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केकी मूस: वो कलाकार जो इनामों के लिफाफे तक नहीं खोलता था

48 साल तक वो चालीसगांव से बाहर नहीं गए, जब निकले तो बिनोवा भावे की फोटो खींचने से मना कर दिया.

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sandeep singhसंदीप सिंह. इलाहाबाद यूनिवर्सिटी और जेएनयू से पढ़ाई. स्टूडेंट पॉलिटिक्स का देश का चर्चित नाम. जेएनयू स्टूडेंट यूनियन  के प्रेसिडेंट रहे. फिर आइसा के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी. सिनेमा, साहित्य, सामाजिक आंदोलनों पर लगातार लिखते बोलते रहे. आज आप उनसे जानिए केकी मूस के बारे में.
  डायरी के पन्नों में खोया एक कलाकार कुछ अरसा पहले दक्कन की उत्तर-पश्चिमी सीमा से सटे खानदेश के बीहड़ों में अपने दोस्त रवि भोवते के साथ भटक रहा था. नासिक के अंगूर बागानों से होते हुए हम नंदुरबार गए. महीना भर मालेगांव में बिताने के बाद पता चला कि महान प्राचीन गणितज्ञ भास्कराचार्य का जन्मस्थान पटनादेवी वहां से बहुत दूर नहीं है. वहां से लौटते वक़्त हम चालीसगांव में रवि के अम्बेडकरवादी मित्र शैलेन्द्र गायकवाड के पास ठहरे. वहीं सबसे पहले मैंने केकी मूस का नाम सुना. एक ऐसा व्यक्ति जो संगीतज्ञ, चित्रकार, फोटोग्राफर, मूर्तिकार, लेखक और न जाने क्या-क्या था. सबसे ज्यादा हैरत इस बात को लेकर हुई कि वह तकरीबन 40 साल तक कभी अपने घर से बाहर ही नहीं निकला. पर भारत के प्रथम प्रधानमंत्री सहित बहुतेरे उसकी कला के मुरीद थे. अगले ही दिन हम ‘रेम्ब्रा रिट्रीट’ के सामने खड़े थे. हजारों बहुमूल्य कलाकृतियों, छायाचित्रों, पेंटिंग्स, मूर्तियों, आर्ट इंस्टालेशंस, वाद्य-यंत्रों और किताबों से भरा यह संग्रहालय एक अकेले व्यक्ति द्वारा रचा गया दुनिया के सबसे बड़े संग्रहालयों में से हो सकता है. केकी मूस की इस दिलचस्प कहानी से मेरी डायरी के पन्ने भर गए. आज आपको केकी मूस की कहानी सुनाते हैं. एक अनोखा कलाकार 001938 के आसपास 26 साल के कैखुसरू माणिकजी मूस इंग्लैण्ड से कला की पढ़ाई पूरी कर वापस आये. बम्बई में रहना शुरू ही किया था कि न जाने क्या हुआ और वे शहर छोड़कर चालीसगांव चले गए. मां प्यार से बेटे को केकी कहती थीं. आगे चलकर इसी नाम से वे दुनिया में जाने गए. बम्बई के पारसी समाज ने बहुत बुलाया. पूने के कलाकारों ने भरदम जोर लगाया कि वह पूना आ जाएं. पर हिन्दी के छायावादी कवि सुमित्रानंदन पन्त की तरह सौम्य चेहरे और घुंघराले बालों वाले इस लड़के ने अपनी मौत के दिन, यानि 31 दिसंबर 1989 तक, कभी चालीसगांव से बाहर कदम नहीं रखा. ठीक-ठीक वजह कोई नहीं जानता. पर मेरा दिल अटक जाता है. मैं उनके बंगले के पड़ोस में बसी दलित बस्ती में घूम-घूमकर पूछने लगता हूं. हमें बूढ़ा हो चूका विट्ठल मिलता है जो बीसियों बरस केकी मूस का खानसामा था. वहीं से कहानी के तार मिलने लगते हैं. केकी के मामा ने चालीसगांव रेलवे स्टेशन के परली तरफ एक छोटा सा बंगला बनवाया था. तीन कमरे, बड़ा हॉल और सामने लॉन. इन्हीं कमरों में केकी अपनी कूची और कैमरे से एक दुनिया रचते हैं. जिसे देखने भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु को दो बार आना पड़ता है. उसे नीम अंधेरे हॉल में खींची गयी युवा जयप्रकाश नारायण की फोटो, जिन्हें आगे चलकर लोगों ने जेपी के नाम से जाना, आज भी लटक रही है. अनोखा इंसान उनके बारे में किवंदंती है कि वे कभी अपने घर से बाहर नहीं निकले. इसमें जितना भी फैक्ट हो या फिक्शन, यह सत्य है कि लगभग 48 साल तक उन्होंने चालीसगांव से बाहर सिर्फ दो बार कदम रखा. एक बार मां की