तय ये हुआ था कि ये घर से निकले हैं. सात बजे तक ऑल इंडिया रेडियो के केंद्र पहुंच जाएंगे. वहां उन्हें वेस्टर्न गानों के एक फरमाइशी प्रोग्राम In the Groove में हिस्सा लेना था. वहां से नौ बजे उनके पापा उनको वापस घर के लिए पिक कर लेते. 8 बजे प्रोग्राम आना था. घरवालों ने रेडियो खोला तो कोई और ही बोल रहा था. मां-बाप को लगा. शायद स्टेशन गलत है. या प्रोग्राम रद्द हो गया. पापा मदन मोहन नौ बजे ऑल इंडिया रेडियो पहुंचे. बच्चों को खोजा तो नहीं मिले. पता किया तो पता चला बच्चे तो रिकॉर्डिंग के लिए आए ही नहीं. मदन मोहन वापस घर पहुंचे. घर पर बीवी रोमा से पता लगा बच्चे तो घर भी नहीं आए. न ही उनका कोई फोन आया.
गाड़ी के नंबर में कन्फ्यूज रही पुलिस
वहीं पुलिस में पहले से ही एक मामला दर्ज हो चुका था. दो बच्चों के अपहरण का. दो लोग एक फिएट में बच्चों को जबरन ले जा रहे थे. पुलिस के पास जो पहली जानकारी आई, वो भगवान दास से. भगवान दास की बिजली के सामान की दुकान थी. वो बंगला साहब गुरूद्वारे से नॉर्थ एवेन्यू की ओर अपने स्कूटर से जा रहे थे. उन्होंने जो देखा वो शाम 6:45 के आस-पास नॉर्थ दिल्ली पुलिस के सेंट्रल कंट्रोल रूम में फोन कर बताया. उनके मुताबिक़ नींबू के कलर की एक फिएट गोल मार्केट चौराहे पर उनके पास से गुजरी. उसकी पिछली सीट में दो टीनएजर थे. जिसमें लड़की मदद के लिए चिल्ला रही थी. भगवान दास के बताए और फोन ऑपरेटर के लिखे अनुसार गाड़ी का नंबर था MRK 8930.उन्होंने गाड़ी रोकने की कोशिश की, एक दूसरा आदमी गाड़ी रोकने के लिए हैंडल से लटक गया, लेकिन गाड़ी नहीं रोक पाया. गाड़ी अब के राम मनोहर लोहिया अस्पताल की ओर भाग गई. इस जानकारी के बाद कंट्रोल रूम ने एक रूटीन सा वायरलेस सारी पेट्रोलिंग जीप्स के लिए भेज दिया.
उसी दिन राजिंदर नगर पुलिस थाने के ड्यूटी ऑफिसर हरभजन सिंह के पास एक ऐसी ही शिकायत और लिखाई गई. 23 साल के इन्दरजीत सिंह ने एक शिकायत दर्ज कराई थी. इन्दर DDA में जूनियर इंजीनियर थे. उन्होंने बताया शाम साढ़े छह बजे के करीब लोहिया अस्पताल के पास एक तेज रफ़्तार कार उनके स्कूटर के पास से गुजरी.
गाड़ी में दो लोग आगे बैठे हुए थे. एक लड़का और लड़की पिछली सीट पर थे और लड़की चीख रही थी. उन्होंने गाड़ी का पीछा किया. चौराहे पर कार धीमी हुई तो उन्होंने कार के पास जाकर पूछा "क्यों भाई, क्या हो रहा है?" अंदर का जो सीन दिखा. वो ये कि लड़का अपनी खून में भीगी शर्ट और कंधे की ओर इशारा कर रहा था और लड़की कार ड्राइवर के बाल खींच रही थी. ड्राइवर एक हाथ से कार चला रहा था. और दूसरे हाथ से लड़की को मार रहा था. शंकर रोड तक इन्दर ने गाड़ी का पीछा भी किया, तभी भीड़ बढ़ी. ड्राइवर ने गाड़ी दौड़ा दी और लाल बत्ती तोड़कर भाग गया. इन्दरजीत के मुताबिक़ कार मस्टर्ड के रंग की थी और उसका नंबर था HRK 8930.हरभजन सिंह और उस टाइम एसएचओ रहे गंगा स्वरूप ने इस शिकायत के बाद भी कोई एक्शन नहीं लिया. उनका कहना था क्योंकि ये मामला मंदिर मार्ग पुलिस स्टेशन का था और वो इलाका उनके कार्यक्षेत्र से बाहर का था तो वो कैसे एक्शन ले सकते हैं? एक्शन तभी लिया जा सकता था, जब मेरठ हाईकोर्ट कहे. वो तो इस मामले को किडनैपिंग मानने को भी तैयार नहीं थे. उनका मानना था ये कोई पर्सनल रिलेशनशिप की प्रॉब्लम रही होगी. बाद में इन दोनों अफसरों को सस्पेंड होना पड़ा था.
