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हैदराबाद को निज़ामों-नवाबों से आजाद करने की बात कहने वाले अमित शाह को क्या ये चीज़ें पता हैं?

1937 में यहां के निजाम दुनिया में सबसे अमीर थे, 185 कैरट के हीरे को पेपरवेट बना रखा था

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ग्रेटर हैदराबाद के निगम चुनावों में बीजेपी इस बार जबर्दस्त तरीके से प्रचार में जुटी है. अमित शाह भी हाल में हैदराबाद में प्रचार करके आए हैं. (फोटो- PTI)

केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह. 29 नवंबर को हैदराबाद में थे. क्यों? क्योंकि 1 दिसंबर को GHMC यानी ग्रेटर हैदराबाद म्युनिसिपल कॉरपोरेशन के चुनाव हैं. इसी के सिलसिले में प्रचार करने पहुंचे थे. यहां लंबे-चौड़े रोड शो के बाद एक प्रेस ब्रीफिंग में अमित शाह ने हैदराबाद को 'नवाब-निज़ाम कल्चर' से मुक्त कराने का वादा कर दिया. उन्होंने कहा,

"हम हैदराबाद को नवाब-निज़ाम कल्चर से मुक्त कराने जा रहे हैं. इसे 'मिनी-भारत' बनाएंगे. हम हैदराबाद को एक मॉडर्न सिटी बनाना चाहते हैं. निज़ाम कल्चर की बेड़ियों से मुक्त कराकर."

अब अमित शाह को तो जो कहना था, कह दिया. उनके बयानों का चुनाव में कितना असर होगा, नतीजे बता देंगे. लेकिन उन्होंने ज़िक्र किया निज़ामों का. निज़ामों का हैदराबाद से पुराना नाता है. आइए बताते हैं निज़ामों का इतिहास, काम-काज, धन-दौलत के बारे में, सबकुछ.

हैदराबाद को कब मिला पहला निज़ाम?

आज का हैदराबाद एक सिटी है. एक ज़िला है. तेलंगाना राज्य की राजधानी है. लेकिन आज़ादी के पहले तक ये एक बहुत बड़ी रियासत थी. इसमें मौजूदा समय के तेलंगाना, कर्नाटक और महाराष्ट्र के कई ज़िले शामिल थे. इस रियासत का नाम था हैदराबाद स्टेट. इसी स्टेट पर करीब 224 बरस तक निज़ामों ने शासन किया था. पहले निज़ाम थे मीर कमरुद्दीन खान. 1724 में ये हैदराबाद के निज़ाम बनाए गए थे. आखिरी निज़ाम रहे मीर उस्मान अली खान. 17 सितंबर 1948 तक इन्होंने हैदराबाद पर राज किया. उसके बाद ये स्टेट भारत सरकार के तहत आ गया. और उस्मान अली खान बन गए राजप्रमुख. हालांकि निज़ाम का टाइटल मरते दम तक उनके नाम के साथ जुड़ा रहा.

अब थोड़ा और साफ तस्वीर दिखाते हैं

सेंट्रल एशिया में मौजूदा समय में एक देश है उज़्बेकिस्तान. यहां समरकंद नाम की एक सिटी है. 17वीं सदी की बात है. समरकंद सिटी के आलियाबाद इलाके में ख्वाजा/खाजा आबिद सिद्दीकी का जन्म हुआ. 1655 में वो भारत से होते हुए मक्का जाने के लिए निकले. रास्ते में भारत में मुगल दरबार में शासकों से मुलाकात की. उन्हें सत्ता में बड़ा पद ऑफर कर दिया गया. खाजा बोले कि मक्का से लौटकर आते हैं, फिर ऑफर किया गया पद संभालेंगे. लौटकर आए और 1657 में मुगल सेना में अहम जिम्मेदारी संभाल ली. मुगल शासक औरंगज़ेब खाजा से बड़े इम्प्रेस हुए. उन्हें बाद में अजमेर का गवर्नर भी बनाया. 'कलिच खान' का टाइटल दिया. लेकिन 1687 में एक युद्ध में आर्मी को लीड करते हुए खाजा की मौत हो गई.


