पुनीत शर्मा को आप पहले भी 'दी लल्लनटॉप' पर पढ़ चुके हैं. आज वे लालटेन लेकर अनुराग कश्यप की अंधेरी दुनिया में उतर गए हैं. यहां आप सिर्फ कश्यप की फिल्मों में आया अंधेरा ही नहीं पढ़ेंगे, उनकी तमाम सफल-असफल फिल्मों की ऑफ्टरलाइफ से जुड़ी बहसें भी पढ़ेंगे. पुनीत खुद मायानगरी के वासी हैं. उसी सिनेमाई दुनिया के जवां सिपाही. 'औरंगजेब' और 'रिवॉल्वर रानी' के गीत लेखक. आजकल विज्ञापन की दुनिया में सक्रिय. तो अब ओवर टू पुनीत...
'अनुराग कश्यप', स्वतंत्र हिन्दी सिनेमा का वो नाम है जिसके आगे कई आलोचनाएँ बौनी हो जाती हैं. जिसकी फ़िल्मों के सबसे बड़े आलोचक मुख्यधारा सिनेमा के अपने-अपने हस्तिनापुरों के धृतराष्ट्र रहे हैं. यही वो लोग हैं, जिन्होंने उसे जाने-अनजाने वो मकाम दिया, जिसका वो पूरा हकदार है. अनुराग ने हिंदी सिनेमा के बड़े पर्दे को काट कर एक अलग छोटा पर्दा बनाया. जिसमें छोटे-छोटे सपने देखने वाले जादूगरों का वो हर आइटम आ सकता था, जो हर मोड़ पर जादुई दिखते हुए भी ज़िंदगी की किसी असली कलाबाज़ी का नमक रखता था. उसने हमें वो नाम दिए, जिनका नाम लेते हम थकते नहीं. उसने कई अंतर्मुखियों को जोख़िम शब्द के साथ बैठ के समंदर से मछलियाँ खेंचना सिखाया.
खुरदुरा 'पांच' वाला अनुराग - https://www.youtube.com/watch?v=GVcs9cr3zyY
ये सारी भूमिका ना तो ईद के बकरे की माला है ना गाली के पहले की बिरुदावली.
मैं जो अपने आस-पास देखता सुनता हूँ उसे कम ही इतने सीधे तरीके से व्यक्त करता हूँ. ये मेरी शंका का भाव-विस्तार है. मुझे लगता है कि शंका अपने संतुलित रूप में कोई बुरी चीज़ नहीं है, वो अपराध रोकने का सबसे कारगर तरीका है. शंका को विश्वास का विलोम बना दिया गया है. मेरा ऐसा मानना नहीं है. सीधे अपने शब्दों में कहूँ तो 'तुझे मेरी नीयत पे कोई शक है मेरे दोस्त, बिल्कुल कर इतना तो तेरा हक़ है मेरे दोस्त'. खैर, मैं यहाँ पर किसी को अपना दोस्त करार नहीं कर रहा. ये विश्वास में शंका की जगह तलाश करने जैसा कुछ है शायद.
यहाँ रोटी पे हाथ रख के मैं कसम खाता हूँ कि मेरा हर एक कथन अभी तक ट्रेलर पर आधारित है और उसे देखकर जो मैं कह रहा हूँ, अपने दिल-दिमाग की कह रहा हूँ और उसके सिवाय कुछ नहीं कह रहा हूँ. अगर आपको मेरा ये नज़रिया जल्दबाज़ी भरा और पक्षपाती लगे तो आप इसकी धज्जियाँ उड़ाने हेतु सबंधु-बांधव आमंत्रित हैं.
अनुराग को आज के हिन्दुस्तानी बिंब के आधार पर सिनेमा की वो गाय कहा जा सकता है, जिसकी आलोचना की अफवाह से भी जुड़ के आप किसी भक्त गैंग का शिकार हो सकते हैं. सीधे शब्दों में कहूँ तो अनुराग की सबसे बड़ी उपलब्धियों को उसके अनुयायियों की ये कमी खाती रही है.
अगर मैं कहूँ कि रामगोपाल वर्मा, वो जानवर था जो मिड-डे मील खाने वाले मुख्यधारा दर्शकों को डेलिकैसी परोसते-परोसते, एक दिन भूख में अपनी ही पूँछ चबाते हुए ख़ुद को खा गया, तो अनुराग 'गाइड' का वो साधू हो सकता है जिसे भगवान बताकर, निर्वाण की चाह के लिए अनुयायी ही भूखा मार सकते हैं.
'रमन राघव 2.0' ट्रेलर देखते ही मैंने उतनी या उससे 2 आना कम ख़ुशी महसूस की होगी जो उसके सारे हितैषियों के मन में उमड़ी होगी. फिर क्या हुआ कि, ठहरा मैं अपनी आदत से मजबूर. मेरी दोस्त को भी हक़ से, शक की निगाह से देखने की आदत ने मुझे वापस इस ट्रेलर के सामने ला खड़ा किया. नवाज़ की बातों और आँखों में मुझे 'रमन' का वही जादू दिखा जो पहली दफ़ा दिखा था लेकिन ना जाने क्यूँ विकी (जिसे मैंने मसान में शालू जितना ही चाहा था) मुझे फ़िल्म की आत्मा से बाहर की कोई चीज़ लगी.
फिर से देखने में समझ आया कि ये विकी नहीं 'राघव' है जो मेरी आँखों को खटक रहा है. जैसे अपने ही भार से झुके लकड़ी के फट्टे के दूसरी तरफ़ वैसा ही कोई भार रख दिया हो ताकि फट्टा संतुलन में डोलता रहे.
ये दूसरी तरफ़ रखा भार आँखों को खटकता है और दिमाग सवाल पूछता है कि हाँ, फट्टे के संतुलन में डोलने से कुछ ड्रामा तो आता है. लेकिन नैसर्गिक रूप से एक तरफ झुके फट्टे के साथ क्या हमारा जादूगर वो जादू पैदा नहीं कर सकता? एक और बात जो मैं पूरी उम्मीद करूँगा कि झूठी निकले, वो है उस लड़की का किरदार जो मुझे चंद फ्रेमों में रामू की बाद की फिल्मों वाली नायिका की याद दिलाती है. एक लड़की जिसका इस पूरी किस्सागोई में एक मोहक बिम्ब या एक पुर्ज़े के सिवा कोई योगदान दिखाई नहीं पड़ता. पता नहीं क्यूँ ऐसे सवाल दिमाग में आए और पता नहीं क्यूँ आदत के विपरीत मैंने इतना लंबा एक लेख लिखा (सैराट वाला लेख उसके जादू का असर था, मेरा बहुत कम योगदान था उसमे).
शायद उम्मीदें आपको डराए रखती हैं.
मुझे हिंदी के दो मुहावरे याद आ रहे हैं. पहला 'सुबह का भूला अगर शाम को लौट आए तो उसे भूला नहीं कहते' और दूसरा 'लौट के बुद्धू घर को आए'. दोनों मुहावरों का इस्तेमाल इन दिनों सिनेमाजगत की दो धाराओं के लोग कर रहे हैं. पहला मुहावरा उन लोगों के होंठो पर है जो अनुराग के साथ (लीनियर या नॉन-लीनियर रूप से) उसकी पहली फिल्म से हैं.
'ठीक है! हो गई उससे गलती' एक ऐसा सपना देखने की जिसे जागती आँखों से देखते-देखते ना जाने कब वो अपनी आदत के विपरीत सो गया और हमने उसका नींद में बड़बड़ाता हुआ सिनेमा देखा.
चमकीला 'वेल्वेटी' अनुराग - https://www.youtube.com/watch?v=AmMIQZ1TAig मुझे यहाँ, इस मुहावरे से ये दिक्कत होती है कि वो लौटने वाले की गलतियाँ तो माफ़ कर देता है लेकिन साथ ही साथ उसके लौटने को किसी जश्न की तरह मनाता है. बच्चा IIT में फेल हुआ तो PET की उम्मीद बाँधनी शुरू कर दी. क्यूँ? ज़रूरी है कि हर फ़िल्म के साथ जब अनुराग लौटे तो कोई करिश्मा साथ लेकर ही लौटे? वो क्या हार नहीं सकता? उससे हारने का सुख छीनने के पीछे हमारी कौन सी कुंठा छिपी है? वो हमारे सारे सपने पूरे करने के लिए तो पैदा नहीं हुआ. दूसरा मुहावरा उन लोगों की ज़बान पर है, जिन्हें अपनी हिंदी सिनेमा की कमान किसी और के हाथों में हमेशा-हमेशा के लिए जाती दिख रही थी.
अफ़सोस कि यूँ न हुआ, हुआ ये कि यहाँ 'बॉम्बे वेल्वेट' बॉक्स ऑफिस पे गिरी और वहाँ ठहाकों के साथ बर्फ़ उनके सिंगल माल्ट के गिलास में. उन लोगों को 'रमन राघव 2.0' शतरंज के एक ऐसे खाने की तरह दिखती है, जहाँ से (उनके अनुसार) अनुराग की मोहरा आगे बढ़ाने की औकात नहीं थी. ये ही वो जगह है जहाँ उसे होना चाहिए था. अच्छा है कि वो लौट आया वरना वो फिर से मात खाता.
उन्हें ये मालूम होना चाहिए कि ये खाना कोई सुरक्षा का घेरा नहीं है, जहाँ लौटकर अनुराग सुरक्षित महसूस कर सकता है. अनुराग ने इस खाने में खुद को अपनी मेहनत से मज़बूत किया है. ये वो खाना है जहाँ आने का बूता या गूदा किसी को विरासत में नहीं मिलता. ना इस खाने पे टिकने का कोई फॉर्मूला ईजाद हुआ है. हमने हर दफ़ा इस खाने पे आने वाले को उतनी ही बेरहमी से चूमा है, जितनी मोहब्बत से उसे लात मारी है. यहाँ राजा और फ़कीर एक ही शिद्दत से पीटे जा सकते हैं. ख़ैर! इन सारी बातों के बावजूद
'रमन राघव 2.0', मेरी जेब से एक टिकट का पैसा निकलवाने का हक़ तो रखती है. इस बड़बड़ाहट को आप कोई नाम ना दें तो बेहतर और दें तो आपका मुँह भला कौन बंद कर सका है. ये मुँह किसी राजा या रंक, ईश्वर या फ़कीर के लिए बंद ना हो इसी कामना के साथ मेरा अधूरा अलविदा.
उम्मीदों और आशंकाओं और आजादियों के बीच अनुराग '2.0' - https://www.youtube.com/watch?v=xq1cEmhVa68