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सरकारी नीतियां, कट्टरपंथ... बांग्लादेश में हिंदुओं की आबादी घटने की पूरी कहानी ये रही!

Bangladesh Hindus: साल 2022 में हुए सेन्सस के मुताबिक Bangladesh में 91% मुस्लिम है और 7.9% हिन्दू. दूसरे अल्पसंख्यक जैसे बौद्ध और ईसाईयों की जनसंख्या पिछले 75 सालों में उतनी ही रही. बांग्लादेश में हिंदुओं की घटती संख्या के पीछे की वजह क्या है ?

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साल 1971 से 1999 के बीच 36 लाख हिन्दुओं ने बांग्लादेश छोड़ा. (फोटो- PTI)

बांग्लादेश में आरक्षण के खिलाफ जो आंदोलन शुरू हुआ था, उसने पहले प्रधानमंत्री शेख हसीना को देश छोड़ने पर मजबूर किया और उसके बाद जो ख़बरें आईं, वो चिंता बढ़ाने वाली थीं. 5 अगस्त को हसीना के देश छोड़ते ही बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों पर हमलों की खबरें आने लगीं. खासकर हिंदू समुदाय (Bangladesh Hindu Attacked) के लोगों को निशाना बनाए जाने की खबरें आईं.

बांग्लादेश के सबसे बड़े अख़बार डेली स्टार के मुताबिक, 5 अगस्त को भीड़ ने उन दुकानों और बिज़नेस को टारगेट किया जिनके मालिक हिंदू थे. ऐसी खबरें सिर्फ एक शहर से नहीं बल्कि बांग्लादेश के 27 अलग अलग शहरों से आईं. बांग्लादेश Hindu Buddhist Christian Unity Council  एक संस्था है, जो बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों के लिए काम करती है. इसके मुताबिक, बांग्लादेश के 64 में से 45 जिलों माने देश के 70% जिलों में हिंदुओं को हिंसा और तोड़फोड़ का शिकार होना पड़ा. धार्मिक स्थल, घर और व्यापार… सब कुछ निशाने पर था.

बांग्लादेश में ऐसा पहली बार नहीं हुआ है जब अल्पसंख्यकों के साथ हिंसा हुई है. बांग्लादेश और उसके पहले ईस्ट पाकिस्तान के इतिहास में ऐसे कई प्रसंग हैं. और इनमें एक संगठन का नाम कई बार आया है. इस संगठन का नाम है- जमात-ए-इस्लामी. (Jamaat-e-Islami)

- क्या है ये जमात-ए-इस्लामी?

-बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों के पास कितनी धार्मिक स्वतंत्रता है?

-और क्यों ताज़ा प्रदर्शनों के बाद हिंदू समुदाय के लोगों पर हमले हुए?

इस जटिल समस्या को कायदे से समझने के पहले इस देश की डेमोग्राफी को समझना ज़रूरी है. एक नज़र डालते हैं 1951 से लेकर 2022 तक के आंकड़ों पर. 1951 का साल इसलिए, कि इस साल जनगणना हुई थी.

तब बांग्लादेश का जन्म नहीं हुआ था. ये इलाका कहलाता था ईस्ट पाकिस्तान. साल 1951 में ईस्ट पाकिस्तान में 76% मुस्लिम थे और 22% हिंदू. 1951 से लेकर 1974 तक हिंदू आबादी 10% कम हुई. और मुस्लिम आबादी 10 प्रतिशत बढ़ गई. साल 1971 में बांग्लादेश की आज़ादी के लिए मुक्ति संग्राम छिड़ा. इससे ठीक पहले पाकिस्तानी फौज के लेफ्टिनेंट जनरल टिक्का खान ने ऑपरेशन सर्चलाइट शुरू किया था. इसमें बांग्लादेश की आजादी चाहने वाले मुसलमानों को तो निशाना बनाया ही गया, लेकिन जहां-जहां हिंदू बस्तियां मिलीं, वहां पर भी क्रूरता की सीमाएं पार कर दी गईं. ऐसे में मुक्ति संग्राम के वक्त बहुत बड़ी संख्या में हिंदू शरणार्थी भारत आ गए.

