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ईरानियन मास्टरपीस फिल्म 'क्लोज़-अप', जिसे दुनिया ने देखा तो अचंभित रह गई

पूरी फ़िल्म 'बोगस' शब्द के विरुद्ध छेड़े गये युद्ध की दास्तान है. फिल्म के किसी एक्टर ने पहले कभी ऐक्टिंग नहीं की थी. न ही बाद में की.

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रिफाइंड के दौर में यह फ़िल्म देसी घी जैसी है

कुंवर नारायण कहते हैं:


कविता यथार्थ को नज़दीक से देखती, मगर दूर की सोचती है. 

कमोबेश सिनेमा के बारे में भी यही कहा जा सकता है.

किसी घटना या व्यक्ति को नज़दीक से जानना कला और रिस्क दोनों है. क्योंकि नज़दीकी भ्रम तोड़ती है. लेकिन महान फ्रॉडिया हर्षद मेहता (वेब सीरीज़ में) कहते हैं, रिस्क है तो इश्क़ है. इसी इश्क़ का नाम है 'क्लोज़-अप'. यह सुनते ही सबसे पहले कुछ दिमाग़ में आता है, तो क्लोज़-अप शॉट. पर हम आज एक शॉट की नहीं, बल्कि सैकड़ों शॉट्स के सिलसिले की बात कर रहे हैं. जिनसे मिलकर 'क्लोज़-अप' (Close-UP) बनी. 

ऐसी फ़िल्म, जो ईरानियन डायरेक्टर अब्बास कियारोस्तमी (Abbas Kiarostami) के अनूठे कवित्त, और ताज़ी स्टोरीटेलिंग का नायाब नमूना है.  

 1989 में तेहरान (Tehran) की शोरूस मैगज़ीन में हसन फराज़मंद ने एक आर्टिकल लिखा. जिसके अनुसार हुसैन सब्ज़ियान (Hossain Sabzian) ने ख़ुद को ईरानियन डायरेक्टर मोहसिन मखमलबाफ (Mohsen Makhmalbaf) की तरह पेश किया और आहनखा (Ahankhah) फैमिली को धोखा दिया. 

आर्टिकल की हेडलाइन थी, 'बोगस मखमलबाफ वाज़ अरेस्टेड' यानी नकली मखमलबाफ गिरफ्तार. पूरी फ़िल्म बोगस शब्द के विरुद्ध छेड़े गये युद्ध की दास्तान है. 

इस दौरान अब्बास कियारोस्तमी अपनी किसी फ़िल्म का प्री-प्रोडक्शन कर रहे थे. उन्होंने यह आर्टिकल पढ़ा और प्री-प्रोडक्शन छोड़कर, एक नई फ़िल्म बनाने निकल पड़े.


क्लोज़-अप फ़िल्म से स्ननैप
क्लोज़-अप फ़िल्म से.

फ़िल्म के सिलसिले में जब वो मखमलबाफ से मिले, तो शोरूस मैगज़ीन पहले से उनके पास थी. मखमलबाफ ख़ुद इस पर फ़िल्म बनाने की तैयारी कर रहे थे. तब अब्बास ने मोहसिन को कन्विंस किया कि इसमें आप ख़ुद एक किरदार हैं, आप इसे न डायरेक्ट करें. मुझे करने दें. उसी समय दोनों अहानखा फैमिली के पास पहुंचे. सब्ज़ियान से मिले. जज को मनाया. और फ़िल्म बना डाली.

हुसैन सब्ज़ियान. एक सिनेफाइल. वह यात्रा पर है. उसके हाथ में मखमलबाफ की फ़िल्म द साइकिलिस्ट का स्क्रीनप्ले है.  बस में उसकी एक महिला (मिसेज अहानखा) से भेंट होती है. 

महिला पूछती है


"यह किताब आपको कहाँ से मिली."

वो कहता है,


"मैंने लिखी है." 

महिला सवाल करती है


"पर इसे तो मोहसिन मखमलबाफ ने लिखा है."

सब्ज़ियान जवाब देता है,


"मैं मखमलबाफ ही तो हूँ." 

महिला विनम्र भाव से कहती है,


"मेरे बच्चे आपके प्रशंसक हैं. आप घर आइए." 


क्लोज़-अप फ़िल्म से स्ननैप
क्लोज़-अप फ़िल्म से स्ननैप

सब्ज़ियान अहानखा फैमली के घर जाकर ख़ुद को मखमलबाफ की तरह पेश करता है. 'मुझे आपका घर बहुत पसंद आया, यहाँ मैं एक फ़िल्म बनाना चाहता हूँ.' अहानखा परिवार मान जाता है. कुछ दिनों बाद परिवार को उस पर शक़ होता है. वो उसे गिरफ्तार करवाते हैं. कोर्ट में ट्रायल चलता है. आख़िरकार अहानखा परिवार सब्ज़ियान को माफ़ कर देता है. 

इस पूरे घटनाक्रम को अब्बास कियारोस्तमी ने कैमरे में क़ैद किया. कोर्ट ट्रायल के अलावा सारे इवेंट्स रीक्रिएट किये गये. यहाँ तक कि कोर्ट ट्रायल सीक्वेंस में सब्ज़ियान के पार्ट को, फिर से स्क्रिप्टेड डायलॉग्स के साथ शूट किया गया. पोस्ट प्रोडक्शन में जज और सब्ज़ियान के संवाद में इंटर कट लगाए गये. 

'क्लोज़-अप' में सभी ख़ुद के किरदार को पर्दे पर जी रहे हैं. अब्बास ने फ़िल्म को अपने डायरेक्शन से ऐसा सजाया है कि एक क्षण के लिए ऐक्टिंग कर रहे लोग नॉन ऐक्टर्स नहीं लगते. 

कोर्टरूम में अब्बास, सब्ज़ियान को ब्रीफ करते हैं.


"हमारे पास दो कैमरे हैं. एक में वाइड ऐंगल लेंस है, जो कोर्ट रूम को कवर करेगा. दूसरे में 'क्लोज़-अप' जो बराबर तुम पर बना रहेगा."

यानी पूरी फ़िल्म सब्ज़ियान पर फोकस्ड है. यह वाक्य मूवी की नामावली भी तय करता है और क्लोज़-अप बना देता है.

1990 में फ़िल्म ईरान (Iran) में रिलीज़ हुई. इसे ख़ूब नकारात्मक प्रतिक्रियाएं मिली. पर, जब कान्स, न्यूयॉर्क समेत तमाम फ़िल्म फेस्टिवल्स में दिखायी गई, विश्व दंग रह गया. अपने आप में एकदम नया सब्जेक्ट, नया जॉनर. न डॉक्यूमेंट्री. न ही फ़िक्शन. इन दोनों के बीच से गुज़रती फ़िल्म, मानो किसी फ़िल्मी जंगल को चीरती चली जा रही है. सब बाधाओं से मुक्त. पुनर्नवा. 

फ़िल्म का नॉन लीनियर नैरेटिव आपको यह समझने नहीं देता कौन-सा सीन रियल है और कौन-सा रीक्रिएट किया गया है. मूवी इटैलियन नियोरियलिज़्म (Italian neorealism) से सोशल इश्यूज़, फ्रेंच न्यू वेव (French new wave) से मानव स्वभाव और उसकी आत्मिक अभिव्यक्ति को उठाती है. और निराले नैरेटिव को नए जॉनर में पेश करती है. 

मूवी विश्व में इस्लामी रिपब्लिक की आम छवि को तोड़ती है. जहाँ सिनेमा अमीर और ग़रीब दोनों को जोड़ता है. इसी का इस्तेमाल कर जज दोनों पक्षों में सुलह कराता है. ऐसा माना जाता है अब्बास ने सुलह के लिए जज को मनाया. सब्ज़ियान ने बाद में इसकी कंप्लेन भी की. कियारोस्तमी ने उसे इस मामले में बरी क्यों करवाया?


क्लोज़-अप फ़िल्म से स्ननैप
क्लोज़-अप फ़िल्म से स्ननैप

फ़िल्म में जब अब्बास, सब्ज़ियान से जेल मिलने पहुंचते हैं, तो वह कहता है.


"मैं अपना फ्रॉड स्वीकारता हूँ. पर ये लोग मुझे धोखेबाज लिखते हैं, जो मैं नहीं हूँ. क्योंकि मैंने जो किया वो सिर्फ़ बाहर से फ्रॉड दिखता है."

'क्लोज़-अप' कई मुद्दों को कवर करती है. कई थीम्स को इंटर रिलेट करती है. 


#मानवीय पक्ष 

सहानुभूति के जरिए फ़िल्म का मानवीय पक्ष उजागर होता है. भरोसा, प्रेम, जुड़ाव और क्षमाशीलता दिखती है. जब पुलिस वाले सब्ज़ियान को ले जा रहे होते हैं. मिसेज़ अहानखा कहती हैं, 'इसे खाना तो ख़त्म करने दो.' इस वाक्य में कितना ममत्व है. अहानखा परिवार मुकदमा वापस लेकर सब्ज़ियान को माफ़ कर देता है. अंत में उसकी मुलाक़ात मोहसिन मखमलबाफ से होती है. वो गले लगकर रो पड़ता है.  दोनों मोहसिन की बाइक पर अहानखा के घर जाते हैं. फूल खरीदते हैं. फूल खरीदने वाला सीन, उस सीन से राइम करता है जिसमें ड्राइवर ने फूल कूड़े के ढेर से उठाकर अपनी कार में रख लिये थे. बाइक वाले सीक्वेंस को जिस तरह से शूट किया गया है, वो सिनेमाई इतिहास के कुछ सबसे सुंदर सीक्वेंसेज़ में से एक माना जाता है. 


क्लोज़-अप फ़िल्म से स्ननैप
क्लोज़-अप फ़िल्म से स्ननैप

#सिनेमा और उसका प्रभाव 

सिनेमा क्या है? डॉक्यूमेंट्री क्या है? सिनेमा हमारे जीवन को कैसे प्रभावित करता है? इन सब के जवाब इस फ़िल्म में हैं. सिनेमा के प्रॉसेस और उसके प्रभाव को दर्शाती यह फ़िल्म अपने आप में सिनेमाई थ्योरी का अभ्यास है. कोर्ट में सब्ज़ियान को लेंसेज़ के बारे में समझाना, लास्ट सीक्वेंस में माइक का ख़राब होना, सब इसी थ्योरी के हिस्से हैं. सब्ज़ियान कुरान की आयत को कोट करते हुए कहता है:


अल्लाह का नाम तुम्हें शांति और सांत्वना देगा. पर मुझे शांति नहीं मिलती. जब मेरा मन डूबता है. मैं अपनी पीड़ाएं और यातनाएं दुनिया को चिल्लाकर बताना चाहता हूँ. कोई सुनना नहीं चाहता. तब एक अच्छा आदमी आकर मेरे दुःख पर फ़िल्म बनाता है. मेरी पीड़ाओं को पर्दे पर उतारता है. लोगों के बुरे चेहरे को दिखाता है. मैं बार-बार कई बार उन मूवीज़ को देखता हूँ. उनके स्क्रीनप्ले को पढ़ता हूँ. मुझे सांत्वना मिलती है. क्योंकि इनमें वो सब कहा जाता है, जो मैं कहना चाहता था.


क्लोज़-अप फ़िल्म से स्ननैप
क्लोज़-अप फ़िल्म से स्ननैप

#पर्सनल आइडेंटिटी की चाह

फ़िल्म व्यक्तिगत पहचान, आत्म अभिमान और आत्म सम्मान की बानगी पेश करती है. सब्ज़ियान डायरेक्टर इसलिए नहीं बनता कि उसे फ्रॉड करना है. वो मखमलबाफ इसलिए बनता है क्योंकि उसे सम्मान चाहिए. वो चाहता है उसकी बात सुनी जाए. सब्ज़ियान अपनी ग़रीबी पर कहता है:


'इससे पहले मेरी बात किसी ने नहीं मानी. किसी ने मेरी नहीं सुनी, क्यों? सिर्फ़ इसलिए कि मैं ग़रीब हूँ. मैंने यहाँ ख़ुद को एक फेमस व्यक्ति के तौर पर पेश किया, इसलिए जो कहा, वो माना गया.'

