश्त चली जा चुकी होती है. इसके बाद रमेंद्र एक नागा साधु को अपना गुरु बना लेता है. और उनके साथ विचरने लगता है. विचरते विचरते कुछ साल बाद वो ढाका पहुंच जाता है. यहां उसकी मुलाक़ात ज्योतिर्मयी से होती है. जो उसे अपने भाई की फ़ोटो दिखाती है. फ़ोटो देखते ही रमेंद्र को सब याद आ जाता है. उसकी जायदाद चुराने के लिए उसकी हत्या हुई थी. ये एक षड्यंत्र था, जो उसकी पत्नी बिभावती और उसके भाई सत्येंद्र ने मिलकर रची थी.

ये मामला ढाका सेशन कोर्ट में सुना जा रहा था. सुनवाई करने वाले जज का नाम था पन्नालाल बसु. केस दो तरफ़ से लड़ा जा रहा था. पक्ष था सन्यासी उर्फ़ रमेंद्र नारायण का. और विपक्ष में थी बिभावती, जिसके ख़िलाफ़ आरोप था कि उसने हत्या का षड्यंत्र किया. बिभावती शुरू से सन्यासी को अपना पति मानने से इंक़ार कर रही थी. वो शुरुआत से दावा करती रही कि सन्यासी एक बहुरूपिया है. सच क्या था? इसका फ़ैसला कोर्ट को करना था.

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जज पन्नालाल बसु., रमेंद्बिर की बहन, ज्योतिर्मई और बिभावती (तस्वीर: प्रिंसली इम्पोस्टर) 

पक्ष और विपक्ष, दोनों तरफ से कुछ ज़बरदस्त तर्क पेश किए गए. विपक्ष (बिभवती वाली साइड) ने कहा, सन्यासी पढ़ा लिखा तक नहीं है. वो ठीक से बंगाली तक नहीं बोल सकता. इसके विरोध ने वादी पक्ष ने कुछ गवाह पेश किए, जिन्होंने बताया कि रमेंद्र बचपन से लिखने पढ़ने में कमजोर था. विपक्ष की तरफ से दूसरा तर्क दिया गया कि अगर सन्यासी ही रमेंद्र है, तो उसमें सिफ़लिस के कोई लक्षण क्यों नहीं. जबकि रमेंद्र सिफ़लिस का रोगी था. पक्ष ने इसकी काट कुछ ऐसे दी कि इस बात को दशक बीत चुके थे, इसलिए पूरी संभावना थी कि सिफ़लिस ठीक हो गया हो. इसके अलावा उन्होंने कहा कि रमेंद्र को सिफ़लिस होने का कोई पक्का सबूत मौजूद नहीं था.

इसके बाद विपक्ष की तरफ़ से एक एक गवाह बुलाया गया. इस गवाह का नाम था धरमदास. धरमदास नागा साधु थे. उन्होंने सन्यासी की तस्वीर देखते ही कहा, "ये मेरा शिष्य है, जिसका असली नाम सुंदर दास है". धरमदास ने बताया कि साधु बनने से पहले सुंदरदास का नाम माल सिंह था. और वो लाहौर का रहने वाला था. धरमदास के अनुसार, माल सिंह को ननकाना साहिब में दीक्षा मिली थी. वो कभी दार्जलिंग नहीं गया था. और उन्होंने कभी उसे किसी चिता से भी नहीं बचाया था.

इस केस पर पार्थ चटर्जी ने एक किताब लिखी है. किताब का नाम है 'ए प्रिंसली इम्पोस्टर'. चटर्जी लिखते हैं, धरमदास की गवाही सुनने के लिए कोर्ट में हज़ारों की भीड़ जमा हो गई थी, जिसकी वजह से कार्रवाई स्थगित करनी पड़ी थी. हंगाम इतना बढ़ गया था दौरान सादे कपड़ों में कुछ पुलिसवाले जज पन्नालाल बसु के घर के आगे तैनात करने पड़े थे.

धरामदास की गवाही कई दिनों तक चली. इस दौरान वादी पक्ष ने भी उनसे सवाल किए. वादी यानी सन्यासी पक्ष के वकील ने दावा किया कि धरमदास फ़ेक गवाह है, जिसे सरकार की मदद से सिखा-पढ़ा कर भेजा गया है. इसके बाद वादी पक्ष ने अपनी तरफ़ से कई गवाह पेश किए, जिन्होंने दावा किया कि सन्यासी ही रमेंद्र है. इस केस की सुनवाई 27 नवंबर 1933 से शुरू होकर 21 मई 1936 तक चली. कुल 1584 गवाहों को पेश किया गया. जिसके बाद आया फैसले का दिन.

