महाराष्ट्र चुनाव के लिए वोटिंग पूरी हो चुकी है. जैसा कि चुनावों में होता है, महाराष्ट्र में भी चुनाव प्रचार के दौरान खूब आरोप-प्रत्यारोप लगे. और इन आरोपों और चुनावी बहस के बीच जो एक ऐतिहासिक किरदार फिर से चर्चा का केंद्र बना वो हैं मुगल बादशाह औरंगजेब. औरंगजेब की विचारधारा और बादशाह के तौर पर उनकी कार्यशैली की चर्चा हुई. पर बादशाह औरंगजेब असल जीवन में कैसे थे? उनके बारे में कई चीजें हमें ऐतिहासिक प्रमाणों से पता चली हैं. आइए इनके बारे में जानते हैं.
दिल्ली की गद्दी पर बैठने वाले औरंगजेब को महाराष्ट्र में क्यों दफनाया गया?
औरंगजेब का आखिरी समय में चेहरा एकदम सफेद पड़ गया था. ऐसा जैसे खून की एक बूंद शरीर में न बची हो. औरंगजेब अपने कांपते हुए होंठों से कुछ बड़बड़ा रहे थे. पर गले में इतनी आवाज भी नहीं बची थी कि आवाज निकल सके. आजम अपने पिता के हाथों को देख रहा था, जिनकी उंगलियों में अंगूठियां बोझ बन चुकी थीं. उसे यकीन नहीं हो रहा था कि ये वही उंगलियां थी जिन्होंने मुग़ल सल्तनत को इस उरोज़ पर पहुंचाया था.
हाथी और हीरा
राजा हो या रंक. मौत का डर जो न करा दे कम है. जिंदगी के अंतिम सालों में मुग़ल बादशाह औरंगजेब जब बीमार पड़े. उनके मंत्रियों ने सलाह दी कि एक हाथी और एक बहुमूल्य हीरा दान कर दीजिए, बला टल जाएगी. औरंगजेब ने इसे दकियानूसी अन्धविश्वास बताकर साफ़ इंकार कर दिया. दिन बीते और उनकी तबीयत कुछ और ख़राब हुई. एक रोज़ औरंगजेब ने मंत्रियों को बुलाया और कहा, चार हजार रुपये काजी को भिजवा दो, ताकि वो गरीबों में बांट दें. दिलचस्प बात ये कि एक हाथी की कीमत तब लगभग 4 हजार रुपये के बराबर ही होती थी.
दक्कन का रण
युद्ध में एक ऐसी जीत भी होती है जिसे हार से बदतर माना जाता है. अंग्रेजी में इसके लिए शब्द है, ‘पिरिक विक्ट्री’. न्यू हिस्ट्री ऑफ इंडिया में इतिहासकार स्टैनली वोलपर्ट लिखते हैं,
"औरंगजेब ने दक्कन को जीतने के लिए 26 साल लगाए. लेकिन अंत में उन्हें सिर्फ पिरिक विक्ट्री नसीब हुई.”
साल 1682 में औरंगजेब जब दिल्ली से दक्कन की ओर आए. तो उनके साथ पूरा कारवां आया. वोलपर्ट के अनुसार ये एक चलती फिरती राजधानी थी. जहां औरंगजेब रुकने का फैसला कर लें, वहां सिर्फ टेंट लगाने के लिए दसियों मील जगह की जरूरत पड़ती थी. ढाई सौ बाजार, 50 हजार ऊंट और 30 हजार हाथी औरंगजेब के साथ चलते थे.
शाहजहां जब बादशाह थे, औरंगजेब को हमेशा अपने पिता से ये शिकायत रहती थी कि वो फिजूल खर्ची करते हैं. उनका मानना था कि ताजमहल बनवाने में जितना खर्च उनके पिता ने किया, वो खजाना खाली होने की सबसे बड़ी वजह बना. हालांकि स्टैनली वोलपर्ट के अनुसार जितना पैसा औरंगजेब ने दक्कन में बहाया, उसके सामने कोई भी खर्चा छोटा था. दक्कन जीतने की सनक में औरंगजेब ने न सिर्फ शाही खजाने को खाली किया. बल्कि लाखों लोगों की बलि दे दी. दक्कन के कई इलाके अकाल की भेंट चढ़ गए.
दक्कन कैम्पेन के आख़िरी दिनों में औरंगजेब को खुद लगने लगा था कि ये सब फिजूल है. ये साल 1705 के आसपास की बात है. यहां से औरंगजेब की तबीयत ख़राब होनी शुरू होती है. और फिर होती चली जाती है. हालांकि अंतिम दिनों की बात करने से पहले थोड़ा पीछे चलते हैं.
साल 1681. छत्रपति शिवाजी महाराज की मौत को एक साल हो चुका था. हालांकि मराठे अभी भी दक्कन पर कंट्रोल रखते थे. और मुग़ल सेना के लिए सिरदर्द बने हुए थे.
