पान सिंह तोमर में इरफ़ान एक जगह बोलते हैं, “बीहड़ में बागी होते हैं, डकैत मिलते हैं पार्लियामेंट में.”
दोनों फ़िल्मों का ये अनजाना नाता है कि फूलन देवी बाग़ी बनी, डकैत बनी और फिर पार्लियामेंट भी पहुंची. फिर लगा कि ज़िंदगी सरस हो गई है लेकिन घर के गेट पर ही फूलन की गोली मार कर हत्या कर दी गई. एक कहानी फूलन देवी की है. जिन पर एक फ़िल्म बन चुकी है. एक और कहानी है उस आदमी की जिस पर फूलन की हत्या का इल्ज़ाम लगा, सजा हुई. और वो कहानी भी कम फिल्मी नहीं है. इसमें शामिल है बदले के इरादे से की गई हत्या. फिल्मी स्टाइल में जेल से फ़रार होना. और फिर कहानी 1000 किलोमीटर का सफ़र कर पहुँचती है 1000 साल पीछे. एक राजा की अस्थियों की बात आती है. और जेल से फ़रार हुआ आदमी पब्लिक के लिए रातों रात हीरो बन जाता है. फूलन देवी की कहानी यूपी के जालौन में एक गांव है, ‘घूरा का पुरवा’. इसी गांव में 10 अगस्त 1963 को फूलन का जन्म हुआ. मल्लाह परिवार में जन्मी फूलन के लिए ग़रीबी जन्मजात थी. लेकिन कमजोरी नहीं. बचपन से ही फूलन ने अपनी मां से एक कहानी सुनी, कि कैसे उसके चाचा ने उसके परिवार की ज़मीन हड़प ली थी. दस साल की फूलन जाकर अपने चाचा के घर के सामने बैठ गई. धरना दे दिया. उससे बात ना बनी तो कहा-सुनी में अपने ही चाचा के सर पर ईंट दे मारी.

अपने मां-बाप के छः बच्चों में फूलन दूसरे नंबर पर थी. (फ़ाइल फोटो)
फिर क्या था, 10 साल की लड़की का ब्याह कर दिया गया. 50 साल उम्र के आदमी से. उस आदमी ने 10 साल की बच्ची बलात्कार किया. सेहत ख़राब हुई तो फूलन मायके लौट गई. फिर दुबारा ससुराल भेज दिया गया. तब तक पति दूसरी शादी कर चुका था. सभ्य समाज का साथ ना मिला तो फूलन की दोस्ती कुछ डाकुओं से हो गई. धीरे धीरे फूलन इनके गैंग में जुड़ गई. गैंग का सरदार था बाबू गुज्जर. उसने फूलन पर ग़लत नज़र डाली तो गैंग के एक अन्य सदस्य विक्रम मल्लाह ने बाबू गुज्जर की हत्या कर दी.
धीरे-धीरे विक्रम मल्लाह और फूलन का गैंग बड़ा होता गया. दूसरे गैंग भी थे. लड़ाई होनी स्वाभाविक थी. ऐसा ही एक गैंग था, ठाकुरों का गैंग. जिसके सरग़ना थे, श्रीराम ठाकुर और लाला ठाकुर. ये लोग बाबू गुज्जर की हत्या से बौखलाए थे. और हत्या का ज़िम्मेदार फूलन को मानते थे. इसलिए पहले तो श्रीराम ठाकुर की गैंग ने विक्रम मल्लाह को मार गिराया और उसके बाद फूलन को किडनैप कर 3 हफ़्ते तक उसका बलात्कार किया. उसे नग्न कर सड़कों पर घुमाया गया. फूलन कैसे बनी 'बैंडिट क्वीन'? यहां से छूटकर फूलन ने दुबारा अपना गैंग बनाया. कुछ साल बाद दुबारा फूलन बेहमई गांव लौटी. वही गांव जहां उसके साथ कुकृत्य किया गया था. बदला लेने के लिए फूलन ने गांव के 22 ठाकुरों को लाइन से खड़ा किया और गोली मार दी. इस हत्याकांड के बाद फूलन की छवि एक खूंखार डकैत की हो गई. ठाकुरों का राजनीति में वर्चस्व था. इस हत्याकांड के बाद यूपी के तत्कालीन मुख्यमंत्री VP सिंह को इस्तीफ़ा देना पड़ा. पुलिस फूलन के पीछे पड़ गई. उसके सर पर इनाम रखा गया. मीडिया में फूलन को एक नया नाम मिला, बैंडिट क्वीन.