दूसरी तरफ इन सब बातों से अंजान नेवी ऑफिसर कैप्टन चोपड़ा अपने लेवल पर कोशिश कर रहे थे. अपने नेवी के कुछ साथियों की मदद ली और धौलाकुआं थाने में बच्चों के गुमने की रिपोर्ट लिखाई. रिपोर्ट के मुताबिक कैप्टन चोपड़ा ने रात के दस बजे पुलिस कंट्रोल रूम में कॉल करके बताया कि उनके बच्चे गुम गए हैं.पंद्रह मिनट बाद पुलिस की गाड़ी उनके घर पहुंची. जहां से कैप्टन चोपड़ा को लेकर हर उस जगह तलाश की गई. जहां बच्चे हो सकते हैं. दोस्तों के घर से लेकर अस्पतालों और रेस्टोरेंट तक. जब बच्चे नहीं मिले तो कैप्टन चोपड़ा ने शक जाहिर किया कि हो सकता है बच्चों को मारकर रिज में घने पेड़-पौधों के बीच फेंक दिया गया हो. रिज उस जगह के पास ही थी, जहां DDA के इंजीनियर इन्दरजीत ने कार को देखा था. उस वक़्त बच्चों का कॉम्बिंग ऑपरेशन साउथ दिल्ली के पुलिस कमिश्नर के.के. पॉल देख रहे थे. उन तक ये बात पहुंची.
संजय का बैग देखते हुए मदन मदन चोपड़ा और दूसरी फोटो में रोमा चोपड़ा
तब 30 से ज्यादा गाड़ियां, 140 पुलिसवाले और ढेरों नेवी के अफसर बच्चों को सारी दिल्ली में खोज रहे थे. अब सारी खोज रिज की ओर केन्द्रित हो गई. अंधेरे और बरसात ने उनका काम और मुश्किल कर दिया था. रात ढ़ाई बजे तक तलाश हुई लेकिन बच्चे नहीं मिले. फ्लेयर गन चलाकर उजाले में खोजने की कोशिश हुई. लेकिन कारतूस नहीं चले. गायब हुई गाड़ी और बच्चों की तलाश ने अगले कुछ दिनों में और विस्तार लिया. खोजने का काम पड़ोसी राज्यों में भी शुरू हो गया. सर्च पार्टियां आगरा, मथुरा और हरियाणा तक गईं. 28 अगस्त को पुलिस कमिश्नर जे.एन.चतुर्वेदी ने बच्चों या किडनैपर्स का सुराग देने वाले के लिए 2000 के ईनाम की घोषणा भी कर डाली. लेकिन बच्चों के गुमने के तीन दिन बाद तक उनका कहीं पता नहीं लग रहा था.
लेकिन सवाल ये था कि बच्चे और कार गई कहां?
पुलिस के पास कार का नंबर था. उस कार और कार के मालिक को खोजने के लिए पुलिस ने ट्रांसपोर्ट विभाग की मदद ली. उनके रिकॉर्ड से पता चला कि कार पानीपत में रहने वाले किसी रविंदर गुप्ता की है. पुलिस पानीपत पहुंची. उसे कार मिल गई. नंबर भी वही HRK 8930. लेकिन वो फिएट नहीं थी. उस गाड़ी ही हालत भी ऐसी नहीं थी कि वो दिल्ली तक पहुंच सके. पुलिस को समझ आ गया जिस गाड़ी को वो खोज रही है. उस पर फर्जी नंबर प्लेट लगी थी.29 अगस्त के दिन एक चरवाहे को रिज में घुमते हुए एक लड़की की लाश मिली. ये गीता की लाश थी जो सड़क से सिर्फ 5 मीटर की दूरी पर पड़ी थी. चरवाहे ने पुलिस को बताया. कंट्रोल रूम को मैसेज गया और पुलिस वाले वहां पहुंचे. तलाश हुई थी गीता से 50 मीटर की दूरी पर संजय की लाश भी झाड़ियों के बीच मिल गई. घरवालों ने शिनाख्त की. और माना कि यही गीता और संजय हैं. उनकी लाश अपने घर से लगभग चार किलोमीटर दूर मिली थी. संजय के पास अब भी सत्रह रुपये पड़े थे. गीता की उंगली में उसकी चांदी की अंगूठी पड़ी थी. जिसका मतलब ये लगाया गया कि किडनैपिंग लूट के इरादे से नहीं हुई थी.