इस बीच औरंगजेब के तीसरे बेटे अकबर ने राजपूतों के साथ मिलकर विद्रोह कर दिया. राजपूतों के विद्रोह का एक बड़ा कारण जजिया टैक्स था. जिसे तीसरे मुग़ल बादशाह अकबर के समय में हटा लिया गया था. लेकिन औरंगजेब ने 1679 में इसे फिर लागू कर दिया था. औरंगजेब ने राजपूतों के विद्रोह को दबाने के लिए अपने बेटे अकबर को भेजा. लेकिन अकबर खुद राजपूतों से जा मिला. हालांकि राजपूतों का विद्रोह दबाने में मुग़ल सेना सफल हुई. लेकिन अकबर ने जाकर मराठों के पास शरण ले ली.
बेटे को पकड़ने और मराठों के उभार को रोकने के लिए औरंगजेब ने फैसला किया कि वो दक्कन की ओर कूच करेंगे. दक्कन में मराठों की कमान शिवाजी के बाद छत्रपति संभाजी महाराज के हाथ में आ चुकी थी. संभाजी ने अकबर को न सिर्फ आसरा दिया. बल्कि एक खत लिखा. ये खत अकबर की बहन के नाम था. लेकिन औरंगजेब के हाथ लग गया. खत में लिखा था,
“बादशाह को दिल्ली लौट जाना चाहिए. एक बार हम और हमारे पिता उनके कब्ज़े से छूट कर दिखा चुके हैं. लेकिन अगर वो यूं ही ज़िद पर अड़े रहे, तो हमारे कब्ज़े से छूट कर दिल्ली नहीं जा पाएंगे. अगर उनकी यही इच्छा है तो उन्हें दक्कन में ही अपनी कब्र के लिए जगह ढूंढ लेनी चाहिए.”
अगले कुछ साल औरंगजेब ने अकबर को पकड़ने की खूब कोशिशें कीं. लेकिन सफल नहीं हुए. बाद में संभाजी ने अकबर को पर्शिया भेज दिया. अकबर इसके बाद कभी लौटकर नहीं आया. कहते हैं निर्वासन में रहते हुए अकबर रोज़ अपने पिता की मौत की दुआ करता था. जब ये बात औरंगजेब को पता चली. उन्होंने कहा, “देखते हैं पहले कौन मरता है?”. इत्तेफाक से अकबर की मौत औरंगजेब की मौत से ठीक एक साल पहले हुई.
औरंगजेब का आख़िरी वक्त
साल 1705. दक्कन में घूमते-घूमते औरंगजेब को 24 साल हो चुके थे. उम्र 86 हो चली थी. शरीर में अब वो ताकत नहीं बची थी जिसके बल पर औरंगजेब ने अपने भाई दारा को हराया था, और उसी ताकत के बल पर पूरे हिंदुस्तान में मुगलों का परचम फहरा दिया था. हालांकि दक्कन पर कब्ज़ा बनाए रखना मुश्किल साबित हो रहा था.
बीजापुर में कैम्पेन के दौरान औरंगजेब को लगा अब दिल्ली वापस लौट जाना चाहिए. हालांकि किस्मत में दिल्ली लौटना नहीं लिखा था. कृष्णा नदी के किनारे देवापुर में उनकी तबीयत अचानक बहुत ख़राब हो गई जिससे उनका काफिला रोक देना पड़ा. अगले 6 महीने औरंगजेब ने यहीं बिताए. आगे का सफर शुरू हुआ, तब भी बादशाह में इतनी ताकत नहीं थी कि घोड़े पर बैठ सकें. उन्हें पालकी में सफर कराया गया. 20 जनवरी 1706 को औरंगजेब का काफिला अहमदनगर पहुंचा. अब तक औरंगजेब की तबीयत इतनी ख़राब हो चुकी थी कि हालत आगे जाने लायक नहीं थी.
बीमारी की हालत में भी औरंगजेब ने सुनिश्चित किया कि सबको पता रहे कि वो जिन्दा हैं. क्योंकि उन्हें डर था उनकी मौत के बाद बेटे गद्दी के लिए लड़ मरेंगे और मुग़ल साम्राज्य बिखर जाएगा. आख़िरी दिनों में अपने बेटे आजम को भेजे खत में लिखा,
"मैं अकेला आया था और एक अजनबी की तरह दुनिया से जाऊंगा. मैं नहीं जानता कि मैं कौन हूं और मैं क्या कर रहा था. राज करने के दौरान मैंने जो भी कुछ किया, उसने बस दुख और निराशा छोड़ी है. मैंने जो भी किया है, अल्लाह मुझ पर रहम करे. मैं एक बादशाह के तौर पर नाकाम हो गया. मेरा इतना क़ीमती जीवन किसी काम नहीं आया. अल्लाह चारों ओर मौजूद हैं, लेकिन मैं इतना बदनसीब हूं कि जब उनसे मिलने की घड़ी आ पहुंची है, तब भी उनकी मौजूदगी महसूस नहीं कर पा रहा. शायद मेरे गुनाह ऐसे नहीं, जिन्हें माफ किया जा सके."
