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अमेरिका की ग़लती ने सूडान को बर्बाद कर दिया, अब क्या रास्ता बचा है?

सूडान की बर्बादी के पीछे अमेरिका है!

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सूडान में प्रदर्शन करते लोग (AP)

123 दिन. 03 हज़ार मौतें. 10 लाख शरणार्थी. 34 लाख विस्थापित. और, शांति की गुंज़ाइश - ज़ीरो.

ये कहानी अफ़्रीकी महाद्वीप के तीसरे सबसे बड़े देश सूडान की है. जहां 15 अप्रैल को सेना के दो धड़े आपस में लड़ने लगे. अपने-अपने आकाओं की शह पर. भरोसा बाहर से मिला था. जीतोगे तो पूरा मुल्क तुम्हारा होगा. 04 महीने बाद कोई नतीजा तो नहीं निकला, लेकिन सूडान में वो सब होने लगा, जिसकी पूरी दुनिया को चिंता करनी चाहिए. लूट, हत्या, बलात्कार, मानवाधिकार हनन, नरसंहार आदि.
मगर सूडान, यूक्रेन की तरह ताक़तवर देशों के एजेंडे पर नहीं है. उसके लिए यूएन या किसी G7 में प्रस्ताव नहीं लाया जा रहा. कोई दबाव नहीं बनाया जा रहा. फिलहाल जो स्थिति है, उसमें सूडानी नागरिकों का भविष्य किस्मत की पतली होती डोर से बंधा है. ये डोर कब टूट जाएगी, दावे से कुछ भी नहीं कहा जा सकता.

तो आइए जानते हैं,

- सूडान में चल रहा युद्ध कहां पहुंचा?
- यूएन की ताज़ा रिपोर्ट में क्या पता चला है?
- और, ज़िम्मेदार देशों को सूडान की चिंता क्यों नहीं है?

बेसिक जानकारी रिकैप कर लेते हैं. ब्रीफ़ में.

सूडान, अफ़्रीकी महाद्वीप के उत्तर-पूर्व में बसा है. इसका पूर्वी किनारा रेड सी यानी लाल सागर से मिलता है. रेड सी को पार करते ही एशियाई महाद्वीप शुरू हो जाता है.

सूडान की ज़मीनी सीमा 07 देशों से मिलती है. नाम जान लीजिए,

- ईजिप्ट, लीबिया, चाड, सेंट्रल अफ़्रीकन रिपब्लिक (CAR), साउथ सूडान, इथियोपिया और इरिट्रिया.
अधिकतर देशों में अराजकता और अस्थिरता है. इसका असर सूडान को भी झेलना पड़ता है.
आबादी लगभग 05 करोड़ है.
90 प्रतिशत से अधिक लोग इस्लाम मानते हैं.
लगभग 06 प्रतिशत लोग ईसाई हैं. बाकी में दूसरे धर्म आते हैं.
आधिकारिक भाषा अरबी और अंग्रेज़ी है.
करेंसी का नाम है, सूडानी पाउंड.
सूडान की राजधानी खारतूम है. नई दिल्ली से खारतूम की दूरी लगभग 4800 किलोमीटर है.

आज की कहानी का फ़ोकस इसी शहर पर है.

ख़ारतूम अरबी भाषा का शब्द है. इसका मतलब होता है, हाथी की सूंड़. खारतूम में ही ब्लू नाइल और वाइट नाइल नदियों का संगम भी होता है. ब्लू और वाइट, दोनों ही नील की सहायक नदियां हैं. नील दुनिया की सबसे लंबी नदी है. ब्लू नाइल इथियोपिया के पहाड़ों से निकलती है. रूट की शुरुआत में इसका रंग गहरा नीला होता है. जबकि वाइट नाइल रवांडा के जंगलों से निकलती है. ये अपने साथ ग्रे कलर का सेडिमेंट लेकर आती है. जिसके कारण इसका नाम वाइट नाइल पड़ा. दोनों नदियां खारतूम में आकर एक हो जाती हैं. फिर ये नील नदी बनती है. ये आगे चलकर ईजिप्ट होते हुए भूमध्यसागर में मिल जाती है.