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हैदराबाद स्टेट के आखिरी निज़ाम मीर उस्मान अली. (फोटो- विकिपीडिया कॉमन्स)

इन्हीं खाजा के पोते रहे मीर कमरुद्दीन खान, जो हैदराबाद के पहले निज़ाम बने. साल 1724 में. और यहीं से 'निज़ाम वंश' की शुरुआत हुई. हालांकि निज़ाम बनने के पहले मीर कमरुद्दीन को हैदराबाद स्टेट में वायसराय (viceroy) बनाया गया था. औरंगज़ेब की मौत के बाद मुगल सत्ता की पकड़ हैदराबाद में कमज़ोर होती गई. और धीरे-धीरे निज़ाम अपने दम पर इस स्टेट में शासन करने लगे. ये शासन चला 1948 तक. इन 224 बरसों में हैदराबाद को सात निज़ाम मिले. आखिरी निज़ाम हुए मीर उस्मान अली खान. कहीं-कहीं पर आप निज़ाम की जगह 'आसफ जहां' शब्द का इस्तेमाल होता भी देखेंगे और 'आसफ जहां वंश' का भी. ज्यादा कन्फ्यूज़ मत होइएगा, इसका मतलब भी निज़ाम ही होता है.

निज़ामों के शासनकाल में हैदराबाद ने काफी प्रोग्रेस की. अंग्रेज़ी हुकुमत के साथ भी निज़ामों के रिश्ते ज्यादा खराब नहीं थे. शायद यही वजह रही कि उपनिवेशवाद का ज्यादा गहरा असर हैदराबाद में देखने को नहीं मिला. निज़ामों ने कई सारे स्कूल, कॉलेज वगैरह बनवाए या इनके विकास के लिए पैसे मुहैया कराए. कई सारे कंस्ट्रक्शन के काम भी करवाए. रेल लाइन बिछवाई. 'आउटलुक' समेत कुछ अन्य मीडिया साइट्स पर छपे कुछ आर्टिकल्स के मुताबिक, हैदाराबाद के छठे निज़ाम ने सती प्रथा खत्म करने की भी कोशिश की थी. इन सबके अलावा निजाम बहुत से कामों के लिए दान भी देते थे. और ऐसे ही दान के मामले में आखिरी निज़ाम मीर उस्मान का नाम सबसे पहले सामने आता है, जो 1911 में सत्ता पर काबिज़ हुए थे.

कहां-कहां डोनेशन दिया?

रिपोर्ट्स की मानें तो सातवें और आखिरी निज़ाम मीर उस्मान शिक्षा के क्षेत्र को मज़बूती देने पर ज़ोर देते थे. उनके बजट का करीब 11 फीसद हिस्सा शिक्षा पर खर्च होता था. कई सारे शैक्षणिक संस्थानों में मोटी-मोटी रकम डोनेट की थी.

BHU में डोनेशन दिया - 'TOI' की रिपोर्ट के मुताबिक, 1939 में निज़ाम ने बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी (BHU) को भी एक लाख रुपए डोनेट किए थे. आज उस एक लाख की कीमत करीब पांच करोड़ रुपए है. निज़ाम ने एक फरमान जारी किया था, अपने राजकोष से फंड जारी करने का फरमान, जिसमें लिखा था-

"ज्ञापन में परिषद द्वारा उल्लिखित परिस्थितियों में BHU को एक लाख रुपये देने का आदेश दिया गया है."