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साल 1951 में ईस्ट पाकिस्तान में 76% मुस्लिम थे और 22% हिन्दू (फोटो- दी लल्लनटॉप)

 

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1951 से लेकर 1974 के बीच हिन्दू आबादी 10% कम हई (फोटो- दी लल्लनटॉप)

बांग्लादेश की स्वतंत्रता के बाद हिन्दू आबादी के प्रतिशत में गिरावट हुई ज़रूर, लेकिन ये पहले के मुकाबले कम थी. साल 2022 में हुए सेन्सस के मुताबिक बांग्लादेश में 91% मुस्लिम है और 7.9% हिन्दू. दूसरे अल्पसंख्यक जैसे बौद्ध और ईसाईयों की जनसंख्या पिछले 75 सालों में उतनी ही रही. बांग्लादेश में हिंदुओं की घटती संख्या के पीछे एक के बाद एक आई सरकारों की कुछ घोषित और कुछ अघोषित नीतियां रहीं. जैसे -

-वेस्टेड प्रॉपर्टी एक्ट

-विचारधारा

- कट्टरपंथी संगठनों की कारस्तानी

वेस्टेड प्रॉपर्टीज एक्ट

एक किताब है, ‘रिलीजियस रेडिकल्स एंड सिक्योरिटी इन साउथ एशिया.’ इसे सतु लिमये, रॉबर्ट विर्सिंग और मोहन मलिक ने एडिट किया है. इस किताब में एक चैप्टर है ‘रिलिजन पॉलिटिक्स एंड सिक्योरिटी: द केस ऑफ़ बांग्लादेश’. इसे अमीना मोहसिन ने लिखा है. इसके मुताबिक वेस्टेड प्रॉपर्टी एक्ट हिन्दू माइग्रेशन के पीछे की बड़ी वजह थी.

इस एक्ट के तहत ईस्ट पाकिस्तान सरकार और बाद में बांग्लादेश सरकार किसी भी प्रॉपर्टी को अस्थाई या फिर स्थाई तौर पर कंट्रोल में ले सकती थी. कमाल की बात ये थी कि इसके खिलाफ पीड़ित व्यक्ति सिविल कोर्ट या हाई कोर्ट में याचिका भी दाखिल नहीं कर सकता था. अल्पसंख्यकों ने इसका विरोध किया. खासकर हिन्दू समुदाय के लोगों का मानना था कि इससे सबसे ज्यादा नुकसान उन्हें होगा. किताब का दावा है कि इस कारण कई हिन्दू परिवारों को भारी आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा.

इस एक्ट के साथ ही साल 1951 में ईस्ट बंगाल की विधानसभा ने एक और कानून पास किया  East Bengal Evacuees. इसके मुताबिक जो लोग पार्टीशन के वक़्त ईस्ट पाकिस्तान छोड़ कर चले गए हैं उनकी सम्पत्ति को जब्त करने की ताकत सरकार को मिल गयी. इस किताब के अनुसार, कई ऐसे केस भी सामने आये जब व्यक्ति देश छोड़ कर गया ही नहीं फिर भी उसकी सम्पत्ति जब्त हो गयी.

इस कहानी में एक अध्याय 1964 का भी है. जब ईस्ट पाकिस्तान में हिन्दू मुस्लिम दंगे हुए. साल 1964 में एक अधिनियम पारित किया गया. नाम था- Disturbed Persons (Rehabilitation) Ordinance. इसको साल 1968 तक बार बार एक्सटेंड किया गया. इसके तहत अल्पसंख्यक समुदाय के किसी व्यक्ति की अचल संपत्ति- माने घर या जमीन ट्रांसफर करने पर तब तक रोक लगा दी गई, जब तक सरकार की अनुमति न हो. अल्पसंख्यकों की संपत्तियों की रक्षा करना इस कानून का घोषित उद्देश्य बता गया. लेकिन ज़्यादातर लोगों की पहुंच सरकार तक थी ही नहीं, इसने उनका जीना दूभर कर दिया. उनकी संपत्ति का कोई मोल नहीं रह गया क्योंकि वो उसे बेच ही नहीं सकते थे. इस कानून ने बांग्लादेश के इलीट हिंदू, जैसे ज़मींदारों तक को बहुत परेशान किया. ऑर्डिनेंस 4 साल तक प्रभावी रहा. तब तक वो हिंदू, जिनके पास ज़मीनें थीं, उनकी कमर टूट गई.

