महाराष्ट्र के नागपुर में 17 मार्च को हिंसा हुई. और शुरुआत हुई औरंगजेब की कब्र को लेकर हुए विरोध प्रदर्शन से. जिसे आयोजित किया था हिंदूवादी संगठन विश्व हिंदू परिषद (VHP) और बजरंग दल ने. बकौल CM देवेंद्र फडणवीस इस प्रदर्शन के दौरान घास फूस की एक नकली कब्र बनाकर उसे आग लगाया गया. और यहीं से फैली अफवाह, जिसके बाद नागपुर के महाल और हंसपुरी इलाके में माहौल बिगड़ गया.
नागपुर हिंसा के सबसे अहम किरदार ‘औरंगजेब की कब्र’ की कहानी
Aurangzeb Tomb Row: बीमारी की हालत में भी औरंगजेब ने सुनिश्चित किया कि सबको पता रहे कि वो जिन्दा हैं. क्योंकि उन्हें डर था कि उनकी मौत के बाद बेटे गद्दी के लिए लड़ मरेंगे और मुग़ल साम्राज्य बिखर जाएगा. क्या है औरंगजेब के कब्र की पूरी कहानी?
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पुलिसिया कार्रवाई जारी है. पांच एफआईआर दर्ज हुई हैं. गिरफ्तारियां की गई हैं. 11 इलाकों में बेमियादी कर्फ्यू है. साथ ही शांति बहाल करने की कोशिश भी हो रही है. लेकिन इस पूरे घटनाक्रम के केंद्र में है- ‘मुगल बादशाह औरंगज़ेब की कब्र’ (Aurangzeb Tomb).
खुल्दाबाद इलाक़े में मौजूद इस कब्र पर जब-तब राजनीति होती रहती है. कई बार ये भी सवाल पूछा जाता है कि दिल्ली में राज करने वाले औरंगजेब की कब्र यहां क्यों बनाई गई. इस कब्र का पूरा इतिहास क्या है?
ये साल 1705 के आसपास की बात है. यहां से औरंगजेब की तबीयत ख़राब होनी शुरू होती है. और फिर होती चली जाती है. दक्कन में घूमते-घूमते औरंगजेब को 24 साल हो चुके थे. उम्र 86 हो चली थी. शरीर में अब वो ताकत नहीं बची थी, जिसके बल पर औरंगजेब ने अपने भाई दारा को हराया था, और उसी ताकत के बल पर पूरे हिंदुस्तान में मुगलों का परचम फहरा दिया था.
हालांकि दक्कन पर कब्ज़ा बनाए रखना मुश्किल साबित हो रहा था. बीजापुर में कैम्पेन के दौरान औरंगजेब को लगा अब दिल्ली वापस लौट जाना चाहिए. हालांकि किस्मत में दिल्ली लौटना नहीं लिखा था. कृष्णा नदी के किनारे देवापुर में उनकी तबीयत अचानक बहुत ख़राब हो गई. इससे उनका काफिला रोक देना पड़ा. अगले 6 महीने औरंगजेब ने यहीं बिताए.
आगे का सफर शुरू हुआ, तब भी बादशाह में इतनी ताकत नहीं थी कि घोड़े पर बैठ सकें. उन्हें पालकी में सफर कराया गया. 20 जनवरी 1706 को औरंगजेब का काफिला अहमदनगर पहुंचा. अब तक औरंगजेब की तबीयत इतनी ख़राब हो चुकी थी कि हालत आगे जाने लायक नहीं थी.
बीमारी की हालत में भी औरंगजेब ने सुनिश्चित किया कि सबको पता रहे कि वो जिन्दा हैं. क्योंकि उन्हें डर था कि उनकी मौत के बाद बेटे गद्दी के लिए लड़ मरेंगे और मुग़ल साम्राज्य बिखर जाएगा. आख़िरी दिनों में अपने बेटे आजम को भेजे खत में लिखा,
मैं अकेला आया था और एक अजनबी की तरह दुनिया से जाऊंगा. मैं नहीं जानता कि मैं कौन हूं और मैं क्या कर रहा था. राज करने के दौरान मैंने जो भी कुछ किया, उसने बस दुख और निराशा छोड़ी है. मैंने जो भी किया है, अल्लाह मुझ पर रहम करे. मैं एक बादशाह के तौर पर नाकाम हो गया. मेरा इतना क़ीमती जीवन किसी काम नहीं आया. अल्लाह चारों ओर मौजूद हैं, लेकिन मैं इतना बदनसीब हूं कि जब उनसे मिलने की घड़ी आ पहुंची है, तब भी उनकी मौजूदगी महसूस नहीं कर पा रहा. शायद मेरे गुनाह ऐसे नहीं, जिन्हें माफ किया जा सके.