नील अफ़्रीकी महाद्वीप में करोड़ों लोगों को जीवन देती है. खारतूम इस नदी के सबसे ख़ास संगम पर बसा है. इसके चलते शहर की अहमियत बढ़ जाती है. इतिहास में जाएं तो खारतूम पर सबसे पहले ईजिप्ट की नज़र पड़ी थी. 1821 में ईजिप्ट के मोहम्मद अली ने सूडान पर कब्ज़ा किया. खारतूम में किला बनवाया. सेना बिठाई. 1880 के दशक में सूडान में मोहम्मद अहमद नाम का विद्रोही नेता खड़ा हुआ. वो ख़ुद को पैगंबर मोहम्मद का अवतार बताता था. 1884 में उसने खारतूम की घेराबंदी कर दी. घबराए ईजिप्ट ने ब्रिटेन से मदद मांगी. ब्रिटेन ने कहा, अभी निकलो, बाद में देखेंगे.

उन्हें सुरक्षित बाहर निकालने के लिए चार्ल्स गॉर्डन नाम के अफ़सर को भेजा गया. वहां पहुंचते ही गॉर्डन का मन बदल गया. उसने लड़ने का इरादा किया. कोशिश फ़ेल रही. जनवरी 1885 में अहमद की सेना ने गॉर्डन का सिर काटकर टांग दिया. फिर महदिया साम्राज्य की नींव रखी. अगले 13 बरस तक सूडान पर महदिया साम्राज्य का नियंत्रण रहा. 1898 में ब्रिटेन और ईजिप्ट ने खारतूम पर वापस कब्ज़ा कर लिया. फिर 1956 तक सत्ता चलाई. 1956 में सूडान को आज़ादी मिल गई. आज़ादी के बाद खारतूम को राजधानी का दर्ज़ा मिला. यानी, सत्ता का केंद्र. आने वाले बरसों में खारतूम कुछ बड़ी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय घटनाओं का गवाह बना.

मसलन,

- मार्च 1973 में इसी शहर में ब्लैक सेप्टेम्बर ऑर्गेनाइज़ेशन (BLO) के आतंकियों ने सऊदी अरब के दूतावास को बंधक बना लिया था. BLO एक फ़िलिस्तीनी चरमपंथी संगठन था. कनेक्शन यासिर अराफ़ात के फ़िलिस्तीन लिबरेशन ऑर्गेनाइज़ेशन (PLO) से था. BLO को 1972 के म्युनिख ओलंपिक में इज़रायली एथलीट्स की हत्या के लिए जाना जाता है. खैर, जब मार्च 1973 में सऊदी दूतावास को कब्ज़े में लिया गया, वहां कई देशों के डिप्लोमैट्स मौजूद थे. आतंकियों ने सुरक्षित सूडान से निकलने के लिए प्लेन मांगा. मांग नहीं मानी गई. फिर आतंकियों ने अमेरिका के राजदूत और उप-राजदूत और बेल्जियम के एक प्रतिनिधि की हत्या कर दी. 60 घंटों के बाद आतंकियों का सब्र चूक गया. उन्होंने सरेंडर कर दिया. तब जाकर बाकी बचे 07 बंधक रिहा हुए.

- अगस्त 1998 में केन्या और तंज़ानिया में अमेरिका के दूतावासों पर अलक़ायदा ने हमला किया. 200 से ज़्यादा लोग मारे गए. तब यूएस नेवी ने जवाबी कार्रवाई में अलक़ायदा दो टारगेट्स को निशाना बनाया गया था. एक अफ़ग़ानिस्तान का खोश्त प्रांत. दूसरा ठिकाना था, खारतूम की अल-शिफ़ा केमिकल फ़ैक्ट्री. अमेरिका का दावा था, अलक़ायदा को बम बनाने के लिए केमिकल यहीं से मिलते हैं. बाद में इस दावे पर सवाल भी खड़े हुए.
हालांकि, ये पहली बार था, जब अमेरिका ने लादेन के ख़िलाफ़ इतना बड़ा ऑपरेशन चलाया था.

- और, आख़िरी ट्रिविया.
सूडान पर सबसे लंबे समय तक तानाशाही शासन चलाने वाला उमर अल-बशीर इसी ख़ारतूम के एक गांव में पैदा हुआ. 1989 में यहीं पर उसने लोकतांत्रिक सरकार का तख़्तापलट किया. 29 बरसों तक सत्ता चलाई. ऐतिहासिक प्रोटेस्ट के बाद सत्ता से बाहर हुआ. और, फिर उसके वफ़ादार रहे मिलिटरी जनरलों ने उसी खारतूम की जेल में बंद कर दिया.