एक पुलिस वाला उस जगह को दिखाता हुआ जहां संजय की लाश मिली. दूसरी फोटो में वो कार जिसमें बच्चों का किडनैप हुआ.
डेडबॉडीज सड़ना-गलना शुरू हो गईं थीं. पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में ये बात सामने आई कि उन पर कई घाव किए गए थे. कुछ तो नौ इंच गहरे. संजय 5 फुट 10 इंच का फ़ौजी बच्चा था. और बहुत अच्छा बॉक्सर भी था. उसने भरपूर विरोध किया था. उसकी देह पर 25 घाव थे. ज्यादातर सीधे हाथ पर. गीता की बॉडी पर छह घाव थे. उसके सीने, सिर और उल्टी हथेली पर. उसके गले पर भी चीरने का निशान था. पोस्टमॉर्टम में ये बात आई कि इनका मर्डर 26 अगस्त को ही 10 बजे रात हुआ था. अमृता बाजार पत्रिका को एक पुलिस वाले ने 29 अगस्त को बताया कि ऑटोप्सी रिपोर्ट के हिसाब से गीता का रेप नहीं हुआ था. आधिकारिक तौर पर भी डॉक्टर्स ये बताने की हालत में नहीं थे कि गीता के साथ रेप हुआ था या नहीं. पुलिस सर्जन भरत सिंह ने इसकी वजह बॉडी में शुरू हो चुके डीकंपोजीशन को बताया.
राज्यसभा में हंगामा और विदेश निकल गए मोरारजी
लोकसभा में उस दिन खूब हंगामा हुआ. शेम-शेम के नारे लगे. इस घटना को सबने चौंकाने वाला और दुखद बताया. अगले दिन लोकसभा और राज्यसभा में और ज्यादा हंगामा बढ़ा. राज्यसभा में प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के इस्तीफे की मांग की गई. लोगों का गुस्सा पुलिस को लेकर था. असर हुआ कि राजिंदर नगर थाने के अफसरों को बर्खास्त किया गया. दिल्ली के लोग गुस्से में थे और प्रधानमंत्री मोरारजी उस रात नैरोबी के लिए निकल गए. केन्या के राष्ट्रपति जोमो केन्यत्ता के फ्यूनरल में इंडिया को रिप्रेजेंट करने.31 अगस्त को किडनैपिंग में इस्तेमाल की गई कार जैसी एक कार मजलिस पार्क में पाई गई. नंबर था DHD 7034. इसी मॉडल की एक कार और गायब बताई जा रही थी लेकिन उसका नंबर था DEA 1221. पुलिस ने उसके मालिक अशोक शर्मा को बुलाया. कार अशोका होटल के सामने से चोरी गई थी. अशोक ने उसे चोरी के छह हफ्ते पहले ही खरीदा था. उन्होंने अपने पास पड़ी चाबियों से खोली तो गाड़ी खुल गई. स्टीरियो और स्पीकर गायब थे. पहली नजर में उसमें कुत्ते की चैन और कई ब्लेड्स मिलीं. दो नंबर प्लेट्स भी मिलीं जिसमें एक असली थी. कार की सफेद ग्रिल को बदल कर काला कर दिया गया था. बाद में फोरेंसिक वालों ने कार की खोज-खबर ली तो उससे सिगरेट के टुकड़े, बालों के गुच्छे और खून के ढाबे भी मिले. कार के मैट पर जो मिट्टी मिली वो उस रिज वाली जगह से मैच खाती थी जहां दोनों लाशें मिली थीं.