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (AMU) - यहां भी निजाम के दान का पैसा लगा है. 'TOI' की एक रिपोर्ट के मुताबिक, निज़ाम मीर उस्मान के पोते नजफ खान ने एक बातचीत में ये भी बताया था कि निज़ाम ने AMU में 50 हज़ार रुपए डोनेट किए थे. नजफ ने कहा था,


"पंडित मदन मोहन मालवीय और मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने मेरे ग्रैंडफादर से कॉन्टैक्ट किया. BHU और AMU के लिए. 1939 के आसपास ही. निज़ाम ने तब AMU को 50 हज़ार रुपए डोनेट किए थे. ये दिखाता है कि वो जाति और धर्म के परे जाकर सबके लिए काम करते थे."

ये भी कहा जाता है कि निज़ाम उस्मान ने कई हिंदू मंदिरों की मरम्मत और रखरखाव के लिए भी भारी-भरकम राशि दान में दी थी. 'TOI' के ही आर्टिकल के मुताबिक, नजफ ने अपनी बातचीत में आगे कहा था,


"निज़ाम ने कम से कम 20 मंदिरों की मरम्मत, उनके रखरखाव, मेंटिनेंस के लिए दान दिया था. न केवल BHU और AMU, बल्कि देश और देश के बाहर की कई सारी यूनिवर्सिटीज़ में भी उन्होंने डोनेट किया था. वो एक सेक्युलर व्यक्ति थे."

'द हिंदू' में साल 2010 में छपे एक आर्टिकल के मुताबिक, निज़ाम ने अपने शासनकाल में भोंगीर के यादगार पल्ली मंदिर में 82,825 रुपए, सीताराम बाग मंदिर में 50 हज़ार, भद्राचलम मंदिर में 29,999 रुपए और बालाजी मंदिर में 8 हज़ार रुपए डोनेट किए थे. ये पैसे अभी सुनने में लग रहा होगा कि बहुत कम है, लेकिन ये आज से 70-80 बरस पहले की बात है, तब ये रकम काफी बड़ी होती थी. मंदिरों के साथ ही कई मस्ज़िदों, चर्च और गुरुद्वारों के लिए भी मीर उस्मान ने रकम दान की थी.

- निज़ाम ने 1918 में हैदराबाद में उस्मानिया यूनिवर्सिटी की स्थापना की. ये यूनिवर्सिटी आज देश की बड़ी यूनिवर्सिटीज़ में शामिल है.

- 'आउटलुक इंडिया' में छपे एक आर्टिकल की मानें तो निज़ाम ने शांतिनिकेतन, शिवाजी विद्यापीठ, लेडी हार्डिंग मेडिकल कॉलेज, रेड क्रॉस और अमृतसर के गोल्डन टेम्पल के लिए पैसे दिए थे.


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निज़ाम मीर उस्मान TIME मैगज़ीन के कवर पर आए थे, वो दुनिया के सबसे अमीर आदमी कहलाए थे. (फोटो- गेटी फाइल इमेज)

जब महाभारत के पब्लिकेशन के लिए आगे आए

डॉक्टर सैयद दाऊद अशरफ, जाने-माने हिस्टोरियन हैं. उन्होंने निज़ाम मीर उस्मान पर किताब लिखी है. 2012 में 'द हिंदू' ने सैयद दाऊद की किताब में लिखी कुछ बातें एक आर्टिकल के माध्यम से सबके सामने रखी थीं. इस आर्टिकल में 'महाभारत' के पब्लिकेशन के लिए दिए गए दान का ज़िक्र है. आर्टिकल के मुताबिक, साल था 1932. भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट, पुणे को 'महाभारत' के प्रकाशन और एक गेस्ट हाउस के कंस्ट्रक्शन के लिए पैसे चाहिए थे. इंस्टीट्यूट ने निज़ाम मीर उस्मान से मदद की अपील की. उन्होंने फरमान जारी करने में देर नहीं लगाई. महाभारत के पब्लिकेशन के लिए लगातार 11 बरस तक हर साल एक हज़ार रुपए देने की घोषणा कर दी. गेस्ट हाउस के कंस्ट्रक्शन के लिए भी 50 हज़ार रुपए दिए. डॉक्टर सैयद ने अपनी किताब में निज़ाम के लिए लिखा है,

"भले ही वो इस्लाम के कट्टर फॉलोअर थे, लेकिन उन्होंने दूसरे धर्मों के लिए भी सहिष्णुता दिखाई."

