कई सवाल ऐसे होते हैं, कि जब तक मन में होते हैं उनकी गंभीरता का अहसास नहीं होता? लेकिन जब कोई उन्हें पूछ देता है, सब कुछ बदल जाता है. मसलन ये सवाल कि अगर किसी देश ने न्यूक्लियर हमला शुरू कर दिया तो वो कहां जाकर रुकेगा. कितने लोग मारे जाएंगे परमाणु हमले में? (America secret documents)
रूस पर परमाणु हमला करने वाला था अमेरिका?
अमेरिका के सीक्रेट न्यूक्लियर दस्तावेज़ कूड़े में कैसे पहुंचे?
21 वीं सदी में ये सवाल अब शायद ही किसी के मन में उपजता होगा. लेकिन एक दौर था, जब पूरी दुनिया को डर लगा रहता था कि किसी भी वक्त परमाणु हमला हो सकता है. आखिर किसी सिरफिरे की बस एक बटन दबाने भर की तो देर है.आज आपको बताएंगे एक किस्सा जब दुनिया के सबसे ताकतवर देश के राष्ट्रपति ने ये सवाल पूछा. सवाल का जवाब मिला और ऐसा मिला कि अमेरिका के परमाणु सीक्रेट कूड़े के ढेर में दफना दिए गए. (Pentagon Papers leak)
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न्यूक्लियर हमला हुआ तो
कहानी शुरू होती है साल 1962 से. अमेरिकी राष्ट्रपति का घर - व्हाइट हाउस. जॉन ऍफ़ केनेडी(John F. Kennedy) तब राष्ट्रपति हुआ करते थे. ये कोल्ड वॉर के दिन थे. और क्यूबा क्राइसिस के बाद लगने लगा था कि एक न्यूक्लियर युद्ध बस बांह भर की दूरी पर खड़ा है. क्यूबा क्राइसिस की कहानी यूं है कि सोवियत संघ ने अपने न्यूक्लियर हथियार अमेरिका के एकदम पड़ोस में, क्यूबा में तैनात कर दिए थे. जिसके चलते एक बड़ा संकट खड़ा हो गया. अंत में कूटनीति से ये संकट टल तो गया, लेकिन सबको एहसास हुआ कि न्यूक्लियर युद्ध कितना नजदीक आ सकता है. ऐसे में एक रोज़ केनेडी ने अपने जॉइंट चीफ्स से पूछा,
“परमाणु युद्ध की आपकी योजना अगर सोचे-समझे तरीके से पूरी हो जाती है, तो फिर सोवियत संघ और चीन में कितने लोग मारे जाएंगे?”
सवाल का आशय था कि अगर अमेरिका पहले हमला करे तो कितने लोग मारे जाएंगे?कुछ रोज़ बाद एक सीक्रेट लिफ़ाफ़े में इस सवाल का जवाब आया. जवाब था -
“हमले के तुरंत बाद करीब 27 करोड़ लोग मारे जाएंगे”.
लिफ़ाफ़े के अन्दर एक ग्राफ नत्थी था. जिसमें दो रेखाएं बनी थीं. एक्स एक्सिस में महीने दर्शाए थे. और वाई एक्सिस में मरने वालों की संख्या. y एक्सिस की यूनिट लाखों में थी. ग्राफ दर्शा रहा था कि 27 करोड़ लोगों से शुरू होकर ये गिनती 6 महीने के भीतर 32 करोड़ पहुंच जाएगी. ये गिनती रूस और चीन को मिलाकर बताई गई थी.
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कुछ रोज़ बाद एक और लिफाफा आया. इस बार ग्राफ में 10 करोड़ की संख्या और जोड़ी गई थी. इस लिफ़ाफ़े में स्वीडन ऑस्ट्रिया, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, जापान जैसे देशों के लोगों को भी जोड़ा गया था. लिखा था, अकाल और सूखे से कम से कम 10 करोड़ लोग और मरेंगे. लमसम संख्या बता रही थी कि परमाणु हमले की सूरत में दुनिया के 60 करोड़ लोग मारे जाते. और ये बात तब की हो रही है जब दुनिया की कुल जनसंख्या, 300 करोड़ के लगभग थी. ये आंकड़ा अमेरिकी रक्षा विभाग के मुख्यालय यानी पेंटागन से भेजा गया था. साथ में न्यूक्लियर युद्ध के बाद के हालत बयान किए गए थे. लिखा था,
“परमाणु हमला पूरी दुनिया में न्यूक्लियर विंटर की स्थिति पैदा कर देगा. न्यूक्लियर विंटर, यानी धमाके से निकला धुआं आसमान को ढक लेगा. और महीनों तक ये धुआं नहीं छंटेगा. धूप की किरणें जमीन पर नहीं पहुंच पाएंगी. और पूरी दुनिया भयंकर ठंड के दौर में पहुंच जाएगी. शीत युग में. इतनी भीषण ठंड कि जीवन खत्म हो जाएगा.”