दूसरा बिंदु है विचारधारा.

विचारधारा

इसको समझने के लिए शुरुआत करनी होगी 1940 के दशक से. मोहम्मद अली जिन्ना ने एक इस्लामिक राष्ट्र ‘पाकिस्तान’ बनाने की बात की. 1940 से लेकर 1947 तक देश के कई हिस्सों में दंगे हुए. जैसे ढाका, कोलकाता, नोआखाली, शिबपुर वगैरह. ‘रिलीजियस रेडिकल्स एंड सिक्योरिटी इन साउथ एशिया’ किताब के मुताबिक, आज़ादी के बाद पाकिस्तानी सरकार का मामना था कि ईस्ट पाकिस्तान में बांग्ला भाषा का इस्तेमाल सही नहीं है. उसका कहना था कि इस भाषा के एक-एक अल्फाबेट में किसी देवी या देवता की मूर्ति है. एक इस्लामिक पाकिस्तान में नागरी लिपि नहीं चल सकती, इसलिए बांग्ला को अरबी लिपि में लिखना शुरू किया गया.

इसके विरोध में ढाका के स्टूडेंट्स ने प्रोटेस्ट किया. पुलिस ने गोलियां चलाईं. आगे फैसलों से वेस्ट पाकिस्तान यानी आज के पाकिस्तान ने किस तरीके से बांग्ला अस्मिता को कुचलने की कोशिश हुई, उसके विरोध में क्या हुआ और कैसे बांग्लादेश बना. उससे तो आप सभी लोग भली भांति परिचित हैं.

अब आते हैं आज़ाद बांग्लादेश पर. साल 1972 में बांग्लादेश का संविधान बना. ‘4 पिलर्स’ की बात हुई. सोशलिज्म, नेशनलिज़्म, डेमोक्रेसी और सेकुलरिज्म. शेख़ मुजीबुर रहमान ने बांग्लादेश की संसद में कहा की देश में हर धर्म के लोग अपने धर्म का पालन करने के लिए आज़ाद है. इसके साथ ही संविधान में आर्टिकल 12 के तहत धर्म के राजनीतिक उपयोग और कट्टरपंथ पर बैन भी लगा दिया गया. माने अत्याचार और हिंसा से परेशान बांग्लादेशी समाज ने खुद को मानसिक और वैचारिक रूप से आज़ाद किया. हालांकि, इस दौरान बांग्लादेश में कट्टरपंथी तत्वों का प्रभाव बना रहा.

शेख़ मुजीबुर रहमान की 15 अगस्त 1975 को हत्या कर दी गई. और बांग्लादेश को “इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ़ बांग्लादेश” घोषित कर दिया गया. फिर तख्तापलट का सिलसिला चला जो कुछ समय आकर रुका मेजर जनरल जिया उर रहमान पर. जिस तरह जनरल ज़िया उल हक ने पाकिस्तान को धार्मिक कट्टरपंथ की तरफ मोड़ा, वही काम ज़िया उर रहमान ने बांग्लादेश में किया. जनरल ज़िया उर रहमान ने धर्म, राष्ट्रवाद और बांग्ला अस्मिता का एक ब्लेंड बनाया.

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संविधान से सेकुलरिज्म जैसे शब्द हट गए और आर्टिकल 12, जिसके तहत कट्टरपंथ और धर्म के राजनीतिक इस्तेमाल पर बैन था, उसे भी हटा दिया गया. हाल ये हुआ कि 1991 के चुनाव में हर पॉलिटिकल पार्टी ने जी भर के धार्मिक चिह्नों का इस्तेमाल किया. यहां तक की बांग्लादेश की कम्युनिस्ट पार्टी भी इसमें पीछे नहीं थी. इससे जो माहौल तैयार हुआ, उसने पूरी तरह से माइनॉरिटीज को पॉलिटिकल लेवल पर अकेला कर दिया. जिस तरह वेस्टेड प्रॉपर्टीज़ एक्ट ने अल्पसंख्यकों को आर्थिक रूप से कमज़ोर किया, उसी तरह बढ़ते कट्टरपंथ और संविधान में हुए बदलावों ने अल्पसंख्यकों की राजनैतिक ताकत को शून्य कर दिया. इसके चलते अल्पसंख्यकों का विस्थापन बढ़ता चला गया. ‘रिलीजियस रेडिकल्स एंड सिक्योरिटी इन साउथ एशिया’ के मुताबिक,

- साल 1964 से 1971 के बीच 17 लाख हिन्दुओं ने बांग्लादेश छोड़ा

- साल 1971 से 1999 के बीच 36 लाख हिन्दुओं ने बांग्लादेश छोड़ा

इस विस्थापन के पीछे कुछ नॉन स्टेट एक्टर भी थे, जिनके लिए सही शब्द होगा- धार्मिक कट्टरपंथी.