14 फरवरी 1981 को प्रतिशोध लेने के लिए फूलन अपने गिरोह के साथ पुलिस के भेस में बेहमई गांव पहुंची (फ़ाइल फोटो)
तब भिंड के SP हुआ करते थे राजीव चतुर्वेदी. वो लगातार फूलन के गैंग से बात करते थे. उन्हीं की कोशिशों का नतीजा था कि फूलन ने इस घटना के दो साल बाद आत्मसमर्पण कर दिया. मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के सामने फूलन ने आत्मसमर्पण किया. फूलन देवी पर 22 हत्या, 30 डकैती और 18 अपहरण के चार्जेज लगे. उन्हें 11 साल जेल में सजा के तौर पर गुज़ारने पड़े. फूलन के बारे में लेखक अरुंधती रॉय लिखती हैं: जेल में फूलन से बिना पूछे ऑपरेशन कर उनका यूटरस निकाल दिया गया. डॉक्टर ने पूछने पर कहा- अब ये दूसरी फूलन नहीं पैदा कर पायेगी. फिर 90 का दौर आया. मुलायम सिंह UP के मुख्यमंत्री बने. और उनकी सरकार ने फूलन पर लगे सारे आरोप वापस ले लिए.
राजनीतिक रूप से ये बड़ा फैसला था. साल 1994 में फूलन जेल से छूट गईं. उम्मेद सिंह से उनकी शादी भी हो गई. 1996 में फूलन देवी ने समाजवादी पार्टी से चुनाव लड़ा और जीत गईं. मिर्जापुर से सांसद बनीं. चम्बल में घूमने वाली अब दिल्ली के अशोका रोड के शानदार बंगले में रहने लगी. 1998 के चुनाव में फूलन को हार का सामना करना पड़ा. लेकिन अगले ही साल फिर चुनाव हुआ और फूलन जीत गई. ज़िंदगी एक ढर्रे में चलने लगी थी. एक डकैत से नेता बनी फूलन हमेशा चर्चा में रही. ज़िंदगी जितनी कहानीनुमा थी. फूलन की मौत भी उतनी ही नाटकीय हुई. फूलन देवी की हत्या 25 जुलाई 2001 का दिन था. दोपहर 1 बजकर 30 मिनट हुए थे. फूलन अपने दिल्ली वाले बंगले के गेट पर खड़ी थी. तभी तीन नक़ाबपोश आए और फूलन पर ताबड़तोड़ गोलियां चला दी. इसके बाद नक़ाबपोश एक मारुति 800 में बैठकर भाग गए. फूलन को दिल्ली के राम मनोहर लोहिया अस्पताल ले ज़ाया गया. जहां उन्हें मृत घोषित कर दिया गया. इस हमले का मुख्य आरोपी था शेर सिंह राणा. राणा ने जो कहानी सुनाई वो भी कम हैरतंगेज़ नहीं थी.

समाजवादी पार्टी के टिकट से मिर्जापुर की सीट पर दो बार चुनाव जीती (फ़ाइल फोटो)
राणा ने बताया कि उस दिन वो फूलन से मिलने गया. और उसने इच्छा जताई कि वो फूलन के संगठन ‘एकलव्य सेना’ से जुड़ेगा. फूलन ने उसे खीर भी खिलाई. जिसके बाद उसने गेट के बाहर निकलते ही फूलन की गोली मारकर हत्या कर दी. कारण पूछने पर बताया कि बेहमई में ठाकुरों के सामूहिक हत्याकांड का बदला लिया है. पुलिस ने शेर सिंह को गिरफ़्तार का जेल में डाल दिया. सुनवाई शुरू हुई. और उसी रफ़्तार से चलने लगी, जैसे आमतौर पर चलती है.
शेर सिंह की कहानी में एक बड़ा मोड़ आता है फूलन देवी की हत्या के लगभग 3 साल बाद. आज ही की तारीख थी. यानी 17 फरवरी, 2004. सुबह का वक्त था. सूरज अभी जेल की चारदीवारी चढ़ भी नहीं पाया था कि तभी जेल का गेट खुला. दो लोग बाहर आए. एक पुलिसवाला, जिसके साथ हथकड़ी डाले एक अभियुक्त था. गार्ड ने पूछा तो पता चला सुनवाई के लिए ले ज़ाया जा रहा है. इसके बाद सिर्फ़ एक ही खबर आई. वो ये कि शेर सिंह जेल से फ़रार हो चुका था. कैसे? शेर सिंह जेल से कैसे फ़रार हुआ? दरअसल इसके एक साल पहले से ही शेर सिंह फ़रार होने की योजना बना रहा था. उसके ख़िलाफ़ साक्ष्य इतने पुख़्ता थे कि उसे लग रहा था उसे फांसी होगी. इसलिए उसने जेल के अंदर ही कुछ गैंगस्टर्स से पहचान बनाई. और रुड़की से एक बहुरूपिये को हायर किया. संदीप ठाकुर नाम का ये व्यक्ति 6 लाख में शेर को सिंह को छुड़ाने के लिए राज़ी हो गया. इसके बाद संदीप ने अपना नाम बदला और प्रदीप ठाकुर रख लिया. इसी नाम से वो शेर सिंह का वकील बन उससे मिलने जाने लगा. शेर सिंह राणा के भाई ने संदीप को एक हथकड़ी और पुलिस की यूनिफ़ॉर्म दिलवाई. 16 फरवरी की शाम संदीप शेर सिंह से मिलने पहुंचा और अगली सुबह का पूरा प्लान बताया. अगले दिन शेर सिंह को एक मामले में हरिद्वार की एक अदालत में पेश होना था.

पुलिस की गिरफ़्त में शेर सिंह राणा (तस्वीर: AP)
पुलिस की युनिफ़ॉर्म पहनकर संदीप सुबह 7 बजे जेल पहुंचा. पुलिस की टीम, जो शेर सिंह को हरिद्वार ले जाने वाली थी, उसे आठ बजे आना था. संदीप ने एक फ़ॉर्म भरा. और एक जाली वॉरंट दिखाया. इसके बाद उसने शेर सिंह राणा को हथकड़ी पहनाई और जेल से बाहर ले गया. इतना ही नहीं, उसने जेल से 40 रुपए भी लिए. जो क़ैदी को बाहर ले जाने पर डायट अलाउंस के तौर पर मिलते थे.
जेल से बाहर पहुँचकर दोनों, संदीप और शेर सिंह एक ऑटो में बैठे और दिल्ली के कश्मीरी गेट ISBT पहुंचे. यहां से दोनों ने ग़ाज़ियाबाद के लिए एक बस पकड़ी. ग़ाज़ियाबाद से दोनों के रास्ते अलग-अलग हो गए. राणा ने मुरादाबाद की बस पकड़ी और उसके बाद वो रांची पहुंचा. रांची से उसने दिल्ली पुलिस के एक ACP के नाम का फ़ेक पासपोर्ट बनाया और कोलकाता से बांग्लादेश में एंटर हो गया.
अगले दो साल वो बांग्लादेश में रहा और अलग-अलग देशों में घूमता रहा. संदीप को पुलिस ने 2004 में ही गिरफ़्तार कर लिया था. और उसी के थ्रू पुलिस ने शेर सिंह राणा का पता लगाया. राणा रहता तो बांग्लादेश में था लेकिन VISA रिन्यू करने के लिए उसे बार-बार कोलकाता आना पड़ता था. 2006 में राणा जब अपना VISA रिन्यू कराने कोलकाता आया तो पुलिस ने उसे धर दबोचा. पृथ्वीराज चौहान की समाधि तब एक और नई कहानी सामने आई. राणा ने पुलिस को बताया कि वो जेल से फ़रार अपने लिए नहीं हुआ था. बल्कि देश के लिए हुआ था. वो ऐसे कि जेल में उसे पता चला कि पृथ्वीराज सिंह चौहान की समाधि अफ़ग़ानिस्तान में है. और बग़ल में ही मुहम्मद गोरी की कब्र भी है. उसे पता चला कि अफ़ग़ानिस्तान में पृथ्वीराज सिंह की समाधि का अपमान किया जाता है. गोरी की कब्र में जाने वाले पहले पृथ्वीराज की समाधि पर चप्पल मारते हैं.

शेर सिंह राणा ने बाद में 'तिहाड़ से कंधार तक' नाम की एक किताब भी लिखी (फ़ाइल फोटो)
इसलिए उसने बांग्लादेश से कंधार का रुख़ किया. वहां से हेरात होते हुए वो गजनी पहुंचा. गजनी के बाहर ही ही एक छोटा सा गाँव है. जहां मुहम्मद गोरी की कब्र है. उसी के बग़ल में उसे पृथ्वीराज सिंह चौहान की समाधि मिली. राणा ने बताया कि उसने वहां के लोकल लोगों को समझाया कि वो गोरी की कब्र की मरम्मत करना चाहता है. इसी दौरान उसने पृथ्वीराज सिंह चौहान की समाधि को खुदवाया और वहां से कुछ मिट्टी इकट्ठा कर ली. इस पूरी घटना का एक छोटा सा वीडियो भी बनाया.
अप्रैल 2005 में भारत लौटकर उसने उस मिट्टी को इटावा भेजा और वहां के लोकल नेताओं से एक कार्यक्रम का आयोजन करवाया. इस कार्यक्रम में राणा की माता सतवती देवी चीफ़ गेस्ट थीं. उनकी मौजूदगी में एक मंदिर का शिलालेख बनवाया गया और वहीं पर पृथ्वीराज सिंह चौहान की अस्थियाँ रख दी गई. 2006 में गिरफ़्तारी के बाद पुलिस ने शेर सिंह राणा को दुबारा जेल में डाला. इस डर से कि वो भाग ना जाए, उसे लाल कपड़े पहनाए गए. लेकिन बाद में कोर्ट में अपील के चलते उसे सफ़ेद कपड़े पहनने को दे दिए गए.
साल 2012 में शेर सिंह राणा ने जेल से ही यूपी चुनाव का पर्चा भरा. साल 2014 में कोर्ट ने उसे फूलन देवी हत्याकांड में दोषी मानते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई. 2016 में मामला हाई कोर्ट पहुंचा जहां शेर सिंह राणा को बेल मिल गई. ठाकुरों की हत्या का बदला लेने के चलते ठाकुर समाज में शेर सिंह राणा की छवि हीरो की बनी. जिसे और चमकाहट मिली पृथ्वीराज सिंह चौहान की अस्थियां वापस लाने वाले प्रसंग से. किस्सा चला कि शेर सिंह पर एक फ़िल्म बनने वाली है. फ़िल्म तो नहीं बन पाई लेकिन यूट्यूब पर गाने ज़रूर चले. जिसमें राणा की तस्वीर वाली टी शर्ट पहने लड़के उन्हें अपना हीरो बताते हैं.