आज खारतूम की चर्चा क्यों?

क्योंकि ये शहर एक बार फिर से सूडान की अंतर्कलह का अड्डा बन चुका है. अप्रैल 2023 में दो जनरलों के बीच वर्चस्व की जंग शुरू हुई. धीरे-धीरे इसने पूरे मुल्क को अपनी चपेट में ले लिया. 04 महीनों के बाद भी कोई रिजल्ट नहीं निकला है. इन सबके बीच आम जनता पिस रही है. लोग घर-बार छोड़कर भाग रहे हैं. जनजीवन त्रस्त है. बुनियादी सुविधाएं गौण हो चुकी हैं. सबसे ज़्यादा नुकसान खारतूम और वेस्ट डार्फ़र को हुआ है.

आगे चलें, उससे पहले दोनों गुटों के बारे में जान लेते हैं.

- पहला पक्ष सूडान आर्मी का है. कमान जनरल अब्देल फ़तह अल-बुरहान के पास है.
- दूसरा पक्ष पैरामिलिटरी गुट रैपिड सपोर्ट फ़ोर्सेज़ (RSF) का है. इसको लीड कर रहे हैं, जनरल मोहम्मद हमदान दगालो. उन्हें हमेटी या लिटिल मोहम्मद के नाम से भी जाना जाता है.

दिलचस्प ये है कि दोनों जनरल एक-दूसरे के साथी हुआ करते थे. 2019 में जब बशीर के ख़िलाफ़ प्रोटेस्ट हुआ. बुरहान और दगालो ने प्रोटेस्ट में अपना हित देखा. दोनों ने मिलकर बशीर को गद्दी से उतार दिया. फिर केयरटेकर सरकार बनी. इसमें सिविल और मिलिटरी दोनों धड़े के लोग थे. बुरहान और दगालो भी इस सरकार का हिस्सा थे. उनका काम था, लोकतांत्रिक चुनाव का रास्ता साफ़ करना और चुनी हुई सरकार को सत्ता सौंपना. जैसा कि पिछले हफ़्ते पाकिस्तान में हुआ है. वहां अनवारुल हक़ काकर को केयरटेकर प्राइम मिनिस्टर बनाया गया है. उनकी निगरानी में अगला आम चुनाव होगा. नई सरकार बनते ही वो पद छोड़ देंगे.

सूडान में क्या हुआ? सेना को लालच आ गया. चुनाव कराने की बजाय एक और तख़्तापलट कर दिया. 2021 में बुरहान ने सिविलियन प्रतिनिधियों को केयरटेकर सरकार से बाहर निकाल दिया. ख़ुद सर्वेसर्वा बन गए. दगालो को नई सरकार में भी पावरफ़ुल पोजिशन मिली. लेकिन दोनों के मन में एक-दूसरे को लेकर संदेह था. वजह, दगालो के पास लगभग 01 लाख लड़ाकों वाली RSF थी. इसकी स्थापना 2013 में हुई थी. उससे पहले ये लड़ाके जंजीवाद फ़ोर्स का हिस्सा थे. जिन्हें स्थानीय कबीलों से लिया गया था. ये बशीर के वफ़ादार थे. लेकिन 2019 में उन्होंने पाला बदल लिया था. हालांकि, दगालो ने काफ़ी संपत्ति इकट्ठा कर ली थी. बुरहान को डर था कि दगालो मेरी कुर्सी खींच सकता है. इसी तरह दगालो के मन में चल रहा था कि मैं हमेशा पिट्ठू बनकर नहीं रह सकता.

इसी बीच बुरहान ने RSF को आर्मी के नियंत्रण में लाने का प्लान बनाया. दगालो ने इसका विरोध किया. बात नहीं बनी. फिर अप्रैल 2023 में युद्ध शुरू हो गया.
अभी तक क्या-क्या हुआ है?