सीक्रेट दस्तावेज़
21 वीं सदी में ये आम जानकारी है. लेकिन 1960 के दशक को किसी को परमाणु हमले की असलियत का अहसास नहीं था. दुनिया ने सिर्फ एक न्यूक्लियर हमला देखा था. जापान पर. आम पब्लिक यही समझती थी कि एक शहर नष्ट हो जाएगा. ज्यादा से ज्यादा. लेकिन हकीकत ये थी कि 1962 तक अकेले अमेरिका के पास इतने न्यूक्लियर हथियार थे कि दुनिया में जीवन नष्ट हो सकता था. इसमें सोवियत रूस और चीन को मिला दें तो चीजें और भी भयानक हो जाती. उस दौर में ये एक सीक्रेट था. सबसे ऊंचे दर्जे का टॉप सीक्रेट. इसलिए आम जनता से ये बात छुपाए रखी गई. हालांकि उसी दौर में एक आदमी ऐसा भी था जो इस सच को बाहर लाना चाहता था. ताकि पब्लिक को असलियत का पता चले और वो अपनी सरकार पर प्रेशर बनाए.
इस शख्स का नाम था, डेनियल एल्सबर्ग(Daniel Ellsberg). डेनियल पेंटागन में बहुत ऊपर की पोस्ट पर थे. इतने ऊपर की पोस्ट पर कि वो हाई-प्रोफाइल टॉप सीक्रेट दस्तावेज देखते थे. इन्हीं डेनियल एल्सबर्ग ने पेंटागन पेपर्स लीक किए थे. पेंटागन पेपर्स, जिसमें अमेरिका के वियतनाम में किए गए गुनाहों का कच्चा-चिट्ठा था. डेनियल वियतनाम युद्ध के खिलाफ थे. उनका मानना था कि पेंटागन पेपर्स के बारे में अमेरिकी जनता को पता चलना चाहिए. उन्होंने इन पेपर्स को फोटो स्टेट कर लिया. उनकी कई कॉपियां बनाईं. और फिर 1971 में इसे लीक कर दिया.
पेपर लीक होने के बाद अमेरिका में खूब हंगामा हुआ. पब्लिक को पता चला कि उनसे झूठ बोला जा रहा है. अमेरिकी सरकार बार बार कह रही थी कि वो वियतनाम युद्ध जीतने की कगार पर है. जबकि असलियत ये थी कि युद्ध कहीं नहीं जा रहा था. और नौजवान बेवजह अपनी जान गंवा रहे थे. इन पेपर्स के लीक होने के बाद सरकार पर भारी दबाव पड़ा और अंतत 1973 में अमेरिकी सरकार को वियतनाम से हाथ खींचने पड़े. पेंटागन पेपर्स का लीक होना सरकार के लिए शर्मिंदगी की बात थी. इसलिए वो डेनियल ऐल्सबर्ग के पीछे पड़ गए. एल्सबर्ग को 125 साल कैद की सजा मिल सकती थी. लेकिन फिर एक और स्कैंडल ने उन्हें बचा लिया.
दरअसल जब पेंटागन पेपर लीक हुए रिचर्ड निक्सन अमेरिका के राष्ट्रपति थे. ये वही निक्सन हैं, जो अपनी प्राइवेट बातचीत में इंदिरा गांधी को बूढ़ी चुड़ैल कहा करते थे. हालांकि जब निक्सन ने ये सब कहा था, 1971 का युद्ध चल रहा था. निक्सन के सितारे बुलंद थे. चुनाव में भारी बहुमत से जीतकर वो राष्ट्रपति बने थे. और भारत पाकिस्तान मुद्दे पर हर समय पाकिस्तान का पक्ष लेते थे. 1971 युद्ध का नतीजा क्या रहा. हम जानते हैं. निक्सन को मुंह की खानी पड़ी और जल्द ही उनके दिन और बुरे होते चले गए. निक्सन वियतनाम युद्ध के बड़े समर्थक थे. लेकिन डेनियल ऐल्सबर्ग के कारण उन्हें सेना को वियतनाम से वापस बुलाना पड़ा. उन्होंने खीज में डेनियल के खिलाफ वाइट हाउस की एक सीक्रेट टीम बनाई गई. इस टीम ने डेनियल के मनोचिकित्सक के दफ्तर में वायर टैपिंग की. ताकि डेनियल अपने मनोचिकित्सक को जो कुछ बताएं, उसमें से कुछ काम का खोज कर उसे डेनियल के खिलाफ इस्तेमाल किया जाए.