आजम ये पढ़कर अपने पिता के पास पहुंचा. पर उसने जब अपने पिता को देखा, तो उसे यकीन नहीं हुआ कि ये वही बादशाह आलमगीर औरंगजेब हैं, जिन्होंने पूरे हिंदुस्तान पर राज किया है. आखिरी समय में औरंगजेब का चेहरा एकदम सफेद पड़ गया था. ऐसा जैसे खून की एक बूंद शरीर में न बची हो. औरंगजेब अपने कांपते हुए होंठों से कुछ बड़बड़ा रहे थे. पर गले में इतनी आवाज भी नहीं बची थी कि आवाज निकल सके.
आजम अपने पिता के हाथों को देख रहा था, जिनकी उंगलियों में कई कीमती पत्थरों वाली अंगूठियां थी, जो शायद अब बोझ बन चुकी थीं. उसे यकीन नहीं हो रहा था कि ये वही उंगलियां थी, जिन्होंने मुग़ल सल्तनत को इस उरोज़ पर पहुंचाया था.
न्यू हिस्ट्री ऑफ इंडिया में इतिहासकार स्टैनली वोलपर्ट लिखते हैं कि साल 1707 की जनवरी आते-आते औरंगजेब को इल्म हो चुका था कि वो वापस दिल्ली नहीं लौट पाएंगे. अंतिम दिनों में भी वो पूरी तरह धार्मिक बने रहे. बीमार रहते हुए भी उन्होंने पांच वक्त नमाज़ पढ़ना नहीं छोड़ा. आख़िरी वक्त तक वो टोपियां सिला करते थे.
3 मार्च 1707 को औरंगजेब ने आख़िरी सांसे लीं. उनके शरीर को दिल्ली नहीं ले जाया गया. मौत के बाद उनके बेटे आज़म शाह और बेटी ज़ीनत-उन-निसा अपने पिता के शरीर को महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में स्थित खुल्दाबाद ले गए. (नोट- औरंगाबाद को अब संभाजीनगर कहा जाता है.). क्योंकि औरंगजेब चाहते थे, जहां उनकी मौत हो. वहीं पास में उन्हें दफनाया जाए.
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खुल्दाबाद में औरंगजेब को शेख जैनुद्दीन साहब की दरगाह के पास एक कब्र में दफनाया गया. शेख जैनुद्दीन को औरंगजेब अपना गुरु मानते थे. औरंगजेब की कब्र को लाल पत्थर से ढका गया. उनकी बहन जहांआरा की कब्र के ऊपर मिट्टी डाली गयी थी. ताकि उस पर फूल खिल सकें. यही औरग़ज़ेब की कब्र के साथ भी किया गया.
औरंगजेब की मृत्यु के बाद कोई शाही जनाजा नहीं निकाला गया. बहुत सादगी से उन्हें दफनाया गया. क्योंकि यही उनकी आख़िरी ख्वाहिश थी. औरंगजेब ने अपने आखिरी खत में अपने बेटे आजम को लिखा था,
टोपियां सिलकर मैंने चार रुपये दो आना कमाए हैं. उससे ही मौत के बाद का पूरा काम किया जाए. कुरान लिखकर उसकी प्रतियां बेचने से 305 रुपये मिले हैं. इन रुपयों को काजी ग़रीबों में बांट दें. मेरी मौत पर कोई दिखावा नहीं होगा. कोई संगीत नहीं बजेगा, कोई समारोह नहीं होगा. मेरी क़ब्र पर कोई पक्की इमारत न खड़ी की जाए. बस एक चबूतरा बनाया जा सकता है. मैं इस काबिल नहीं कि मौत के बाद भी छांव मिले मुझे. दफ़्न करते समय मेरे चेहरे को न ढका जाए. ताकि मैं खुले चेहरे से अल्लाह का सामना कर सकूं.
औरंगजेब ने 88 साल की जिंदगी जी. जिसमें से 49 साल के लगभग उन्होंने बादशाह की तरह गुजारे. मौत के वक्त उन्हें डर था उनके बाद मुग़ल सल्तनत कमजोर न हो जाए. हालांकि ऐसा ही हुआ. औरंगजेब की मौत के बाद मुग़ल गद्दी को लेकर फिर वैसा ही खून खराबा हुआ, जैसा खुद औरंगजेब ने किया था.
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उनकी मौत के बाद मुग़लों ने 150 साल राज किया. हालांकि मुग़ल सल्तनत का जो रुतबा औरंगजेब के वक्त में था. वैसा फिर कभी न हो सका. और इस बात के कुछ हद तक जिम्मेदार खुद औरंगजेब ही थे.
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