हान्स क्रिस्चियन एंडरसन की एक कहानी है, “दी लिटिल मरमेड”. अपनी युवावस्था के दिनों में एक लड़की ने इस कहानी को पढ़ा. कहानी का अंत बड़ा दुखद था, क्योंकि प्रिंस उस लड़की से शादी नहीं कर पाया था, जिससे वो प्रेम करता था. क्योंकि वो लड़की एक जलपरी थी. कहानी खत्म करते ही, वो लड़की घर से बाहर भागी. और घर के चक्कर लगाती रही. उसने तब तक चक्कर लगाए, जब तक उसने कहानी की एक हैप्पी एंडिंग न सोच ली. वो लड़की ये बात जानती थी कि दुनिया कभी कहानी का वो अंत नहीं जान पाएगी, जिसकी कल्पना उसने की.
एलिस मुनरो: खून बेचकर पढ़ती रहीं, कहानी लिखी तो नोबेल मिल गया
मुनरो ने अपने जीवन में हर किसी के लिए लिखा - जिसने अफसोस की तेज धार को रोजमर्रा के दर्द में बदल लिया है. जो प्यार से इतना दूर रहा, कि उसके होने की गुंजाइश उसे हैरान कर देती है. 13 मई 2024 को उनका निधन हो गया.
लेकिन ये उस लड़की की कहानी लिखने की शुरुआत थी. बीज पड़ चुके थे और ये लड़की कुछ दशकों बाद पहले बुकर और बाद में साहित्य का नोबेल पुरस्कार जीतने वाली थी. ये एलिस मुनरो की कहानी है. जिनका गत 13 मई को 92 वर्ष की उम्र में निधन हो गया. वे लम्बे समय से बीमार थीं.
एलिस मुनरो. पूरा नाम एलिस लेडलॉ मुनरो. कनाडा के ओंटारियो में 10 जुलाई 1931 को जन्मीं एलिस बीस साल की उम्र से कहानियां लिख रही थीं, लेकिन जब उनकी कहानियों की पहली किताब छपी, तब तक उनकी उम्र सैंतीस साल हो चुकी थी. 1968 में प्रकाशित उनकी पहली किताब 'डांस ऑफ द हैप्पी शेड्स' को कनाडा में“गवर्नर जनरल” अवॉर्ड - कनाडा का सबसे बड़ा साहित्यिक पुरस्कार मिला.
जब वे पुरस्कार लेने गईं, तो अखबारों में साथी लेखकों ने ताना कसा, 'उनका व्यवहार किसी शर्मीली गृहिणी की तरह था.' मुनरो इस तरह की छींटाकशी से पहले भी दोचार हो चुकी थीं. 1961 में जब वे लगभग 30 बरस की थीं, और अपनी छोटी कहानियों से कुछ सफलता पा चुकी थीं. तब एक अखबार, ‘वैंकूवर सन’ में छपी एक खबर की हेडलाइन थी,
“हाउसवाइफ फाइंड्स टाइम टू राइट स्टोरीज़.''
माने एक हाउसवाइफ ने वक्त निकालकर कहानियां लिखीं. किसी को भी इस तरह की बातें चुभ सकती हैं. लेकिन, एलिस मुनरो ने अपने लम्बे सुशोभित करिअर के दौरान इस तरह कटाक्ष को कभी तरजीह नहीं दी. उन्होंने एक बार खुद कहा था, “एक मां, एक बेटी और एक औसत बीवी होने के चलते ही वो लिख पाईं.”
लिख पाने को आप यूं न समझिए कि उन्होंने किसी तरह एक-दो किताबें लिखीं. मुनरो के जीवनकाल में उनकी कहानियों के तेरह संग्रह प्रकाशित हुए. उन्होंने “लाइव्स ऑफ़ गर्ल्स एन्ड वीमेन” शीर्षक से एक उपन्यास भी लिखा. इसके अतिरिक्त उनकी चुनिन्दा कहानियों के दो संग्रह भी प्रकाशित हुए. साल 2012 में उनकी आखिरी किताब छपी, “डियर लाइफ”.
जब मुनरो कॉलेज पढ़ने गईं. तो इस दौरान पैसे कम थे. पिता एक फॉक्स फार्मर थे. वो एक किस्म की लोमड़ियां पालते थे, उनकी खाल उतारकर बेचते थे. मां एक स्कूलटीचर थीं. कॉलेज की फीस तो जैसे तैसे वजीफे से निकल जाती थी. लेकिन, अपना बाकी खर्चा उठाने के लिए मुनरो को बहुत संघर्ष करना पड़ा. दी गार्डियन को दिए एक इंटरव्यू में मुनरो बताती हैं कि उन्होंने इस दौरान तम्बाकू बीना, लाइब्रेरी में काम किया और अपना खून तक बेचा.
हालांकि इसके बाद भी उनके जीवन की मुश्किलें कम नहीं हुईं. 29 बरस की उम्र में उनके मानसिक अवसाद ने घेर लिया, वे एक वाक्य भी नहीं लिख पा रही थीं. उस दौर के बारे में मुनरो बताती है,
“घुटन की यह भावना देह के लक्षणों में जाहिर हुई: मैं सांस नहीं ले पा रहीं थीं. मुझे लगता था, मुझे ट्रैंक्विलाइज़र लेना होगा." लगभग दो वर्षों तक,मैं एक वाक्य का कुछ हिस्सा लिखती थी और फिर रुक जाती थी. मैंने आशा खो दी थी, खुद पर विश्वास खो दिया था. शायद यह कुछ ऐसा था जिससे मुझे गुजरना ही था.”
2013 में जब एलिस मुनरो को नोबेल पुरस्कार देने की घोषणा हुई, तब लेखक गीत चतुर्वेदी ने लिखा,
यह तथ्य है कि दुनिया में कहानियों या जिन्हें अंग्रेज़ी में शॉर्ट स्टोरी कहा जाता है, को ज़्यादा वज़न नहीं मिलता. हर कहानीकार से उपन्यासकार हो जाने की उम्मीद की जाती है. चेखव के बाद कहानी-कला का लगभग अवसान मान लिया गया. उसके बाद भी कहानी में काफी काम होता रहा. मुनरो नोबेल के इतिहास की पहली लेखक हैं, जिन्हें शुद्ध तौर पर कहानी या शॉर्ट स्टोरी के लिए यह पुरस्कार दिया गया है. इससे पहले इवान बूनिन को 1933 में नोबेल मिला था, पर बूनिन ने कई उपन्यास भी लिखे थे. मारखेज़ को पुरस्कार देते समय उनकी कहानियों को भी रेखांकित किया गया था, लेकिन हम सभी जानते हैं कि मारखेज़ की बसाहट उनके उपन्यासों में ही है.
मुनरो ने अपने जीवन में हर किसी के लिए लिखा - जिसने अफसोस की तेज धार को रोजमर्रा के दर्द में बदल लिया है. जो प्यार से इतना दूर रहा, कि उसके होने की गुंजाइश उसे हैरान कर देती है.
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