The Lallantop

जब अपनों की लाशों से गुजरकर हुई औरंगजेब की ताजपोशी, दिल्ली में बरसे हीरे-जवाहरात, हरम में लगा पहला दरबार

Aurangzeb Controversy: गद्दी पर बैठने का वक़्त सूरज उगने के 3 घंटे 15 मिनट बाद का तय था. समय आता है और परदे के पीछे बैठा Aurangzeb जनता के सामने आकर गद्दी पर बैठता है. एक बार फिर दरबार शोर से गूंज उठता है. नृत्यांगनाएं नृत्य शुरु करती हैं. परदा गिरता है.

post-main-image
औरंगजेब के तख्त पर बैठने का दिन भविष्यवक्ताओं ने चुना था (PHOTO-Wikipedia)

'हिस्ट्री ऑफ औरंगज़ेब’ नाम की एक किताब है. इसमें लेखक यदुनाथ सरकार लिखते हैं कि भारत में मुस्लिम शासकों के जितने भी राजतिलक हुए, उनमें औरंगज़ेब का राजतिलक सबसे भव्य था. सच है कि शाहजहां, मुगल बादशाहों में ख़ास था. लेकिन जब वो गद्दी पर बैठा, उसने मयूर सिंहासन नहीं बनवाया. ना ही उसने कोहिनूर हीरा हासिल किया. उसके सफेद संगमरमर के महल, जिनमें रंगीन कीमती पत्थर जड़े थे, वो भी गद्दी पर रहते नहीं बल्कि बाद में बने. इन्हें आज भी दिल्ली और आगरा में देखा जा सकता है. हालांकि, ये सब कुछ औरंगज़ेब के गद्दी पर बैठते वक्त मौजूद थे. औरंगज़ेब ने जश्न में जो किया, वो उस वक़्त के मुस्लिम शासकों में आम नहीं था. तो ये समझते हैं कि अपने भाइयों से जंग के बाद औरंगज़ेब जब गद्दी पर बैठा, तो कैसा माहौल था? तख़्त पर बैठने के दिन ही हरम में दरबार क्यों लगाया गया?

Buy HISTORY OF AURANGZIB VOLUME I-V Based on Original Sources (SET OF 4  Books) Book Online at Low Prices in India | HISTORY OF AURANGZIB VOLUME I-V  ...
इतिहासकार जदुनाथ सरकार की किताब (PHOTO-Amazon)

शाहजहां से इतर बेटे औरंगज़ेब के समय जो हालात थे, उसने गद्दी मिलने के जश्न को और बड़ा बनाया. गद्दी मिलने से पहले औरंगज़ेब ने कई लड़ाइयां लड़ी थीं. वो भारत के सम्राट के तौर पर उभरा था, जिस पर उंगली उठाने वाला कोई नहीं था. उसके तीन भाइयों में मुरादबख़्श उसके तहखानों में कैद था. शुजा को खाजवा और दारा शिकोह को अजमेर में हरा दिया गया. दोनों भाग गए थे. लाज़िम है इन तमाम जीत और पिता के तख़्त ने औरंगज़ेब के राजतिलक को वैभव से भर दिया था. आखिर इस राजतिलक में क्या-क्या हुआ था? बकौल यदुनाथ, 

मुस्लिम राजाओं में गद्दी पर बैठे शख़्स को सबसे अहम, सबसे महत्वपूर्ण माना जाता था. इसी से अरबी शब्द ‘जुलूस’ या ‘बैठना’ जुड़ा है. इनमें ना कोई प्रीस्ट सिर पर पवित्र तेल डालता था, ना चंदन लगाता था. जैसा कि प्राचीन हिंदुओं और यहूदियों में होता था. और ना ही ईसाइयों की तरह इन्हें मुकुट पहनाया जाता था. इसमें मुस्लिम शासक पूरे राजसी कपड़े पहनकर गद्दी पर बैठता था. सिर पर कपड़े की पगड़ी बांधी जाती, जिस पर हीरे और जवाहरात जड़े रहते. किसी भी मुस्लिम शासक का राज्याभिषेक तब तक पूरा नहीं माना जाता, जब तक शासक का नाम और टाइटल खुतबा से एलान नहीं किया जाता. खुतबा इस्लाम धर्म में सार्वजनिक उपदेश देने का तरीका है. राज्याभिषेक तब तक भी पूरा नहीं माना जाता, जब तक शासक के नाम का सिक्का नहीं ढल जाता.

Half rupee aurangzeb
औरंगज़ेब के समय के सिक्के (PHOTO-Wikipedia)

तो ऐसे में मुमकिन है कि, ‘फलाने के नाम का सिक्का चलता है’, ये कहावत भी यहीं से निकली हो. ख़ैर, ये तो मज़ाक की बात रही. राजा को सोने-चांदी के सिक्कों में तौलकर ये सिक्के फकीरों में बांट दिए जाते थे. औरंगज़ेब जब तख़्त पर बैठने जा रहा था, तब ऐसी तमाम चीजें की गईं, जो पहले नहीं की गई थीं. जैसे कि जून 1659 की वो झांकी के एक किस्से पर ग़ौर फरमाते हैं.

aurangzeb war
जंग के दौरान औरंगज़ेब (PHOTO-Wikipedia)

औरंगज़ेब के बाकायदा गद्दी पर बैठने के लिए 5 जून 1659 का दिन तय किया गया. दरबार के भविष्यवक्ताओं ने काफी सोच-विचार के बाद इस दिन को मुनासिब जाना था. औरंगज़ेब ने यूं तो साल भर पहले ही गद्दी हासिल की थी. लेकिन इस एक साल में कुछ लड़ाइयां लड़नी पड़ीं, लिहाजा तख़्तनशीं होने का बड़ा जलसा अभी हो नहीं पाया था. लड़ाइयों से फारिग़ होने के बाद अब समय था तख़्त पर बैठने का.

बकौल यदुनाथ, 12 मई को गाजे-बाजे के साथ औरंगज़ेब दिल्ली पहुंचता है. ढोल-नगाड़े, तुरही बज रही हैं. इनकी ध्वनियों के बीच हाथियों का विशाल बेड़ा दाख़िल होता है. एक-एक हाथी सोने-चांदी और चमकते जवाहरातों से सजे थे. गले में सोने की घंटियां और चांदी की चेन लटक रही थीं. तुर्की रिवाजों के मुताबिक, पॉलिश की हुई कुछ लकड़ी की गेंदें, डंडों की मदद से हाथियों की पीठ पर लटकाई गई थीं. हाथियों के इस भव्य काफिले के पीछे फारसी और अरब नस्ल के ख़ास चुने हुए घोड़े आते हैं. ये भी सोने और जवाहरातों से सजे थे. इस सब के पीछे थीं हथनियां और हथनियों के पीछे नगाड़े. संग में मंत्रियों-संत्रियों का जमावड़ा. इस पूरे काफिले के बीच एक हाथी सबसे ज़्यादा चमक रहा था, दमक रहा था. ये सबसे ज़्यादा सजा हुआ हाथी था, जिस पर सोने का एक सिंहासन बंधा था. इसी पर सवार था बादशाह औरंगज़ेब.

elephants of aurangzeb
सोने से सजे हुए हाथी (PHOTO-AI)

‘हिस्ट्री ऑफ औरंगज़ेब’ किताब के मुताबिक, इस वक्त औरंगज़ेब की उम्र 40 साल से कुछ महीने ज़्यादा थी. लंबा सा चेहरा, जो जवानी के दिनों की चमक खो चुका था. पर बुढ़ापे की नुकीली नाक और गालों के गड्ढे अभी नज़र नहीं आ रहे थे. औरंगज़ेब के दोनों तरफ थी, उसकी सेना. वही सेना, जिसने बीजापुर और गोलकुंडा के सैनिकों को हराया था, शुजा और दारा को दबाया था, आगरा पर कब्जा किया था और शाहजहां को बंदी बनाया था.

aurangzeb on peacock throne
सिंहासन पर बैठा औरंगजेब (PHOTO-Wikipedia)

ख़ैर, जैसे-जैसे काफिला बढ़ रहा था, हाथियों के ऊपर से सोने और चांदी के सिक्के भीड़ की तरफ फेंके जा रहे थे. इसी अंदाज़ में पूरा काफिला पुरानी दिल्ली के बाज़ार से होता हुआ, बरास्ते लाहौर गेट, लाल किले में दाख़िल होता है. तख़्त पर बैठने से पहले ऐसी झांकियां निकालना उस वक्त के मुस्लिम शासकों में आम नहीं था पर औरंगज़ेब ने ऐसा किया. अब वक़्त था ताजपोशी के इंतज़ार का.

तख़्त-ए-ताऊस पर बैठने का दिन आया. दीवान-ए-आम की छत और चालीस खंभे सोने की कारीगरी वाले कपड़े से सजाए गए. सोने की चेन लटकाई गईं. हर जगह सोना, चांदी, जवाहरात नज़र आ रहे थे. और बीच में एक जगह सोने की रेलिंग लगी हुई जिसके भीतर था पूरब का अजूबा- मयूर सिंहासन. हीरे, रूबी और टोपाज से चमचमाता हुआ सिंहासन. हर राजा जिसके सपने देखता था. कुल मिलाकर कहें तो एशिया के सबसे रईस साम्राज्यों में से एक के मिलने पर दौलत की नुमाइश जोरों-शोरों से हो रही थी. 

Peacock Throne
मशहूर मयूर सिंहासन (PHOTO-Wikipedia)

ख़ैर, गद्दी पर बैठने का वक़्त सूरज उगने के 3 घंटे 15 मिनट बाद का तय था. दरबार के एस्ट्रोलाजर रेत घड़ी और जल घड़ी लिए ठीक वक्त का इंतजार कर रहे थे. समय आता है और वो संकेत देते हैं. परदे के पीछे बैठा औरंगज़ेब लोगों के सामने आता है और गद्दी पर बैठता है. एक बार फिर दरबार शोर से गूंज उठता है. नृत्यांगनाएं नृत्य शुरु करती हैं. परदा गिरता है.

नृत्य रुकने के बाद एक आवाज़ में खुतबा यानी जनता के सामने सम्राट के नाम और पदवी का एलान किया जाता है. बादशाह को सोने से जड़े कपड़े दिए जाते हैं. एक बार फिर दर्शकों के बीच सोना-चांदी फेंका जाता है. सुगंधित पानी लोगों के ऊपर छिड़का जाता है. सभी को पान परोसे जाते हैं और अब वक्त था नए सिक्के ढालने का.

बकौल यदुनाथ, शाहजहां ने सिक्कों पर कलमा छपवा रखा था. लेकिन औरंगज़ेब ने इस परंपरा को रोक दिया. ताकि ‘काफिरों’ के छूने से वो शब्द अपवित्र ना हो जाएं. इसलिए उसके सिक्कों पर फारसी में कुछ शब्द लिखे गए. जिनके माने थे,

दुनिया को परास्त करने वाले बादशाह औरंगज़ेब के द्वारा यह सिक्का धरती पर छापा गया है, जैसे चमकता पूर्णिमा का चांद.

इस सब के बाद अब वक्त था हरम की तरफ रुख करने का. हिस्ट्री ऑफ औरंगज़ेब के मुताबिक, जनता के बीच वक्त बिताने के बाद औरंगज़ेब हरम की तरफ लौटा. जहां उसका इंतजार राजकुमारियां, दरबारियों की पत्नियां और बाकी औरतें कर रही थीं. सम्राट के आने के बाद महिलाओं ने राजशाही की इस लौ को ऐसे घेर लिया जैसे पतंगे. सब ने सम्राट को अपने हिस्से की बधाई दी. सोना, चांदी और जवाहरातों की बौछार की. फिर औरंगज़ेब ने औरतों को बदले में तोहफे दिए. उसकी बहन रोशनारा बेगम को पांच लाख रुपये के तोहफे और नगदी मिली क्योंकि उसने गद्दी के लिए किए गए युद्ध के दौरान औरंगज़ेब की मदद की थी. उसने हरम में भी औरंगज़ेब के हितों पर नजर रखी थी. उसने अपनी बड़ी बहन का विरोध किया था जो कि दारा शिकोह की तरफ थी. वहीं औरंगज़ेब की बेटियों को 1 से 5 लाख रुपये मिले. बेटों को भी रुपये मिले. दरबारियों को भी तोहफे दिए गए.

कीमती इनाम के लिए कवियों ने दिमाग खर्च किया ताकि ऐसी रचना कर सकें, जिसके शब्दों को जोड़ने पर ताजपोशी की तारीख बने. इसके बाद नया बना बादशाह अपनी हुकूमत के लिए नए कानूनों का एलान करता है. शराब पीना खत्म करने के लिए लोग रखे और इस्लाम के मुताबिक तमाम चीजों को नापाक बताया. साथ ही अनाज पर लगने वाले तमाम सेस, ड्यूटी और पुलिस फीस खत्म कर दी. अगले कई दिनों तक समारोह चला, यमुना नदी दीपों से चमका दी गई. और इस तरह मयूर सिंहासन पर तमाम सियासी खून खराबे, और धन दौलत के रुतबे की नुमाइश करते हुए नया बादशाह तख्त-ए-ताऊस पर काबिज हुआ.

वीडियो: तारीख: औरंगजेब ने अपने हरम में क्या किया था? कैसे हुई थी मुग़ल बादशाह की ताजपोशी?