प्रोटेस्ट में वाजपेयी का सिर फूट गया
इसके बाद लोगों का गुस्सा और भड़क गया. छात्रों का हुजूम बोट क्लब पहुंचने लगा. कई छात्र पुलिस कमिश्नर के घर पहुंच गए और पुलिस के खिलाफ नारे लगाने लगे. लेकिन सबसे ज्यादा भीड़ बोट क्लब पर जीसस एंड मेरी कॉलेज की लड़कियों के प्रदर्शन में थी. कई और स्टूडेंट्स ग्रुप भी उनके सपोर्ट में आगे आ गए. तब एक्सटर्नल अफेयर्स देखने वाले मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी वहां पहुंचे और लड़कियों से बात करने लगे. तभी छात्रों का एक ग्रुप भड़का और पत्थरबाजी शुरू कर दी. पत्थर वाजपेयी को लगे और उनका कुर्ता खून में भीग गया. उनके माथे में बाईं तरफ चोट आई. हड्डी में अंदर घाव हुआ और पांच टांके आए. वाजपेयी उस दिन सिर में पट्टी बांधे लोकसभा पहुंचे. अगले दिन से सीबीआई ने क्राइम ब्रांच से मामले की जांच अपने हाथ में ले ली.अब सवाल उठ रहे थे कि बच्चों को मारा किसने. एक बात आई कि कुछ समय पहले नेवी की एक कमेटी ने कुछ सैनिकों को सजा सुनाई थी. वजह ये थी कि वो कुछ स्मगलर्स की हेल्प करते थे. मदन मोहन चोपड़ा भी उस कमेटी के अहम सदस्य थे. एक और बात थी कि कुछ दिन पहले ही गीता चोपड़ा का झगड़ा एक फौजी अफसर के बेटे से हुआ था. कहीं उसका हाथ तो नहीं था? लेकिन ये दोनों अंदाजे तुक्के ही निकले. क्योंकि मारने वाले कोई और थे.
रंगा और बिल्ला : मर्डर के पीछे का चेहरा
पुलिस वाले इस मामले के बाद सकपकाए थे. मीडिया में कोई कुछ बोल नहीं रहा था लेकिन खबर थी कि फिंगरप्रिंट्स और दूसरे फोरेंसिक सबूत इशारा कर रहे हैं कि इस केस में बिल्ला का हाथ है. बिल्ला मतलब जसबीर सिंह. इस मर्डर केस में उसका साथी था रंगा खुस जिसका असली नाम था कुलजीत सिंह. रंगा पहले ट्रक ड्राइवर हुआ करता था जो बाद में मुंबई में टैक्सी चलाने लगा था. उसे शाम सिंह नाम के आदमी ने बिल्ला से मिलवाया. ये कहकर कि ये जाना-माना क्रिमिनल है. और उसने दो अरब लोगों को मारा है. इसके पहले मुंबई में दोनों ने मिलकर रंगा की टैक्सी में एक बच्चे को किडनैप किया था. जिसे बाद में छोड़ दिया. बिल्ला इसके पहले थाणे जेल से भी भाग चुका था.
पकड़े भी गए तो अजीब तरीके से
8 सितंबर 1978 को जिस वक़्त ये पकडे गए, उस वक़्त कालका मेल में चढ़ रहे थे. इनके पीछे पुलिस किस कदर पड़ी थी, आप इससे अंदाजा लगा सकते हैं कि कहा जाता है. उस वक़्त रेलवे स्टेशन पर 100 से ज्यादा पुलिस वाले सादी वर्दी में खड़े थे.इनने गलती की, ये आर्मी वालों के लिए रिजर्व डिब्बे में चढ़ गए. दो सैनिकों ने इनसे सवाल जवाब किए तो ये भिड़ गए . आर्मी वालों ने इनको पीटा तब भी होशियारी दिखाई. खिलौना बंदूक दिखाकर डराने की कोशिश की. फिर कुछ पंजाबी सिपाहियों को देख बोले कि हम तो पंजाबी हैं लड़ क्यों रहे हैं? आपस में खुसफुसाए, मराठी में कह रहे थे कि फौज वालों की राइफल छुडा लो. लेकिन ये भी काम न आया कुछ फ़ौजी मराठा थे, उनने बात समझ ली.
वहीं लांस नायक ए.वी. शेट्टी थे. उनने नवयुग में इनकी तस्वीर देख रखी थी. अखबार उनके पास था. इन दोनों को पकड़ लिया गया. रस्सी से बांध दिया गया और पुलिस को दे दिया गया. पुलिस ने इनसे अलग-अलग पूछताछ की. इनकी दी जानकारी पर कई-कई जांचें हुईं. डीएनए सबूत जुटाए गए. सेशन कोर्ट ने मुकदमा चलने पर इन्हें फांसी की सजा दी. क्योंकि दोनों के पास कोई ऐसा सबूत नहीं था जो उनको निर्दोष दिखा सके या बचा सके. 26 नवंबर 1979 को हाईकोर्ट ने भी इस फैसले पर अपनी मुहर लगा दी.