फ़ैसला

24 अगस्त 1936 की तारीख़. जज पन्ना लाल ने 532 पन्नों में लिखा फ़ैसला सुनाया. जिसे उन्होंने तीन महीने लगाकर पूरी मेहनत से लिखा था क्योंकि वे जानते थे ये केस हाई कोर्ट भी जाएगा. इसलिए उसमें कोई गलती की गुंजाइश नहीं थी. पन्नालाल फ़ैसले को पूरी तरह गुप्त रखना चाहते थे इसलिए उन्होंने टाइपिस्ट की मदद भी नहीं ली. बाक़ायदा रेमिंगटन रैंड की निब से पूरा फ़ैसला उन्होंने खुद लिखा. जिसे लिखने के बाद हर रोज़ वो एक लॉकर में रख देते थे. और उसकी चाबी अपने तकिया के नीचे रखकर सोते थे. इतनी सुरक्षा में रखे फ़ैसले में लिखा क्या था?

पन्नालाल ने वादी के पक्ष में फ़ैसला सुनाते हुए कहा, “कोर्ट का मानना है, सन्यासी ही रमेंद्र है”. ये सुनते ही पूरे कोर्ट में सन्नाटा छा गया. ख़ासकर अंग्रेज अधिकारी सकते में आ गए. एक भारतीय वकील, ब्रिटिश सरकार के विपक्ष में फ़ैसला सुनाने के हिम्मत कर रहा था . पन्ना लाल ने दोनों पक्षों को हिदायत देते हुए कहा कि उनके सामने जो काग़ज़ पेश किए गए. उनमें से कई जाली थे. कई गवाहों को सिखाकर भेजा गया था. इसलिए फ़ैसले का आधार उन्होंने दो चीजों को बनाया. 

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कोर्ट केस 1933-1936 तक चला और आख़िरी में न्यायाधीश ने रमेंद्र के पक्ष में फैसला सुनाया. कलकत्ता हाई कोर्ट ने फ़ैसले को बरक़रार रखा (तस्वीर: Wikimedia Commons)

पहला - विपक्ष ये प्रूव नहीं कर पाया था कि दार्जलिंग में रमेंद्र की मौत हुई थी. सब कुछ सुनी सुनाई बातों पर आधारित था. ऐसे निस्पक्ष गवाह, जिन्होंने रमेंद्र की मौत अपनी आंखो से देखी हो, सबने कमजोर गवाही दी थी. दूसरा आधार- रमेंद्र और सन्यासी के शरीर में मौजूद 19 निशानों का मिलान हुआ था. जो जज के हिसाब से इस बात का पुख़्ता सबूत था कि सन्यासी ही रमेंद्र है.

बिभावती और सरकार इस केस को हाई कोर्ट में ले गए. लेकिन हाई कोर्ट ने सेशन कोर्ट का फ़ैसला बरकरार रखा. आख़िर में 1943 में ये केस लंदन में प्रिवी काउंसिल के सामने पहुंचा. यहां से भी सरकार को कोई राहत न मिली और फ़ैसला बरकरार रहा. सन्यासी उर्फ़ रमेंद्र केस जीत गए. लेकिन जिस रोज़ आख़िरी फ़ैसला सुनाया गया एक हादसा हो गया. मंदिर में पूजा करने गए के दौरान उन्हें स्ट्रोक पड़ा और उनकी मृत्यु हो गई. बिभावती ने इस मौक़े पर कहा, "ये ऊपर वाले का इंसाफ़ है"

जज पन्ना लाल का क्या हुआ? सरकार के ख़िलाफ़ फ़ैसले के बाद वो समझ गए थे कि वकालत में उनकी और नहीं बनने वाली. इसलिए वो ढाका छोड़कर अपने परिवार के साथ कलकत्ता चले गए. आगे चलकर वो स्वतंत्र भारत में बंगाल के शिक्षा और लैंड रेवेन्यू मिनिस्टर बने. और इस दौरान उन्होंने ज़मींदारी सिस्टम के ख़िलाफ़ एक बिल भी विधानसभा में पेश किया. हालांकि बिल पास हो पाता इससे पहले ही पन्नालाल चल बसे. जिस पेन से उन्होंने भावाल केस का फ़ैसला लिखा था, मरते वक्त उन्होंने अपने परिवार से वादा लिया था कि वो उसे बेचेंगे नहीं. इसलिए उनकी मौत के बाद भी वो पेन परिवार के पास ही रहा. उसे कभी बेचा नहीं गया.

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