आजम ये पढ़कर अपने पिता के पास पहुंचा. पर उसने जब अपने पिता को देखा तो उसे यकीन नहीं हुआ कि ये वही बादशाह आलमगीर औरंगजेब हैं जिन्होंने पूरे हिंदुस्तान पर राज किया है. आखिरी समय में औरंगजेब का चेहरा एकदम सफेद पड़ गया था. ऐसा जैसे खून की एक बूंद शरीर में न बची हो. औरंगजेब अपने कांपते हुए होंठों से कुछ बड़बड़ा रहे थे. पर गले में इतनी आवाज भी नहीं बची थी कि आवाज निकल सके. आजम अपने पिता के हाथों को देख रहा था, जिनकी उंगलियों में कई कीमती पत्थरों वाली अंगूठियां थी जो शायद अब बोझ बन चुकी थीं. उसे यकीन नहीं हो रहा था कि ये वही उंगलियां थी जिन्होंने मुग़ल सल्तनत को इस उरोज़ पर पहुंचाया था.
स्टैनली वोलपर्ट लिखते हैं कि साल 1707 की जनवरी आते-आते औरंगजेब को इल्म हो चुका था कि वो वापस दिल्ली नहीं लौट पाएंगे. अंतिम दिनों में भी वो पूरी तरह धार्मिक बने रहे. बीमार रहते हुए भी उन्होंने पांच वक्त नमाज़ पढ़ना नहीं छोड़ा. आख़िरी वक्त तक वो टोपियां सिला करते थे.
3 मार्च 1707 को औरंगजेब ने आख़िरी सांसे लीं. उनके शरीर को दिल्ली नहीं ले जाया गया. मौत के बाद उनके बेटे आज़म शाह और बेटी ज़ीनत-उन-निसा अपने पिता के शरीर को महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में स्थित खुल्दाबाद ले गए. क्योंकि औरंगजेब चाहते थे, जहां उनकी मौत हो. वहीं पास में उन्हें दफनाया जाए.
खुल्दाबाद में औरंगजेब को शेख जैनुद्दीन साहब की दरगाह के पास एक कब्र में दफनाया गया. शेख जैनुद्दीन को औरंगजेब अपना गुरु मानते थे. औरंगजेब की कब्र को लाल पत्थर से ढका गया. उनकी बहन जहांआरा की कब्र के ऊपर मिट्टी डाली गयी थी. ताकि उस पर फूल खिल सकें. यही औरग़ज़ेब की कब्र के साथ भी किया गया. औरंगजेब की मृत्यु के बाद कोई शाही जनाजा नहीं निकाला गया. बहुत सादगी से उन्हें दफनाया गया. क्योंकि यही उनकी आख़िरी ख्वाहिश थी.
औरंगजेब ने अपने आखिरी खत में अपने बेटे आजम को लिखा था.
"टोपियां सिलकर मैंने चार रुपये दो आना कमाए हैं. उससे ही मौत के बाद का पूरा काम किया जाए. कुरान लिखकर उसकी प्रतियां बेचने से 305 रुपये मिले हैं. इन रुपयों को काजी ग़रीबों में बांट दें. मेरी मौत पर कोई दिखावा नहीं होगा. कोई संगीत नहीं बजेगा, कोई समारोह नहीं होगा. मेरी क़ब्र पर कोई पक्की इमारत न खड़ी की जाए. बस एक चबूतरा बनाया जा सकता है. मैं इस काबिल नहीं कि मौत के बाद भी छांव मिले मुझे. दफ़्न करते समय मेरे चेहरे को न ढका जाए. ताकि मैं खुले चेहरे से अल्लाह का सामना कर सकूं”.
औरंगजेब ने 88 साल की जिंदगी जी. जिसमें से 49 साल के लगभग उन्होंने बादशाह की तरह गुजारे. मौत के वक्त उन्हें डर था उनके बाद मुग़ल सल्तनत कमजोर न हो जाए. हालांकि ऐसा ही हुआ. औरंगजेब की मौत के बाद मुग़ल गद्दी को लेकर फिर वैसा ही खून खराबा हुआ, जैसा खुद औरंगजेब ने किया था. उनकी मौत के बाद मुग़लों ने 150 साल राज किया. हालांकि मुग़ल सल्तनत का जो रुतबा औरंगजेब के वक्त में था. वैसा फिर कभी न हो सका. और इस बात के कुछ हद तक जिम्मेदार खुद औरंगजेब ही थे.
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