एक नेता जो पाक अधिकृत कश्मीर (PoK) में पैदा हुआ, लेकिन पूरी सियासत हिंदुस्तान में की. सियासत भी की तो उस पार्टी की, जो हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान का नारा लगाती थी. उस नेता का सियासी कद इतना बड़ा, कि जब वह पार्टी का अध्यक्ष था, तब दीनदयाल उपाध्याय जैसे नेता उसके मातहत पार्टी पदाधिकारी हुआ करते थे. इसी नेता ने 1968 में अपनी पार्टी की ओर से सबसे पहले अयोध्या के विवादित परिसर को राम मंदिर बनाने के लिए हिंदुओं के हवाले करने की मांग की थी. लेकिन उसी दौर में वह इस पार्टी के उभरते हुए पोस्टर ब्वॉय से भिड़ गया. नतीजतन उसे पार्टी से निकाल दिया गया. उसे निकाला भी उस नेता ने, जो आजकल मार्गदर्शक मंडल में बैठकर देश की गतिविधियों को चुपचाप देख रहा है. और जो नया पोस्टर ब्वॉय अब राज कर रहा है, वह उस निकाले गए नेता का बहुत बड़ा प्रशंसक रहा है.
हिंदुत्व की राजनीति के 'बलराज', जिन्होंने वाजपेयी को कांग्रेसी कह दिया था
RSS ने बलराज मधोक के बजाय वाजपेयी को तवज्जो क्यों दी?


बलराज मधोक (खड़े हुए) ने 1952 के लोकसभा चुनाव में जनसंघ का घोषणापत्र तैयार किया था.
जनसंघ के उत्थान में मधोक की भूमिका
1967 में चौथी लोकसभा के लिए चुनाव हुए. इस चुनाव में जनसंघ को 35 सीटें मिली. जनसंघ से ज्यादा सीटें सिर्फ कांग्रेस और स्वतंत्र पार्टी को ही मिली थीं. दिल्ली की 7 सीटों में से 6 सीटें जनसंघ को मिल गई थी और यह पहाड़गंज की पार्टी समझे जानेवाले जनसंघ का पूरी दिल्ली में फैलाव का संकेत था. ख़ुद जनसंघ के अध्यक्ष बलराज मधोक भी साउथ दिल्ली की लोकसभा सीट जीतकर दूसरी दफा लोकसभा पहुंचे थे. इस दौर में जनसंघ ने बाकी विपक्षी दलों के साथ मिलकर लगभग पूरी हिंदी पट्टी के राज्यों में कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर दिया था. जनसंघ को यह सब सफलताएं मधोक के अध्यक्ष रहते ही मिली थीं.
मधोक बनाम वाजपेयी
1967 के चुनाव के बाद बलराज मधोक के लिए मुश्किलों की शुरुआत हो गई थी. पार्टी सांसद अटल बिहारी वाजपेयी से उनके रिश्ते पहले से ही तनावपूर्ण थे. लेकिन अब पार्टी में बाकी लोग भी उनकी लाइन के खिलाफ, वाजपेयी की लाइन के साथ खड़े होने लगे. लेकिन इन सब की शुरुआत कहां से होती है? ये जानने के लिए हमें कुछ बरस पीछे चलना होगा. 60 के दशक की एकदम शुरुआत में. जब प्रधानमंत्री नेहरू को लेकर जनसंघ की क्या स्ट्रेटजी हो - इस पर जनसंघ में एक राय नहीं बन पा रही थी. इस प्रसंग को आसान भाषा में समझने के लिए एक वाक़ये का जिक्र करना मौज़ूं हो जाता है,
"आप नेहरू जी की लोकप्रियता को नजरअंदाज मत कीजिए. इसलिए उनकी इतने कटु शब्दों में आलोचना मत कीजिए. वरना अगली बार से जनता हमलोगों का लोकसभा पहुंचना मुश्किल कर देगी."लेकिन मधोक अपनी बात पर अडिग थे. वे वाजपेयी के तर्कों से एकदम सहमत नहीं थे. पास में ही बैठे प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के नेता आचार्य जे बी कृपलानी दोनों की बातचीत को बड़े ध्यान से सुन रहे थे. दोनों की बातें सुनकर कृपलानी से रहा नहीं गया और वे मधोक से बोले,
"अरे तुम इस वाजपेयी की बातों पर एकदम ध्यान मत दो और अपना काम करते रहो. ये वाजपेयी तो नेहरू का चमचा है और दिन-रात उनकी चापलूसी (sycophancy) करने में लगा रहता है."
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आपको बताते चलें कि कृपलानी भी चीन के मसले पर नेहरू और उनके रक्षा मंत्री वी के कृष्णमेनन से काफी ख़फा थे. इतने खफा कि 1962 में अपनी परंपरागत सीट बिहार की सीतामढ़ी को छोड़ कर कृष्णमेनन के खिलाफ चुनाव लड़ने मुंबई चले गए थे. ये अलग बात है कि उस मुकाबले में कृपलानी चुनाव हार गए थे.

अटल बिहारी वाजपेयी के साथ बलराज मधोक.
जनसंघ का पटना अधिवेशन और विवाद चरम पर
1969 के आखिर में पटना में जनसंघ का अधिवेशन बुलाया गया. इस वक्त तक पार्टी पूरी तरह से अटल बिहार वाजपेयी के कब्जे में आ चुकी थी. संघ भी वाजपेयी कैंप का ही समर्थन कर रहा था. उधर कांग्रेस दो भागों में टूट चुकी थी. इंदिरा गांधी की कांग्रेस (रिक्विजिशनिस्ट) और पुराने कांग्रेसियों की 'संगठन कांग्रेस.' और इन सब के बीच जनसंघ में भी आपसी मतभेद चरम पर था. इन्हीं मतभेदों के बीच पटना में अधिवेशन शुरू हुआ. अधिवेशन में भाग लेने बलराज मधोक भी पटना पहुंचे और वहां पहुंच कर उन्होंने एक नया राग अलाप दिया कि 'पार्टी को अब संगठन कांग्रेस के साथ अलाएंस करना चाहिए.'
लेकिन तब अटल बिहारी वाजपेयी ने साफ-साफ कहा कि दोनों कांग्रेस में कोई फर्क नहीं है और हमलोगों को दोनों से दूरी बनाकर रखनी चाहिए. इसके बाद बलराज मधोक और वाजपेयी में खूब बहस हुई. वाजपेयी के रवैये से मधोक इतने नाराज हुए कि अधिवेशन के बीच में ही वापस दिल्ली चले गए.
इसके बाद मधोक के जनसंघ से रिश्ते और भी ज्यादा खराब हो गए. खासकर 1971 के लोकसभा चुनाव में पार्टी की बड़ी हार के बाद. मधोक ने इस हार का पूरा ठीकरा वाजपेयी के मत्थे फोड़ दिया. तब एक बयान में मधोक ने कहा,"जब मैंने वाजपेयी के रहन-सहन और पार्टी चलाने के तौर-तरीके की शिकायत गोलवलकर से की तो उन्होंने कहा कि 'मुझे सबकी कमजोरियों का पता है,लेकिन मुझे संगठन चलाना है इसलिए शिव की तरह विष पीकर बहुत कुछ बर्दाश्त करना ही पड़ेगा."
इसके बाद पार्टी में उनके विरोधियों की संख्या बढ़ने लगी. नानाजी देशमुख, जो खुद वाजपेयी के साथ बहुत सहज नहीं थे, वे भी मधोक के खिलाफ हो गए. उनके साथ-साथ जनसंघ के दूसरे महासचिव लालकृष्ण आडवाणी, जिन्हें कभी उंगली पकड़ कर मधोक ने सियासत का ककहरा सिखाया था, वे भी वाजपेयी के साथ हो लिए. 1973 की शुरुआत में अटल बिहारी वाजपेयी ने जनसंघ के अध्यक्ष का पद छोड़ दिया और उनकी जगह आडवाणी अध्यक्ष बना दिए गए."वाजपेयी अब नेहरू के बाद उनकी बेटी इंदिरा गांधी के प्रति भी साॅफ्ट रवैया रखते हैं और यही कारण है कि पार्टी की दुर्दशा हुई है."

अटल बिहारी वाजपेयी और अन्य नेताओं के साथ बलराज मधोक (दाएं से दूसरे).
कानपुर अधिवेशन और मधोक की विदाई
1973 के आखिरी महीनों में कानपुर में जनसंघ का अधिवेशन बुलाया गया. लालकृष्ण आडवाणी की अध्यक्षता में यह पहला अधिवेशन था. लेकिन इस अधिवेशन में बलराज मधोक ने नई मांग रख दी. इस बार उन्होंने आर्थिक नीतियों और बैंक नेशनलाइजेशन के मुद्दे पर जनसंघ की नीति (जनसंघ नेशनलाइजेशन के विरोध में था) के बिल्कुल उल्टी बात तो बोली ही, साथ ही पार्टी में संगठन मंत्रियों को हटाने की मांग करते हुए यह कह दिया कि 'संगठन मंत्री पार्टी के कामों पर फोकस नहीं करते और यह पद समाप्त कर देना चाहिए. उन्होंने संघ से भी अपील करते हुए कहा कि 'संघ अब संगठन मंत्रियों को पार्टी में भेजना बंद करे, क्योंकि यह पार्टी को और अधिक लोकतांत्रिक बनाने और अनावश्यक हस्तक्षेप से बचाने के लिए बेहद जरूरी है.'
अब इन सब के बाद पार्टी के पास मधोक को निष्कासित करने के सिवा कोई रास्ता नहीं बचा था. लालकृष्ण आडवाणी ने उन्हें पार्टी से निकालने का ऐलान कर दिया.उस दौर के घटनाक्रम और उसमें बलराज मधोक की भूमिका को समझने के लिए हमने वरिष्ठ पत्रकार किंशुक नाग से बात की तो उन्होंने बताया,
"बलराज मधोक ज्यादा हार्डकोर हिंदूवादी थे ,जबकि अटल बिहारी वाजपेयी माॅडरेट थे. दोनों लगभग हम उम्र ही थे और एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में भी लगे रहते थे. लेकिन मुसलमानों के लिए मधोक का रवैया काफी कठोर था ,जबकि वाजपेयी के व्यक्तित्व में ऐसी कोई बात नहीं थी. इसके अलावा मधोक का मुंहफट होना भी उनके पाॅलिटिकल करियर की राह का रोड़ा बन गया. वे पार्टी की आइडियोलाॅजी को ज्यादा महत्व देते थे, लिहाजा उतने व्यवहारकुशल नहीं बन सके जितने वाजपेयी थे. लेकिन आइडियोलाॅजी के प्रति निष्ठा होने के बावजूद उनका पंजाबी होना उनपर भारी पड़ा ,क्योंकि उस दौर में भविष्य की राजनीति को मद्देनज़र रखते हुए जनसंघ देश के सबसे बड़े सूबे यूपी में अपने पांव पसार रहा था. और इसी वजह से यूपी से आनेवाले नेताओं को ज्यादा महत्व दिया जा रहा था. दीनदयाल उपाध्याय और अटल बिहारी वाजपेयी - दोनों यूपी से ही आते थे.
लेकिन फिर भी मैं कहूंगा कि आज की भारतीय जनता पार्टी और उसका नेतृत्व पूरी तरह से बलराज मधोक के रास्ते पर चल रहा है और अब उसमें वाजपेयी माॅडल के लिए कोई जगह नहीं बची है."

लाल कृष्ण आडवाणी के साथ बलराज मधोक.
इमरजेंसी और उसके बाद गुमनामी का दौर
जनसंघ से निकाले जाने के बाद बलराज मधोक ने चौधरी चरण सिंह की लोकदल का दामन थाम लिया. लेकिन जल्द ही इमरजेंसी लग गई. इमरजेंसी में बाकी विपक्षी नेताओं के साथ बलराज मधोक को भी जेल में डाल दिया गया. इमरजेंसी के बाद 1977 में सभी विपक्षी दलों ने मिलकर जनता पार्टी का गठन किया. इस जनता पार्टी में जनसंघ भी शामिल हो रहा था. उस जनसंघ पर पूरी तरह से बलराज मधोक से नाराज लोगों का कब्जा था. अटल बिहारी वाजपेयी, नानाजी देशमुख - सब के सब जनता पार्टी के आर्किटेक्ट्स में शुमार थे. इसके अलावा संजय गांधी के विवादास्पद नसबंदी कार्यक्रम से मुसलमान बेहद नाराज थे और जनता पार्टी को इसका भी फायदा उठाना था. ऐसे में कट्टर बोल बोलनेवाले बलराज मधोक को किनारे करने में ही भलाई समझी गई.