- ख़ारतूम वॉरज़ोन में तब्दील हो चुका है. लड़ाई की आग डार्फ़र और दूसरे प्रांतों तक भी पहुंची है. ये इलाके पहले से ही जातीय झगड़े के बारूद पर बैठे हैं.
- यूएन की रिपोर्ट के मुताबिक, 10 लाख 17 हज़ार से अधिक लोगों ने पड़ोस के देशों में शरण ली है. 34 लाख से अधिक लोग आंतरिक विस्थापन का शिकार हुए हैं. यानी, उन्हें अपना पुश्तैनी घर छोड़कर जाना पड़ा है.
- यूएन ह्यूमन राइट्स कमीशन के मुताबिक, कम से कम 04 हज़ार आम नागरिक युद्ध की चपेट में आकर मारे जा चुके हैं. कई जगहों पर सामूहिक क़ब्रिस्तान मिलने की रिपोर्ट्स भी हैं.
- युद्ध के बाद से सूडान में बलात्कार के मामलों की संख्या 50 प्रतिशत तक बढ़ चुकी है.
- खाने के सामान और मेडिकल सप्लाई की भारी कमी है. मदद देने वाली एजेंसियों ने ख़तरे को देखते हुए काम रोक दिया है. इसके चलते भुखमरी और ख़तरनाक बीमारियों की आशंका बढ़ गई है.

इन सबके बीच दोनों गुट एक-दूसरे को मिटाने पर आमादा हैं. जानकारों का कहना है कि वे तब तक लड़ते रहेंगे, जब तक कि किसी एक को फ़ुल कंट्रोल हासिल नहीं हो जाता. ये उनके अस्तित्व की लड़ाई बन चुकी है. अप्रैल से जुलाई 2023 के बीच कम से कम 16 बार संघर्षविराम समझौता हुआ, लेकिन एक बार भी समझौता कायम नहीं रह सका. दोनों एक-दूसरे पर शर्तों को तोड़ने और मानवाधिकार उल्लंघन का आरोप लगाते हैं. फिर लड़ाई शुरू हो जाती है.

इंटरनैशनल फ़ोरम्स में क्या-क्या हुआ है?

- मई में सऊदी अरब के जेद्दाह में मीटिंग हुई. अमेरिका और सऊदी अरब मध्यस्थ थे. बात नहीं बनी.
- फिर अफ़्रीकन यूनियन (AU) ने मीटिंग बुलाई. इसमें आर्मी और RSF वाले शामिल नहीं हुए. अभी तक तीन बैठक हो चुकी है. कोई नतीजा नहीं निकला.
- इसके बाद इंटर-गवर्नमेंटल अथॉरिटी ऑन डेवलपमेंट (IGAD) ने पहल की. IGAD सूडान के आसपास बसे 08 देशों का संगठन है. सूडानी आर्मी ने इसका बहिष्कार कर दिया.
- सबसे अहम बैठक 13 जुलाई को ईजिप्ट की राजधानी काहिरा में हुई. इसमें सूडान के सातों पड़ोसी शामिल हुए. संघर्षविराम, मानवीय मदद पहुंचाने के लिए कॉरिडोर और पोलिटिकल पार्टियों के साथ बातचीत का खाक़ा तैयार हुआ. RSF और आर्मी, दोनों ने इसका स्वागत किया. हालांकि, अभी तक इस पर भी कोई अमल नहीं हो सका है.

इतनी सारी मीटिंग्स का कोई असर क्यों नहीं हुआ?
तीन वजहें हैं.

- नंबर एक. मान्यता का इंतज़ार.

RSF और सूडानी आर्मी, दोनों ही अपनी जीत को लेकर आश्वस्त हैं. फिलहाल, दोनों ही ज़बरदस्ती सरकार चलाने का दावा कर रहे हैं. उन्हें ना तो जनता की मान्यता मिली है और ना ही वे आधिकारिक तौर पर इसके हक़दार हैं. उन्हें भरोसा है कि बढ़त हासिल करते ही सपोर्ट और मान्यता भी मिल जाएगी. इसलिए, वे लड़ाई को जारी रखना चाहते हैं.

- नंबर दो. आपसी खटपट.

जिन भी देशों ने सूडान में शांति के लिए मीटिंग्स आयोजित की हैं, उनमें आपस में तालमेल की कमी है. मसलन, पिछले कुछ समय में सऊदी अरब और अमेरिका के रिश्ते ख़राब हुए हैं. यूएई और सऊदी अरब की तकरार भी जारी है. यूएई एक भी मीटिंग में शामिल नहीं हुआ है. इसके अलावा, ईजिप्ट की इथियोपिया और यूएई से नहीं बनती. ऐसे में सूडान में डिप्लोमैटिक उपाय की उम्मीद बेमानी है.