'मैंने अहानखा परिवार से द साइकिलिस्ट दोबारा देखने का आग्रह इसलिए किया. ताकि इनकी दिलचस्पी फ़िल्म में और बढ़े. वो मेरा और अधिक सम्मान करने लग जाएं.'


क्लोज़-अप फ़िल्म से स्ननैप
क्लोज़-अप फ़िल्म से स्ननैप

#दार्शनिक पहलू

'क्लोज़-अप' का एक दार्शनिक पक्ष भी है. अब्बास कियारोस्तमी ने सब्ज़ियान के जरिए उसे ख़ूब निखारा है. चाहे कुरान की आयत हो या टॉलस्टॉय (Tolstoy) का कोट.


'कला, कलाकार द्वारा विकसित आंतरिक अनुभूति है.'


क्लोज़-अप फ़िल्म से स्ननैप
क्लोज़-अप फ़िल्म से स्ननैप

सब्ज़ियान कहता है,


'विरोध और द्वेष हो, वहाँ कला पर्दा कर लेती है.'

'मानव को हृदय पर लगी जंग हटाने के लिए प्रकृति के क़रीब जाना चाहिए.'

जब पुलिस और जर्नलिस्ट अहानखा के घर चले जाते हैं. उस समय ड्राइवर कूड़े के ढेर से फूल उठाकर कार में रख लेता है. फूल कूड़े में भी कूड़ा नहीं होता, फूल ही रहता है. इसके पीछे के दर्शन को समझिए. या जब फूल लेकर सब्ज़ियान अहानखा से माफ़ी मांगने पहुंचता है और फ्रेम फ्रीज़ हो जाता है. उस एक फ्रेम में तमाम दर्शन निहित हैं.


क्लोज़-अप का अंतिम फ्रेम
क्लोज़-अप का अंतिम फ्रेम

ऐसे ही कई जेस्चर और कई डायलॉग्स फ़िल्म को दार्शनिक बनाते हैं.


#सामाजिक अन्याय की बानगी

फ़िल्म ईरानी क्रांति (Iranian revolution) के बाद के समय को दिखाती है. उस समय के हालात दिखाने की कोशिश करती है.  क्रांति के बाद की ग़रीबी, अवसाद और सामाजिक तानेबाने को पेश करती है. कार में रिपोर्टर, ड्राइवर और पुलिस वालों के बीच का संवाद पलायन की समस्या को उजागर करता है. सब्ज़ियान अपनी सोशल बाउंड्रीज़ तोड़ने का जतन कर रहा है. फ़िल्म कानून बनाम कला के पहलू को भी छूती है. सामाजिक अन्याय के चरम तक ले जाती है. और सामाजिक उदारता पर लाकर छोड़ देती है. 


#मौन क्रांति

अच्छे सिनेमा के कई मानक होते हैं. फ़िल्म में विविध एलिमेंट्स होते हैं. पर साइलेंस का इस्तेमाल कैसे किया गया है. यह उसे महान बनाता है. क्लोज़-अप इसीलिए महान सिनेमा है. जब सब्ज़ियान कुछ नहीं कह रहा होता, तब ही सबसे ज़्यादा बोल रहा होता है. कैमरे के पीछे से कियारोस्तमी उससे प्रश्न पूछते हैं. वो हर जवाब के पहले दो सेकंड रुकता है. इसी रिक्तता में सिनेमा भरा हुआ है क्योंकि अज्ञेय के शब्दों में 'मौन भी अभिव्यंजना है'. लास्ट सीक्वेंस से पहले फ़िल्म में किसी तरह का म्यूजिक नहीं है. सब कुछ रियल रखा गया है. 

क्लोज़-अप में मिलावट नहीं है. रिफाइंड के दौर में यह फ़िल्म देसी घी जैसी है.