मृत्यु पर उन्हें औरंगाबाद जाना पड़ा. दूसरी बार जब वे अपने बंगले से निकलकर चालीसगांव रेलवे स्टेशन पर विनोबा भावे की तस्वीर लेने आये. यह तस्वीर कभी खींची नहीं जा सकी क्योंकि केकी की तरह ही जिद वाले विनोबा भावे ने कैमरे के लिए पोज करने से इनकार कर दिया. नेहरु ने अपने जलगांव शिड्यूल में उनसे मिलने के लिए 10 मिनट का समय रखा था. जब यह मुलाक़ात डेढ़ घंटे से ज्यादा खिंच गयी तो सेक्रेटरी ने नेहरु के हाथ में एक पुर्जा थमाया. केकी ठठाकर हंस पड़े. उन्होंने टेबलटॉप फोटोग्राफी के जरिये नेहरु की एक यादगार तस्वीर निकाली. कुछ स्थानों के बारे में नेहरु से हुई बातचीत के आधार पर जब केकी ने कैनवास पर अपनी कलाकृति उकेरी तो नेहरु यह मानने के लिए तैयार ही नहीं हुए कि केकी मूस ने उस स्थान को कभी देखा ही नही! कौन था केकी मूस केकी का जन्म 2 अक्टूबर 1912 को बाम्बे के मालाबार हिल्स में हुआ. उनकी मां बम्बई के बहुत समृद्ध पारसी परिवार से थीं. पिता माणिकजी फ्रामजी मूस एक मध्यवर्गीय पारसी परिवार से आते थे. 1920 के आसपास यह परिवार जलगांव के एक छोटे से कस्बे चालीसगांव जाकर बस गया. पिता ने बेटे को पढने के लिए बॉम्बे भेजा जहां विल्सन कॉलेज से वे कला में ग्रेजुएट हुए.   चालीसगांव में केकी मूस के पिता सोडा वाटर की फैक्टरी के साथ-साथ शराब की दुकान चलाते थे. बेटा कला की पढ़ाई करने विदेश जाना चाहता था. पर मां-बाप इकलौते बेटे को इतनी दूर भेजने के लिए तैयार नहीं हो रहे थे. 1934-35 में पिता की मौत के बाद मां पिरोजाबाई ने फैक्टरी की जिम्मेदारी अपने कंधे लेते हुए बेटे को इंग्लैण्ड जाने की इजाजत दे दी जिसके सिर पर कलाकार बनने का भूत सवार था. शेफील्ड के बेनेट कॉलेज के व्यवसायिक कला पाठ्यक्रम में दो साल की पढाई और ग्रेट ब्रिटेन की रॉयल फोटोग्राफिक सोसायटी के सदस्य की हैसियत से अमेरिका, रूस, स्विट्जरलैंड, चीन और जापान घूमते हुए यह सुन्दर और शांत युवक क्यों चालीसगांव का होकर रह गया इसके बारे में कई कहानियां किंवदंतियों की तरह सुनने को मिलती हैं. उनके मामा की कंपनी आर सी कांट्रेक्टर्स विक्टोरिया टर्मिनस (अब छत्रपति शिवाजी टर्मिनस) जैसा शाहकार बनाकर बहुत मशहूर हो चुकी थी. जिस ऐतिहासिक इमारत को आज मुम्बईकर फोर्ट के नाम से जानते हैं, उस पर काम चालू था. मामा चाहते थे लड़का काम में हाथ बंटाए. लड़के का मन नहीं लगा. उसे कला की सेवा करनी थी. कला का एकांत पुजारी केकी ने शुरुआत चित्रकला से की. दूसरे विश्वयुद्ध के समय आयल पेंटिंग बनाने वाला कागज़ विदेश से आना बंद हो गया. उन्होंने टिन पर पेंट करना शुरू किया और ‘लालची तेंदुआ’, ‘तूफ़ानी मौसम’, ‘जंगल’ ‘प्रकृति’ और ‘शेक्सपियर की कुटिया’ इत्यादि की रचना की. उसके बाद फोटोग्राफी की ओर उनका झुकाव हुआ. 1930 के जमाने में फोटोग्राफी जैसा काफी नया, खर्चीला और जोखिम भरा रहा होगा. अभी तक सारा मामला ब्लैक एंड व्हाईट में ही था – तकनीक से लेकर तस्वीर तक. अगर इसी में कैरियर बनाना था तो उसकी शर्त थी कि बम्बई में रहो या कम से कम पूने में रहो. पर लड़का वहां से 330 किलोमीटर दूर एक छोटे से कस्बे में रहना चुनता है. और वहीं से देश और दुनिया की सबसे नामी-गिरामी प्रतियोगिताओं में पुरस्कार जीतने का सिलसिला कायम करता है. उसके द्वारा कैमरे की रील पर दर्ज किये गए चेहरे, उनकी रेखाएं एक दिन देश के अखबारों में दिखते हैं. श्वेत-श्याम तस्वीरों के उस दौर में केकी मूस ने टेबल-टॉप फोटोग्राफी को विश्व-स्तर के मुकाम पर पहुंचा दिया. टेबलटॉप फोटोग्राफी में मुख्तलिफ मॉडल्स की जरूरत पूरा करने के लिए उन्होंने ओरिगामी (कागज़ मोड़कर आकर्षक आकार-प्राकार बनाने की जापानी कला) सीखी और 5,000 से ज्यादा कलाकृतियां बना डालीं. टेबलटॉप फोटोग्राफी की अपनी कला से उन्होंने तकरीबन 13,000 दुर्लभ तस्वीरें निकालीं. 