रंगा ने बाद में एक रिट पिटीशन भी लगाईं कि इसके केस को फिर देखा जाए. सन 82 की बात है ये. सुप्रीम कोर्ट ने इसे टाल दिया. कहा गया कि कितनी भी दया दिखाई जाए. सजा-ए-मौत से कम तो कुछ न होगा.
ऐसा भी खुलासा हुआ था
क्योंकि इस केस में मीडिया का खूब ध्यान गया खूब चर्चाएं भी हुईं इसलिए केस के दौरान कई अजीब सी बातें भी हुईं. उनमें से एक ट्यूजडे पोस्ट का किस्सा है. अक्टूबर चल रहा था. रंगा-बिल्ला पकडे गए थे. अविनाश दुबे नाम का एक पब्लिशर और सुरिंदर वत्स नाम का एक एडिटर जो ट्यूजडे पोस्ट नाम से एक टैब्लॉयड निकाला करते थे. तीस हजारी कोर्ट में प्रकट हुए. अग्रिम जमानत मांगने. उनको लग रहा था कि दिल्ली पुलिस उनको पकड़ लेगी.उनका दावा था कि उन्हें पता है कि गीता और संजय को किसने मारा है. उनका कहना था ये दो वीआईपीज के बच्चे हैं. एक यूनियन कैबिनेट मिनिस्टर का बेटा है और एक सेना के बड़े अफसर का बेटा है. इनने बताया ट्यूजडे पोस्ट ने मुंबई की एक जासूसी एजेंसी की मदद ली, जिसका नाम पंडित डिटेक्टिव एजेंसी था. इन लोगों को दुबे ने 500 रुपये रोज़ की फीस भी दी थी. इनके मुताबिक़ बिल्ला को दो वीआईपी लोगों के बच्चों ने हायर किया था. बिल्ला गीता को किडनैप कर निश्चित जगह लाने वाला था, जहां ये दोनों मिलते.
इन दोनों को गीता से बदला लेना था, गीता ने उस मिनिस्टर के बेटे के प्रपोजल को ठुकरा दिया था. और सेना के अफसर के बेटे को भी किसी बदतमीजी के लिए थप्पड़ भी मारा था. इन लोगों ने कहा हमारे पास खून से सनी वो पैंट भी है जो सेना के अफसर के बेटे ने हत्या के वक़्त पहनी थी. साथ में कहा कि हमारे पास बिल्ला का टेप रिकॉर्ड भी है. गिरफ्तारी के पहले के इस टेप में उसने बताया था कि कैसे दिल्ली पुलिस ने उसे फंसाया था. ताकि असल गुनहगार न पकडे जा सकें. ये भी कहा कि हमने रंगा-बिल्ला को पकड़ने वाले जवानों में से एक जवान का भी इंटरव्यू लिया था. जिसमें उसने बताया कि उनको तो वो लोग अपने साथ मुंबई से साथ लाए थे.
इन लोगों ने आरोप लगाए कि पहले मंत्री ने उनको खरीदना चाहा. सबूतों के बदले 2 लाख भी देना चाहते थे. ऐसा नहीं हुआ तो क्राइम ब्रांच के जरिये उनके दफ्तर पर छापे डलवाने लगे. लेकिन बाद में ऐसे सवाल भी उठे कि मुश्किल से एक साल पुरानी ट्यूजडे पोस्ट कैसे हर दिन के पांच सौ रुपये जासूसों पर खर्च सकती है. साथ ही जहां तक पुलिस नहीं पहुंच सकी. इस एंगल ने भी पूरे केस में बहुत सनसनी मचाई लेकिन अंत में इसका खास असर पड़ा नहीं.
अंत में 31 जनवरी 1982 को दोनों को तिहाड़ जेल में फांसी दे दी गई. सरकार इंदिरा गांधी की आ चुकी थी. फांसी के वक़्त कई पत्रकार उनसे मिलना चाहते थे. उस पर भी हल्ला मचा. और अंत में कुछ पत्रकार उससे मिल भी पाए. इस बीच 1978 में बहादुर बच्चे बच्चियों के लिए ब्रेवरी अवार्ड लाई. जिसका नाम गीता और संजय चोपड़ा के नाम पर रखे गए. जो आज भी दिए जाते हैं.
वीडियो: