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बद्रीनाथ धाम के कपाट खोलने से पहले देखी जाती है इस शख्स की कुंडली, वजह जान लीजिए

Badrinath Dham के कपाट खुलने की डेट हर साल बसंत पंचमी के दिन घोषित की जाती है. इसके लिए एक सदियों पुरानी बड़ी ही रोचक परंपरा के माध्यम से तिथि तय की जाती है.

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बद्रीनाथ धाम (फोटो-विकीमीडिया कॉमंस)

‘जो आए बदरी, वो न आए ओदरी’. मतलब जो भी इंसान एक बार बद्रीनाथ धाम के दर्शन कर ले, उसे दोबारा मां के गर्भ में नहीं जाना पड़ता. ये कहावत प्रचलित है बद्रीनाथ धाम के बारे में. चार धामों में से एक बद्रीनाथ धाम उत्तराखंड के चमोली में दो पहाड़ों के बीच अलकनंदा के तट पर स्थित है. हिंदू धर्म की मान्यताओं के अनुसार इस मंदिर को दूसरा बैकुंठ कहा गया है. यानी एक बैकुंठ जिसमें भगवान विष्णु निवास करते हैं, और दूसरा है बद्रीनाथ धाम जिसके कपाट दर्शन के लिए खुलने जा रहे हैं. तो समझते हैं बद्रीनाथ का महत्व क्या है? बद्रीनाथ धाम के कपाट खुलने या बंद होने से प्रक्रिया क्या है?और इस मंदिर से टिहरी राजपरिवार का क्या संबंध है ?

धाम के कपाट

4 मई, 2025; अगर आप बद्रीनाथ धाम जाना चाहते हैं तो ये डेट याद कर लीजिए. क्योंकि इस साल कपाट खुलने की तारीख 4 मई, मुकर्रर कर दी गई है. कैसे तय होती है यह तारीख, आगे समझेंगे. लेकिन पहले समझते हैं धाम से जुड़े इतिहास और मान्यताओं को. हिंदू धर्म के चार धामों में से एक बद्रीनाथ धाम उत्तराखंड के चमोली जिले में अलकनंदा नदी के तट पर स्थित है. इस मंदिर में भगवान विष्णु की पूजा की जाती है. इसलिए इस मंदिर को बद्रीनारायण मंदिर भी कहा जाता है और 'दूसरा बैकुंठ' भी. 

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गणतंत्र दिवस परेड में कर्तव्य पथ पर मार्च करते ‘गढ़वाल राइफल्स के जवान (PHOTO-Indian Army)

बैकुंठ, यानी हिन्दू धर्म की मान्यताओं के अनुसार जहां भगवान विष्णु निवास करते हैं. बद्रीनाथ धाम के दोनों तरफ दो पहाड़ हैं. इन्हें नर और नारायण पर्वत कहा जाता है. मान्यता है कि यहां भगवान विष्णु के अंश नर और नारायण ने तपस्या की थी जो आगे चलकर कुंतीपुत्र अर्जुन और श्रीकृष्ण के रूप में पैदा हुए. इस धाम की महत्ता ऐसी है कि भारतीय सेना की रेजिमेंट ‘गढ़वाल राइफल्स’ जिसके जवान उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र से आते हैं,  उनका युद्ध घोष भी 'बद्री विशाल लाल की जय' है.

Heavy snowfall in Badrinath
सर्दियों में बद्रीनाथ धाम के कपाट बंद रहते हैं (PHOTO- India Today)
बद्रीनाथ नाम कैसे पड़ा?

बद्रीनाथ धाम के बारे में कई मान्यताएं और लोककथाएं हैं. मसलन एक मान्यता के अनुसार एक बार भगवान विष्णु ने यहां पर तपस्या करनी शुरू की. कुछ समय बाद देवी लक्ष्मी भगवान विष्णु को ढूंढते हुए यहां आईं.  भगवान विष्णु उस समय कड़ी तपस्या में लीन थे. तभी बहुत तेजी से बर्फ गिरने लगी. उस समय देवी लक्ष्मी ने भगवान विष्णु को बर्फ से बचाने के लिए एक बेर के पेड़ का रूप ले लिया और पूरी बर्फ को अपने ऊपर सहन करने लगीं. 

कई सालों बाद जब भगवान विष्णु की तपस्या पूरी हुई तो उन्होंने देखा कि लक्ष्मी जी उन्हें बचाने के लिए पूरी तरह बर्फ से ढक गई है. ये देखकर भगवान विष्णु ने कहा कि लक्ष्मी जी ने उनके बराबर ही तपस्या की है. चूंकि देवी लक्ष्मी ने उनकी रक्षा एक बेर के पेड़ यानी बदरी के वृक्ष के रूप में की थी, इसलिए भगवान ने कहा कि आज से इस स्थान पर मुझे 'बदरी के नाथ' यानी बद्रीनाथ नाम से जाना जाएगा. इस तरह से भगवान विष्णु का एक नाम बद्रीनाथ भी पड़ गया.

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उत्तराखंड स्थित बद्रीनाथ धाम (PHOTO- Wikipedia)

इस मंदिर की स्थापना का इतिहास भी रोचक है. परंपराओं में माना जाता है कि ये भगवान विष्णु का एक स्थान तो था पर पहले यहां मंदिर नहीं था. साधु-संत उस समय यहां श्री हरि की पूजा किया करते थे. फिर एक समय आया जब हिंदू और बौद्ध संप्रदाय के अनुयायियों के बीच तनाव बढ़ा. साधु-संतों ने तब भगवान की मूर्ति को बचाने के लिए इसे पास में ही स्थित नारद कुंड में डाल दिया था. नारद कुण्ड अलकनंदा नदी के ऊपरी छोर पर स्थित एक कुंड है. 

फिर जब जगद्गुरु आदि शंकराचार्य यहां आए तो उन्होंने भगवान की मूर्ति को कुंड से निकालकर मंदिर में स्थापित किया था. लोक मान्यताओं के अनुसार मूर्ति वापस गुफा में चली गई और अंततः रामानुजाचार्य ने नारद कुंड से मूर्ति निकालकर वापस इसे मंदिर में स्थापित किया. एक लोक कथा ये भी है कि शंकराचार्य ने परमार राजा कनक पाल की मदद से इस क्षेत्र से बौद्धों को निकलवा दिया. इसके बाद राजा कनक पाल के वंशजों ने ही इस मंदिर की व्यवस्था संभाली. फिर बाद में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने यहां सोने का एक छत्र चढ़ाया. वही महारानी अहिल्याबाई होल्कर जिन्हें बनारस के काशी विश्वनाथ सहित देश में कई मंदिरों के जीर्णोद्धार के लिए जाना जाता है.

मंदिर का प्रबंधन

परम्परा के अनुसार इस मंदिर की देखरेख हमेशा गढ़वाल के राजा करते रहे. 20वीं सदी में गढ़वाल राज्य दो हिस्सों में बंट गया और मंदिर ब्रिटशर्स के अधीन आ गया पर. पर अंग्रेजों के शासन में भी इसका प्रबंधन गढ़वाल के राजा के अधीन ही रहा जो आजतक जारी है. मंदिर में पूजा और भगवान की मूर्ति को स्पर्श करने का अधिकार केवल केरल के नंबूदरी ब्राह्मणों को हैं. 

इन्हें ही रावल भी कहा जाता है. केरल के नंबूदरी ब्राह्मणों से पूजा करने की परंपरा जगद्गुरु आदि शंकराचार्य ने शुरू की थी. रावलों को बद्रीनाथ में विशेष सम्मान दिया जाता है. अगर किसी स्थिति में रावल मंदिर में मौजूद न हों तो डिमरी ब्राह्मण पूजा संपन्न करवाते हैं. पर इनके अलावा और किसी को भगवान की मूर्ति को स्पर्श करने की इजाजत नहीं है. 

मंदिर की विशेषताएं

बद्रीनाथ मंदिर के 3 हिस्से हैं. गर्भगृह, दर्शन मंडप और सभा मंडप. गर्भगृह वो जगह है जहां भगवान विष्णु की प्रतिमा स्थापित है. गर्भगृह के ऊपर एक गुंबद है जिसकी ऊंचाई लगभग 15 मीटर है और ये सोने से ढंका हुआ है.मंदिर के आगे का हिस्सा पत्थरों से बना है जिसमें एक आर्क के आकार में खिड़कियां बनी हैं. प्रवेश द्वार धनुष के आकार का है जिसपर चौड़ी सीढ़ियां हैं. यहां से प्रवेश करने पर एक मंडप या यूं कहें कि एक हॉल है जिसमें नक्काशी वाले खंभे और दीवारें हैं.  

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बद्रीनाथ मंदिर में पूजा करते पीएम मोदी (PHOTO- PIB)

आप गर्भगृह में प्रवेश करेंगे तो आपको भगवान बद्रीनारायण की शालिग्राम से बनी प्रतिमा दिखेगी. बद्रीनारायण के दो हाथों में उन्होंने शंख और सुदर्शन चक्र धारण किया हुआ है. अन्य दो हाथों को उन्होंने पद्मासन योगमुद्रा में अपनी गोद में रखा हुआ है. गर्भगृह में धन के देवता कुबेर, महर्षि नारद, उद्धव की छवियां भी हैं.

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गर्मियों के मौसम में बद्रीनाथ धाम (PHOTO- X)
कपाट खुलने का दिन

बद्रीनाथ धाम के कपाट खुलने की डेट हर साल बसंत पंचमी के दिन घोषित की जाती है. इसके लिए एक सदियों पुरानी बड़ी ही रोचक परंपरा का पालन किया जाता है. प्राचीन समय में राजा को भगवान का प्रतिनिधि माना जाता था. इसलिए राजा की कुंडली देखकर, सारे ग्रहों की दशा-दिशा समझने के बाद ही राजपुरोहित कपाट खोलने की तिथि निश्चित करते हैं. ये घोषणा भी राजदरबार में ही की जाती है. भगवान बद्री विशाल के शीत निद्रा से उठने के बाद मानव पूजा के साथ कपाट खुलने का समय बेहद महत्वपूर्ण होता है. 

गाड़ू घड़ा परंपरा के लिए नरेंद्र नगर राजमहल में महारानी की अगुवाई में तिल का तेल निकाला जाता है. ये तिल का तेल राजपरिवार की महारानी द्वारा पिरोया जाता है. तिल को पिरोने की शुरुआत भी पूजा-अर्चना की साथ होती है. महारानी की नेतृत्व में 60 से अधिक सुहागन महिलाएं पीला वस्त्र पहन कर इस परंपरा को निभाती हैं. सदियों से इस तेल को पिरोने की लिए किसी मशीन नहीं बल्कि मूसल-ओखली और सिलबट्टे का इस्तेमाल किया जाता है. इस तेल को एक घड़े में भरा जाता है जिसे गाड़ू घड़ा कहा जाता है. फिर इसे डिम्मर गांव में स्थित लक्ष्मी नारायण मंदिर में रखा जाता है.

डिम्मर गांव में तेल वाले कलश की पूजा के बाद कपाट खुलने से चार दिन पहले इसे जोशीमठ के नृसिंह मंदिर लाया जाता है. नृसिंह मंदिर से बद्रीनाथ धाम के मुख्य पुजारी जिन्हें रावल भी कहा जाता है उनके नेतृत्व में तेल के कलश के साथ आदि शंकराचार्य की गद्दी को रात्रि विश्राम के लिए योग ध्यान बद्री मंदिर पांडुकेश्वर लाया जाता है. अगले दिन यहां से यात्रा निकलती है जो बद्रीनाथ मंदिर तक जाती है. इस यात्रा में गरुड़ जी, देवताओं के खजांची कुबेर जी और भगवान नारायण के बाल सखा उद्धव जी की डोलियां भी शामिल की जाती हैं. 

ये पूरी प्रक्रिया लगभग 5 दिन में पूरी होती है. आखिरी दिन मंदिर की मुख्य पुजारी (रावल) एक स्त्री की वेशभूषा धारण कर उन्हीं की समान श्रृंगार करते हैं. इसके पीछे की कहानी भी एक मान्यता से जुड़ी है. दरअसल मंदिर में आई भगवान की यात्त्रा की साथ उनके बाल सखा उद्धव की भी डोली आती है. अब उद्धव जी भगवान के बाल सखा हैं, पर उम्र में उनसे बड़े हैं लिहाजा वो रिश्ते में माता लक्ष्मी के जेठ लगते हैं. माना जाता है कि सनातन परंपरा में बहू जेठ के सामने नहीं आती. इसलिए जब मंदिर से उद्धव जी की डोली बाहर आ जाती है, तभी माता लक्ष्मी को मंदिर में विराजमान किया जाता है. माता लक्ष्मी के विग्रह को कोई और पुरुष न छुए, इसलिए रावल माता लक्ष्मी की सखी बनकर स्त्री का रूप धारण करते हैं. इसके बाद माता लक्ष्मी के विग्रह को मंदिर में स्थापित किया जाता है.

इस मंदिर की तीन चभियां हैं. एक चाभी टिहरी के राज परिवार के पास रहती है. बाकी दो चभियां मंदिर के अधिकार धारक कहे जाने वाले मेहता और भंडारी लोगों के पास रहती हैं. बद्रीनाथ धाम में भगवान के सामने एक दीपक जलता रहता है. कहा जाता है कि 6 महीने कपाट बंद रहने के दौरान ये दीपक जलता ही रहता है. मान्यता है कि उस समय स्वयं भगवान इस दीपक को जलाए रखते हैं.

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