कूड़े में न्यूक्लियर सीक्रेट
डेनियल के खिलाफ़ तो कुछ नहीं मिला, उल्टा निक्सन वाटर गेट स्कैंडल में फंस गए. और उन्हें इस्तीफ़ा देना पड़ा. वाटर गेट स्कैंडल - मोटा माटी कहे तो निक्सन अपनी ताकत का गलत इस्तेमाल कर लोगों की जासूसी करा रहे थे. ऐसे ही एक रोज़ जब उनके गुर्गे उनकी विपक्षी पार्टी की जासूसी करने गए तो धर लिए गए. और निक्सन की करतूत सामने आ गई. बाद में सरकार ने डेनियल एल्सबर्ग पर जो इल्जाम लगाए थे. वो भी अदालत ने खारिज कर दिए.
इस सारी उहापोह में हालांकि एल्सबर्ग से एक ब्लंडर हो गया. उन्होंने सिर्फ पेंटागन पेपर्स कॉपी नहीं किए थे. उनके पास सीक्रेट कागजातों का जखीरा था. जिसमें अमेरिका के न्यूक्लियर प्लान, युद्ध की योजनाएं, विदेशों में किए जा रहे सैन्य ऑपरेशन, अमेरिकी सरकार द्वारा बाकी देशों को दिखाया जाने वाला न्यूक्लियर हथियारों का डर वगैरह-वगैरह सब का कच्चा-चिट्ठा था. डेनियल ने सोचा कि पहले पेंटागन पेपर्स लीक करूं. ताकि वियतनाम युद्ध रुक जाए. और निर्दोषों की जान बचे. ये हो जाए, तो फिर वो न्यूक्लियर प्लानिंग वाले पेपर भी लीक करूंगा. लेकिन बीच में एक तूफान आया. और उसने सारी प्लानिंग बिगाड़ दी.
डेनियल का एक छोटा भाई था, हैरी. सरकार से छुपाने के लिए डेनियल ने कागज़ात हैरी को दे दिए थे. ये कहकर कि इन्हें बहुत संभाल कर रखना. लेकिन डेनियल ने हैरी को ये नहीं बताया कि उन कागजातों में क्या है. हैरी ने उसे एक बक्से में रखा और अपने बगीचे में गाड़ दिया. फिर जाने एक दिन हैरी को क्या सूझी. उसने बगीचे से बक्से को निकाला और एक दूसरी जगह जाकर गाड़ दिया. समस्या ये हुई कि हैरी ने जिस नई जगह जाकर बक्सा गाड़ा, वो शहर का कूड़ेदान था. हैरी ने बक्से को गाड़कर उसके ऊपर एक गैस स्टोव रख दिया. ये सोचकर कि निशानी का काम करेगा. हैरी की चालाकी शुरुआत में काम आई. जिस रोज़ हैरी ने बक्से की जगह बदली, उसी दिन FBI के लोगों ने उनके बगीचे की तलाशी ली. उन्हें कुछ नहीं मिला. सब कुछ सही था लेकिन फिर एक बड़ी गड़बड़ हो गई.
कुछ दिन बाद शहर में जोर का चक्रवाती तूफान आ गया. जिससे बक्से के ऊपर रखा गैस स्टोव उड़ गया. चीजें इधर-उधर हो गईं. यानी अब उस जगह को खोजना बड़ा मुश्किल हो गया था, जहां कागजात वाला बक्सा गढ़ा था. हैरी ने बहुत कोशिश की. उसकी एक दोस्त बारबरा और उनके पति ने भी साथ दिया. लेकिन कागजात नहीं मिले. बारबरा तो करीब एक साल तक कोशिश करती रहीं. लेकिन फिर भी कुछ पता नहीं चल पाया. एक साल बाद मुंसीपालिटी वाले आए और सारा कूड़ा उठाकर एक लैंड फिल में भर दिया. लैंडफिल के ऊपर कंक्रीट की एक इमारत बन गई. और वो कागजात हमेशा-हमेशा के लिए उसके अंदर दफन हो गए. इस घटना ने डेनियल एल्सबर्ग को मायूस कर दिया. लेकिन उनके हाथ में कुछ नहीं था.
सालों बाद उन्होंने एक किताब लिखी, द डूम्स डे मशीन. इस किताब में एल्सबर्ग लिखते हैं,
"जिस दिन मैंने कागज के उस टुकड़े पर 50 करोड़ से ज्यादा लोगों की मौत की प्लानिंग देखी, उस दिन से मेरी जिंदगी का एक ही मकसद रह गया. कि मैं ऐसी किसी योजना को सफल न होने दूं".
डेनियल के जमा किए गए कागजात चक्रवात तूफान में खो गए थे. लेकिन वो फोटो कॉपी थीं. असली कागज़ सरकार के पास थे. जिन्हें कई साल बाद डिक्लासिफाई किया गया. और तब दुनिया ने जाना कि 60 के दशक में अमेरिका एक और बड़े परमाणु हमले की प्लानिंग कर रहा था. किस्मत से उस प्लान को अमली जामा नहीं पहनाया गया. हालांकि न्यूक्लियर युद्ध का डर तब से लगातार बरक़रार है.
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