हैदराबाद में 'द निज़ाम म्यूज़ियम' है. यहां ज़ाहिर तौर पर निज़ामों से जुड़ी कई अहम जानकारियां मौजूद है. इस म्यूज़ियम की एक वेबसाइट है. इसमें लिखा है कि निज़ाम मीर उस्मान हिंदू और मुस्लिमों को अपनी दो आंखें मानते थे.

'सोना दान करने' वाला किस्सा भी जानिए

निज़ाम मीर उस्मान को लेकर एक किस्सा या मिथ बहुतई फेमस है. ये कि उन्होंने 1965 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद नेशनल डिफेंस फंड में 5000 किलो सोना डोनेट किया था. दरअसल, पाकिस्तान से युद्ध के बाद चीन के साथ जंग का खतरा मंडरा रहा था. भारत की आर्थिक स्थिति डगमगा गई थी. ऐसे में सेना की मदद के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने नेशनल डिफेंस फंड की शुरुआत की. लोगों से अपील की कि वो सेना की मदद के लिए दान दें. इसी दौरान शास्त्री जी पहुंचे हैदराबाद. उनकी मुलाकात हुई निज़ाम मीर उस्मान से. इस मुलाकात के बाद ये कहा गया कि निज़ाम ने लोहे के बड़े-बड़े बक्सों में पांच हज़ार किलो सोना भरवाया और पीएम को दे दिया. ये भी कहा गया कि निज़ाम को केवल इस बात की फिक्र थी कि वो बक्से उनके पास वापस आ जाएं.

इसी किस्से को लेकर कुछ साल पहले कई सारी RTI डाली गईं. 'द हिंदू' की रिपोर्ट के मुताबिक, प्रधानमंत्री कार्यालय, जिसके तहत नेशनल डिफेंस फंड आता है, उन्होंने RTI के जवाब में कहा कि इस तरह के डोनेशन की कोई जानकारी मौजूद नहीं है.

'द हिंदू' की इसी रिपोर्ट में आगे कहा गया कि वास्तव में अक्टूबर 1965 में निज़ाम ने 425 किलो सोना नेशनल डिफेंस गोल्ड स्कीम में इन्वेस्ट किया था. इसमें लोगों को 6.5 फीसद के रेट से इंटरेस्ट मिलता था. ये इन्वेस्टमेंट इसलिए किया था ताकि आर्थिक संकट से उबरा जा सके. इसके अलावा 'द हिंदू' ने अपनी 11 दिसंबर 1965 में छपी एक रिपोर्ट को भी अपने इस आर्टिकल में शामिल किया, जिसमें लाल बहादुर शास्त्री और निज़ाम की उस वक्त हुई मुलाकात का ज़िक्र है. इस रिपोर्ट में लिखा है-


निज़ाम से मुलाकात के बाद प्रधानमंत्री शास्त्री ने शाम को जनसभा को संबोधित किया. उसमें उन्होंने 425 किलो सोना इन्वेस्ट करने के लिए निज़ाम को बधाई दी. इस इन्वेस्टमेंट में पुरानी मोहरें भी शामिल थीं, जिनकी कीमत उनकी प्राचीनता पर निर्भर करती थी. शास्त्री जी ने तब कहा, 'हम सोने की इन मोहरों को पिघलाना नहीं चाहते, लेकिन हम इन्हें विदेश में भेजेंगे, ताकि ज्यादा कीमत मिल सके. हमें करोड़ रुपए भी मिल सकते हैं."