कट्टरपंथी संगठन

बांग्लादेश में कई कट्टरपंथी संगठन हैं. इनमें से एक है जमात-ए-इस्लामी बांग्लादेश. ये बांग्लादेश की सबसे बड़ी इस्लामिस्ट पार्टी है. इसकी शुरुआत भारत के विभाजन से भी पहले हुई थी. 1941 में. जमात-ए-इस्लामी के तौर पर. बंटवारे के बाद ये जमात-ए-इस्लामी पाकिस्तान हो गई. इसने बांग्लादेश की आज़ादी का विरोध किया था. पार्टी पाकिस्तान का साथ दे रही थी. उसके नेताओं पर 1971 की जंग के दौरान हत्या, अपहरण और बलात्कार के आरोप लगे. कइयों को बाद में सज़ा भी मिली. बांग्लादेश की आज़ादी के बाद जमात को बैन कर दिया गया. उसके अधिकतर नेता बांग्लादेश छोड़कर पाकिस्तान भाग गए. 1975 में शेख़ मुजीब की हत्या के बाद जमात पर लगा बैन हटा दिया गया. तब जमात-ए-इस्लामी बांग्लादेश की स्थापना हुई. 2013 में बांग्लादेश के सुप्रीम कोर्ट ने जमात का रजिस्ट्रेशन रद्द कर दिया. चुनावों में हिस्सा लेने पर पाबंदी लगा दी.

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इसी पार्टी की स्टूडेंट विंग है- जमात शिबीर. स्वाभाविक है कि स्टूडेंट विंग को पार्टी का पूरा संरक्षण प्राप्त है. जमात शिबीर के समर्थकों पर लगातार हिन्दू परिवारों और मंदिरों पर अटैक के इल्जाम लगते रहे हैं. जैसे साल 2013 में दिलवर हुसैन सैदी को फांसी की सजा सुनाई गयी. इस पर 1971 की जंग के दौरान हुए कत्लेआम में शामिल होने का इल्ज़ाम था. दिलवर सैदी बांग्लादेश का एक बड़ा धार्मिक गुरु और राजनेता था. देश भर में प्रदर्शन हुए और जमात-ए-इस्लामी के समर्थकों ने बागरघाट में एक मंदिर को आग लगा दी. कई इलाकों में हिन्दू व्यपारियों की दुकानें तोड़ी गईं और उन्हें लूटा गया. इतनी हिंसा के बाद सैदी की फांसी की सजा को कम करके आजीवन कारावास में बदल दिया गया.

1992 में भारत में हुए बाबरी मस्जिद प्रकरण के बाद भी बांग्लादेश में माइनॉरिटीज खासकर हिन्दुओं के खिलाफ हिंसा भड़की थी. ऐसा नहीं है कि ये कट्टरपंथी संगठन सिर्फ माइनोरिटीज़ के खिलाफ ही हिंसा करते हैं. बांग्लादेश का लिबरल मुस्लिम तबका भी इनके निशाने पर रहता है.

1 अगस्त 2024 को शेख़ हसीना सरकार ने जमात पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया. 5 अगस्त को प्रोटेस्ट बढ़ने के बाद शेख़ हसीना को इस्तीफ़ा देना पड़ा. फिर उन्हें बांग्लादेश छोड़कर भागना पड़ा. उनके जाने के बाद आर्मी ने कमान अपने हाथों में ले ली. अंतरिम सरकार बनाने का एलान किया. इस सरकार में जमात-ए-इस्लामी भी शामिल हो सकती है. ऐसे में बांग्लादेश में अल्पसंख्यक एक बार फिर सशंकित हैं. 

वीडियो: बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों पर हो रहे हमले पर अंतिरम सरकार का बयान