- नंबर तीन. स्थानीय विद्रोह.

सूडान के पश्चिम में एक प्रांत है, डार्फ़र. 1916 में ये सूडान का हिस्सा बना. मगर स्थानीय लोग कभी माने नहीं. उन्होंने आज़ादी मांगी. फ़रवरी 2003 में सरकार के ख़िलाफ़ विद्रोह हुआ. बशीर ने सेना उतारी. लड़ाई में 03 लाख से अधिक लोग मारे गए. लाखों विस्थापित हुए. बशीर पर नरसंहार का आरोप भी लगा. उस वक़्त तो डार्फ़र विद्रोह दब गया. लेकिन उसकी चिनगारी अभी भी बची है. हालिया युद्ध के बीच डार्फ़र नरसंहार की याद ताज़ा हो गई है. आशंका है कि विद्रोह फिर से पनप सकता है. ऐसे में सूडान में नए सिरे से सिविल वॉर की शुरुआत हो सकती है.

अब आख़िरी सवाल, लोकतंत्र के हिमायती होने का दावा करने वाले पश्चिमी देश चुप क्यों हैं?
अमेरिका ने सऊदी अरब के साथ मध्यस्थता कराने की कोशिश ज़रूर की, लेकिन उसने अभी तक कोई बड़ी गतिविधि नहीं की है. किसी इंटरनैशनल फ़ोरम पर गंभीर चिंता प्रकट नहीं की. और ना ही कोई निर्णायक कदम उठाया है.

इसके 02 बड़े कारण सामने आते हैं.

- पहला, पुराना इतिहास.

2019 में बशीर के तख़्तापलट के बाद अमेरिका, सूडान में इन्वॉल्व हुआ. उसने केयरटेकर सरकार का समर्थन किया. अमेरिका का फ़ोकस मिलिटरी साइड पर था. जून में सेना पर 120 लोगों की हत्या के आरोप लगे. 2021 में सेना ने केयरटेकर सिविलियन प्रधानमंत्री अब्दुल्ला हमदोक को उतार दिया. उस समय अमेरिका ने उन्हें रोकने की कोशिश नहीं की. सिर्फ़ कुछ फ़ंड्स फ़्रीज़ किए. बुरहान और दगालो पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया. जानकार दावा करते हैं कि मौजूदा लड़ाई में अमेरिका एक स्पष्ट विजेता का इंतज़ार कर रहा है. उसके बाद ही वो अपनी नीति तय करेगा.

- दूसरी वजह प्राथमिकता से जुड़ी है.

सूडान पर नज़र रखने वाले जानकार कहते हैं, सूडान कभी भी पश्चिमी देशों की प्राथमिकता में नहीं था. सूडान में उन्हें कोई बड़ा फायदा नहीं दिखा. इसके बरक्स मुल्क तख्तापलट और सिविल वॉर से लगातार जूझ रहा था. सूडान पर अमेरिका की नज़र तब पड़ी, जब लादेन की तलाश शुरू हुई. बशीर के कार्यकाल में अमेरिका हां-नां करता रहा. उसका फ़ोकस वॉर ऑन टेरर तक सीमित रहा. बशीर के हटने के बाद भी वो हाथ डालने से बचता रहा. दिसंबर 2022 में बाइडन ने अफ़्रीकी नेताओं की बैठक बुलाई. इसमें भी सूडान को नहीं बुलाया गया. उसी महीने अमेरिका, यूएन, अफ़्रीकन यूनियन आदि ने सूडान के भविष्य का फ़्रेमवर्क तैयार किया. उसमें स्थानीय संगठनों को शामिल नहीं किया गया था.

जानकार कहते हैं, अमेरिका और दूसरे पश्चिमी देशों ने तीसरी दुनिया के देशों को फायदे, हिकारत और अहसान की नज़र से देखा है. जब तक फायदा नज़र आया, उन्होंने लूटा. शासन इसलिए किया क्योंकि वे उन्हें असभ्य लगे. और, जब वर्ल्ड ऑर्डर बदला, तब अपने मतलब के आधार पर रिश्ते बनाए. इसे अहसान की तरह पेश किया गया. ये अहसान भी उन्हीं ताक़तवर देशों के निजी हितों पर निर्भर था.
आज के समय में सूडान इसका जीता-जागता उदाहरण बन चुका है.

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