तो इसी गोल्ड इन्वेस्टमेंट के बाद से ये मिथ चल पड़ा कि निज़ाम ने पांच हज़ार किलो सोना डोनेट किया.

जब भारत में शामिल होने से मना किया

15 अगस्त 1947 को भारत आज़ाद हुआ. तब निज़ाम ने हैदाराबाद स्टेट को भारत का हिस्सा बनाने से मना कर दिया था. भारत सरकार ने बातचीत से मसला हल करने की कोशिश की. कुछ नतीजा नहीं निकला. फिर सितंबर 1948 में भारत सरकार ने ऑपरेशन पोलो लॉन्च किया. इंडियन आर्मी के एक डिविज़न और टैंक को हैदराबाद भेजा गया, और तब इसे भारत का हिस्सा बनाया गया.

आखिरी लेकिन ज़रूरी सवाल, निज़ामों के पास पैसा कितना था?

निज़ाम वंश के शासनकाल में हैदराबाद आर्थिक और सांस्कृतिक तौर पर बहुत मजबूत हुआ. निज़ामों को कला, साहित्य, आर्किटेक्चर और खाने में बड़ी दिलचस्पी थी. साथ ही वो दुनिया के अमीर लोगों में भी शुमार थे. निज़ाम मीर उस्मान सबसे अमीर रहे. 'TIME' मैगज़ीन ने 1937 में अपने एक एडिशन में कवर पेज पर निज़ाम मीर उस्मान को लिया था. और उन्हें उस वक्त का दुनिया का सबसे अमीर आदमी बताया था. उनके पास तब 200 करोड़ यूएस डॉलर के करीब की प्रॉपर्टी थी. यानी तब के अमेरिका की इकॉनमी का 2 फीसद हिस्सा. 'इकॉनमिक टाइम्स' की एक रिपोर्ट के मुताबिक, निज़ाम ने 1947 में ब्रिटेन की रानी एलिज़ाबेथ की शादी में उनके लिए हीरों का टियारा और नेकलेस बनवाया था. और गिफ्ट दिया था.

'द हिंदू' की एक रिपोर्ट के मुताबिक, निज़ाम प्राइवेट एस्टेट के पूर्व चेयरमैन और निज़ाम ट्रस्ट के ट्रस्टी शाहिद हुसैन ने निज़ाम की प्रॉपर्टी को लेकर और साफ जानकारी दी. उन्होंने बताया कि निज़ाम के पोते मुकर्रम जाह बहादुर को निज़ाम की मौत के बाद उनकी प्रॉपर्टी का आंकलन करने में एक महीने लग गए थे. किंग कोठी पैलेस, जहां निज़ाम रहा करते थे, वहां रॉल्स रॉयल कारों की लाइन लगी रहती थी. एक ये भी कहानी है कि निज़ाम मीर उस्मान ने 185 कैरट का जैकब डायमंड खरीदा था, जिसका इस्तेमाल वो पेपरवेट के तौर पर करते थे. ज्यादातर हीरे हैदराबाद स्टेट में मौजूद गोलकुंडा माइन्स से आते थे. ये तब हीरों की सबसे बड़ी खदान मानी जाती थी. डॉक्टर उषा आर. बालकृष्णन, जो एक राइटर और जूलरी हिस्टोरियन हैं, वो बताती हैं कि ऐसा कहा जाता है कि गोलकुंडा माइन्स से जो अच्छे हीरे निकलते थे, उन्हें पहले निज़ाम के सामने पेश किया जाता था.

निज़ामों के गहनों की अगर बात करें, तो पूरी एक किताब लिखी जा सकती है. निज़ामों के पास तरह-तरह के अलग-अलग डिज़ाइन के गहने थे. इनमें से ज्यादातर हीरों के गहने थे. मीर उस्मान के निधन के कुछ साल बाद भारत सरकार ने इस कलेक्शन में से कई सारे गहने खरीदे, जिन्हें RBI में डिपॉज़िट करवा दिया गया.