
अधीर रंजन चौधरी ने सीपीएम का गढ़ ढहाने में अहम भूमिका निभाई थी.
चौधरी के बारे में इंडिया टुडे मैगजीन ने डेढ़ दशक पहले एक रपट की थी. उन्हें प्रिंस ऑफ मुर्शिदाबाद बताया था. एक किस्सा भी बयान था. 1991 के चुनाव की काउंटिंग का. पहली बार के कैंडिडेट अधीर, सत्तारूढ़ पार्टी सीपीएम के कैंडिडेट को बढ़िया टक्कर दे रहे थे. वोटिंग वाले दिन वो क्षेत्र में घूम रहे थे. तभी सीपीएम के सैकड़ों समर्थकों ने उन्हें घेर लिया. बंदूक के दम पर घंटों बंधक बनाए रहे. नतीजे आए तो अधीर करीबी अंतर से हारे थे. मगर इलाके में उनके लिए सहानुभूति हो गई. वो जगह-जगह लेफ्ट की दबंगई के खिलाफ उन्हीं के ढंग में मोर्चा लेने लगे. अगले विधानसभा चुनाव में वह जीते. 20 हजार से ज्यादा के अंतर से. और फिर सिलसिला चल निकला. मुर्शिदाबाद से पांच साल के भीतर उन्होंने लेफ्ट को निकाल फेंका. उत्तरी बंगाल में मालदा और मुर्शिदाबाद कांग्रेस के गढ़ माने जाने लगे.
उधर ममता बनर्जी कांग्रेस से निकल तृणमूल कांग्रेस बना चुकी थीं. कांग्रेस ने उनके मुकाबले अधीर को लगातार आगे किया. 2012 में जब ममता ने कांग्रेस से नाता तोड़ा तो सबसे पहले सोनिया गांधी ने अधीर को रेलवे विभाग में राज्यमंत्री बनाया. और फिर लोकसभा चुनाव से कुछ महीने पहले कांग्रेस का प्रदेश अध्यक्ष.

अधीर लोकसभा में भी मुखर रहते हैं. (फोटो- लोकसभा)
ममता ने इन चुनावों में भी कांग्रेस को खूब आंखें तरेरी हैं. अब अधीर और भी ऊंचे पद पर हैं. कांग्रेस के लिहाज से. मगर कांग्रेस ऊंची नहीं, नीची हो गई है. नेता प्रतिपक्ष के पद लायक भी नहीं रही. लगातार दूसरी बार. 2014 में 44 सीटें पाई थी. इस बार 52 पर घिसट पहुंच पाई. जबकि नेता प्रतिपक्ष के पद के लिए कम से कम 55 चाहिए.
तीन फैक्टर अधीर के बनने का.
1 राहुल गांधी. कांग्रेस अध्यक्ष का पद छोड़ा. तो खबर चली, लोकसभा में नेता बनेंगे. लंदन से छुट्टी से लौटे. 17 जून को वायनाड सांसद की शपथ ली. मगर 18 जून को नेता चुनने की मीटिंग से पहले ही साफ कर दिया था. मैं इच्छुक नहीं. तब नाम चले. शुरुआती दौर में पंजाब के आनंदपुर साहिब से सांसद और कैप्टन अमरिंदर खेमे के मनीष तिवारी का. फिर केरल से के सुरेश और शशि थरूर का.

अधीर रंजन चौधरी की राहुल गांधी से काफी नज़दीकी रही है.
2 पिछली लोकसभा में कांग्रेस के नेता थे मल्लिकार्जुन खडगे. इस दफा वह गुलबर्गा से लोकसभा चुनाव हार गए. पूर्व कांग्रेसी और अब भाजपा नेता उमेश जाधव से. लगातार 11 चुनाव जीतने के बाद. 9 विधानसभा के और दो लोकसभा के. अब जब सांसद ही नहीं तो काहे के नेता लोकसभा में.
3 एक्सपीरियंस. सोनिया गांधी और अधीर 1999 में पहली दफा लोकसभा पहुंचे थे. तबसे लगातार पहुंच रहे हैं. उनके तेवर लड़ाकू रहे हैं. और उसका पहला परिचय उन्होंने नेता बनते ही दिया. पीएम के पक्ष विपक्ष और निष्पक्ष पर चौधरी बोले, अगर पीएम का बयान उनके मंत्री और नेता मानते हैं, तो सबको फायदा होगा. पीएम जो बात कह रहे हैं, उसे उनके ही पार्टी नेता अकसर नहीं मानते.
और अंत में

1977 में जब पश्चिम बंगाल में ज्योति बसु की सरकार आई तो नक्सलियों को आम माफी मिली. अधीर रंजन चौधरी भी उनमें से एक थे.
अधीर रंजन नक्सलबाड़ी आंदोलन को सपोर्ट करते थे. इमरजेंसी के दौर में वो मीसा के तहत जेल में बंद थे. 1977 में राज्य में ज्योति बसु की सरकार आई तो सैकड़ों नक्सलियों को आम माफी दी गई. अधीर भी उनमें से एक थे. राजीव गांधी के दौर में वह कांग्रेस में शामिल हुए थे. अब राहुल के दौर में इस पद पर पहुंचे.
थावरचंद गहलोत के किस्से, जिन्होंने राज्य सभा में अरुण जेटली को रिप्लेस किया है