इसके बाद बलराज मधोक कभी मेनस्ट्रीम पाॅलिटिक्स का हिस्सा नहीं बन सके.
राष्ट्रपति पद पर दावेदारी
जनसंघ के नए अवतार, भारतीय जनता पार्टी के सत्ता में रहते अब तक 2 बार राष्ट्रपति चुनाव हुए हैं. एक 2002 में और दूसरा 2017 में. यहां हम बात कर रहे हैं 2002 के राष्ट्रपति चुनावों की. तत्कालीन राष्ट्रपति के आर नारायणन का कार्यकाल पूरा हो रहा था और भाजपा के लोग अपनी पसंद का राष्ट्रपति बनवाने की जुगत में थे. यूपी के राज्यपाल विष्णुकांत शास्त्री और पीसी अलेक्जेंडर समेत कई नाम चल रहे थे. कुछ लोग तो प्रधानमंत्री वाजपेयी का नाम भी चला रहे थे. इसी दौर का एक किस्सा हमें सुनाया वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय ने. बकौल राय,
हम सब जानते हैं कि अंत में जाकर रक्षा वैज्ञानिक एपीजे अब्दुल कलाम का नाम फाइनल हुआ और वे राष्ट्रपति चुने गए."उस दौर में कई दफा बलराज मधोक दिल्ली के झंडेवालान स्थित संघ के कार्यालय पहुंचे और राष्ट्रपति पद पर अपनी दावेदारी को लेकर संघ के पदाधिकारियों से चर्चा की. लेकिन किसी ने भी उनकी दावेदारी को बहुत तवज्जों नहीं दी. उनकी दावेदारी को तवज्जों नहीं दिए जाने के 2 कारण थे. एक उनका गुस्सैल स्वभाव और दूसरा प्रधानमंत्री वाजपेयी के साथ उनका ईगो क्लैश."
इसके बाद मधोक चर्चाओं से लगभग गायब ही रहे और 2 मई 2016 को उनका नाम तब सुना गया, जब 96 बरस की अवस्था में उनका निधन हो गया. उनके करीबी और प्रशंसक माने जाने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दिल्ली के राजेन्द्र नगर स्थित उनके घर जाकर उन्हें श्रद्धांजलि दी और कहा कि 'बलराज मधोक हमेशा देश के लिए सोचने वाले नेता थे.'

बलराज मधोक के पार्थिव शरीर को पुष्पचक्र अर्पित करते प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी. फोटो क्रेडिट : pmindia.gov.in
उन्हें याद करते हुए वरिष्ठ पत्रकार विजय त्रिवेदी कहते हैं,
"जब बलराज मधोक और अटल बिहारी वाजपेयी का विवाद चल रहा था, तब बाला साहब देवरस ने उस विवाद में वाजपेयी का साथ दिया था. वाजपेयी अच्छे वक्ता थे और लोगों को स्वीकार्य थे - इस तथ्य से RSS भलीभांति परिचित था और यही कारण था कि RSS वाजपेयी को आगे बढ़ा रहा था. वहीं दूसरी तरफ बलराज मधोक की हार्डकोर हिंदूवादी की छवि और उनका टेंपरामेंट उनकी स्वीकार्यता के रास्ते में बाधक था. मैं 2013 में आखिरी बार बलराज मधोक से मिला था. उस मुलाकात के दरम्यान मधोक ने कई बातें मुझसे शेयर की थी. तब उन्होंने कहा था कि 'मैं हिंदुत्व की बातें बहुत मजबूती से रखता था ,इसलिए मेरे खिलाफ पार्टी में एक लाॅबी बनने लगी. लेकिन ऐसा सिर्फ मेरे दौर में ही नहीं हुआ. हर दौर में अपनी बातें मजबूती से रखने वाले नेताओं और ऐसे नेताओं जिनकी पार्टी में मजबूत पकड़ हो, उन्हें दबाने की कोशिश की जाती है. मैं भी इसी का शिकार हुआ था."