1,000 से ज्यादा पेंटिंग्स और स्केचेज अब भी बंगले की दीवारों और आलमारियों में लटके पड़े हैं. लकड़ी पर आर्टवर्क में भी उन्होंने हाथ आजमाया और एक साढ़े हुए कलाकार की तरह सैकड़ों कलाकृतियां बनाईं. फोटोग्राफी और पेंटिंग्स के साथ-साथ उन्होंने मूर्तियां और कुछ अनोखे वाद्य-यंत्र भी बनाये. नूरजहां, जहांगीर, शेक्सपियर और उमर खैयाम को उनकी कूची ने अपने रंगों में ढाला. उनके छायाचित्र कल्पनाशीलता और सृजनात्मकता के अद्भुत उदाहरण हैं. ‘नेहरु का चित्र’ ‘हंसता हुआ जूता, ‘सुबह’, ‘स्प्लिट मिल्क’, ‘अकाल’ उनके प्रसिद्द फोटोग्राफ्स हैं. उनके चित्र ‘विंटर’ को असाधारण माना जाता है. बाबा आमटे, शंकरराव देव, साने गुरूजी, एन एच आप्टे, एन सी फड़के, बसंत देसाई की यादगार तस्वीरें उन्होंने निकालीं. भुला दी गयी प्रतिभा keki-moos_001केकी मूस आर्ट ट्रस्ट के सेक्रेटरी कमलाकर सामंत बताते हैं कि उन्होंने 300 से ज्यादा अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय पुरस्कार जीते. पर उनके जीते जी यह किसी को नहीं पता था. अपने नाम आने वाले लिफ़ाफ़े उन्होंने कभी खोले ही नहीं! वे प्रतियोगिताओं में वे अपना काम भेजते थे. पर उन्हें पुरस्कार भी मिले हैं यह तब पता चला जब उनके मरने के बाद अब तक बंद पड़े लिफाफों को खोला गया. इतने बड़े कलाकार पर किसी ने कोई शोध नहीं किया. किसी विश्वविद्यालय या आर्ट कॉलेज के छात्र/छात्रा ने कोई थीसिस नहीं लिखी! इन्टरनेट पर भी उनके बारे में लगभग न के बराबर सामग्री है. क्यों? नेहरु और जयप्रकाश नारायण को जो कलाकार दिख सकता है वह आगे आने वाली पीढ़ियों को क्यों नहीं दिखा? क्या इसलिए कि उसने गुमनामी का जीवन चुना? क्या हम सब सिर्फ चमक-दमक और पैकेजिंग की पीछे ही भागेंगे? हम अपनी प्रतिभाओं को, अपनी विरासत को कब पहचानेंगे! अस्मिताओं के इस दौर में एक कलाकार की अस्मिता को कैसे बचाया जाएगा? एक ऐसे दौर में जब धर्मगुरुओं से लेकर कलाकार तक ‘कमर्शियल पैकेजिंग’ में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा रहे हैं क्या हम केकी मूस को इसलिए भुला देंगे कि उनकी कोई ‘पैकेजिंग’ नहीं हुई. ‘ब्रांड इंडिया’ का झंडा लेकर घूमने वाले कला के इस फकीर को कब पहचानेंगे? केकी साईं बाबा के भक्त भी थे. बरबस मेरे मन में साईं बाबा ट्रस्ट और केकी मूस ट्रस्ट की तुलना दौड़ जाती है! कला के इस पुजारी ने अपने बंगले का नाम मशहूर डच चित्रकार रेम्ब्रा के नाम पर ‘रेम्ब्रा रिट्रीट’ रखा था. यह अपने आप में एक स्मारक हो सकता है. पर आज यह बंगला जर्जर हो चुका है. वैसे केकी की वसीयत के अनुसार एक ट्रस्ट इसकी देखभाल करती है पर संसाधनों का अभाव साफ़ दिख रहा है. 1983 में महाराष्ट्र साहित्य एवं संस्कृति बोर्ड ने केकी मूस पर ‘Keki Moos-Life and Still Life’ नाम से एक किताब निकाली थी जो अब विलुप्तप्राय है. सैकड़ों बहुमूल्य तस्वीरें, पेंटिंग्स रखरखाव में कमी के चलते ख़राब हो रही हैं. उनके नाम आयीं हजारों चिट्ठियां अब सड़ने लगी हैं. दीवारों पर सीलन और कलाकृतियों में दरारें पड़ रही हैं. ‘When I Shed My Tears’ नाम से उन्होंने अपनी आत्मकथा भी लिखी जिसे अब तक सूरज की रोशनी देखनी नसीब नहीं हुई है. उनके नाम पर ‘मेमोरियल’ बनाने की मांग अब तक सरकारी फाइलों में कहीं अटकी हुई है. अंतर्राष्ट्रीय स्तर की इस बहुमुखी प्रतिभा और महान कलाकार को क्या हम यूं ही भुला देंगे?